शनिवार, 30 जनवरी 2010

शहीद दिवस

आज 30 जनवरी है.शहीद दिवस.महात्मा गांधी की पुण्यतिथि.आज के दिन इन्हें गोली मारी गई थी.यह पिछली सदी की सबसे बड़ी नियोजित हत्या थी.इस हत्या के पीछे अब तक चला आता हुआ विचार था.धार्मिक चरमपंथ की खाद में पलनेवाली सत्ताकामियों की सबसे क्रूर महत्वाकांक्षा.गांधी के जिस सीने में करोड़ों भारतीयों के विश्वास,सपने संचित थे,जिसकी करुणा वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए भजन में गूँजती थी उसी सीने को सहिष्णु कहलाने वाली हिंदू चरमपंथी गोली छलनी कर देगी किसी ने सोचा नहीं था.अनुमान तो ये भी नहीं था कि वही लोग नाम-भेष बदल बदलकर आगे लोकतांत्रिक तरीके से दिल्ली पर काबिज़ होंगे.वहीं से दिलों में विभाजन के षडयंत्र,हाथों में फूल,आँखों में आँसू भरकर राजघाट जाएँगे.
गांधी की सफलता ये थी कि वे अपनी बातों की खुद मिसाल थे.सादा जीवन उच्च विचार का सजीव उदाहरण.उनकी आचरण से पवित्र शांतिपूर्ण आवाज़ सबसे ज्यादा सुनी जानेवाली,भरोसेमंद और उद्धारक आवाज़ थी.गांधी को राजनीतिक संत कहने में किसे आपत्ति होगी?गांधी जी ने जो योगदान दिया उसे बड़ा और छोटा कहनेवाले बहुत मिल जाएँगे पर कोई शायद ही यह कह पाए कि गांधी ने इस महादेश से अपने लिए कुछ चाहा.एक धोती,चादर,लाठी के सहारे ज़िंदगी गुज़ार दी.जब बड़े से बड़ा फ़कीर भी परिवार के लिए सुविधाएँ जुटाता हुआ देखा गया है तब गांधी ने राजनीति में अपरिग्रह को जिया.मैं जब भी इस त्याग को याद करता हूँ आँखें भर आती है.
श्रद्धांजली स्वरूप महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज का यह अंश.
आप हिंदुस्तान का अर्थ मुट्ठीभर राजा करते हैं.मेरे मन तो हिन्दुस्तान का अर्थ वे करोंड़ों किसान हैं,जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं.
राजा तो हथियार काम में लाएँगे ही.उनका वह रिवाज़ ही हो गया है.उन्हें हुक्म चलाना है.लेकिन हुक्म माननेवालों को तोपबल की ज़रूरत नहीं.दुनिया के ज़्यादातर लोग हुक्म माननेवाले हैं.उन्हें या तो तोपबल या सत्याग्रह का बल सिखाया जाना चाहिए.जहाँ वे तोपबल सीखते हैं वहाँ राजा-प्रजा दोनो पागल से हो जाते हैं.जहाँ हुक्म माननेवालों ने सत्याग्रह करना सीखा है वहाँ राजा का जुल्म उनकी तीन गज की तलवार से आगे नहीं जा सकता.और हुक्म माननेवालों ने अन्यायी हुक्म की परवाह भी नहीं की है.किसान किसी तलवार बल के बस न तो कभी हुए हैं,और न होंगे.वे तलवार चलाना नहीं जानते,न किसी की तलवार से डरते हैं.वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोनेवाली महान प्रजा हैं.उन्होंने मौत का डर छोड़ दिया है.यहाँ मैं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर तस्वीर खींचता हूँ,यह ठीक है.लेकिन हम जो तलवार के बल से चकित हो गए हैं,उनके लिए यह कुछ ज़्यादा नहीं है.
बात यह है कि किसानों ने,प्रजा-मंडलों ने अपने और राज्य के कारोबार में सत्याग्रह को काम में लिया है.जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है.यह सत्याग्रह ही है.
मुझे याद है कि एक रियासत में रैयत को अमुक हुक्म पसंद नहीं आया,इसलिए रैयत ने हिजरत करना-गाँव खाली करना-शुरू कर दिया.राजा घबराये.उन्होंने रैयत से माफ़ी माँगी और हुक्म वापस ले लिया.ऐसी मिसालें तो बहुत मिल सकती हैं.लेकिन वे ज़्यादातर भारतभूमि की ही उपज होंगी.ऐसी रैयत जहाँ है वहीं स्वराज्य है.इसके बिना स्वराज्य कुराज्य है
-महात्मा गाँधी

बुधवार, 27 जनवरी 2010

मेरी ज़िद

गाँव से रीवा आए हम सुनते ही थे कि कोई आशीष त्रिपाठी हैं.बड़े मेधावी हैं.बी.एस.सी के बाद हिन्दी में एम.ए. करने गए.एम.ए.किया ही नहीं यू जी सी के जे.आर.एफ़ भी हुए.नाटकों में खाली पी.एच.डी नहीं कर रहे बड़े शौक और सफलता के साथ रंगमंच से भी जुड़े़ रहे हैं.कवि हैं.रेडियो में काम कर चुके हैं.अच्छा मंच संचालन करते हैं.बड़े बड़े साहित्यकारों से साक्षात्कार करते रहते हैं.प्रसिद्ध आलोचक,संगठक,संपादक कमला प्रसाद के बेटे जैसे हैं.उसी लड़की से शादी की है जिससे प्रेम करते थे.गोष्ठियों में बाक़ायदा पिता को भी सेवाराम जी संबोधित करते हैं.कहनेवालों ने तो ठीक मुँह पर यह भी कहा कि कुछ पिता बेटों से जाने जाते हैं जैसे डा.सेवाराम त्रिपाठी.रीवा में जब तक रहा हर साल विश्वविद्यालय के युवा उत्सव में सुनने में आ ही जाता था कि भई,नाटक तो आशीष के समय होता था .मेरे दोस्त उन्हें आशीष भैया बोलते और उनके हवाले से कहते कि हिंदी फटीचर ही नहीं पढ़ते.बेरोज़गारी के इस दौर में आशीष भैया ने प्रोफ़ेसर होकर क्षेत्र को तथा खुद को सिद्ध किया है.मैं जब शैलेश और मुकुल के साथ आशीष त्रिपाठी से मिला तो मन ने बहुत सी बातों की तस्दीक कर दी.यह भी मार्क किया तार्किक हैं आशीष जी.मिलनसार भी.अगर सब कुछ इसी दिशा में चलता रहा तो अच्छे आलोचक होंगे.आजकल काफ़ी दूर आ जाने के कारण आशीष को भैया कहनेवाले दोस्तों से मैं मिल नहीं पाता.उन पर फुर्सत से बात भी नहीं हो पाती.पर कुछ नये दोस्तों से सुनता रहता हूँ.आजकल सबकुछ है आशीष जी के पास.अच्छी नौकरी.अच्छी जीवन साथी,नामवाला शहर.बड़े बड़े संबंध.इधर नामवर जी के अच्छे साक्षात्कार करके महत्वपूर्ण काम किया आशीष सर ने.बी एच यू में आशीष सर बहुत अच्छा पढ़ाने वालों में हैं.बहुत ही ज़रूरी किताबों के संपादन में जुटे हैं.कविता की किताब आने ही वाली है.काशीनाथ सिंह जी जैसे बड़े और पारखी लेखक उन्हें प्यार करते हैं आदि आदि.यह कविता इन्हीं आशीष त्रिपाठी की हैं.आपसे अनुरोध है कि मेरी यादनुमा बातों पर ना जाएँ और इसे ध्यान से पढ़ें.

ज़िद है
कि चमचमाती हुई स्वर्णिम सड़कों पर चलकर भी
पहुँचुगा वहीं
जहाँ पहुँचाती रहीं मुझे पगडंडियाँ
जब बाज़ार मेरे भीतर
बहुत सारी चीज़ों की कर लेगा निशानदेही
बिक सकने वाली वस्तुओं के रूप में
तब भी
मेरी कोई दुकान नहीं होगी
आचार-संहिताओं के बीच
जीवित रखूँगा
थोड़ी सी बचपन की जगह
जगह भटकने की
पागलपन की,जुनून की थोड़ी सी जगह
मंदिर जाने की जगह
किसी विस्मृत सा लोक कवि का
पुराना प्रेम गीत गाउँगा मैं
जब दुनिया के उलझे हुए तारों को
सुलझाने की बहस में डूबे होंगे बौद्धिक
मैं दूर से आते गीत का
बचा हुआ हिस्सा सुनने
प्रवेश कर जाऊँगा सामने फैले अँधेरे में
मेरे घर वे सब आ सकेंगे
जिनकी आँखों में
बच्चों को प्यार करने की ललक बाक़ी होगी
दुर्योधनी और हिटलरी ज़िदों के सामने
मनुष्यता के तने हुए सर की तरह
खड़ी मेरी ज़िद रहेगी
जहाँ मैं हूँ
मेरे साथ होगी.

रविवार, 10 जनवरी 2010

भगवान ढोती पीठ




प्रगतिशील या अप्रगतिशील की बात थोड़ी देर के लिए छोड़ दें तो आज भी त्याग,सहयोग,समर्पण तथा बलिदान के उदाहरण ज्यादा धर्म में ही देखे जाते हैं.
भूख सहना,कठिन यात्राएँ करना,पीड़ा भोगना धर्म में आम बात हैं.अगर लोग अपनी सुविधा का सबसे कम खयाल करते हैं,तकलीफ़ों की सबसे कम शिक़ायत करते हैं तो वह धर्म का ही क्षेत्र है.लोग किसी भी धर्म के हों अगर संकल्प धार्मिक है तो उसे पूरा करने में कोई समझौता नहीं करते.
सब के अनुभव का हिस्सा है यह कि धर्म का सवाल हो तो लोगों को एकजुट होने में देर नहीं लगती.मगर अनुशासन धर्म की बजाय दूसरा हो तो बहाने बढ़ते बढ़ते मांगो में बदल जाते है.
यह कहना गलत नहीं होगा कि वैज्ञानिक उपलब्धियों ने धर्म का ही रास्ता आसान किया है.तीर्थों की ओर जानेवाली ट्रेने या सड़के कभी सूनी नहीं हुईं.आपदा हों या अपराध धार्मिक समूहों को डिगा नहीं पाते
साठ साल के गणतांत्रिक भारत में संविधान की किताब कुछ चुने हुए लोग ही पढ़ते हैं जबकि धार्मिक किताबें अनपड़ों को भी याद होती हैं.वे उन्हें ही आचरण में लाते हैं.
आखिर क्या कारण हैं कि अब तक कोई आह्वान धर्म की पुकार से बड़ा साबित नहीं हुआ? लोग क्रांतियों के बाद भी धर्म में ही जीते मरते रहते हैं.

ये सवाल असंख्य बार पूछे जा चुके है.पूछनेवाले अच्छे भी नहीं माने गए.मेरी जिज्ञासा है कि क्या यह पूछना बंद भी हो पाएगा?

बहरहाल,जिस बहाने से मैं यह लिख रहा हूँ,उसे आप चित्रों में देख रहे हैं.सचमुच इसे देखना रोंगटे खड़े कर देता है.

ये तमिल श्रद्धालु हैं.

अपनी मांगी मुराद पूरी होने की खुशी में मुरुगन भगवान(कार्तिकेय) का रथ खींचकर मंदिर तक ले जा रहे हैं.पीठ की विशेष नस में लोहे के हुक फँसाए गए हैं.(यहाँ हुक फँसाने पर खून नहीं निकलता.दर्द के बारे में आप ही सोचिए.).रस्से रथ से बँधे हैं.

मैं इस जानकारी से दहल गया कि आज यह रथ खींचना काफ़ी आसान हो गया है क्योंकि सड़क चिकनी हैं और रथ के पहिए आधुनिक हैं.
किसी वक़्त में यह सवारी पगडंडियों,कच्ची सड़कों से गुज़रती रही है.कुछ जगहों में अब भी वही स्थिति है
.
इतना ही नहीं तमिल भक्त ऐसे ही हुक से बिंधे हुए बाँस से लटकते हुए भी मंदिर तक पहुँचते हैं
.
यह तमिलनाडु की बात है.अलग अलग रूपों में भारत के लोगों की तपस्या इसी रूप में दिखती है.

मैं जानना चाहता हूँ ये कैसी पीठ हैं जिन्हें भगवान ही ढोना है चाहे कैसा भी युग हो?

भगवानों को खींचनेवाली अपराजेय जनता के बीच मनुस्यता की सारी आस्थाएँ धर्म के मुक़ाबले दोयम क्यों हैं?

इसे कौन सा आविष्कार सुलझाएगा?

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

दोस्ती

किताब सी तुम्हारी दोस्ती.

पढ़कर इम्तहान देना
न लिखकर ईनाम लेना
बस आदमी होते जाना
ज़मी-आसमां से भर जाना.

ज़िल्द बदलने की चिंता
न पन्ने उखड़ने का डर
बस बरतना प्यार से
संवरते जाना.

काली स्याही में
उजली भाषा सी
साथी किताब सी
तुम्हारी दोस्ती.