सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

बयां जब कहानी करें न आँखों का पानी मरे

पत्रिका 'सामायिक सरस्वती' में प्रकाशित एक विवाद में कथाकार-चित्रकार-फिल्मकार प्रभु जोशी पर कहानीकार भालचंद्र जोशी जी का आरोप है कि उन्होंने आदतन अपने बहुत क़रीबी लोगों की हमेशा छवि ख़राब की। इस आरोप में उन्होंने बतौर सबूत तीन ऐसे साहित्यकारों का नाम भी लिया है जिन्हें मैं थोड़ा-बहुत जानता हूँ। तीनों संयोग से कहानीकार हैं। अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। नाम हैं प्रकाश कान्त, जीवन सिंह ठाकुर और सत्यनारायण पटेल। तीनो कहानीकार मूल रूप से देवास के हैं। प्रभु जोशी का जन्मस्थान भी देवास ही है।

प्रकाश कान्त को प्रभु जोशी कान्त कहते हैं। जीवन सिंह ठाकुर को काका और सत्यनारायण पटेल को सत्यनारायण। तीनो कहानीकार प्रभु जोशी को प्रभु दा कहते हैं। प्रभु जोशी ने कम से कम बीस बार मुझसे कहा होगा कि मुझे कान्त और काका के बारे में संस्मरण लिखना है। मैं सत्यनारायण पटेल के साथ प्रभु जोशी के घर गया हूँ और प्रभु जोशी के साथ कान्त और काका के घर जा चुका हूँ। मैंने हमेशा एक गरिमा, अपनापन और कभी ख़त्म न होने वाली दोस्ती की गंध महसूस की है। भालचंद्र जोशी जी के आरोप में जो बदबू है वह बर्दाश्त नहीं हुई।

काका का प्रभु जोशी एक किस्सा सुनाते हैं- परीक्षा चल रही थीं; मैं पढ़ रहा था और काका कोई राजनीतिक तैयारी में लगे थे। वे पर्चे वगैरह लिखते थे। मैंने कहा काका, कल परीक्षा है तो काका ने कहा वियतनाम में और वहां वहां ऐसा संकट आया पड़ा है और तुम्हें परीक्षा की पड़ी है। बाद में रिजल्ट आया तो काका बहुत उदास थे। बोले प्रभु दा यह व्यवस्था हमें पास नहीं कर सकती। मैंने कहा काका एक रात की बात थी पढ़ लेते। बस। ऐसे हैं अपने काका। विश्वस्तरीय चिंताओं में रहते आये हमेशा से। अंतराष्ट्रीय राजनीति में उलझे, जब उलझे। समाजवादी हैं। सौजन्य की मूर्ति। विनम्र इतने हैं कि हमेशा हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं। डस्टबिन में कचरा भी डालेंगे तो क्षमा मांगकर। बोल सकते हैं डस्टबिन, माफ़ करना हमें कचरा डालने के लिये आपका उपयोग करना पड़ रहा।

कान्त के बारे में प्रभु जोशी कहते हैं कि जिस महाविद्यालय में मैं लाइब्रेरी में बुक लिफ्टर था उस महाविद्यालय में कान्त एम ए में पढ़ते हुए हीरो लेखक थे। लड़कियों के चहेते। खूब छपते थे और महाविद्यालय में लोकप्रिय थे। मैंने कहानी लिखनी शुरू ही की कान्त को देखकर।

जिस किसी ने प्रभु जोशी की अविस्मरणीय कहानी 'आकाश में दरार' पढ़ी होगी उसे यह बताने की ज़रूरत नहीं कि उसमें प्रकाश और परभु नाम के परस्पर दोस्त हैं। प्रभु जोशी ने तस्दीक नहीं की है कभी लेकिन मेरा अनुमान है वह प्रकाश, कान्त ही हो सकते हैं। वे पूरे के पूरे न भी उतरे हों तो भी याद वही आते हैं। कहानी के पात्रों में समकालीन लोगों की निशानदेही कर लेना गलत हो सकता है लेकिन इसकी भी नोबत आ जाये तो क्या करें?

सत्यनारायण पटेल के बारे में प्रभु जोशी का कहना है कि उसकी कहानी में विवरण अधिक होते हैं लेकिन वह अच्छा काम कर रहा है। भाषा में मालवी शब्दों का प्रयोग ग़लत नहीं। उन्होंने एक रेडियो प्रोग्राम में मालवा के कहानीकारों में सत्यनारायण पटेल को शुमार भी किया है।

ये तीन उदाहरण अपने रिस्क और जवाबदेही पर इसलिए कि किसी वरिष्ठ साहित्यकार-कलाकार पर हमला ही करना हो तो भी इस कदर उसे अपने निकट के लोगों से दूर न किया जाए। निकटतम लोगों के बीच किसी को बैरी और निकृष्ट साबित कर देने की कोशिश किसी के लिए भी बड़ी असहनीय होती है।

भालचंद्र जोशी जी को अपने लिखे हुए के सम्मान में कदाचित प्रभु जोशी को बूढ़ा और चुका हुआ तथा प्राइमरी के बच्चों जैसा पेंटर कहने की आवश्यकता नहीं थी। यह बहुत निम्नस्तर का हमला है। जिसमें हमलावर ही चोट खाता है। मैंने सुना है प्रभु जोशी अपने कठिन अतीत में पुताई आदि का काम कर चुके हैं तो गरीबी की यह मेहनत भी सम्मान की दरकार रखती है। फ़िलहाल वे जलरंग के स्वयं शिक्षित ख्यात चित्रकार हैं। सब जानते हैं।

इस पूरे प्रसंग में पुनर्लेखन के दावे पर भालचंद्र जोशी जी का व्यक्तिगत होकर चरित्र हनन करने लगना मुझे आपत्तिजनक लगा। वे थोड़ा समय लेकर अपने लेखन के पक्ष में अपने तर्कों को गरिमापूर्ण बना सकते थे। आगे बहुत सारा लिखने के लिए भगवान का दिया सबकुछ है उनके पास। प्रभु जोशी ने उन्हें चैलेन्ज ही तो किया है कि अपने जैसा लिखकर दिखाओ तो वे जवाब के साथ सामायिक सरस्वती को एक नयी कहानी भी भेज देते। सब पोल खुल जाती प्रभु जोशी के दावे की। यह आगे भी किया जा सकता है।

यदि प्रभु जोशी आज ही सही भी साबित हो जाएँ तब भी भालचंद्र जी के पास बंदरिया का एक मार्मिक रोल बचता है जिसमें वह अपने मरे बच्चे को नहीं छोड़ती और ज़माने पर पलटवार भी नहीं करती कि नीच लोगो तुम मेरे बच्चे को मरा साबित करनेवाले महानीच हो।

वे कोशिश करते तो प्रभु जोशी से पूछ सकते थे मुझे दाखिल ख़ारिज करो मेरे बड़े भाई लेकिन अपनी ही लिखी कहानियों को मारकर क्या पाओगे? पहले जो अंग दान कर चुके उन्हें अपनी काया नें फिर कैसे लगाओगे? दुनिया की महान लोककथाओं के कथाकारों को कौन जानता है? कहानी को जारज बनाकर किसका भला होगा? क्या साहित्य का? क्या समाज का? और आज तक पुनर्लेखन का कौन सा वाद फैसले तक पहुंचा है?

लेकिन भालचंद्र जी ने चरित्रहनन का रास्ता चुना। यह नहीं होना था। उचित जवाब देने की बजाय दुश्मन को उसके निकट लोगों की नज़र में गिरा देने की कोशिश करना अमानवीय होता है।

यही एक वजह है जिसके कारण मैं प्रभु जोशी के व्यक्तित्व के पक्ष में खड़ा हूँ। रही बात कृतित्व की तो प्रभु जोशी का सृजन अमिट और अपनी मिसाल आप है

शशिभूषण

श्री भालचन्द्र जोशी के आक्षेप: कुछ मेरा, कुछ प्रभु संदर्भ- ज्ञान चतुर्वेदी

पत्रिका 'सामायिक सरस्वती' में प्रकाशित कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी और कहानीकार भालचंद्र जोशी का विवाद प्रकाशित हुआ था। इस पर इधर उधर बतकही हुई, लेख लिखे गए। फेसबुक, ब्लॉग्स पर बातें हुईं। मेरे पढ़ने में दो महत्वपूर्ण लेखकों की टिप्पणियां आईं। अनंत विजय और अशोक वाजपेयी जी की।

लेखक भी हमारे समाज से ही आते हैं। हानि लाभ दोस्ती दुश्मनी से भी संचालित होते ही हैं। सबके लिए हर कोई दुखी नहीं होता। अशोक वाजपेयी जी की साहित्य वत्सलता जग जाहिर है। उनके कामों में साहित्य और कला को एक मुकाम तक भी पहुँचाने की असरदार कोशिश है। उनके चुनाव और असहमति अपनी जगह हैं। शरद जोशी की याद भी लोग करते ही हैं। लोगों को मालूम ही है प्रेमचंद के जनाजे में किसी मास्टर के मर जाने का ही मामूलीपन था।

साहित्य की दुनिया में भी सब लेखकों का भला हर कोई नहीं सोचता। सबके अपने अपने प्रिय हैं। इस प्रसंग को याद दिलाने के लिए , किंचित ही सही प्रसारित करने के लिए यदि मैं भी प्रभु जोशी की ओर झुका हुआ दीखता हूँ तो ठीक है। मैं जानता ही प्रभु जोशी को हूँ। भालचंद्र जी को केवल पढ़ा है। कभी मिला नहीं।

खैर , इस प्रसंग में ख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी की टिप्पणी भी उनकी फेसबुक वॉल पर आई। मैंने पढ़ी टिप्पणी। ज्ञान जी के लेखन में आमतौर पर हँसमुख, मार्मिक, तटस्थ, बारीक़ और वेध्य वक्तव्य होते हैं। उन्होंने व्यंग्य को पूरेपन में आत्म सात किया हुआ है। वे हंसकर कहते हैं। तिलमिलाता सामनेवाला है। उन्हें गंभीर मुंहवाला लिखते या किसी विवाद में पड़ते मैंने नहीं देखा। अब जब उन्होंने मेरे अनुभव में पहली बार किंचित क्रोध में कोई बयान दिया है तो उसे शेयर किए बिना नहीं रहा गया।

यह टिप्पणी उन्हें ज़रूर पढ़नी चाहिए जिन्होंने अशोक वाजपेयी या अनंत विजय जी को पढ़ा है। भालचंद्र जी और प्रभु जोशी एक दूसरे से मुखातिब हो सकते हैं। दोनों सक्षम भी हैं। लेकिन यह मसला अब उपर्युक्त तीनों लेखकों की उपस्थिति के साथ साहित्य का गौरतलब मसला बनता हैं। प्रस्तुत है फेसबुक वॉल से ज्ञान जी की टिप्पणी -ब्लॉगर

मैं लंबे समय से बाहर था। फिर और भी लंबे वकफ़े से सोशल मीडिया से दूर रह कर, अपने नए उपन्यास ‘पागलखाना’ पर काम कर रहा हूँ। तभी प्रभु जोशी को लेकर, भालचंद्र जोशी जी की लिखी वह अभद्र, अनर्गल और जूठे आरोपों से भरी, टिप्पणी देख नहीं पाया था। प्रभु ऐसी बातें मुझे बताते ही नहीं। किसी और मित्र ने बताया तो मैंने प्रभु से कहकर वह टिप्पणी मंगाई और पढ़ी। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि भालचन्द्र जोशी, उस प्रभु के बारे में ऐसा लिख सकते हैं, जिसने उनकी कहानियाँ ठीक करते, री-राइट करते, उम्र गुज़ारी है। प्रभु जोशी, उनके उस्ताद जैसे रहे हैं, और इमोशनली उन्हें एकदम छोटा भाई मानते रहे हैं। मैंने सब देखा-सुना है। फिर भी। ...कमाल है। दुनिया को यह क्या हो चला है।

प्रभु जोशी पर, भालचंद्र जोशी द्वारा जिस अभद्र तेवर में वह लिखी गई है ,मैं पढ़ कर अवाक रह गया। कोई व्यक्ति, किसी से विरोध दर्ज़ करते हुए , अपनी भाषा में, इस हद तक गिर कर, कैसे इतना सारा झूठ लिख सकता है....? सचमुच ही, मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा हूँ, अब तक।

भालचंद्र जी ने नाहक ही मेरे बेटे की ‘गुंडागर्दी’ की निहायत व्यक्तिगत संदर्भ तक बीच में ला दिया, तो स्पष्टीकरण में भी बोलना ज़रूरी था। और सत्य का साथ देना भी मेरा नैतिक फर्ज़ बनता है। तभी यह टिप्पणी लिख रहा हूँ।

हाँ, मेरा बेटे का कॉलेज में रैगिंग लेने वाले लड़कों मे नाम था तो वह पकड़ा गया था। जिसे भालचंद्र ‘गुंडागर्दी’ का नाम दे रहे हैं। तब प्रभु जोशी ने, मेरे साथ भागदौड़ करके जो सहायता की थी, वह मैं भूला नहीं हूँ। प्रभु मेरा पैंतालीस वर्षों का दोस्त है। वह दोस्तियाँ, यारियाँ और भावनात्मक संबंध निभाते हुए, किसी के लिए कुछ भी कर सकता है। और करता ही रहा है। दूसरों की कहानियां लिखना, उसके ऐसे ही कामों मेँ से एक काम है।

मेरे उपन्यासों का नाम लेकर भालचन्द्र जी ने, मेरे मन में यदि प्रभु के बारे में कोई गलतफहमी पैदा करने की चेष्टा की है तो वे निश्चय ही, स्वयं के इस प्रयास से निराश होंगे। मैं खुद को उतना ही जानता हूं, जितना प्रभु को। ‘नरकयात्रा’ और ‘बारामासी’ तो मैंने डायरी में, एक बार ही लिख कर भाई श्रीकांत आप्टे को देकर, अपनी डायरी से ही सीधे टाइप करा डाले थे। काश कि मैंने ही उनको दोबारा-तिबारा लिखा होता। प्रभु तो खैर बीच में, छपने के बाद ही आए। वैसे, प्रभु से मैंने कहानी लिखने की कला को, जितना सीखा है और आजतक सीखता जाता हूं, उसने मुझे व्यंग्य-कथाएं बुनने और उपन्यास रचने का कौशल सिखाया है-- यह स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म नहीं । यदि ‘नरकयात्रा’ में ऐसा कुछ होता तो उसे भी स्वीकार करने में, मुझे कोई हिचक न होती। मैं इतना नीच, एहसानफरामोश और कृतघ्न नहीं हूँ ।

दरअस्ल, प्रभु जोशी एक ‘जीनियस’ है। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि यहाँ लोग प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। वे प्रतिभाशाली के ‘जीनियस’ का, अपने लिए इस्तेमाल करने को तो लालायित रहते हैं, परन्तु काम निकलते ही, वे उसके विरुद्ध हो जाते हैं। ‘प्रभु जोशी प्राइमरी स्कूल की प्रतिभा वाला चित्रकार है’। यह बात कहने के लिए बड़ा दुस्साहस, मूढ़ता और ढीठ किस्म का आत्मविश्वास चाहिए, और साथ में बहुत गहरी हीन-भावना भी। प्रभु को ‘बूढ़ा’,‘सनकी’ और ‘चुका हुआ कहानीकार’ बताने के लिए आदमी में, बेहद नीच किस्म की महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या चाहिए, जबकि उसने प्रभु जोशी से अपनी कहानियों को रि-राईट भी करवाया है। प्रभु जोशी का जीनियस, अपने समय की पत्रकारिता, कथा-कहानी, आलोचना, मीडिया, टीवी, रेडियो, मंच की दुनिया में एक ऐसी घटना रही है, जो दशकों में घटती है। प्रभु की कहानी-कला पर कोई टिप्पणी करने से पहले, हमें अपने बौनेपन से निकलना होगा, वरना इसी कद के साथ, जब हम ऐसा कुछ अनर्गल कहते हैं तो हाँ, प्रभु का तो कुछ नहीं बिगड़ता, पर हम ही ‘एक्सपोज’ हो जाते हैं। चांद पर थूँकने की कोशिश करने से पहले, अपने चेहरे की जरूर सोचना चाहिए, जिस पर लौटकर वह सब गिरेगा।

प्रभु जोशी ने, कितनों के लिए क्या क्या, कब कब लिखा है-- हम इस पर बात नही करें तो बेहतर है। मैंने दसों बार उनको ऐसा करते देखा है और समझाया, डाँटा भी है। इस पर फिर कभी। क्योंकि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी । भाई भालचंद्र जी के तो वे पत्र भी प्रभु के पास पड़े हैं, जिन्हें मैंने भी पढ़ा है, जहाँ वे उनसे अपनी कहानी को पूरा करने की बात कर रहे हैं। अंग्रेजी भाषा में तथा उर्दू शायरी में तो उस्तादों द्वारा अपनी रचना को दुरुस्त करवाने की परंपरा है। यदि भालचंद्र की कहानियों को प्रभु ने ठीक किया या कि ‘रि-राइट’ किया या उस्ताद ने आपके लिए कोई चीज़ लिख ही दी, तो कृतज्ञता ज्ञापन का ये तौर-तरीका तो कतई नहीं होना था, जो उनकी टिप्पणी से जाहिर हो रहा है।

ऐसी भाषा में प्रभु जोशी पर, भालचंद्र जोशी की यह टिप्पणी बेहद निंदनीय है। यह बात कोई भी पढ़ा-लिखा और समझदार भी कहेगा। जो सच है, वह तो हमेशा सामने रहा ही है। काश कि, भालचंद्र जोशी, अपनी वह टिप्पणी भी प्रभु जोशी के पास भेज कर, पहले दुरुस्त करा लेते तो भाषा में थोड़ा संयम, बड़प्पन तथा ‘ग्रेस’ आ जाता। मुझे उम्मीद है और आग्रह भी है कि प्रभु जोशी, इसका यथोचित उत्तर, ज़रूर दें।

ज्ञान चतुर्वेदी

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

सबके लिए एक सुंदर दुनिया: जनसांस्कृतिक महोत्सव और 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन, इप्टा

पहला दिन: लड़ना आसान होता है; ज़रूरत शांति के प्रयास की है - एम एस सथ्यु
भारतीय जन नाट्य संघ के तीन दिवसीय 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का शुभारंभ ‘गर्म हवा’ जैसी कालजयी फिल्म के निर्देशक श्री एम एस सथ्यु द्वारा इप्टा के ध्वज वंदना से हुई। ध्वजारोहण में उनके साथ थे कॉमरेड पेरीन दाजी, प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव राजेन्द्र राजन और इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश। ध्वजारोहण के बाद इप्टा अशोक नगर(म.प्र) ईकाई, और बिहार इकाई ने मिलकर शैलेंद्र द्वारा लिखित मशहूर जनगीत ‘तू ज़िंदा है तो जिंदगी की जीत पर यकीन कर…’ प्रस्तुत किया। इस मौके पर कॉमरेड पेरीन दाजी ने एम एस सथ्यु का स्वागत किया। इंदौर में उनकी उपस्थिति को गौरवपूर्ण बताया। ध्वज वंदना के बाद पुस्तक एवं पोस्टर प्रदर्शनी का उद्घाटन कई फिल्मों, धारावाहिकों में अभिनय कर चुके नामी गिरामी अभिनेता अंजन श्रीवास्तव ने किया।

2 अक्टूबर से 4 अक्टूबर तक इंदौर में चलनेवाले भारतीय जन नाट्य संघ के इस तीन दिवसीय 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव का विधिवत उद्घाटन आनंद मोहन माथुर सभागार में एम एस सथ्यु की अध्यक्षता में हुआ। मंच पर उपस्थित कलाकारों, लेखकों एवं रंगकर्मियों में थे अमन और जंग तथा जय भीम कॉमरेड जैसी ख्यात डाक्यूमेंट्री फिल्मकार आनंद पटवर्धन, इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह, उपाध्यक्ष अंजन श्रीवास्तव, प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव राजेन्द्र राजन, इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश, कॉमरेड पेरीन दाजी, नरहरि पटेल, वसंत शिंत्रे और मध्य प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष हरिओम राजोरिया। सभागार में देश के 25 राज्यों के लगभग 800 सौ रंगकर्मियों-संस्कृति कर्मियों के अलावा सैकड़ों की संख्या में लेखक, पत्रकार, कलाकार एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे।

अपने स्वागत भाषण में राकेश ने कहा इप्टा मोहब्बत की बात करती है। चार्ली चैप्लिन ने कहा था कि कला, कलाकार द्वारा जनता को लिखा गया प्रेमपत्र है। हम इसमें यह जोड़ते हैं कि इप्टा समय आने पर जनता की ओर से शासकों को अभियोग पत्र भी भेजती है। इप्टा के 75 साल पूरे हो रहे हैं। चित्तो प्रसाद एवं विनय राय जौनपुरी जैसे लोग इप्टा से जुड़े रहे हैं। जौनपुरी ने बंगाल के अकाल के समय ‘भूखा है बंगाल, फैला दुख का काल’ जैसा गीत लिखकर पूरे देश को झकझोर दिया था। भारतीय जन नाट्य संघ जिसका ध्येय वाक्य ‘जनता के रंगमंच की असली नायक स्वयं जनता होती है’ का नामकरण मशहूर वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया था। हम युद्ध के विरोध में तब भी थे और आज भी हैं। हम शांति के पक्षधर हैं। हम सबका मुकाबला करेंगे;युद्धवादियों का भी। हम इंपीरियलिज्म के खिलाफ़ नगाड़े, ढोलक के साथ स्वर मिलाएँगे। देश और दुनिया में अब झूठ ताकतवर हो चुका है। कहीं भी अगर कुछ बुरा हो रहा है तो हमें उससे मतलब है। हम इप्टा के अपने कद्दावर साथी ए. के हंगल तथा जितेन्द्र रघुवंशी को खो चुके हैं। हम दुगुनी मेहनत करेंगे। आज आवश्यकता वैसे गीत रचे जाने की है जैसा इप्टा के साथी रवि नागर ने लिखा-आजादी आजादी.. यह गीत पिछले साल से अब तक क्रांति का अन्तर्राष्ट्रीय गीत बन गया। इप्टा बेगूसराय के सदस्य रह चुके जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने इसे गाकर जन जन तक पहुँचाया। राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला उनपर और अन्य युवाओं पर। हम कन्हैया कुमार के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करते हैं। राकेश ने एम एम कलबुर्गी समेत दिवंगत अन्य विभूतियों को श्रद्धांजलि अर्पित की। मेधा पाटेकर, जलेस, प्रलेस, जसम, महाराष्ट्र की अंधविश्वास निर्मूलन समिति, कबीर कलामंच एवं सभी संघर्षशील जन पक्षधर संस्थाओं, व्यक्तियों के प्रति समर्थन व्यक्त किया। विभिन्न संगठनों एवं साथियों द्वारा प्राप्त ग्रीटिंग तथा शुभकामना संदेशों का उल्लेख कर धन्यवाद दिया।

सत्र की अध्यक्षता कर रहे एम एस सथ्यु ने ‘मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य और हमारी चुनौतियाँ’ विषय पर अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने अपने वक्तव्य की शुरुआत इप्टा से जुड़ाव के पुराने दिनों को याद कर की। कैफी आज़मी, बलराज साहनी, आबिद रिज़वी, आर.एन सिंह, ए.के हंगल का वे स्मरण कर ही रहे थे कि मंच पर सेल्फी लेने आ गये लोगों पर खीझ उठे। उन्होंने कहा फोटो खींचना अच्छी बात है। चाहे जितनी खींचिए। लेकिन सेल्फी यानी अपना फोटो खुद खींचना समझ से परे है। यह एक बीमारी है। बड़ी तेज़ी से देशभर में फैल चुकी है। इससे बचना चाहिए। फिर खुद को विषय पर केन्द्रित करते हुए कहा- यह तय करना मुश्किल होता है कि किस भाषा में बात करें। मैं कन्नड़ हूँ यहाँ भारत के सभी भाषा भाषी लोग मौजूद हैं। अपने आत्मीय लहजे में सथ्यु ने दक्षिण भारतीय भाषाओं तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयालम समेत हिंदी और अंग्रेज़ी में सभी का अभिवादन किया। उन्होंने कहा मै अनेक रंग संगठनों से होता हुआ 1965 में इप्टा में शामिल हुआ। मैं लंबे समय से इप्टा में हूँ लेकिन आज इसके झंडे का रंग नीला देखकर हैरान हूँ। यह कब हुआ मुझे मालूम नहीं। अंबेडकर बड़े नेता रहे। वे हिंदू से बुद्ध बने, औरों को भी बौद्ध बनाया, आरक्षण लाये। लेकिन उन्होंने बुद्धिज्म में आकर दलितवाद को एक रिलीजन बना दिया। हम रिलीजन, कास्ट, जेन्डर को नहीं मानते। धर्म और जाति से कुछ भी तय नहीं किया जा सकता। हमारी ज़िम्मेदारी बहुत बड़ी है। हमें सांप्रदायिकता और चरमपंथ को हराना है। लड़ना बहुत आसान होता है। लोगों से शांतिपूर्ण व्यवहार करना कठिन होता है। तकनीकि प्रगति इतनी हो चुकी है कि घर बैठे बम फेंके जा सकते हैं लेकिन शांति के प्रयास काफ़ी कठिन हैं। युद्ध के मौके पिछली सरकारों के पास भी थे। लेकिन उन्होंने हमले नहीं किये। लेकिन यह सरकार युद्ध कर रही है। आज की सरकार कम्युनल है। राहुल गांधी मोदी का युद्ध के विषय में समर्थन कर बचकानी बात कर रहे हैं। यह कांग्रेस का पक्ष नहीं राहुल गांधी की अपरिपक्वता है। मेरे विचार से सर्जिकल ऑपरेशन भारत के लिए शर्मनाक है। भारत का भरोसा आक्रमण पर नहीं होना चाहिए। हम शांति के देश हैं। बुद्ध की ज़मीन हैं। अहिंसा और शांति हमारा रास्ता है। कलाकार के रूप में हमें सांप्रदायिकता, चरमपंथ, आक्रमणों आदि से अपनी कला के माध्यम से मुकाबला करना है। हमारे लिए धर्म, जाति और द्रोणाचार्य सभी गैरज़रूरी हैं। हर रंग का एक मतलब होता है। असर होता है। लाल, क्रांति का रंग है। हमे बहुत प्रिय है। हम लोकतंत्र के पक्षकार हैं। लोकतंत्र हमें अपने विचार व्यक्त करने, आलोचना करने की आज़ादी देता है। हम लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी सरकार का भी सम्मान करते हैं इसलिए उसकी भर्त्सना नहीं कर सकते। लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारा हक़ है। हमें अब और द्रोणाचार्य नहीं चाहिए। हम लोकतांत्रिक उम्मीद के लोग हैं। हम जानते हैं रंगमंच दुनिया नहीं बदल सकता। लेकिन वह लोगों को उत्प्रेरित कर उन्हें एक्टिव बनाता है। स्वीकार और निर्णय तक पहुँचाता है। जनता, न्याय और हक का पैरोकार बनाता है। मैं खुद को कलाकार मानता हूँ। यदि मैं नाटक लेकर आया होता तो उसके माध्यम से अधिक बोलता। मुझे बहुत खुशी होगी अगर मैं अगली बार अपना नाटक लेकर आऊँ। आप सभी लोगों का बहुत धन्यवाद!
प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव राजेन्द्र राजन ने कहा इंदौर सांस्कृतिक विरासत के लिए विख्यात है। आज लेखकों को सम्मान के माध्यम से, अनेकानेक प्रलोभन और डर देकर कमज़ोर बनाया जा रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए भारत की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी 20 रुपये प्रतिदिन से कम कमाती है। हमारा देश वित्तीय पूँजी का गुलाम हो चुका है। हमें तीसरी दुनिया में गिना जाता है। दूसरी दुनिया बनाने की लड़ाई अब तक बाकी है। आज भारतीय लोकतंत्र और विचारों की स्वतंत्रता खतरे में है। लेखकों को गुमराह किया जा रहा है, रंगकर्मियों को मुनाफ़े के लिए प्रेरित किया जा रहा है, संस्कृतिकर्मियों को तोड़ा जा रहा है लेकिन हम टूटने भटकनेवाले नहीं निदान करनेवाले लोग हैं। राजेन्द्र राजन के वक्तव्य के बाद इप्टा अशोक नगर के सीमा राजोरिया और अन्य कलाकारों ने बामिक जौनपुरी का लिखा जनगीत ‘रात के समंदर में गम की नाव चलती है’ प्रस्तुत किया।

कॉमरेड शमीम फैज़ी ने दिवंगत कॉमरेड एबी बर्धन को श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कहा वर्धन साहब ने मुझे कम्युनिस्ट बनाया। पार्टी में शामिल किया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अनेक आंदोलनों में हिस्सा लिया। कॉमरेड अपनी 90 साल की ज़िंदगी में साढ़े ग्यारह साल जेलों में रहे, साढ़े तीन साल भूमिगत रहे। कॉमरेड वर्धन कल्चर, आर्ट, राजनीति और आंदोलनों से समान रूप से जुड़े थे। उनकी लिखी किताब फाइनांस कैपिटल आज के परिदृश्य के लिए टेक्स्ट बुक की तरह है। वे आयडियोलाग की तरह थे। कला, संस्कृतिकर्म और लेखन से भी उनका जुड़ाव उतना ही रहा जितना आंदोलनों और राजनीति से। इस मामले में उनकी मिसाल वे आप हैं।

इस अवसर पर आनंद पटवर्धन की कॉमरेड ए बी वर्धन के अयोध्या भाषण पर आधारित डाक्यूमेंट्री फिल्म दिखाई गयी। इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय महा सचिव कवि-कथाकार-रंगकर्मी जितेंद्र रघुवंशी पर आधारित एक फिल्म ‘सीप का मोती’ का प्रदर्शन भी किया गया। कवि और अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने फैज़ की नज़्म ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ सुनायी। महाराष्ट्र की अंधविश्वास निर्मूलन समिति के कलाकारों ने सुकरात, तुकाराम और नरेन्द्र दाभोलकर एवं गोविंद पानसरे की हत्या पर केन्द्रित नाटक प्रस्तुत किया।

अंत में कॉमरेड विनीत तिवारी ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा कि रोहित वेमुला की हत्या सांस्थानिक हत्या ही थी। नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या से हम अब तक नहीं उबरे है। कलबुर्गी कन्नड़ के 1400 साल के इतिहास में सबसे विपुल लेखन करनेवाले साथी रहे हैं। उन्हें याद करने के साथ-साथ हम अपनी लड़ाइयों और एक जुटता के लिए प्रतिबद्ध हैं। सत्र का संचालन अरविंद पोरवाल ने किया।

दूसरा दिन: हम गांधी, अंबेडकर और भगत सिंह के वारिस हैं -राकेश

भारतीय जन नाट्य संघ के तीन दिवसीय 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव के दूसरे दिन सांगठनिक चर्चा-बहस एवं विचार सत्र मुख्य रहे। हालांकि इप्टा की उत्सव एवं कलाधर्मी मूल भावना इन पर भी मुख्य रही। छोटे-छोटे अंतराल में अनेक प्रेरक, उत्साहवर्धक और ओजपूर्ण जनगीत प्रस्तुत किए जाते रहे। इन जनगीतों की प्रस्तुति में संघर्षशीलता एवं भारतीय बहुलतावादी संस्कृति के रूप प्रकट हुए। जनगीतों में एकल एवं सामूहिक प्रस्तुतियां रहीं। छत्तीसगढ़ी, उड़िया, मलयालम और तेलगू की प्रस्तुतियां समृद्ध करनेवाली रहीं। चंडीगढ़ के इप्टा प्रतिनिधि ने एकल कविता पाठ भी किया।

संगठन सत्र की अध्यक्षता एम एस सथ्यु ने की। मंच पर उपस्थित संस्कृतिकर्मियों में थे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह, अभिनेता अंजन श्रीवास्तव, इप्टा महासचिव राकेश, उदभावना के संपादक अजय कुमार और हरियश राय एवं ज्योत्सना। सत्र के आरंभ में राकेश ने जनरल सेक्रेट्ररी की हैसियत से इप्टा की रिपोर्ट प्रस्तुत की। उन्होंने आयोजकों की प्रशंसा करते हुए कहा कि आशा से दुगुनी संख्या में आये कलाकारों के लिए भी समुचित इंतज़ाम इंदौर के आयोजक मंडल की अभूतपूर्व सफलता है। हमारे साथी हमारी ताक़त हैं। आनंद पटवर्धन, शीतल साठे, क्यूबा और वेनेजुएला के प्रतिनिधि हमारे बीच आये। हम धन्यवाद सहित इन्हें भी अपना अंग मानते हैं। यह गौर करने की बात है कि वेनेजुएला जैसे देशों में क्रांति के लिए बच्चों में वायलिन बांटी जा रही है और हमारे देश में त्रिशूल बाँटे जा रहे हैं। दुनिया भर में पूँजी का नेक्सस है। कार्पोरेट, मीडिया और राजनीति का नेक्सस है। लेकिन हम गांधी, अंबेडकर और भगत सिंह के वारिस हैं। जो भी विघटनकारी ताकतों के पाले में नहीं गये, नहीं झुके हमारे साथी हैं। सम्मान लौटानेवाले लेखकों को भी हम ग्रीट करते हैं। हमारी योजना है कि इप्टा के साथी एक ऐसा नाटक तैयार करें जो विभिन्न भाषाओं में अनूदित होकर देशभर में खेला जाये। कम से कम पाँच ऐसे जनगीत तैयार हों जो पूरे देश में गाये जा सकें। 
इस अवसर पर पत्रिका ‘उद्भावना’ के भीष्म साहनी पर केन्द्रित विशेषांक के साथ रणवीर सिंह, कनक तिवारी और अखिलेश द्वारा लिखी गयी पुस्तिकाओं का विमोचन किया गया। उदभावना के संपादक अजय कुमार ने कहा भीष्म साहनी इप्टा से जुडे थे। हम लकड़ियों के गट्ठर की तरह नहीं उंगलियों की तरह परस्पर जुड़े हैं। आज पढ़े लिखे लोगों में सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति अधिक दिखाई देती है। हमें अपने युवाओं को सांप्रदायिक होने से रोकना होगा। इप्टा के साथी अमेरिका का उच्चारण अमीर-का की तरह करें तो ठीक होगा। अमेरिका अमीरों का ही देश है।

इस सत्र में इप्टा की विभिन्न राज्य इकाईयों के प्रतिनिधियों ने जनरल सेक्रेटरी की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए संगठन के विकास एव जनपक्षधर स्वरूप में निखार लाने हेतु अपने मत एवं सुझाव व्यक्त किये। वक्तव्य देनेवालों में संजय गुप्ता(जम्मू) ने संगठन की मंसा के विपरीत भारतीय सेना द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक को उचित ठहराया। प्रदीप घोष(उ.प्र.) ने युवाओं और महिलाओं को जगह देने पर जोर दिया। गोपी सेल्वाराज, तमिलनाडु ने राष्ट्रीय कार्यशाला की आवश्यकता बतायी। एम एस पुनिया ने सदस्यता राशि बढ़ाकर 10 रुपये किये जाने की बात कही। बलकार, चंडीगढ़ ने कहा कि इप्टा का भी अपना टीवी चैनल होना चाहिए। हिमांशु ने कहा इप्टा में उचित बदलाव एवं सुधार होने चाहिए। कहीं हम आज वहीं तो नहीं खड़े हैं जहाँ वर्षों पहले खड़े थे? तकनीकि के इस्तेमाल को प्रमुखता दी जानी चाहिए। इप्टा के नाटकों में भी भव्यता हो। शैलेंद्र शैली(भोपाल) ने इप्टा को और जनोन्मुख बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। AISF के अध्यक्ष बलिउल्ला ने कहा इस समारोह में मै अल्फाज़ नहीं जज्बात लेकर आया हूँ। इप्टा से युवाओं को जोड़ने की बड़ी आवश्यकता है। हमें सज्जाद जहीर, सआदत हसन मंटो जैसे लेखकों से बहुत कुछ सीखना होगा।

दूसरा सत्र, अभिनय और निर्देशन, संगीत विधा और नाट्य संगीत तथा जन आंदोलनों के साथ इप्टा का जुड़ाव विषयों पर परिचर्चा का रहा। इस परिचर्चा में अलग-अलग विषयों में मॉडरेटर थे तनवीर अख्तर, सीताराम सिंह और विनीत तिवारी।

‘जन आंदोलनों के साथ इप्टा का जुड़ाव’ विषय पर परिचर्चा में AISF इप्टा के मनीष श्रीवास्तव, अमिताभ पांडेय, सुभाष मिश्र, विकास कपूर, सदानंदन(केरल), बलकार सिंधु(चंडीगढ़), फिरोज़(पटना), उपेन्द्र मिश्र, ज्योत्सना एवं भावना(आगरा) ने अपने विचार रखे। इस परिचर्चा के केन्द्र में मुख्य रूप से तीन सवाल उभरे क्या इप्टा अपनी ओर से कोई जनांदोलन खड़ा कर सकता है? इप्टा का अन्य जनांदोलनों से कैसा रिश्ता होना चाहिए? और क्या इप्टा को सरकारी आयोजनों में हिस्सा लेना चाहिए या फिर उसे सरकारी आर्थिक मदद लेने के विषय में सोचना चाहिए? इन सवालों पर वक्ताओं ने अपने विचार रखे जिनका सार था कि बच्चों, युवाओं और महिलाओं में आंदोलनों और संस्कृतिकर्म के विषय में समझ बढ़नी चाहिए। युवाओं को आगे आना चाहिए। आयोजक मंडल के सदस्य कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी ने परिचर्चा का समाहार करते हुए कहा पहले हमारी रणनीति को तोड़ने या भेदने में सरकारों को वक्त लगा करता था। अब वे बाजार की सहायता से यह शीघ्र कर लेती हैं। हमारी समझ राजनीति, आंदोलन और संघर्षों को लेकर बिल्कुल साफ़ होनी चाहिए। इसके या उसके समर्थन या विरोध में पड़े रहने की बजाय हमें राजनीतिक शार्पनेस विकसित करनी होगी जिसके लिए हम जाने जाते हैं। तीन लाख किसानों की आत्महत्या केवल आत्महत्या ही नहीं है बल्कि यह एक बड़ी आबादी के भूखमरी की हालत में जीने की विवशता भी है। हमें लैंगिक मुद्दों पर संघर्ष करने की आवश्यकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई बिना समाजवादी हुए लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। जिसके लोकतंत्र में समाजवाद न हो हमें उससे दूर रहना चाहिए। हमें वैज्ञानिक समझ विकसित कर नये उपकरणों के साथ पढ़ते लिखते और काम करते हुए अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए।

कुल मिलाकर समारोह का दूसरा दिन कलाकारों की संजीदगी, मेल-जोल, सक्रियता, उत्साह एवं बुकस्टालों, चित्र प्रदर्शनियों पर छायी गहमागहमी से प्रेरक और आशा से भरा रहा। रात में आनंद पटवर्धन की फिल्म अमन और जंग तथा प्रलेसं पर अधूरी फिल्म वर्क इन प्रोग्रेस दिखायी गयीं। देर रात उद्वेलित कर देनेवाली जनगायिका शीतल साठे का गायन हुआ। बाहर से आये अनेक कलाकार यह कहते हुए दिखे कि ऐसा सम्मेलन इंदौर इकाई ही करा सकती है जिसमें आनंद पटवर्धन, शीतल साठे से लेकर वेनेजुएला के प्रतिनिधि सहर्ष पूरे समय मौजूद रहें। इंदौर का यह आयोजन हर मायने में पिछले चार आयोजनों से अब तक सर्वश्रेष्ठ है। गौरतलब है कि इस आयोजन के संयोजक सर्वश्री आनंदमोहन माथुर, विजय दलाल, अशोक दुबे, प्रमोद बागड़ी, जया मेहता, विनीत तिवारी और सारिका रहे। साल भर पहले से चल रही इसकी तैयारी और योजना; भोजन के लिए बनाये गये कूपनों तक में देखी गयी जिनमे भूख, अन्न और इसानी जवाबदेही को लेकर अनेक जाने माने प्रतिबद्ध कवियों की कविता पंक्तियाँ पढ़ने को मिलीं। बैनर, कार्ड, टी शर्ट में संदेश गूँजे ही थैले, पेन, डायरी सभी में इप्टा के कलाकर्म के दर्शन हुए। इस महोत्सव में रूपांकन, एकलव्य, संदर्भ केन्द्र, जोशी अधिकारी केन्द्र, पीपीएच, दानिश बुक्स, अन्य प्रकाशनों, पंकज दीक्षित और मुकेश बिजोले के पोस्टर तथा चित्रों ने विशेष प्रभाव छोड़ा। भोजन बनानेवालों से लेकर सफाई के काम में लगे कार्यकर्ताओं ने अपनी प्रतिबद्धता के पक्के सबूत दिए।

तीसरा दिन: हमारी देशभक्ति में जनता की भूख, बेरोज़गारी, बेदखली, शांति और न्याय के लिए संघर्ष शामिल हैं -शैलेंद्र 

भारतीय जन नाट्य संघ के तीन दिवसीय 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और राष्ट्रीय जन सांस्कृतिक महोत्सव के तीसरे दिन सांगठनिक चर्चा, प्रस्ताव एवं नये पदाधिकारियों के नामों की घोषणा ही मुख्य रहे। इन अलग-अलग संगठन सत्रों में प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों में मंचासीन रहे रणवीर सिंह, एम एस सथ्यु, भावना, ज्योत्सना रघुवंशी, तनवीर अख्तर, अंजन श्रीवास्तव और इप्टा के महासचिव राकेश।

तीसरे दिन की शुरुआत तेलंगाना के इप्टा कलाकारों द्वारा प्रस्तुत जनगीत से हुई। इसके बाद विभिन्न अंतरालों में केरल, तमिलनाडु, रायपुर, लखनऊ इप्टा के कलाकारों ने जनगीत एवं लोकनृत्य प्रस्तुत किये। लिटिल इप्टा, लखनऊ की दो बच्चियों ने ओम प्रकाश नदीम का गीत ‘हमें भी दिखा दो किताबों की दुनिया…’ सुनाकर सभी को भाव विभोर करने के साथ झकझोर कर रख दिया। इन प्रस्तुतियों में विद्यमान कला, भारतीय संस्कृति, प्रगतिशीलता, संघर्षशीलता और उत्सवधर्मिता मौजूद लोगों को झूमने और प्रेरित करने में सफल रहे। इसके साथ ही इप्टा रायपुर और जेएनयू के कलाकारों ने नुक्कड़ नाटक खेले। जेएनयू का नुक्कड़ नाटक ‘खतरा’ खासतौर से दक्षिणपंथी ताक़तों द्वारा 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन और जन सांस्कृतिक महोत्सव को ‘देशद्रोही’ करार दिये जाने के जवाब में प्रस्तुत किया गया। ‘खतरा’ ने बहुत प्रभावशाली ढंग से स्थपित किया कि इप्टा के मूल्य और संघर्ष, भारतीय संविधान की आत्मा और मानवाधिकारों के पक्ष में हमेशा से चले आ रहे हैं, जारी हैं और आगे भी अक्षुण्ण रहेंगे।

संगठन सत्र की चर्चा में भाग लेनेवाले कई सदस्यों ने आरएसएस समेत तमाम दक्षिणपंथी ताकतों द्वारा इप्टा के सम्मेलन को प्रश्नांकित किये जाने एवं उसके संबंध में राष्ट्रविरोधी होने की अफ़वाह फैलाने का कड़ा विरोध किया। भर्त्सना की। साथ ही अपनी वर्षों से चली आ रही अमन, शांति तथा सुधारों के प्रति परंपरा-प्रतिबद्धता दोहरायी। वक्ताओं में प्रमुख थे- नरहरि(असम), सुमन श्रीवास्तव(लखनऊ), शैलेंद्र(पटना), शैलेंद्र शैली(भोपाल), सुशांत महापात्रा(उड़ीसा), दिबांग ज्योति बोरा(असम), भावना और मनीष श्रीवास्तव(जेएनयू)। नरहरि ने असम की समस्याओं के लिए दक्षिणपंथी और पूर्व सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया। उन्होंने ओएनजीसी जैसी तेल कंपनियों के निजीकरण के विरोध की दिशा में कदम उठाये जाने का आह्वान किया। दिबांग ज्योति बोरा ने कहा- कला, सामाजिक बदलाव का हथियार है हमें इसे वैसे ही बरतना चाहिए। भावना ने कहा कुछ छद्म संगठनों की इंदौर सम्मेलन के संबंध में अखबारों में व्यक्त की गयी प्रतिक्रया आयोजन की सफलता को दर्शाती है। हमें दक्षिणपंथी ताक़तों से सभ्य, सांस्कृतिक तथा लोकतांत्रिक तरीके से लड़ने की आवश्यकता है। इप्टा के महासचिव ने राष्ट्रीय युवा उत्सव मनाये जाने, शीतल साठे के पति को रिहा किये जाने के लिए रैली करने तथा लोक कलाकरों का सम्मेलन बुलाये जाने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने इप्टा के वेबसाईट लांच की घोषणा भी की।

इस अवसर पर मनीष श्रीवास्तव, शैलेंद्र तथा सारिका श्रीवास्तव द्वारा अलग-अलग प्रस्ताव लाये गये जिन्हें ध्वनि मत से पारित किया गया। इन प्रस्तावों में मुख्य थे शिक्षा संस्थानो, विद्यार्थियों पर हो रहे सरकारी हमलों का एकजुट विरोध, आतंकवाद की निंदा के साथ सरकार द्वारा निर्मित युद्धोन्माद का सांस्कृतिक, शांतिपूर्ण विरोध, दलितों आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ़ एकजुटता एवं मेट्रोसिटी बनाये जाने के नामपर बस्तियाँ उजाड़े जाने की गुंडागर्दी के विरुद्ध शातिपूर्ण कानूनी उपायों की ज़रूरत पर उठाये जानेवाले प्रभावी कदम। इसके साथ ही सरसों की खेती में सरकारी दुष्चक्र के खिलाफ़ जागरूकता अभियान को प्राथमिकता, समानधर्मा संगठनों का बेशर्त सहयोग एवं समर्थन।

जिस क्षण आनंद मोहन माथुर सभागार में प्रस्ताव पारित किये जा रहे थे उसी क्षण कुछ संगठनों के दसेक गुंडा तत्वों ने भारत माता की जय बोलते हुए आक्रामक ढंग से हॉल में प्रवेश किया। उनके हाथों में तिरंगे थे। उन्होंने मंच पर चढ़कर माईक छीन लिए और धमकियाँ दीं की यदि आप लोगों ने हमारे साथ भारत माता की जय के नारे नहीं लगाये तो हम यहां से नहीं जायेंगे और कुछ भी हो सकता है। उन्होंने आगे कहा हमारे हाथ में तिरंगे हैं और आप लोग बेहतर जानते हैं कि तिरंगा लेकर चलनेवालों की बात न माने का परिणाम क्या होता है। इप्टा के महासचिव राकेश ने हाल में मौजूद साथियों से अपील की कि सब शांत रहें, किसी किस्म की अशांति, उत्तेजना या अपरातफरी न हो। उन्होंने असमाजिक तत्वों से कहा कि हमारे कार्यक्रम को चलने दिया जाये। हम देश के सम्मान या उसके प्रति प्रेम में पूरी तरह सत्यनिष्ठ हैं। कृपया हमारे आयोजन में जानबूझकर हिंसक विघ्न न डाला जाये। माईक से भी बार बार शातिपूर्ण आग्रह के बावजूद असमाजिक तत्वों ने जब किसी तरह मानने से इंकार कर झूमा झटकी और मारपीट शुरू कर दी तो इप्टा के साथियों द्वारा उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से हाल से बाहर निकाला गया। बाहर निकलकर उन्होंने इप्टा के कुछ साथियों के साथ मारपीट की जिनमें से एक इप्टा सदस्य के सिर में चोटें आयीं। इप्टा प्रतिनिधियों द्वारा तत्काल पुलिस को फोन कर सहायता माँगी गयी। पुलिस लगभग एक घंटे बाद मौके पर पहुँची। 
इप्टा की प्रतिबद्धता या उत्सवधर्मिता इस बात से पुष्ट हुई कि निर्धारित सत्र पूर्ववत फिर शुरू हो गये। कॉमरेड पेरिन दाजी ने होमी दाजी की याद में ‘अपने लिए जिये तो क्या जिए ऐ दिल तू जी जमाने के लिए…’ सुनाकर साथियों के उत्साह को फिर ताज़ा कर दिया। राकेश ने नये पदाधिकारियों समेत नवगठित कार्यकारिणी के सदस्यों के नामों की घोषणा की एवं उनका परिचय दिया। कुल मिलाकर यह रिपोर्ट लिखे जाने तक पुलिस, मीडिया की आवाजाही भले बढ़ गयी हो ढोल, नगाड़ों, गीत-संगीत के स्वर थमें नहीं हैं। कलाकारों में विरोध को झेलकर डँटे रहने का स्वाभाविक जोश देखा जा रहा है। उम्मीद है देर रात तक यह महोत्सव अपनी मूल प्रतिज्ञाओं के साथ परवान चढ़ता रहेगा।


और अंत में अपील: साथी हाथ बढ़ाना रे.. ऐ दिल तू जी ज़माने के लिए...

तीसरे दिन दोपहर में बीच में सभी को रोकते हुए आयोजक मंडल के सदस्य कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता विनीत तिवारी मंच पर आये माईक हाथ में लेकर कहा- साथियो, आज ही असम से आये प्रतिनिधि साथी का पर्स खो गया। उसमें लौटने के टिकट और 14 हज़ार के लगभग रुपये थे। साथ ही साथी विजय दलाल का मोबाईल गुम गया है। आप जानते हैं कि असम बहुत दूर है, हमारे साथियों की सकुशल वापसी हमारी ज़िम्मेदारी है। इसे कोई अकेला नहीं उठा सकता इसलिए बाहर एक दान पात्र रखा गया है आप सब उसमें अपनी स्वेच्छा से रूपये डाल सकते हैं। ध्यान यह रहे कि आवश्यकता के अनुरूप रुपये जमा हो सकें। वापसी का इंतज़ाम हो सके और विजय दलाल को एक मोबाईल मिल सके। इस अपील के असर का पता रात को लगभग साढे ग्यारह बजे चला जब इकट्ठा रुपयों की गिनती हुई। अनेक साथियों की मौजूदगी में अशोक दुबे ने अठारह हज़ार पाँच सौ रुपये इकटठे होने की घोषणा की। बेतरह थके साथियों के चेहरे में खुशी के रंग छा गये। नारों, गीतों, संवादों से जागती रात तालियों से गूँज उठी। इसमें हँसी का फव्वारा तब छूटा जब सारिका ने बताया जाँच करने आये पुलिस अधिकारी ने विनीत तिवारी को बुरी तरह टोका था-आपने बिना हमारी इजाज़त यह चंदा जमा करनेवाला कार्टन क्यों रखा हुआ है? और अब दूसरी अपील जिसके असर का पता चलना हमेशा बाकी रहेगा-

भिन्न विचारों को खुलेआम देशद्रोह से नाथ रहे, वाम पंथियों को प्रतिबंधित किये जाने के अभियान में निसि-दिवस जुटे, विद्यार्थियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों के लिए रोज़ खाई खोदते, अन्य मतावलंबियों के पांवों में धर्म, जाति, सरकार, पुलिस, क़ानून के स्वार्थान्ध दुरूपयोग से निर्मित आतंक, दमन के गुखरू डाल रहे पूंजी-मीडिया-राजनीति-सत्ता के नेक्सस से निकले सिपाही, ताकतवर, बेलगाम, व्यापारी कौन हैं?

संघ गणराज्य भारत के राष्ट्र ध्वज तिरंगे का; भारतीयों के संवैधानिक अधिकारों और संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को सीमित करने के लिए भयावह हथियार की तरह उपयोग कर रहे, तिरंगे को अपने अहं की लाठी में टांगकर बेख़ौफ़ कहीं भी घुसकर तर्क, वैज्ञानिक सोच, मानवाधिकारों के ख़िलाफ़ भारत माता की जय बोल रहे, विरोधियों को मार रहे, डरा रहे, खुद घबराये, बौखलाए हुए किंतु निश्चिन्त-उद्दंड लोग कौन हैं?
लोक कल्याण की भाषा बोलते, विकास, स्वच्छता, एकता के नारे लगाते, हाथों में स्वनिर्मित देशद्रोह के विखंडनवादी परमाणु हथियारों से भी खतरनाक मीडिया-हथियार लिए स्वच्छंद हमले करते, गांधी, आंबेडकर, भगत सिंह के शत्रु, राष्ट्रवादी-शांतिप्रिय-देशभक्त लोग कौन हैं?

क्या उन्हें पहचानना इतना मुश्किल है? क्या साहित्य, कला,राजनीति, विज्ञान और नई नीतियों की खाल ओढ़कर घूम रहे उन्हें, उनके नुमाइंदों को और उनके संरक्षकों को चीन्ह लेना सचमुच कठिन है? कदाचित नहीं। वे बार-बार पहचाने गए, हर क़िस्म के ध्वंस के कारकों में पाए गए मनुष्य विरोधी नर-मादा हैं। क्या इन्हें मातृभूमि या भारतभूमि की आह लगती है? ये सवाल नहीं, तीन दिवसीय राष्ट्रीय जनसांस्कृतिक महोत्सव और इप्टा के 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन के अखिल भारतीय रूप से अभूतपूर्व ढंग से इंदौर में सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने के ठीक कुछ घंटों पूर्व उपजी चिंताएं हैं।

सम्मेलन के तीसरे दिन 4 अक्टूबर को आनंद मोहन माथुर सभागार में जब सब ठीक से, गरिमापूर्ण और अपरिहार्य चल रहा था, सबके लिए बेहतरी का अरमान लिए प्रस्ताव पारित हो रहे थे, भारतीय भाषाओं में जनगीत गाये जा रहे थे तभी राष्ट्रवादी छावनियों से छोड़े गए कुछ उपद्रवी गुंडे, तिरंगे के साथ भारत माता की जय बोलते घुसे। मार्च करते सीधे मंच तक आये, माइक छीने और मंच पर चढ़ गए। अत्यन्त आक्रामक बेशर्मी से सबको भारत माता की जय बोलने की धमकी देने लगे। लोग अचंभित, सहमे और आक्रांत आवेगों से स्तब्ध थे।

इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश ने गहरे दायित्वबोध, आगे आकर सामना करने की तत्परता से उन युवानुमा राष्ट्रवाद के खतरनाक घोड़ों को दृढ़ता से बरज दिया। वे हिनहिना उठे। दुलत्ती झाड़ने लगे। आप सब यहाँ से जाएँ। हमें अपना काम करने दें और हाल में मौजूद साथियों, आप शांत और निर्भीक रहें। यह सब नया या पहली बार नहीं है। हम ऐसी परिस्थितियों में शांत और अडिग रहते आये हैं। यह विनम्र अस्वीकार मान लिया जाना था लेकिन बिन बुलाए स्वाभिमानी बलवाई राकेश से झूमा-झटकी करने लगे। कुछ पल ही बीते होंगे कि राकेश बदहवास हो गए। उनकी कमीज बिगड़ गयी। वे अस्त व्यस्त हो गए। तब इप्टा के कुछ सदस्य मंच पर पहुंचे और इंकलाब जिंदाबाद बोलने लगे। लगातार अपील, कार्यकर्ताओं का मज़बूत घेरा और इप्टा के नारे; इन्होंने उपद्रवियों को दरवाज़े के बाहर धकेल दिया।

तब बाहर जो हुआ उसे वहीं मौजूद लोगों ने ही देखा। अंदर पूर्ववत बैठ जाने की अपील सुनाई दी। कुछ मिनटों में सब पूर्ववत हो गया। तभी माइक से एक मार्मिक उदघोषणा हुई।

साथियो, यदि इंदौर में कोई सांस्कृतिक, प्रगतिशील, जन पक्षधर कला उत्सव हो और कॉमरेड होमी दाजी को याद न किया जाये तो वह सम्मेलन या उत्सव कितने ही मानकों से सफ़ल माना जाये लेकिन असल में तब तक सफ़ल नहीं कहा जा सकता जब तक कॉमरेड होमी दाजी को न याद किया जाये। यह सुखद है कि उनकी जीवन साथी हमारे बीच हैं। हम कॉमरेड पेरिन दाजी को मंच पर आमंत्रित करते हैं।

अभी अभी जो घटित हो चुका था उससे बिलकुल अविचलित, उम्र को धता बताती एक कार्यकर्त्ता के कंधे पकड़ लंबी उम्र गुजार चुकी बदलावों और इंसानी सपनो की अपराजेय साथिन पेरिन दाजी डग मग मंच पर पहुंची।

बोलीं-जब भी मैं ऐसे किसी सम्मेलन में आती हूँ मुझे होमी दाजी की बहुत याद आती है। यह कहते हुए उनका गला भर आया। सभागार में मौजूद लोगों की आँखों की कोर में नमी आ गयी। पेरिन दाजी ने आगे कहा- मैं हमेशा दाजी के साथ होती थी। लोग जानते हैं कि वे मेरे जीवन साथी थे। मैं जानती हूँ कि होमी दाजी मेरे गुरु थे। वे गुरु की तरह मुझे हमेशा सिखाते समझाते।

मैं दाजी को जीवनभर अपना गुरु मानती रही। आज तक मानती हूँ। होमी दाजी को एक गाना बहुत प्रिय था। वे हमेशा उसे गाते थे। बाद में मैं उनके लिए यह गाना गाती। वे सुनते। जब भी कहीं होते जरूर सुनते या गाते। मैं आज आप लोगों को वही गाना सुनाऊँगी। मेरी उम्र बहुत हो चुकी। मैंने बहुत साल पढ़ाया। गले से काम लिया। लेकिन अब गला खराब हो सकता है। गाते गाते बेसुरी हो जाऊं तो आप सब माफ़ कर दें। सुर मत देखें गाने के भाव पर ध्यान दें। फिर पेरिन दाजी ने वह गाना गाया जो उनकी बहुत अनुभवी और भरोसेमंद आवाज़ में अपने नए-नए अर्थों के साथ गूंजता रहा। एक मार्मिक सन्देश बनकर दिलों में टंक गया।

गाना था 'अपने लिये जिए तो क्या जिए; ऐ दिल, तू जी ज़माने के लिए...'

पांच-सात मिनट की अवधि में सभागार ऐसे हो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। या जो बाहर हो रहा था उसे सम्हालना उनका जिम्मा है जो वहां हैं। जो जहाँ है वह बदले के लिए नहीं अमन, बेहतरी और शांति के लिए है पेरिन दाजी ने बिना एक वाक्य की प्रतिक्रिया व्यक्त किये जैसे सब को खूब समझा दिया।

लेकिन क्या स्वयंभू देशभक्तों को कभी यह शर्म आएगी कि वे क्या कर रहे हैं? किन्हें अपना निशाना बना रहे हैं? भारत को किस अँधेरे गह्वर में ले जा रहे हैं?

यह भी सवाल नहीं चिंता ही हैं। ऐसी चिंता जो इरादों को फौलादी बना देती है और हाथ पर हाथ धर बैठने नहीं देती।


शशिभूषण