जबकि सभी यह अच्छी तरह समझ गए थे कि बौद्धों के बाद भारत में ज्ञान-विज्ञान में कोई तरक्की हुई न आगे किसी भाँति संभावना है.तब से लेकर पिछले दो हज़ार नौ तक का सब नकल है.सदा की तरह यहाँ सबकुछ उधार या आयातित ही रहा आएगा.क़रीब क़रीब सारे ऐसे ही अंग्रेज़ीदां बौद्धिक फैसलों के तामीली वक्त में रामचरन को यह खब्त सवार हो गई कि हिंदी में ही हर तरह का शैक्षिक अनुशासन खुद सीखेंगे भी और आगे की ज़िंदगी में सत्ता तथा बाज़ार द्वारा लगभग व्यर्थ कर दी जानेवाली शिक्षा ले रहे बच्चों को सिखाएँगे भी.जितना हो सकेगा उन्हें बदलेंगे.यद्यपि वे किसी भी विश्वविद्यालय में,मिली हुई फेलोशिप की अवधि गुज़ारने रिसर्च करते रहकर पैसा,वक्त और बुद्धि बरबाद करके भी विद्वान कहला सकते थे,ढलती उम्र में ही सही प्रोफेसर हो सकते थे पर उन्होंने चूतियापों से सँवरनेवाली क़िस्मत को लात मारकर हिंदी का झोलाछाप-चप्पलधारी मास्टर होना स्वीकार कर लिया.इस निर्णय के पीछे उनकी एक घाटे का सोच यह भी था कि उच्च शिक्षा में सीखने के लिए कोई पढ़ने नहीं जाता.सब पके पकाए महत्वाकांक्षी अवसर झपटने वहां जाते हैं.इन्हीं रामचरन के स्कूल में यानी भारत के एक क़स्बे से जुड़ चुके गाँव के स्कूल में यह दिलचस्प किंतु मामूली घटना हुई.
एक लड़की जो पापा की डाँट के डर से परीक्षा में शत प्रतिशत अंक लाने के लिए ही सोती-जागती थी,हिंदी में भी पूर्णांक लाने की अभिलाषा रखती थी.एक दिन वह रामचरन की ध्यान से जाँची गई लगभग लाल स्याही से रंगी हुई उत्तरपुस्तिका लेकर उनके टेबल के पास पहुँची.उसने पूरी समस्या को बड़े मौलिक ढंग से रखा क्योंकि उसके जानने में आ गया था कि रामचरन सर समझा बुझाकर लौटा देते हैं.बोली-सर,आपने सौ में कुल चार अंक काटे है लेकिन दिया बानवे है मिलना तो छियानवे चाहिए न?रामचरन ने सोचा कह तो सही रही है ये आठवीं के बच्चे भी कितना सोचते हैं पर उन्होंने भी जवाब दिया गौर से देखो अगर टोटल में गलती हो तो बताओ मैं ठीक कर दूँगा.लड़की ने कहा-सर टोटल तो सही हैं.पर नंबर तो छियानबे ही होना चाहिए.वह इतना कहकर रोने लगी.बाक़ी बच्चों ने भी उसकी बात को सही ठहराया.पूरा प्रसंग इतना भावुक एकतरफा हो गया कि रामचरन को समझना मुश्किल हो गया चूक कहाँ हो गई?पर बिना संतुष्ट हुए नंबर बढ़ा देना उन्होंने स्वीकार नहीं किया.एक बार पहले भी यह लड़की बदमाशी कर चुकी है.उन्हीं की जाँची हुई कापी के सामने अंकित नंबर को बिल्कुल न छेड़ते हुए आखिरी पृष्ठ के ठीक ऊपर नंबर बढ़ाकर पापा को इस आजिज़ी से दिखा चुकी है कि पप्पा,सर ने सामने करेक्ट नहीं किया क्योंकि काट-पीट हो जाएगी इसलिए यहाँ पीछे लिख दिया है.मुझे अट्ठानवे ही मिले हैं.वो क्या है न पप्पा कि हिंदी में पूर्णांक मिलते ही नहीं.लड़की के पिता जी इसे स्पष्ट समझने रामचरन के घर आ गए थे.काफी देर तक उलझना पड़ा था उन्हें.रामचरन के लिए यह अनोखा अनुभव था कि होशियार बच्चे भी प्रतियोगिता में झूठे हो रहे हैं.आज फिर वही लड़की सामने थी.वह कुछ तय कर पाते कि उसी वक्त परीक्षा विभाग से ज़रूरी बुलावा आ गया तो वे चले गए.प्रकरण कल तक के लिए टल गया.
पर बात रामचरन के दिमाग़ से निकल नहीं रही थी.इधर ऐसे हादसे भी हो रहे थे कि कुछ नंबर कम हो जाने से छोटे-छोटे बच्चे आत्महत्या कर रहे थे.यह सोचकर ही उनकी आँख भर आई कम नंबर के बगल में एक मासूम बच्चे की लाश पड़ी हुई है.उन्होंने पानी पिया,सिर धोया और लड़की की उत्तरपुस्तिका लेकर बैठ गए.जब मन एकाग्र हुआ तो उनके दिमाग़ में एक बात कौंधी और उन्हें हँसी आ गयी.वह ज़ोर से हँसे,अपनी ही चुटकी ली-मैं भी कम बुद्धू थोड़े हूँ.ऐसा भी तो हो सकता है लड़की चार नंबर का प्रश्न हल करना ही भूल गई हो.उन्होने ध्यान से देखा तो यही हुआ था.चूँकि कक्षा में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या आधे से ज्यादा थी जो परीक्षा मे कोई प्रश्न नहीं छोड़ते थे इसी गफ़लत में यह सोचा तक नहीं जा सका था.
अगले दिन कक्षा में उन्होंने लड़की को यह बात समझाई.लड़की मान गई.धीरे से बोली-हाँ सर.फिर भी पूरी कक्षा की सहमति ली.सब संतुष्ट हो गए.जैसे ही पूरे जोश के साथ कक्षा में सामूहिक यस सर गूँजा बच्चों का भोलापन देखकर उनकी भावुक आँखें फिर भर आईं.अब की बार उन्होंने निजी क़िस्म की बात सोची-कोई काम छोटा नहीं कालेज में प्रोफ़ेसर बनकर गलत विद्यार्थियों को प्रमोट करते रहने से अच्छी है ये साढ़े तीन हज़ार की मास्टरी.एक अध्यापक के गलत मूल्याँकन से पूरी सभ्यता बीमार हो जाती है,तमाम विश्वविद्यालय मूर्ख बनाने के कारखाने है उनके दिल में अपने प्रिय किंतु ज़माने भर में बदनाम दार्शनिक की बात गूँजी.उन्होंने मन में अपना संतोष दोहराया और पढ़ाने में जुट गए.
सुंदर पोस्ट ........
जवाब देंहटाएंआज दिनांक 2 अप्रैल 2010 को दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में रामचरन की खब्त शीर्षक से आपके ब्लॉग की यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई
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