सोमवार, 26 दिसंबर 2016

माँ बाप की कठोर उदारता भी प्रेम ही है

जिनका शिक्षा जगत से प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता वे आम तौर पर बच्चों के बारे में जो भी जानते हैं वह अपने बचपन, परिवार के अन्य बच्चों की आदतों, आकांक्षाओं तथा बालपन के कुछ आधारभूत लक्षणों और साम्यताओं का ही विस्तार होता है।

ऐसे लोग बच्चों के भविष्य और उनकी आज़ादी के विषय में अक्सर साहित्यिक तर्क दिया करते हैं। इन लोगों के संस्मरण या कहानियां ध्यान से पढ़ी जाएँ तो वे अक्सर निरी वैयक्तिक निकलती हैं। हद तब होती है जब उनमें मॉडरनिज्म(आधुनिकता) और सेक्सुअलिटी(यौनिकता) का मर्दवादी प्रयोग हिंग्लिश की कैप लगाकर प्रकट होता है। पिछले दो दशक की बच्चों संबंधी कथित हिंदी कविताएं और कहानियां पढ़ें तो वे तो गंभीर रूप से बीमार ही दिखाई देती हैं; रचनाकारों के भी दिवालियेपन का पुख्ता सबूत देती हैं। ईदगाह(प्रेमचंद) हो या अमर घर चल(प्रकाश कांत) या नेताजी का चश्मा(स्वयं प्रकाश) या दुश्मन मेमना(ओमा शर्मा) जिस सामाजिकता से पैदा होती हैं उन्हें अब तारे ज़मीन पर से तौले जाने का सिनेमाई वक़्त है।

अभिभावकों के बारे में अधिकांश साहित्यिक, मीडिया वीरों और कार्पोरेट शिक्षा विशेषज्ञों एवं सामाजिक सुधारों के प्रति झुकाव के कदाचित व्यस्त बुद्धिजीवियों में कभी-कभी एक सी फैसलाकुन रुग्णता दिखाई देती है। इसके बारे में कभी विस्तार से बात होगी।

फ़िलहाल इतना ही कहना है कि किताबों से निबाह, बच्चों से निबाह में आरोपित कर देना निरी नादानी है। हो सकता है कुछ बाल मनोविज्ञान की किताबें या उपन्यास या कहानी बच्चों के साथ जिए गए प्रामाणिक अनुभवों पर केंद्रित होने के कारण आजमाये जा सकते हों लेकिन इनके प्रत्यक्ष अनुप्रयोग वैसे ही होते हैं जैसे आप अपने बच्चे के आकार-प्रकार को याद कर बिना दर्ज़ी के पास ले गए कपड़े सिलवा लाएं।

एक खूबसूरत सा रिश्ता होता है कि कभी बच्चे को मां बाप अधिक समझते हैं तो कभी उनके शिक्षक। इस समझने में और पारस्परिक सहयोग में उतना ही सुन्दर सामंजस्य होना चाहिए। किन्ही कारणों से जब इस बिंदु पर टकराव होते हैं तब बच्चे को तनाव का सामना करना पड़ता है। उसमें अप्रत्याशित टूट फूट होती है। हाल ही में आई फ़िल्म दंगल में आप देखेंगे पहलवान पिता से एक ज़बरदस्त चूक होती है। वह मोह में कोच से जो कह बैठता है उसका भाव है- बच्ची में खूबी है। ध्यान रखने से बढ़िया करेगी। फिर जो होता है उसमें साफ़ साफ़ बहुत कुछ देखा जा सकता है बशर्ते जानबूझकर टू डी फ़िल्म में थ्रीडी चश्मा न पहन लिया जाये।

जिन्होंने एक साथ कई बच्चों को 12 वर्ष की उम्र से लेकर 18 वर्ष तक धीरे-धीरे बढ़ते, विकसित होते और बदलते देखा हो, हो सकता वे कुछ रेडीमेड विशेषज्ञों, भाषा में क्राफ्ट कुशल लोगों के आगे फीके लगें। नकली चीजें अधिक चमकदार होती ही हैं। और इस दौर में तो अति आत्मविश्वास, वाचाल विमर्श अच्छी टीआरपी के लिए साधा ही जाता है इसमें दो राय नहीं। लेकिन यदि इन विमर्शकारों से थोड़ी देर बात की जायेगी तो वे ऐसे ही हकलायेंगे जैसे तैराकी की किताब पढ़कर पानी में कूद गया शख्स पानी पी जाने के कारण ठीक से साँस नहीं ले पाता, डूबता उतराता है।

माँ बाप को प्रथम दृष्टया ही तानाशाह, सामंतवादी मातृ सत्ता या पितृ सत्ता का प्रतिनिधि आदि समझ लेनेवाले व्याकुल कथित मौलिक, दूर की कौड़ी लानेवाले विमर्शकारों से एक आग्रह ही काफ़ी है। साहब, एक हज़ार बच्चों से पूछ लीजिये- आप क्या बनना चाहते हैं? बच्चा चाहे जो बनना चाहता हो वह अपने माँ बाप के सपने ज़रूर पूरा करना चाहता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बच्चे माँ बाप के सपने ही जीना चाहते हैं। वे बच्चे और जिन्हें अपने माँ बाप से पर्याप्त आज़ादी और सुविधा मिली होती हैं। प्रभु जोशी या रंगनाथ सिंह जैसे गंभीर अपवाद नाम छोड़ दें तो इन्हीं बौद्धिकों के यहाँ हाल ही में करीना पुत्र के तैमूर नामकरण में न सेलिब्रेटी मैनेजमेंट न ही पितृ सत्ता दिखाई देती है। तब वे बड़ी आप्त वचनीय मुद्रा में कूल रहने के लिये जुमला फेंकते हैं।

बिना समुचित निरीक्षण के किसी बच्चे को बेशर्त, अनुशासनहीन और जवाबदेही रहित स्वायत्त चुनाव की आज़ादी देने की वकालत करना दरअसल भीषण प्रकार की अज्ञानता है। 18 वर्ष से पूर्व ही बच्चे के चुनाव पर अंध यक़ीन अक्सर तब परिलक्षित होता है जब बच्चा पड़ोस का हो। योग्य और सक्षम पिता की जगह कोई प्रशिक्षक ले सकता है इसके बारे में तर्क जुटाना और उसे किसी सामाजिक सत्ता संबंधी समस्या से नत्थी करना ख़ास तरह की बौद्धिक महत्वाकांक्षा से अधिक नहीं।

यह परखा हुआ और प्रमाणित तथ्य है कि बच्चे परंपरागत, पैतृक पेशे में अधिक सर्वाइव करते हैं। कुछ विशिष्ट बच्चे जो किसी स्वतन्त्र क्षेत्र में खुद को प्रमाणित और स्थापित करते हैं उनके लिए प्रकृति के विशेष नियमो के तहत कई बार किसी गुरु की भी आवश्यकता नहीं होती। वे अपने गुरु या तो खुद होते हैं या अपना गुरु स्वयं खोज लेते हैं।

एक उदाहरण अवश्य देना चाहूंगा। महात्मा गांधी द्वारा बचपन में अपने पिता के पांव दबाने का ज़िक्र मिलता है। महात्मा गांधी जब पढ़ने सात समुन्दर पार जा रहे थे तब उनकी मां पुतली बाई ने मोहनदास को शपथ दिलवाई थी। मांसाहार नहीं करोगे और शराब नहीं पियोगे। गांधी इस प्रतिज्ञा के साथ ही यह भी कभी नहीं भूले कि वे विवाहित हैं। उनकी पत्नी भारत में है। जबकि उनके अन्य मित्र पाश्चात्य स्वच्छंदता को भरपूर अपना कर प्रेम संबंध आदि विकसित करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचा रहे थे। एक बार युवकोचित झूठ से जन्मा प्रेम का अवसर आया भी तो गांधी जी अपने विवाहित होने के सच से ही उस सम्बन्ध से सम्मानजनक ढंग से न केवल निकले बल्कि युवती और उसकी माँ की नज़रों में हमेशा के लिए गिर जाने से बचे। गांधी जी चिट्ठी लिख स्थिति स्पष्ट करते हुए क्षमा मांगी।

अब यदि किसी को लगता है कि बच्चों को बेशर्त, निर्बंध, अनुशासनहीन आज़ादी देकर वह गांधी या अन्य महापुरुषों, महास्त्रियों से बेहतर भविष्य दे सकता है तो भारत में उसका स्वागत कौन नहीं करना चाहेगा? लेकिन क्या यह संभव है? भारत जैसे देश में क्या मां बाप इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि अपना बच्चा सब कुछ ठीक ठाक करता रह पाएगा?

दुनिया में किसी बच्चे के लिए माँ बाप की कठोर उदारता से बड़ी जरूरत नहीं होती। इसका महत्त्व प्रेम से न कम है न अधिक। पितृसत्ता हो या मातृ सत्ता बच्चे समय आने, परिपक्व होने पर ही अपने लिए सही निर्णय कर पाते हैं। उससे पहले बच्चों की तरफ़ से महज दृष्टा हो जानेवाले माँ बाप से समाज को शायद ही कोई बड़ी इंसानियत या शख्सियत मिले। हरियाणा की गीता फोगाट हो या मणिपुर की मेरी कॉम अलग अलग सामाजिक सत्ता से सम्बन्ध रखने के बावजूद इनके लिए जितने सख्त अनुशासन होते हैं उतने ही उदात्त समर्थन भी।

शशिभूषण

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