अच्छे कवि के लिए आलोचकीय विवेक संपन्न होना जितना आवश्यक है कवि का आलोचक हो जाना स्वयं के कवि-कर्म के लिए उतना ही बाधक है.ऐसा हम हिंदी के उन चोटी के आलोचकों को देखते हुए कह सकते हैं जो अपने शुरुआती दौर में कवि भी रहे.पर धीरे-धीरे उनका कविता लिखना छूट गया.अब वे कविताएँ शोधार्थियों,विशेषांक के संपादकों या जीवनीकारों के लिए ही महत्व की बचीं हैं.स्वयं का अत्यधिक रचना-सजग होना भी रचनाकर्म से दूर करता है या ठीक ठीक कहें तो रचनाकार को स्थगित करता है क्योंकि सिर्फ़ विश्लेषण,बौद्धिकता और स्मृति के सहारे कविता,कहानी लिखने को विवश हो जाना असंभव है.उसके लिए थोड़ी सी मासूमियत और ढेर संवेदनशीलता बचाये रखना ज़रूरी होता है.खैर यहाँ हमारा मक़सद आलोचकों के अकवि हो जाने के कारणों की पड़ताल करना नहीं है.बल्कि एक समर्थ आलोचक के कवि होने को आपसे बाँटना है.
शंभु गुप्त जी समकालीन हिंदी आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं.पिछले कुछ समय से लगातार कहानी आलोचना के चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में सक्रिय हैं.मुठभेड़ करना और आलोचना के रास्ते में किसी की परवाह न करना मेरे जानने में उनकी खासियत है.यदि आप इसे आलोचक होने की ही शर्त मानते हों तो इतना अवश्य जोड़ दूँ वे यह शर्त बा-खूबी पूरी करते हैं.इस बारे में खुद की परवाह भी नहीं करते हुए मैंने उन्हें देखा है.मौक़ा था देवास में प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति जी के कहानी पाठ का.शंभू जी कहानी सुन चुकने के बाद रूमाल लेकर बाथरूम की ओर भागे.सार्वजनिक तौर पर कहा भी शिवमूर्ति भाई तुम बहुत रुलाते हो...लेकिन उसी कहानी केसर कस्तूरी पर जब बोले तो इस प्रभाव को जिससे सभी अभिभूत थे कोई मूल्य नहीं दिया.बल्कि इसी भावप्रवणता को आधार बनाकर कहानी को कमज़ोर सिद्ध किया.मेरे लिए यह विचलित करनेवाला रहा.मैंने शंभु जी से अनधिकार पूछा भावुकता अगर कहानी का कमज़ोर पक्ष है तो आप यह जानते हुए क्यों भावुक हुए?उन्होंने बलपूर्वक इसके पीछे अपने संवेदनशील मनुष्य होने को कारण बताया.साथ ही कहा-लेकिन मैं आलोचक होने के नाते जो तय करता हूँ उसे अपनी कमज़ोरियों,पसंद-नापसंद से भी बचाने की कोशिश करता हूँ.
मैं काफ़ी समय से शंभु गुप्त जी को पढ़ता सुनता रहा हूँ.फ़ोन पर बेतकल्लुफ़ लंबी लंबी बातें भी होती हैं.पर हाल ही में उन्हीं से पता चला कि वे कविताएँ भी लिखते हैं.संकोच तो करते ही हैं धीरे से बताया कि आलोचक रहते छपवाने से डरता भी हूँ.मुझे उनकी कई बातों की तरह यह डर काफ़ी मानीखेज लगा.मैंने यह सोचकर अपना आग्रह रखा कि चूँकि मेरे ब्लाग के पाठक अधिक नहीं होंगे इसलिए ज्यादा डरने की ज़रूरत नहीं.वे मान गए.कुछ कविताएँ भेजीं.जिन्हें संदीप पाण्डेय ने यूनीकोड में बदलकर यहाँ छापने लायक बनाया.उन्हीं में से यह एक कविता आप सब के लिए.इसके बारे में आप ही सोचें.
उदाहरण
विचारहीनता की इस दुल्हन-सी सजी नाव में
मस्ती है जादू है निखालिस आनन्द है मांसलता है
और अन्यमनस्कता है
आयातित कपड़ों और गहनों और सपनों में लकदक यह दुल्हन
मारू है
जो देखे वही डोल जाए
ज़िन्दगी में आगे बढ़ते हुए एक दिन मैंने पाया
यह विचारहीनता निर्विकल्प है
इसकी सीढ़ियाँ चढ़कर मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा
जो कभी मेरे सीमित एजेंडे में नहीं रहा
इससे आँखें चार होते ही मैंने पाया
मैं तो बहुत पिछड़ गया हूँ
अब जल्दी-जल्दी मुझे मंज़िलें फलाँगनी चाहिए.
ऐसी ही एक मंज़िल फलँगते हुए
जब मेरे पैरों के नीचे
कुछ मरणासन्न लोग आए जो कभी मेरे स्वजन थे
और जो बचा लेने की गुहार मचाए थे
मैंने उनकी तरफ़ उदात्त निगाहों से देखा
और हाथ झाड़ते हुए बोला-
ज़िन्दगी और मौत पर भला किसका वश है!
इस तरह एक के बाद एक सीमाएँ तोड़ते हुए
विचारहीनता के गर्भगृह की ओर मैं अग्रसर था
मेरी आँखों में सितारे जगमगा रहे थे
सारे अवरोध पार करते हुए
एकदम स्मृतिविहीन और मुक्त होकर
जब मैं अन्तिम पड़ाव पर पहुँचा
मैं क़तई भौंचक नहीं था
दरअसल अब मैं एक भिन्न संसार में था
वहाँ इतनी ज़्यादा रौशनी की चकाचौंध थी कि
निरावृत आँखों से उसे देखा नहीं जा सकता था
अतः सबसे पहली उपलब्धि मुझे यह हुई कि मैं
नितान्त दृष्टिहीन हो गया
उसके बाद क्या-क्या हुआ
मुझे नहीं मालूम
मुझे सिर्फ़ इतना महसूस होता रहा कि
वे मुझे हिदायतें देते रहे और तदनुसार
मैं सक्रिय होता रहा
शंभु गुप्त जी समकालीन हिंदी आलोचना के जाने-माने हस्ताक्षर हैं.पिछले कुछ समय से लगातार कहानी आलोचना के चुनौतीपूर्ण क्षेत्र में सक्रिय हैं.मुठभेड़ करना और आलोचना के रास्ते में किसी की परवाह न करना मेरे जानने में उनकी खासियत है.यदि आप इसे आलोचक होने की ही शर्त मानते हों तो इतना अवश्य जोड़ दूँ वे यह शर्त बा-खूबी पूरी करते हैं.इस बारे में खुद की परवाह भी नहीं करते हुए मैंने उन्हें देखा है.मौक़ा था देवास में प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति जी के कहानी पाठ का.शंभू जी कहानी सुन चुकने के बाद रूमाल लेकर बाथरूम की ओर भागे.सार्वजनिक तौर पर कहा भी शिवमूर्ति भाई तुम बहुत रुलाते हो...लेकिन उसी कहानी केसर कस्तूरी पर जब बोले तो इस प्रभाव को जिससे सभी अभिभूत थे कोई मूल्य नहीं दिया.बल्कि इसी भावप्रवणता को आधार बनाकर कहानी को कमज़ोर सिद्ध किया.मेरे लिए यह विचलित करनेवाला रहा.मैंने शंभु जी से अनधिकार पूछा भावुकता अगर कहानी का कमज़ोर पक्ष है तो आप यह जानते हुए क्यों भावुक हुए?उन्होंने बलपूर्वक इसके पीछे अपने संवेदनशील मनुष्य होने को कारण बताया.साथ ही कहा-लेकिन मैं आलोचक होने के नाते जो तय करता हूँ उसे अपनी कमज़ोरियों,पसंद-नापसंद से भी बचाने की कोशिश करता हूँ.
मैं काफ़ी समय से शंभु गुप्त जी को पढ़ता सुनता रहा हूँ.फ़ोन पर बेतकल्लुफ़ लंबी लंबी बातें भी होती हैं.पर हाल ही में उन्हीं से पता चला कि वे कविताएँ भी लिखते हैं.संकोच तो करते ही हैं धीरे से बताया कि आलोचक रहते छपवाने से डरता भी हूँ.मुझे उनकी कई बातों की तरह यह डर काफ़ी मानीखेज लगा.मैंने यह सोचकर अपना आग्रह रखा कि चूँकि मेरे ब्लाग के पाठक अधिक नहीं होंगे इसलिए ज्यादा डरने की ज़रूरत नहीं.वे मान गए.कुछ कविताएँ भेजीं.जिन्हें संदीप पाण्डेय ने यूनीकोड में बदलकर यहाँ छापने लायक बनाया.उन्हीं में से यह एक कविता आप सब के लिए.इसके बारे में आप ही सोचें.
उदाहरण
विचारहीनता की इस दुल्हन-सी सजी नाव में
मस्ती है जादू है निखालिस आनन्द है मांसलता है
और अन्यमनस्कता है
आयातित कपड़ों और गहनों और सपनों में लकदक यह दुल्हन
मारू है
जो देखे वही डोल जाए
ज़िन्दगी में आगे बढ़ते हुए एक दिन मैंने पाया
यह विचारहीनता निर्विकल्प है
इसकी सीढ़ियाँ चढ़कर मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा
जो कभी मेरे सीमित एजेंडे में नहीं रहा
इससे आँखें चार होते ही मैंने पाया
मैं तो बहुत पिछड़ गया हूँ
अब जल्दी-जल्दी मुझे मंज़िलें फलाँगनी चाहिए.
ऐसी ही एक मंज़िल फलँगते हुए
जब मेरे पैरों के नीचे
कुछ मरणासन्न लोग आए जो कभी मेरे स्वजन थे
और जो बचा लेने की गुहार मचाए थे
मैंने उनकी तरफ़ उदात्त निगाहों से देखा
और हाथ झाड़ते हुए बोला-
ज़िन्दगी और मौत पर भला किसका वश है!
इस तरह एक के बाद एक सीमाएँ तोड़ते हुए
विचारहीनता के गर्भगृह की ओर मैं अग्रसर था
मेरी आँखों में सितारे जगमगा रहे थे
सारे अवरोध पार करते हुए
एकदम स्मृतिविहीन और मुक्त होकर
जब मैं अन्तिम पड़ाव पर पहुँचा
मैं क़तई भौंचक नहीं था
दरअसल अब मैं एक भिन्न संसार में था
वहाँ इतनी ज़्यादा रौशनी की चकाचौंध थी कि
निरावृत आँखों से उसे देखा नहीं जा सकता था
अतः सबसे पहली उपलब्धि मुझे यह हुई कि मैं
नितान्त दृष्टिहीन हो गया
उसके बाद क्या-क्या हुआ
मुझे नहीं मालूम
मुझे सिर्फ़ इतना महसूस होता रहा कि
वे मुझे हिदायतें देते रहे और तदनुसार
मैं सक्रिय होता रहा
फिर उन्होंने मुझे अपने अनुयायियों की स्थायी सूची में
पंजीबद्ध कर लिया और एक तमगा मेरे सीने पर टाँग दिया
मैंने सुना कि अब वे मुझे एक उदाहरण के रूप में
विपक्ष के सामने पेश करेंगे।
मित्रो!
मुझे अफ़सोस है कि
तुम्हारे साथ संवाद की
अब मुझे कोई
ज़रूरत नहीं रही.
-शंभु गुप्त
अलवर,राजस्थान