रविवार, 27 मार्च 2011

आइए एक साधारण आदमी की नज़र से कमला प्रसाद को देखें

कमला प्रसाद जी के बारे में सोचने-लिखने और याद करने लायक मेरे पास बहुत है। यही वजह होगी कि मैंने जबसे उनके चले जाने की खबर सुनी है उनसे जुड़े अनेक भावों और स्मृतियों से भरा हूँ। लेकिन उबर पाने के लिए ही सही लिख कुछ भी नहीं पा रहा हूँ। दो दिन बाद आज थोड़ा तटस्थ हुआ हूँ तो कमला प्रसाद के बारे में एक साधारण इंसान के नज़रिए से कुछ साझा करना चाहता हूँ। कृपया इसे किसी साहित्यिक रचना की तरह न देखें। यह केवल एक याद है। यह वैसी ही याद है जैसे जब कमला प्रसाद जी के निधन की खबर रेडियो पर प्रसारित हुई तो गाँव में भाभी और माँ को मेरी याद आई। उन्होंने सोचा कि कमला प्रसाद पाण्डेय गुज़र गए हैं तो यह मुझे इतनी दूर तमिलनाडु में पता है कि नहीं। हो सकता है इसी बहाने उन्होंने मुझे याद किया हो कि मैं कैसे गाँव के घर में रहकर इन सब भोपाल,दिल्ली के साहित्यकारों के ही गुन गाता रहता था। आप यकीन मानिए यह मेरे कहानीकार मन की कमजोरी भी है कि किसी बड़े से बड़े आदमी को आम शख्स की निगाह से पहले देखो। विचार करो की वह लोगों की स्मृति में कैसा है। क्योंकि समय बड़ा अजीब हो चला है टीवी और अखबारों से भी पता नहीं चलता कि आम आदमी क्या सोच रहा है। एक साहित्यकार की छोड़ दें तो सब पहले रसूखदारों की सुनते हैं। मीडिया का छोटे से छोटा आदमी भी यदि आप कुछ नहीं हैं तो भाव नहीं देता।

मैं बीएससी करने के बाद जब अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सन् 2000 में एमए करने गया तो कमला प्रसाद 1998 में ही सेवानिवृत्त होकर भोपाल बस चुके थे। विभाग में पढ़ाने के लिए एकमात्र ढंग के अध्यापक आज के चर्चित कवि दिनेश कुशवाह थे। वे कहा करते मुझे कमला प्रसाद ही इस विभाग में लाए। मैं उनके साथ रहूँ तो रगों में नया खून आ जाता है। मन में दुगुनी ताक़त भर जाती है। मैं दिनेश कुशवाह की प्रेरणा से गणित छोड़कर हिंदी में आ गया था। कौशल प्रसाद मिश्र विभागाध्यक्ष थे। उन्हें इसी रूप में रीवा में जाना और माना जाता था। वे कमला प्रसाद के मनसा विरोधी थे और तब के म.प्र. के विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी जी के बड़े कृपापात्र थे। डाक्टर बारेलाल जैन संविदा व्याख्याता थे। उन्हें कमला प्रसाद ने 1994 में रिसर्च एसोसिएट के रूप में नियुक्त किया था। वे आज भी वैसे ही कभी संविदा तो कभी अतिथि विद्वान के नामों से टेंपोरेरी सेवाएँ दे रहे हैं। इन सबके मुह से मैं कमला प्रसाद के किस्से आए दिन सुनता रहता। सब संस्मरणों में कमला प्रसाद की बड़ी बड़ाई होती। उनके कद और काम के प्रति नमन होता। इन सबने कमला प्रसाद के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा भर दी थी। लेकिन मुझे वास्तविक संतोष तब मिला जब विभाग के ही चपरासी अशोक तिवारी से बतियाने की लत लग गई।

अशोक तिवारी बड़े विनम्र और सहृदय इंसान थे। उनमें ब्राह्मण होने के बावजूद अपनी नौकरी को लेकर कोई हीन भावना नहीं थी। बल्कि कभी कभार हमारे हाथ से भी गिलास,कप,प्लेट जबरन धोने के लिए छीन लेते यह कहकर कि यह मेरी ड्यूटी है। मुझे बुरा तब मानना चाहिए जब विभाग के बाहर कोई मुझसे यह काम करवाए। तनख्वाह लेता हूँ तो कैसी शर्म ? अशोक जी ने अपनी सादगी और शुभकामनाओं से धीरे धीरे मेरे मन में जगह बना ली। मैं खाली पीर्यड में विभाग के सामने पत्थर पर बैठा होता तो उनके पास चला जाता। वे दबी ज़बान में मन की बातें बोला करते।

शुरुआत ऐसे होती-“आपको यकीन नहीं होगा यह विभाग क्या था जब पाण्डेय जी अध्यक्ष थे। मैं विभाग का ताला बाद में खोलता दरवाजे पर सूटकेस लिए लोग पहले खड़े मिलते। पूछने पर बताते दिल्ली,भोपाल,बनारस आदि जाने किन किन जगहों से आए हैं। जब समय होता और कार्यक्रम शुरू होते तब पता लगता कि सुबह यूँ ही कमला जी का इंताज़ार कर रहे व्यक्ति कितने बड़े साहित्यकार हैं। दूसरे विभागों से भी लोग जुट आते।” अशोक तिवारी आगे बताते “कमला प्रसाद जी को जब विभाग मिला था तो यह भवन नहीं था। रसायन विभाग में एक कुर्सी टेबल दो आलमारी और कुछ विद्यार्थी ही थे। वहीं कक्षाएँ चलती। बाद में धीरे धीरे उन्हीं के प्रयासों से यह भवन बना। एम फिल की कक्षा शुरू हुई और इतनी विशाल लाइब्रेरी बनी। और केंद्रीय पुस्तकालय के सामने विशाल अंतर्भारती की स्थापना हुई जिसमें आज कबूतर बोलते हैं और विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं में जो प्रेमी हैं उनके लिए खंडहर का काम करता है। क्या तो कुलपति और क्या तो रजिस्ट्रार सब कमला जी की मानते थे। उनके पीछे पीछे कमला जी को किसी न नहीं देखा। बड़े स्वाभिमानी इंसान थे। अपनी गरिमा हरदम बचाकर रखते।

कमला जी भले कहीं जा रहे हों या कहीं से आये हों पर यदि आफिस बंद होने का समय नहीं हुआ है तो क्लास ज़रूर पढ़ाते। ये दिनेश कुशवाहा जी भी तब कितना काम करते थे और कमला जी के लिए एक पैर पर खड़े रहते। यह जो आज आप अध्यक्ष के कमरे में तंबाकू की गंध और पान की पीक देखते हैं उसी कुर्सी में बैठे हुए कमला जी एक से एक साहित्यिक चर्चाएँ करते। कमला जी के जाने के बाद रमाकांत श्रीवास्तव जी भी बर्दाश्त नहीं कर पाए और इस्तीफ़ा देकर चले गए खैरागढ़।”

अशोक तिवारी के भीतर जैसे आत्मीयता और सम्मान की झिर थी। वे कमला प्रसाद के बारे में बोलते नही थकते थे। रोज़ नया और ताज़ा पानी। उनके पास कृतज्ञता के कुछ निजी किस्से भी थे। जिसमें दो का अक्सर ज़िक्र करते। पहले किस्से में वे बताते “मैंने बेटी की शादी की तो कमला जी को निमंत्रण दिया। मौके पर तो नहीं पहुँच पाए पाण्डेयय जी लेकिन बाद में एक दिन पहुँच ही गए। नहीं पहुँच पाने का सच्चा अफसोस जाहिर किया। व्यवहार दिया।” यह बताते हुए अशोक भावुक हो जाते “बताइए कहां हम और कहाँ इतने बड़े पाण्डेय जी।कितने व्यस्त रहने वाले इंसान। पर उतने ही स्नेही। उतना ही याद रखनेवाले। कोई ऐसे ही इतना सम्मान नहीं पाता। जनता सबसे बड़ी अदालत होती है।कमला जी की निंदा करनेवाले कुंठित हैं।”

दूसरा किस्सा जब अशोक तिवारी बताते तो यह ज़रूर कहते “हो सकता है मैं यह आपको बता चुका होऊँ पर मैं इसे कभी भूलता नही हूँ। पाण्डेय जी दूसरे के अन्न-जल का बराबर ध्यान रखनेवाले अधिकारी थे। हमेशा सबकी मर्यादा और सम्मान का खयाल रखते। वे ऐसे नहीं होते तो मेरी नौकरी कब की जा चुकी होती।”

वाकया यह था-एक दिन कमला प्रसाद जी ने अशोक तिवारी को वि.वि. में ही स्थित इलाहाबाद बैंक में जमा करने के लिए पचास हज़ार रुपये का चेक दिया।वे चेक लेकर बैंक पहुँचे। वहां भीड़ थी तो किसी ने प्रस्ताव रखा कि चलिए पान खा लेते हैं। अशोक पान खाने पहुँच गए। पान लगानेवाला काफ़ी मजाकिया इंसान था। और क्या पता दुष्ट ही रहा हो। उसने अशोक से कहा कि दिखाइए उसे जिस काम की वजह से इतनी जल्दी में हैं। अशोक ने उसे देखने के लिए चेक दे दिया। पानवाले के हाथ में चेक आया तो उसने नया मज़ाक शुरू कर दिया कि इसे पान की तरह कैंची से काट दिया जाय तो क्या हो ? अशोक ने कातर होकर कहा लाओ चेक रोजी काट दोगे क्या? पर वह जाने किस रौ में था कैंची चला दी। चेक बीच से दो टुकड़े।

अशोक यहां पहुँचकर जरा देर साँस खींचते। “मुझे चीरो तो खून नहीं। वहाँ खड़े लोग भी भौचक्के रह गए। पर क्या करता। चेक के दोनों टुकड़े लिए जैसे अपनी नौकरी की लाश हो विभाग की ओर चला। पाँव नहीं बढ़ रहे थे। लेकिन पाण्डेय जी का सामना करने से बचने का भी कोई उपाय नहीं था। विभाग पहुँचा तो कमला प्रसाद जी मेरा ही रास्ता देख रहे थे। बोले विभाग बंद करो कहाँ रह गए थे इतनी देर तक? मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए सर,बहुत बड़ी गलती हो गई। पता नहीं अब मेरा क्या होगा? अब सबकुछ आपके ही हाथ में है। कमला प्रसाद जी ने पूछा क्या हुआ तो मैंने उन्हें सब बता दिया। वे सुनकर कुछ नहीं बोले। बस एक सांस भरी और एक ही वाक्य कहा- हद करते हो भई।

अशोक किस्से के जब इस हिस्से पर आते तो उनमें सिहरन साफ़ दिखती थी। लेकिन वे अगले पल ही चहक उठते। गजब अधिकारी थे पाण्डेय जी। उसके बाद न कुछ पूछा न कुछ किया। बाद में नया चेक मैं ही जमा करने गया। तब भी नहीं। मिश्रा जी होते तो नौकरी हर लेते।

अशोक तिवारी अब इस दुनिया में नहीं हैं। कई साल हुए उन्होंने पारिवारिक वजहों से गले में फंदा डालकर आत्म हत्या कर ली। मैंने उनकी मौत की बात कमला जी को फोन पर बतायी थी। वे बोले थे बहुत बुरा हुआ। अशोक अत्यंत भरोसेमंद आदमी था। जब भी मेरी उन दिनों बात होती कमला प्रसाद जी यह पूछना नहीं भूलते थे कि विभाग में सब कैसे हैं ?

मैंने बहुत सोचकर यह नहीं लिखा है। अशोक तिवारी कोई विद्वान व्यक्ति नहीं थे जिनकी बातों को कोई बहुत महत्व देगा। बस यह खयाल रहा कि जब कमला प्रसाद जी की नज़र में अशोक एक सच्चा और भरोसेमंद इंसान था तो उसी की नज़र में कमला प्रसाद कैसे थे क्यों न देखा जाय…

कहानियाँ गुमसुम,कविताएँ उदास


प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव,प्रगतिशील वसुधा के प्रधान संपादक और प्रसिद्ध आलोचक,संगठक स्वर्गीय कमला प्रसाद जी के प्रति ओम द्विवेदी का यह श्रद्धांजली स्मरण नयी दुनिया में 26 मार्च को प्रकाशित हुआ।यहाँ इसे हम उनके ब्लॉग मीठी मिर्ची से साभार ले रहे हैं ।


२५ मार्च को सुबह-सुबह युवा कवि और कहानीकार शशिभूषण का मोबाइल पर संदेश आया कि-'' हम सबके कमला प्रसादजी सुबह ६ बजे नहीं रहे।'' कुछ देर बाद यही संदेश युवा कवि हनुमंत के मोबाइल से आया। दोपहर में योगेन्द्र ने कमलाजी के बारे में पूछा। कुछ सूझ नहीं रहा था कि किसी को क्या उत्तर दूँ और उनके बारे में क्या बात करूँ । एकलव्य की ही तरह तकरीबन १८ वर्ष तक मैं उनका शिष्य रहा। तथाकथित अर्जुनों और युधिष्ठिरों ने नहीं चाहा, वरना मैं भी अंतिम समय में उनसे मिल सकता था। जब तक उनकी बीमारी के बारे में पता चलता तब तक वे कोमा में एम्स पहुँच चुके थे। खैर! उनके आशीर्वाद ने मुझे हमेशा प्रेरित किया है। करता रहेगा।


कविताओं की आँखों से आंसुओं का सोता फूट पड़ा हैं, कहानियाँ गुमसुम-सी हैं, उपन्यास उदास। शब्द थके-हारे से, जैसे किसी ने उनसे अर्थ निचोड़ लिया हो।...जैसे उनका रहनुमा चला गया हो। 'वसुधा' बेहाल है। कवियों और लेखकों की जमात स्तब्ध और हैरान। हरिशंकर परसाई का 'कमांडर', उन्हीं के पास पहुँच गया है। आलोचना का एक अध्याय ख़त्म हो गया है। ज़िंदगी के बेहद मज़बूत क़िले में मौत की काली बिल्ली कूद पड़ी है। व्यवस्था के कैंसर का इलाज करते-करते एक सुखेन वैद्य काया के कैंसर से हार गया है। कमला प्रसाद नाम के फ़ौलाद को मृत्यु ने तोड़ दिया है। अब किसी भी साहित्यिक आयोजन में उनकी ऊर्जावान उपस्थिति देखने को नहीं मिलेगी। अब नए लेखकों को कविताएँ और कहानियाँ लिखने का हुनर कौन बताएगा। रचना शिविर के लिए क़स्बों-क़स्बों और शहरों-शहरों कौन दौड़ा-दौड़ा जाएगा। अब दोस्त किसे इज्ज़त देंगे, दुश्मन किसे गालियाँ देंगे। अब कौन तपाक से फोन उठाएगा और पूछेगा कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो। कौन बार-बार समझाएगा कि अच्छा लेखक होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रूरी है। कौन कहेगा कि पार्टनर अपनी प्रतिबद्घता तय करो। प्रगतिशील लेखक संघ को संजीवनी देने के लिए कौन अपना रात-दिन एक करेगा। कमांडर! अभी तो तुम्हारे सिपाहियों ने युद्घ का ककहरा भी नहीं सीखा था और तुम मोर्चा छोड़कर चल दिए।


मेरे जैसे बहुतेरे लोगों ने उन्हें जब भी देखा चलते देखा, उनके बारे में जब भी सुना चलते सुना। कभी किसी आयोजन के लिए तो कभी किसी संघर्ष के लिए। न उनकी चाल में दिखावट और थकावट दिखी न उनके हाल में। विश्वविद्यालय और कला परिषद जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर सरकारी फ़ाइलों के बीच रहे, लेकिन उनका व्यक्तित्व फ़ाइलों का ग़ुलाम नहीं हुआ, उनमें नत्थी नहीं हुआ। उनके पास से जो फ़ाइलें आईं वे रचनात्मकता की कोख बन गईं और उन्होंने किसी जनपक्षधर आयोजन को जन्म दिया। नब्बे के दशक में वे रीवा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब वे केशव शोध अनुसंधान केंद्र को ओरछा जाने से रोकने के लिए एक-एक रुपए का चंदा कर रहे थे और अदालत की लड़ाई लड़ रहे थे। कालांतर में वे उस लड़ाई में आधा ही सही सफल हुए। उनकी उपस्थिति से रीवा विवि हिंदी प्रेमियों की चौपाल बन गया। हर हफ्ते किसी नामचीन साहित्यकार से मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिलने लगा। रशियन विभाग में भीष्म साहनी का व्याख्यान चल रहा है तो हिंदी विभाग में काशीनाथ सिंह छात्रों से रूबरू हो रहे हैं। नागार्जुन और त्रिलोचन अपनी कविताई पर बोल रहे हैं, राजेन्द्र यादव कहानियों पर तो नामवर सिंह हिंदी आलोचना पर अपनी बात कह रहे हैं। खगेन्द्र ठाकुर, सत्यप्रकाश मिश्र, अजय तिवारी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रभाष जोशी जब चाहे तब चले आ रहे हैं। कभी राजेश जोशी, कुमार अंबुज और हरिओम राजोरिया कविताएँ सुना रहे हैं तो कभी देवास से नईम गीत सुनाने चले आ रहे हैं। कभी बद्रीनारायण की कविता का नया स्वाद मिल रहा है तो कभी सुदीप बनर्जी, चंद्रकांत देवताले और लीलाधर मंडलोई जैसे वरिष्ठ कवि युवाओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं। शिवमंगल सिंह सुमन को भी मैंने पहली बार विवि के शंभूनाथ सभागार में ही सुना।


उसी दौर में रीवा जैसी छोटी जगह में हबीब तनवीर ने नाटकों पर ४५ दिन की वर्कशाप की और 'देख रहे हैं नयन' जैसे बड़े नाटक को स्थानीय कलाकारों के साथ किया। अलखनंदन, आलोक चटर्जी ने भी वर्कशाप की। राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय का शिविर लगा। भारतीय जन नाट्‌य संघ (इप्टा) के माध्यम से एक रंग आंदोलन रीवा में खड़ा हो गया। कमलाजी कभी खड़े होकर नुक्कड़ नाटक के लिए ताली बजाते मिल जाते तो कभी रिहर्सल देखते हुए। कवियों और कहानीकारों की तरह कई रंगकर्मी भी उस छोटी जगह से निकले। इसमें एक बड़ा योगदान कमलाजी का था। भोपाल के भारत भवन की तर्ज़ पर वे रीवा में एक सांस्कृतिक केंद्र विकसित करना चाहते थे। अर्जुनसिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने इस स्वप्न को तक़रीबन साकार कर लिया था, लेकिन बाद में राजनीतिक संकल्प शक्ति के अभाव में वह स्वप्न स्वप्न ही रह गया। विवि में रहते हुए ही उन्होंने 'विन्ध्य भारती' के संग्रहणीय अंकों का संपादन किया। उन्हीं के रहते 'वसुधा' रीवा से प्रकाशित होना शुरू हुई और बाद में उनके भोपाल आने के बाद भोपाल आ गई। कला परिषद भोपाल में उप सचिव रहते हुए 'कलावार्ता' को एक नई ऊह्णचाई उन्होंने दी और लोकोत्सवों की एक परंपरा शुरू की। यह उनकी राजनीतिक प्रतिबद्घता ही थी कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद उन्होंने उप सचिव की कुर्सी तत्काल छोड़ दी।


प्रगतिशील लेखक संघ को खड़ा करने और उसे लगातार सक्रिय बनाए रखने में कमलाजी के योगदान को उनके घोर निंदक भी नकार नहीं सकते। उनकी सांगठनिक क्षमता की मान्यता मैंने प्रलेस और इप्टा के कई राष्ट्रीय अधिवेशनों में देखी है। हालाँकि उनके ऊपर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे सेवकों का ही भला करते हैं, लेकिन मैंने उनको जितना देखा और समझा है तो वे सभी का भला करते ही दिखे हैं। जो चालाक चेले थे उन्होंने केवल उनका दोहन किया और उनके संबधों का अपने कॅरियर के लिए इस्तेमाल किया। कमाल यह था कि संगठन के लिए कमलाजी बिना किसी तर्क-वितर्क के अपना दोहन करवाते रहते थे। नए रचनाकारों को उन्होंने जितना अधिक रेखांकित किया और सतत मंच दिया, शायद ही किसी और ने किया हो। अपने अंतिम दिनों तक वे हम जैसे बिलकुल अनगढ़ रचनाकारों से लिखने के लिए कहते रहते थे। अर्जुनसिंह से उनकी मित्रता जग जाहिर थी, वे अपने समय के कद्दावर नेता थे, उस समय भी कमलाजी जब उनसे बात करते थे तो उतना ही झुकते थे, जितने में विनम्रता दिखे, चापलूसी नहीं।


व्यक्तिगत रूप से वे अपने मित्रों और दोस्त शिष्यों को कितना ख़्याल रखते थे, इसके लिए मेरे पास बेहद निजी उदाहरण हैं। १९९६ में जब मेरे पिताजी की मृत्यु हुई और मैं गाँव में था। उस समय तक गाँव में दूरभाष और मोबाइल की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। कमलाजी को पिताजी की मृत्यु के बारे में पता चला तो उन्होंने बहुत ही सांत्वनाभरा पोस्टकार्ड लिखा। यह भी लिखा कि टूटना मत मैं अभी ज़िंदा हूँ। तब से वे मुझे हमेशा पिता की तरह ही लगे। पिता की तरह ही उनसे प्रेम भी करता था और नाराज भी था।


नामवर सिंह की तरह वे बड़े आलोचक भले न रहे हों, लेकिन वक्ता उनकी टक्कर के थे। समझ उनसे उन्नीस नहीं थी। संगठन खड़ा करने और लोगों को जोड़ने में तो वे इक्कीस नहीं पचास थे। मुझे लगता है कि वे स्वर्गलोक जाकर यमराज को भी समझा रहे होंगे कि तू गरीबों को बहुत मारता है और अमीर भ्रष्टों को बख्श देता है। जरा समानता का व्यवहार कर। तू भी अच्छा इंसान बन। कमलाजी वहाँ पहुँचते ही परसाई और मुक्तिबोध से मिल आए होंगे। नागार्जुन, सुदीप बेनर्जी, हबीब तनवीर, भीष्म साहनी और नईम आदि के साथ कविता, कहानी और रंगमंच के नए अंदाज़ पर बात करने लग गए होंगे। हो न हो जाते ही वहाँ कोई रचना शिविर लगा बैठे हों। नर्क को स्वर्ग बनाने का कोई आंदोलन छेड़ दिया हो। वे वहाँ कुछ भी कर रहे हों, भी कर रहे हों, यहाँ तो सूनापन छोड़ गए हैं। विनम्र श्रद्घांजलि!

-ओम द्विवेदी

शनिवार, 26 मार्च 2011

मध्‍य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का शोक प्रस्‍ताव


कमला प्रसाद जी ने पूरे देश के प्रगतिशील और जनपक्षधरता वाले रचनाकारों को उस वक्त देश में इकट्ठा करने का बीड़ा उठाया जब प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता, यश और पुरस्कारों का चारा डालकर लेखकों को बरगलाने का काम कर रहीं हैं। उनके इस काम को देश की विभिन्न भाषाओं और विभिन्न संगठनों के तरक्कीपसंद रचनाकारों का मुक्त सहयोग मिला और एक संगठन के तौर पर प्रगतिशील लेखक संघ देश में लेखकों का सबसे बड़ा संगठन बना। इसके पीछे दोस्तों, साथियो और वरिष्ठों द्वारा भी कमांडर कहे जाने वाले कमला प्रसाद जी के सांगठनिक प्रयास प्रमुख रहे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर से लेकर, पंजाब, असम, मेघालय, प बंगाल और केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में संगठन की इकाइयों का पुनर्गठन किया, नये लेखकों को उत्प्रेरित किया और पुराने लेखकों को पुनः सक्रिय किया। उनकी कोशिशें अनथक थीं और उनकी चिंताएं भी यही कि सांस्कृतिक रूप से किस तरह साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता और संकीर्णतावाद को चुनौती और शिकस्त दी जा सकती है और किस तरह एक समाजवादी समाज का स्वप्न साकार किया जा सकता है। ‘वसुधा’ के संपादन के जरिये उन्होंने रचनाकारों के बीच पुल बनाया और उसे लोकतांत्रिक संपादन की भी एक मिसाल बनाया।


कमला प्रसाद जी रीवा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे, मध्य प्रदेश कला परिषद के सचिव रहे, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के अध्यक्ष रहे और तमाम अकादमिक-सांस्कृतिक समितियों के अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे, अनेक किताबें लिखीं, हिंदी के प्रमुख आलोचकों में उनका स्थान है, लेकिन हर जगह उनकी सबसे पहली प्राथमिकता प्रगतिशील चेतना के निर्माण की रही। उनके न रहने से न केवल प्रगतिशील लेखक संघ को, बल्कि वंचितों के पक्ष में खड़े होने और सत्ता को चुनौती देने वाले लेखकों के पूरे आंदोलन को आघात पहुंचा है। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संगठन तो खासतौर पर उन जैसे शुरुआती कुछ साथियों की मेहनत का नतीजा है। उनके निधन से पूरे देश के लेखक, रचनाकार, पाठक, साहित्य व कलाओं का वृहद समुदाय स्तब्ध और शोक में है।


कमला प्रसाद जी ने जिन मूल्यों को जिया, जिन वामपंथी प्रतिबद्धताओं को निभाया और जो सांगठनिक ढांचा देश में खड़ा किया, वो उनके दिखाये रास्ते पर आगे बढ़ने वाले लोग सामने लाएंगे। साथ ही प्रेमचंद, सज्जाद जहीर, फैज, भीष्म साहनी, कैफी आजमी, परसाई जैसे लेखकों के जिन कामों को कमला प्रसाद जी ने आगे बढ़ाया था, उन्हें और आगे बढ़ाया जाएगा। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की राज्य कार्यकारिणी उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है।

-पुन्नी सिंह, अध्‍यक्ष
विनीत तिवारी, महासचिव
शैलेंद्र शैली, कार्यकारी महासचिव

शनिवार, 19 मार्च 2011

सभी सुखों के वाक्य में, दुःख का एक हलंत।जीवन के इस चक्र में हरदम कहाँ वसंत।।

इस बार की होली में मस्ती,चिंतन और कवित राग से भरपूर ओम द्विवेदी के फागुनी दोहे।पढ़ने के लिए कोई निर्धारित समय सीमा नहीं है।होली एक दिन का त्यौहार भी नहीं।चैन से पढ़िए,मन भर गुनिए।और हाँ कवि के लिए आप चाहे जितनी दाद सोचें मुझे तब बधाई दीजिएगा जब बिल्कुल मजबूर हो जाएँ।इस पोस्ट के साथ साल भर की गारंटी है।अगली होली में इनमें से कोई न कोई दोहा ज़रूर याद आएगा।जो दोहा न रुचे उसे दोहे से ही बदलने का ज़िम्मा हमारा। -ब्लॉगर


सूरज ने जबसे किया, फागुन को उद्दंड।
पानी-पानी लाज से, हुई बेचारी ठंड॥

गेर खेलने सड़क पर, निकले सातों रंग।
फागुन हंसता देखकर, चांद संवारे अंग॥

आँखों-आँखों सज गया, फागुन का बाजार।
दिल वाले करने लगे, सपनों का व्यापार॥

सपने सब टेसू हुए, केसर-केसर रूप।
अंग-अग फागुन हुआ, बदन उलीचे धूप॥


ढोल, मजीरे, मसखरी, रंग, गीत, सत्कार।
प्रेम पंथ में आज भी, फागुन है त्योहार॥

आंखें प्यासी हो रहीं, तन-मन तपे बुखार।
फागुन के बीमार का, फागुन ही उपचार॥

कली-कली का रूप अब, आंखें रहीं सहेज।
फागुन चुपके से बना, सपनों का रंगरेज॥

बहकी-बहकी-सी लगे, हवा छानकर भंग।
गाल गुलाबी देखकर, बहक रहे हैं रंग॥

अपने कर पाते नहीं, अपनों की पहचान।
रंगों ने जबसे किया, सबको एक समान॥

अचरज करते ही मिले, सारे वैद्य-हकीम।
फागुन से मिलकर गले, मीठी हो गई नीम॥

धरती से आकाश तक, पुख्ता सभी प्रबंध।
तितली ने फिर भी किया, फूलों से संबंध॥

नुक्कड़-नुक्कड़ पर लगी, रंगों की चौपाल।
गाल शिकायत कर रहे, छेड़े हमे गुलाल॥

बहते पानी में नहीं, ठहरे कोई रंग।
ठहरा पानी ही करे, रंगों से सत्संग॥


महंगाई को देखकर, उड़ा रंग का रंग।
फागुन करे गुलाल से, नए तरह की जंग॥

जगल की परजा सभी, देख-देखकर दंग।
गीदड़ पाता जा रहा, शेर सरीखा रंग॥

रंग तोड़ने लग गए, फागुन का कानून।
लाल-लाल पानी हुआ, काला-काला खून॥

सपने, आंखें, भूख सब, हैं बाजार अधीन।
रंग, अबीर, गुलाल से, कैसे हों रंगीन॥

राजा-परजा साथ में, मिलकर खेलें फाग।
परजा डूबी प्रेम में, राजा करता स्वांग॥

दिल्ली में ही कैद हैं, सुख के सभी वसंत।
जो कुछ आया यहां, लूट गए श्रीमंत।

सभी सुखों के वाक्य में, दुःख का एक हलंत।
जीवन के इस चक्र में, हरदम कहां वसंत॥


चेहरे पर झुर्री दिखी, हो गए बाल सफेद।
ऋतु वसंत की उम्र से, व्यक्त कर रही खेद॥

रंगों को होने लगा, मजहब का अहसास।
फागुन सिर पर हाथ रख, बैठा मिला उदास॥


गुपचुप किया विपक्ष ने, राजा से संवाद।
रही सलामत होलिका, भस्म हुआ प्रहलाद॥

वेदपाठ भगवा करे, बोले हरा अजान।
फगुआ गाए प्रेम से, मिलकर हिंदुस्तान॥

रंगों से है कर रहा, फागुन यह अनुरोध।
आपस में करना नहीं, आगे कभी विरोध॥

-ओम द्विवेदी
१६९- ए, अन्नपूर्णा सेक्टर, सुदामा नगर, इंदौर, म.प्र.