सोमवार, 28 मई 2012

सत्यमेव जयते


सत्यमेव जयते का चौथा एपिसोड देखकर जोगिंदर पाल की एक कहानी याद आयी 'घात'। और इस एपिसोड के बारे में अविनाश दास की प्रतिक्रिया सत्यमेव जयते देखते हुए आज आंसू नहीं, आंखों में खून उतर आया है..पढ़कर इरफान खान और कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत फिल्म (फिल्मों के नाम भूल जाने की मुझमें अजीब कमजोरी है) आँखों के सामने घूम गयी। इसमें इरफान अपनी बच्ची जिसके दिल में छेद है का पैसे की कमी के कारण ऑपरेशन नहीं करवा पाता और उसकी जान चली जाती है। वह सबक देने के लिए कि कितनी तकलीफ़ होती है बेटी को खो देने की उसी अस्पताल के डॉक्टर की बच्ची का अपहरण करता है। 

जोगिंदर पाल की कहानी घात दो भाइयों की कहानी है। इसमें दो भाई जगत और भगत रात को कार लेकर निकलते हैं। रोज़। रास्ते में जो भी फुटपाथिया या लावारिस मिल जाता है उसे बेहोश करके अपनी कार में डाल लेते हैं। बेहोश देह अस्पताल पहुँचाते हैं। वहाँ उनका अनुबंध है। उन्हें एक देह की तयशुदा रकम मिलती है। बेहोश ब्यक्ति के होश में आने से पहले ही अस्पताल प्रबंधन द्वारा उसके अंगों को अलग अलग सप्लाई कर दिया जाता है। एक रात जगत और भगत खूब चक्कर काटते हैं मगर उन्हें कोई नसेड़ी या नींद में गाफिल देह नहीं मिलती। उन्हें बड़ी बेचैनी होती है। वे एक दूसरे पर गुस्सा होते हैं। इस हद तक बातें होती हैं कि आज बॉडी मिलना ज़रूरी है। वरना डाक्टर जान ले लेगा। धंधा चौपट समझो। चाहे हममें से किसी एक को बेहोश होना पड़े पर यह होना है। दोनो भाई एक दूसरे से डर जाते हैं। मगर वे नशे में हैं उन्हें चिंता है कि होश खोते ही दूसरा कुछ भी कर सकता है। अंत में छोटा भाई बड़े भाई के सामने गिड़गिड़ाता है कि तुम मुझे मत मारना। मैं तुम्हारा छोटा भाई हूँ। बड़े को हँसी आती है और छोटे को होश खोते देख उसकी आँखों में शैतान उतरने लगता है। यह कहानी कथादेश के उर्दू कहानी विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। ज़ाहिर है यह वहाँ अनूदित थी तो कम से कम 12-15 साल पुरानी होनी चाहिए। 

'सत्यमेव जयते' के चौथे एपिसोड में जो भी  दिखाया गया वह घोर था। मगर सच तो और भयानक है। मेजर की पत्नी के साथ हुई घटना ने मुझे  सोचने को मजबूर कर दिया कि नागरिक को भी गोली मारने का हक मिलना चाहिए। बाद में खयाल आया कि आलोक धन्वा की कविता 'गोली दागो पोस्टर' बहुत पहले कह चुकी है ऐसा। मैं साहित्य का मरीज़ हूँ। इसलिए हर बात किसी न किसी रचना से मिलाने लगता हूँ। मेरा सवाल है कि कोई रचना ऐसा हस्तक्षेप क्यों नहीं कर पाती जबकी उसमें कई गुना ताक़त और सदिच्छा होती है। लोग एक लाइन की खबर सुनते हैं और बौखलाये घूमते हैं वहीं उनकी नाक के नीचे कोई कहानी कोई फिल्म या गीत अपनी सुध लिये जाने का इंतज़ार करते रहते हैं।

सचमुच आमिर खान का काम बड़ा है। मैं शो देखते देखते उनके प्रति बड़ी श्रद्धा से भर जाता हूँ। उनके आलोचक भी एक एककर अपने मुँह के झाग पोंछ रहे हैं। मेरे मन में यह भी सवाल उठता है जब बालीवुड का एक अभिनेता देश की आँखें खोलने वाल शो कर रहा है तब हम कैसे साहित्य काल में जी रहे हैं कि हमारे बहुत सम्मानित बुजुर्ग लेखक-संपादक-आलोचक-प्रकाशक रचनाकारों को सम्मानों की उतरन बाँट रहे हैं।

शनिवार, 19 मई 2012

असफल साहित्यिक महत्वाकांक्षा की सैद्धांतिक मुनादी

कुछ भी लिखने से पहले साफ़ कर दूँ कि कुणाल सिंह और गौरव सोलंकी (दोनों ही समर्थ कहानीकार) मेरे निकट मित्र नहीं हैं। गौरव सोलंकी मुझे बाकायदा अपना मित्र ना मानने लायक समझते हुए फेसबुक में अनफ्रेंड कर चुके हैं और कुणाल सिंह का कहना है कि किसी असावधानी में उनसे मेरा नाम डिलीट हो गया था।

मैंने पिछले कुछ दिनों में लंबी यात्राएँ करते हुए टुकड़ों में फेसबुक पर बटरोही, मोहन श्रोत्रिय, अविनाश दास, रवीश कुमार, विनीत कुमार, हिमांशु वाजपेयी, अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी, रंगनाथ सिंह, चंदन पाण्डेय, प्रभात रंजन, सत्यानंद निरुपम, गिरिराज किराडु आदि के स्टेटस अपडेट्स, कमेंट्स और जानकी पुल, जनपक्ष, और जनादेश आदि ब्लॉग-वेबसाइटों से पूरे मसले को समझने की कोशिश की है। इसी कोशिश में गुवाहाटी और इलाहाबाद के बीच तहलका के दो अंक खरीदे जिसमें एक फिल्म विशेषांक है। अनारकली डिस्को चली। इसके संपादन में गौरव सोलंकी की भूमिका है। हालांकि इस अंक में अजय ब्रह्मात्मज का योगदान ही मुख्य है। दूसरा वही अंक जिसमें गौरव सोलंकी का बहुचर्चित क्षुब्ध पत्र है (इसे बाकायदा विद्रोही और प्रकाशन जगत की निरंकुशताओं के विरुद्ध आंदोलनकारी युवा स्वर माना जा रहा है)

मैं यहाँ विचारार्थ कुणाल सिंह और गौरव सोलंकी के अपेक्षाकृत कम पसंद या टिप्पणी पाये दो फेसबुक अपडेट्स नीचे दे रहा हूँ

तीन दिनों से बुखार में हूँ, इसलिए बाहर नहीं निकल पाया। मनोज रूपड़ा और चंदन पाण्डेय से ख़बर मिली कि मेरे बारे में तहलका में गौरव ने कुछ लिखा है। जब स्थिति में होउँगा  पढ़ूँगा। फिलहाल अपनी तरफ़ से यही कहूँगा कि गौरव मेरा प्रिय कहानीकार रहा है और जब भी हो सका है कई बार अपने संपादक से लड़कर उसे छापा है मैंने। यहाँ तक कि अन्यत्र पत्रिकाओं में स्वीकृत हो चुकी कहानियों को भी साधिकार वहाँ रुकवा के अपने यहाँ प्रकाशित की है। मैंने नहीं पढ़ा है उसने मेरे खिलाफ़ क्या लिखा है। बट अगर ऐसा है तो ये दुखद है।– कुणाल सिंह

बहुत शुक्रिया प्रभात (प्रभात रंजन) कहते रहने के लिए। ख़ासकर ऐसे बीमार समय में, जब कितने ही लेखक साथी बुखार में पड़े हैं।- गौरव सोलंकी

ये दोनों स्टेटस ग़ौर से पढ़िए। कुणाल सिंह सही लिख रहे हैं। अगर आप उन्हें शातिर मान ही चुके हों तो भी केवल इस पर संदेह कर सकते हैं कि उन्होंने सचमुच गौरव का पत्र नहीं पढ़ा होगा।  गौरव सोलंकी इसी तरह की क्रूर टिप्पणी पिछले दिनों कहानीकार जयश्री राय की वाल पर भी कर चुके हैं जब उन्होंने कथादेश में प्रकाशित अपनी एक कहानी पर विवाद के बाद अपने स्टेटस में लिखा था कि मैं कैंसर से जूझ रही हूँ। गौरव सोलंकी का स्वर था कि ऐसा बताकर आप सहानुभूति अर्जित करने की कोशिश कर रही हैं। यह एक संवेदनशील कहानीकार और मित्रता के योग्य रचनाकार की किसी की बीमारी के संबंध में तब की गयी टिप्पणी है जब वह संबंधित व्यक्ति से निकटता नहीं महसूस करता। यदि आप माफ़ करें तो कहूँ कि यह एक हिंसक प्रवृत्ति है। केवल वही एटीट्यूड नहीं होता जो बतौर संपादक सौ साल के सिनेमा पर आधारित विशेषांक को अनार कली डिस्को चली का शीर्षक देता है, साहित्य के सामंत जैसी चर्चाकामी परियोजना को अंजाम देता है या किसी कहानी में ब्लू फिल्म का तर्क गढ़ता है जिसे नमो अंधकारं के कहानीकार दूधनाथ सिंह भी नहीं पचा पाते और अपने साक्षात्कार में ज्ञानपीठ की टीम द्वारा लगाये गये आरोप से कड़वी बात कहते हैं।

गौरव सोलंकी के पत्र से उपजे मुद्दों तथा अभियान को समझने के लिए थोड़ा अतीत में झाँकना उचित होगा। जिन दिनों रवींद्र कालिया जी वागर्थ से नया ज्ञानोदय में संपादक बनकर आये थे उन दिनों आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय संपादक और कहानीकार अभिषेक कश्यप नया ज्ञानोदय में सहायक संपादक हुआ करते थे। कुणाल सिंह को कालिया जी मानते हैं यह जगजाहिर है लेकिन उन्होंने बड़ी कुशलता से कुणाल की योग्यता को आधार बनाते हुए ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित कीं कि अभिषेक कश्यप वहाँ टिक न सके। यह बकौल गौरव सोलंकी राजा-राजकुमार मसला नहीं है। बल्कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का वह दौर है जिसमें विभिन्न संस्थानों में संपादक बुजुर्ग होते हैं ताकि उनकी हैसियत का लाभ मिल सके और काम युवा सहायक संपादक करते हैं क्योंकि उनके सामने रोज़ी-रोटी का संकट भी है और उन्हें आगे भी बढ़ना है।

जवाब और दुख में अभिषेक कश्यप ने हमारा भारत के संपादकीय में रवींद्र कालिया की भर्त्सना में खूब लिखा था। अगर गौरव सोलंकी उसे कहीँ से खोज पायें तो उनका विद्रोही पक्ष और मज़बूत हो सकेगा। हालांकि पहले उन्हें यह पता कर लेना होगा कि रवींद्र कालिया से मिली पीड़ा में शैलेश मटियानी का लिखा हुआ अभिषेक कश्यप के कितना काम आया था। मेरी व्यक्तिगत राय है कि अभिषेक के साथ ग़लत हुआ था और वे मेरे मित्र हैं इस कारण मुझे तक़लीफ़ भी बहुत हुई थी। उनकी बेरोज़गारी और आर्थिक अनिश्चतता का जब मुझे खयाल आता था तो मुझे कुणाल सिंह पर ग़ुस्सा आता था। मैं अभिषेक कश्यप के लिए आश्वस्त भी कम नहीं था क्योंकि राजेंन्द्र यादव उनपर स्नेह रखते थे। इस प्रसंग का मुझ पर इतना असर रहा कि मैं कई अच्छी कहानियाँ पढ़ने के बावजूद कुणाल को तब तक पसंद नहीं कर पाया जब तक उनसे मिलने और उन्हें जानने का मौक़ा नहीं मिला। फिर धीरे धीरे जब मुझे सहायक संपादकों के इस्तेमाल होने की असलियत पता चलने लगीं मुझमें किसी के प्रति नाराज़गी का माद्दा ही नहीं रहा। मैं सिर्फ़ इस दुआ में गया कि काश हिंदी के प्रतिभाशाली युवाओं को ठीक ठाक नौकरियाँ मिल पातीं। यही वजह थी कि जब मुझे कुणाल सिंह द्वारा अपनी पीएचडी छोड़ देने की जानकारी मिली तो मुझे बहुत बुरा लगा। यदि मैं गौरव सोलंकी जितना उनके निकट होता तो इसके लिए उन्हें बहुत रोकता। कुणाल सिंह ने अपने लेखक की निर्भरता में अपने रोज़गार के अवसरों को सीमित कर लिया है। आज जैसी परिस्थितियाँ हैं तो बहुत संभव है गौरव सोलंकी को यह स्टेटस लिखने का मौका भी मिल जाये कि कुछ साथी बीमार और बेरोज़गार घूम रहे हैं। दरअसल जिस इंजीनियरिंग की पढ़ाई से मिलने वाली किसी कंपनी की नौकरी छोड़कर कोई लेखन को अपना रास्ता चुनता है और कमर्सियल लेखन के राजपथ पर दौड़ता है उसकी संवेदना में ऐसी तुच्छ चिंताओं का न होना कोई नयी बात नहीं।

गौरव सोलंकी जब कुणाल सिंह से मिले होंगे तो उन्हें वागर्थ से चलकर आयी कुणाल की वर्तमान स्थिति के बारे में अपनी जिज्ञासा के संबंध में अवश्य कुछ कहना था। उन्हें यह भी सोचना ही था कि कोई कहानीकार जो जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में शोधार्थी है उसका नाम पत्रिका से बतौर सहायक संपादक हटा दिया गया है वह तब भी अगर सहायक नहीं तक़रीबन अल्प वेतन का पूरा संपादक ही है। फिल्मों पर लिखने से लेकर पत्रिका के लिए उपन्यास का अनुवाद कर रहा है, यहाँ वहाँ से नये लिखने वालों को ढूँढ़ रहा है, लेखकों के मज़ाकिया परिचय देने का विरोध झेल रहा है तो उसकी दक्षता या सामर्थ्य क्या है? इसके पहले वह कलकत्ता में अपने मध्यवर्गीय विद्यार्थी जीवन में क्या क्या कर चुका है जिसके अभ्यास में ये ज़िम्मेदारियाँ भी कुछ नहीं।

लेकिन माफ़ कीजिए अगर गौरव सोलंकी ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया तो यही कहा जायेगा कि उन्हें कुणाल की इसी स्थिति से फ़ायदा उठाना था।

और हुआ भी वही। वे चंदन-कुणाल के रास्ते कालिया जी तक पहुँचे। नया ज्ञानोदय के विशेषांकों में जगह बनायी। ज्ञानपीठ के युवा लेखक कहलाये। यह इतनी सीधी बात है कि इसकी गवाही भाषासेतु और नयी बात जैसे ब्लॉग भी दे देंगे। गौरव अगर इसे न मानें तो समझिए कल को कोई यह भी न मानेगा कि उसके निर्माण में किसी का कोई योगदान है। कोई यह भी कहना ठुकरा देगा कि हिंदी का आज का समाज बुरी तरह संबंधाश्रित हो चला है। नियुक्तियाँ और पुरस्कार उसके हैं ही नहीं जिसका कोई माई-बाप नहीं।

मैं ज्ञानपीठ द्वारा अपने को अपमानित महसूस करने के गौरव सोलंकी के लेखकीय अधिकार का सम्मान करता हूँ। ज्ञानपीठ ने यदि उन्हें आश्वासन दिया था तो किताब भी छापनी थी। वहाँ बैठे जिन लोगों ने भी निर्णय लिया था उन्हें अपने और पीठ के फैसले की मर्यादा रखनी थी। गौरव सोलंकी का निर्णय भले आंदोलनकारी न हो एक व्यक्ति का शाम को घर लौट आना तो है ही। लेकिन है यह व्यक्तिगत निर्णय ही। गौरव सोलंकी के तर्कों पर ग़ौर करेंगे तो यह बिल्कुल साफ़ हो जायेगा।

1-      गौरव सोलंकी का कहना है कि जिस ज्ञानपीठ ने नया ज्ञानोदय से छिनाल शब्द हटाना उचित नहीं समझा वह कहानी ग्यारहवी ए के लड़के को पत्रिका में छापने के बाद पुस्तक में छापते समय अश्लील कैसे कह सकता है। गौरव सोलंकी का यह तर्क सबसे ज्यादा प्रभात रंजन और गिरिराज किराडु जैसे प्रतिभाशाली रचनाकारों को समझना चाहिए। उन्हें याद होगा कि छिनाल विवाद पर एक असहमति पत्र भाषासेतु ब्लॉग पर भी प्रकाशित हुआ था। जिसमें वीएन राय और नया ज्ञानोदय का विनम्र बचाव था। इसमें 133 हस्ताक्षर थे और 40 से अधिक टिप्पणियाँ। उन हस्ताक्षरों में गौरव सोलंकी, विमल चंद्र पाण्डेय और श्रीकांत दुबे के भी हस्ताक्षर थे।

2-      गौरव सोलंकी को ज्ञानपीठ का युवा पुरस्कार मिलेगा इसकी खबर मुझ तक भी पहुँची थी। और गौरव सोलंकी को याद होगा कि भाषासेतु पर एक बेनामी कमेंट भी था कि चूमते जाना और रोते जाना एक महान कविता है। गौरव को अब युवा लेखक सम्मान लेने से कोई रोक नहीं सकता। बाद में वह टिप्पणी हटा दी गयी। भाषासेतु आज जिस रूप में है वह मैत्री संबंधी टूट-फूट की कहानी आप कहता है।

3-      ऐसा प्रतीत होता है कि मंटो गौरव सोलंकी को बहुत प्रिय है। कभी मंटो ने कहा होगा कि मैं दर्ज़ी नहीं हूँ। जो देखता हूँ लिखता हूँ। अधिकांश व्याकुल भारत लेखकों के तर्कों की अधजल गगरी से यह छलकता रहता है कि वे वही लिखते हैं जो समाज में है। इससे समाज और मंटो दोनो के बारे में इस सतही समझ का बड़ा प्रसार हुआ है कि मंटो गंदे विषय उठाता था क्योंकि समाज ही गंदा है। यह दरअसल समाज की फिल्मी समझ है कि हम वही दिखाते हैं जो लोग देखते हैं।

ये तीन तर्क हांडी के कुछ चावल हैं। आपने तहलका में छपा गौरव सोलंकी का पूरा पत्र पढ़ा ही होगा। मैं उसे असफल साहित्यिक महात्वाकांक्षा की सैद्धांतिक मुनादी मानता हूँ। साथ ही इस बात के लिए गहरा दुख व्यक्त करता हूँ कि हमारे युवा लेखक आपस में मित्र रहते हुए भी एक दूसरे का भरोसा खो रहे हैं।

-शशिभूषण








सोमवार, 14 मई 2012

आवाज़

आप स्त्री हैं या पुरुष
आप दलित हैं या अदलित
आप अच्छे हैं या बुरे
गुमनाम हैं या नामवर
राजा हैं या रंक
इसे ध्यान से सुनिए
आप अन्याय सहने वाले
रीढ़हीन इंसान में बदलते जा रहे हैं
आपके ‘चाहे जो होने’ की वजह
अगर अन्याय सहना है
तो अच्छाई या बुराई के बारे में
बराबरी या ग़ैर बराबरी के मसले पर
मुझे कुछ नहीं कहना है
माफ़ करें
अन्याय सहकर भला या बुरा बनते हुए
पीड़ितों से किनारा करते हुए
एक दिन ईमान और न्याय के वास्ते
‘यह सूरत बदलनी चाहिए’ की पुकार
बड़ी जालिम होती है
थोड़ी आवाज़
उन पत्तों के गिरने से भी होती है।
जो कभी हरे थे
अंधड़ में सूखकर
पेड़ में ही अटके हुए थे।

गुरुवार, 10 मई 2012

पहले समस्या को समस्या की तरह देखें

दूरदर्शन और स्टार प्लस में एक साथ प्रसारित होने वाले रियलिटी शो 'सत्यमेव जयते' के कन्या भ्रूण हत्या पर केंद्रित पहले एपिसोड के संबंध में  प्रसिद्ध पत्रकार और इंडिया टुडे के संपादक दिलीप मंडल जी लिखते हैं

"भ्रूण हत्या और कन्या शिशु हत्या, गंभीर रूप में, शहरी-इलीट-हिंदू-सवर्ण समस्या है।...कोई मुझे समझाये कि बेटियों की हत्या को आदिवासी और मुसलमान अपनी समस्या क्यों मान लें, जबकि वे अपनी बेटियों की हत्या नहीं करते। जनगणना के आंकड़े लगातार साबित कर रहे हैं कि उनका जेंडर रेशियो ठीकठाक है।...दलितों और किसान तथा कारीगर-कामगार जातियों में और अल्पसंख्यकों में सती प्रथा कभी नहीं थी?"

इस तरह के विचार पढ़कर मुझे अक्सर तक़लीफ़ होती है कि दिलीप मंडल जैसे प्रतिभाशाली पत्रकार और शिक्षक एकतरफ़ा और आँख मूँद लेने वाले क्यों हो जाते हैं? यदि यह उनकी नीति है तो क्या कहें (मेरा विवेक कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता है) लेकिन यदि यह दिलीप जी की अति आक्रामकता है तो उन्हें इस पर ध्यान देना चाहिए। विश्लेषण में विवेक की जगह ग़ुस्से का सहारा लेना सच लगने वाले ग़लत छोर पर पहुँचाता है।

दिलीप जी की ही माने तो सवाल है कि आज भी शिक्षा से लेकर मीडिया तक सवर्ण ही ज्यादा हैं। इतिहासकार-पत्रकार भी ज्यादा सवर्ण ही थे तो वे दलितों की समस्याओं पर फोकस क्यों करेंगे? कोई सच्चाई से कैसे जान सकता है कि दलितों में कौन सी समस्याएँ मुख्य नहीं हैं। अगर कहीं दलित स्त्री सती हो रही है तो वह मीडिया में कैसे आयेगी? और दलित स्त्री सती होने का अवसर कैसे पा सकेगी जबकि यह एक खर्चीली हत्या है। जिन दलितों को चूल्हे में जलाने के लिए लकड़ी नसीब नहीं वे सती होने के लिए घी, ढोल और मंत्रोच्चार की व्यवस्था कैसे कर पायेंगे? फिर दलित विधवा तो सवर्णों की बड़ी बँधुआ होगी वे उसे सती करने की बुराई में क्यों ले जाना चाहेंगे? कल को कोई कहे कि दलितों की शादी में आतिशबाजी, डीजे आदि की फिजूलखर्ची नहीं होती तो क्या यह दलितों की कमखर्च भावना है? दलित औरत के साथ बलात्कार होगा तो किन घरों में चूल्हे नहीं जलेंगे? कितने पत्रकारों की लेखनी खून के आँसू रोयेगी? अगर कोई सचमुच पत्रकार होगा तो वह लिखेगा लेकिन पत्रकारिता भी तो आज धंधा है।

मैं जब भी दलितों की बस्ती में गया तो वहाँ उनके झोंपड़ों में मैंने उनके परिजनों के फोटो नहीं देखे। यद्यपि वहाँ सवर्ण समाज में प्रचलित देवी- देवताओं के चित्र थे। जब दूर से मैंने उनकी शादियाँ देखीं तो उनकी वीडियो रिकार्डिंग नहीं हो रही थी। अधिकांश दलित मुर्दा मांस खाते हैं उसका जायका किसी भी टीवी पत्रिका में कौन स्वाद विशेषज्ञ बताता है? अगर भारतवर्ष के किसी दूरस्थ गाँव में किसी दलित लड़की का गर्भ उसके उदर को मींज मींजकर गिराया जा रहा हो और उसी समय कोई सवर्ण लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग रही हो तो कौन सी खबर छपेगी और किसे बड़ी माना जायेगा?  मेरे खयाल से इन दोनों से बड़ा समाचार होगा किसी औरत के शरीर में देवी या भूत-प्रेत का प्रवेश। दरअसल जिसे दिलीप मंडल दलितों की समस्या न होना कह रहे हैं वह वास्तव में समस्या की तरह प्रकाश में न आना है। यह उसी तरह की कमज़ोरी है जैसे कभी अंग्रेज़ सरकार स्थानीय अखबार न पढ़ने की वजह से एक बहुत बड़े हिंदुस्तानी जन उभार को भाँप नहीं पायी थी।

मुझे दिलीप जी के अध्ययन और नीयत पर कभी शक नहीं रहा लेकिन वे अपने गुस्से को विश्लेषण में हावी हो जाने देते हैं यह साफ़ है। मैं मानता हूँ वो सब बुराइयाँ दलितों में है जो सवर्णों में हैं। सही यह है कि बुराई बहती ही इधर से उधर है। ऊर्जा का यह नियम सब जगह लागू होता है कि वह अधिक से कम की ओर बहती है। बुराई पानी की तरह ऊपर से नीचे जाती है। वह वहाँ सड़ती भी है और मिट्टी को भी दलदल बनाती है। मैं दिलीप मंडल जी को कोई सलाह दूँ ऐसी योग्यता मुझमें नहीं है लेकिन वे पत्रकार है और मैं मास्टर हूँ तो उन्हें सुझाव दे देने में हर्ज़ नहीं कि वे यह ज़रूर करें कि बाकायदा आंकड़ों के साथ उजागर करें कितनी सामाजिक समस्याएँ दलितों में सवर्णों से गयीं और अब वहाँ सवर्णों से विकराल हो चुकी हैं क्योंकि वहाँ शिक्षा भी नहीं है, जीविका भी नहीं है, किसी कि़स्म की दवा भी वहाँ तक नहीं पहुँचती।

मुझे लगता है कि मूल बात है समस्या को समस्या की तरह देखना। सच लगने वाले उपलबब्ध तथ्यों के आधार पर किसी बड़े सामाजिक बदलाव का रास्ता नहीं निकलता। इससे जो जनमत तैयार भी होता है उसके पास समस्या के स्थायी समाधान नहीं होते। राजनीति न सही कम से कम बौद्धिकी तो इससे मुँह न फेरे।