बुधवार, 28 दिसंबर 2016

दंगल पर व्यक्तिगत हो चली अंतिम टीप

कक्षा 4 से भाषण देना शुरू हुआ। छठवीं कक्षा तक आते-आते यह डिबेट के जूनून में बदल गया। हराया भाषण में भी जा सकता था। हराया भी। लेकिन जीत हार के लिए डिबेट सबसे उपयुक्त था। डिबेट में जीत लेने का आनंद अधिक आता। विषय मिलता तो पहला अनुमान यही लगाया जाता विषय के किस तरफ़ बोलनेवाले कम होंगे? यानी कौन सा पक्ष कठिन ठहरेगा? किसमें बोलकर खुद को साबित करने का अधिक अवसर होगा?

जब एक चरण जीत जाते तो अगले चरण के लिए पक्ष बदल भी लिया जाता। अब दूसरा पक्ष बोलकर देखते हैं। कई बार ऐसा भी होता कि पार्टनर से समझौता होता ठीक है तुम्हें पक्ष पसंद है तो हम विपक्ष में बोल लेंगे। मकसद केवल बोलना और जीतना होता था। कभी लगा ही नहीं कि बोलने से अधिक किसी पक्ष से बंधना भी ज़रूरी होता है। जीतने की बधाई इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी थीं कि हारने के लिए सही पक्ष चुनना ठीक नहीं लगा। कोई गुरु भी नहीं मिला जो बताता जिसे खुद सही मानते हो उस पर जीतकर दिखाओ। बोलना इतना अच्छा लगता था जीतने का नशा ऐसा होता कि पार्टनर को विपक्ष की तैयारी कराकर खुद पक्ष में बोल आते। कभी इसके उलट भी कर डालते। इस अभ्यास का एक फ़ायदा यह हुआ कि विपरीत तर्क भी सोचने की आदत लग गयी। कोई भी तर्क आये तो यह भी मन में आता है विरोधी क्या कह सकता है? तब क्या कहेंगे?

यह बहुत बाद में हुआ और कह सकते हैं कि ठीक से अब तक नहीं हो पाया है सिर्फ़ कोशिश जारी है कि बोलने से अधिक, जीतने से ज्यादा सही तर्क के साथ रहा जाये। उस बात का हाथ पकड़ लिया जाये जो आगे जाकर आत्मबल बढ़ाएगी।

कुल मिलाकर कहना यह है कि इधर जो लोग महज़ खुद को साबित करने के लिए दंगल के विरोध में दूर की कौड़ी ला रहे हैं उन्हें दो चार बातें मैं भी सुझा सकता हूँ। लेकिन खुद दंगल के पक्ष में इसलिये हूँ कि यह फ़िल्म बहुत नेक उद्देश्य के साथ लोगों से साधारणीकृत होती है। होगी यदि पूर्वाग्रह छोड़कर देखी जाये। उड़ता पंजाब भी इसीलिए पसंद आई थी कि यदि लोग देखेंगे तो सबक ले सकते हैं।

इस फ़िल्म की कहानी में भी औपन्यासिकता है। कहानी और औपन्यासिक कहानी नितान्त भिन्न होती हैं। कुछ सरल रेखीय कहानियों के खिलाड़ी इसमें जिन झोल की चर्चा कर रहे हैं, किसी चरित्र के बचाव को जैसा प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पेश कर रहे हैं उनके सारे जवाब इसी कहानी में कमोबेश दे दिए गए हैं। कोच अपनी इंट्री के साथ ही चीखकर साबित कर देता है कि उसे क्या बुरा लगा है और आगे उसका क्या स्टैंड रहनेवाला है नतीज़ा चाहे जो हो। यदि उसका हृदय परिवर्तन भी दिखाने की कोशिश होती तो कहानीकार रिंग मास्टर ही लगता। यदि संवादों को याद कर सकने लायक याददाश्त हो तो याद आएगा हर घटना का दूसरा पहलू फ़िल्म में है।

फ़िल्म में गीता और बबिता ही मिलकर भी बाप से लड़ती हैं और परस्पर भी। लगभग हर चरित्र अपनी निजता के साथ है। कोच शायद इसलिए इतना एकतरफ़ा है कि फिर अकादमियों का चरित्र आम आदमी के समझ से परे हो जाता। भ्रष्टाचार अपनी विडंबना के साथ सामने न आता। लोगो को अभी केवल इतना ही समझाया जाता है कि भ्रष्टाचार धन से जुड़ा मसला है। यह प्रशिक्षण की गहराई तक है, प्रतिभा की जड़ में मट्ठा डाल देने तक पैठा है कोच खूब प्रकट करता है। जिस देश में अकादमियों के प्रमुख से लेकर प्रोफेसर, कुलपति, न्यायाधीश, संपादक तक की नियुक्तियां सिफ़ारिश पर होती हों वहां कोच के लिए व्यथित होना एक अलग इशारा अपने आप है।

ध्यान से देखिये अब तक के सभी आरोप के हैं जवाब। मिलेंगे। ज़रूर मिल जायेंगे। बशर्ते थोड़ी एकाग्रता साध पाएं। और हां खुद को कहानी के चैंपियन समझनेवाले समीक्षक यह न भूलें कि कहानी के पात्र कहानी बड़ी हो या छोटी कहानीकार की कठपुतली नहीं होते।

फ़िल्म दुरुस्त है। याद करें महावीर फोगाट सोती बेटी के पांव दबाते हुए पत्नी से कहता है मैं एक समय में बाप या गुरु ही हो सकता हूँ।

रही बात इन दिनों देशभक्ति की तो कोई निंद्य या निषिद्ध काम नहीं यह। खिलाडी सोच सकता है मैं देश के लिए मेडल लाऊंगा। लेखक या आलोचक भी यह सोचता ही है मैं अलख जगाऊँगा, समाज में जागृति और परिवर्तन लाऊंगा। यह कितना हो पाता है सबको पता है।

मेरी तरफ़ से इतना ही। यदि किसी को लगता है कि अच्छी फ़िल्म के लिए लोगों को प्रेरित करने की कोशिश करना, अहं वादी समीक्षा का विरोधी होना व्यक्तिगत होना है तो वह हमेशा की तरह निरपेक्ष दिखते हुए मुझे हलवाई, मूर्ख या गधा कह सकता है। मैं ऐसे चालाक मित्रों को पब्लिकली दिल से प्यार करता हूँ।

जय हिंद
शुभ रात्रि

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

माँ बाप की कठोर उदारता भी प्रेम ही है

जिनका शिक्षा जगत से प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता वे आम तौर पर बच्चों के बारे में जो भी जानते हैं वह अपने बचपन, परिवार के अन्य बच्चों की आदतों, आकांक्षाओं तथा बालपन के कुछ आधारभूत लक्षणों और साम्यताओं का ही विस्तार होता है।

ऐसे लोग बच्चों के भविष्य और उनकी आज़ादी के विषय में अक्सर साहित्यिक तर्क दिया करते हैं। इन लोगों के संस्मरण या कहानियां ध्यान से पढ़ी जाएँ तो वे अक्सर निरी वैयक्तिक निकलती हैं। हद तब होती है जब उनमें मॉडरनिज्म(आधुनिकता) और सेक्सुअलिटी(यौनिकता) का मर्दवादी प्रयोग हिंग्लिश की कैप लगाकर प्रकट होता है। पिछले दो दशक की बच्चों संबंधी कथित हिंदी कविताएं और कहानियां पढ़ें तो वे तो गंभीर रूप से बीमार ही दिखाई देती हैं; रचनाकारों के भी दिवालियेपन का पुख्ता सबूत देती हैं। ईदगाह(प्रेमचंद) हो या अमर घर चल(प्रकाश कांत) या नेताजी का चश्मा(स्वयं प्रकाश) या दुश्मन मेमना(ओमा शर्मा) जिस सामाजिकता से पैदा होती हैं उन्हें अब तारे ज़मीन पर से तौले जाने का सिनेमाई वक़्त है।

अभिभावकों के बारे में अधिकांश साहित्यिक, मीडिया वीरों और कार्पोरेट शिक्षा विशेषज्ञों एवं सामाजिक सुधारों के प्रति झुकाव के कदाचित व्यस्त बुद्धिजीवियों में कभी-कभी एक सी फैसलाकुन रुग्णता दिखाई देती है। इसके बारे में कभी विस्तार से बात होगी।

फ़िलहाल इतना ही कहना है कि किताबों से निबाह, बच्चों से निबाह में आरोपित कर देना निरी नादानी है। हो सकता है कुछ बाल मनोविज्ञान की किताबें या उपन्यास या कहानी बच्चों के साथ जिए गए प्रामाणिक अनुभवों पर केंद्रित होने के कारण आजमाये जा सकते हों लेकिन इनके प्रत्यक्ष अनुप्रयोग वैसे ही होते हैं जैसे आप अपने बच्चे के आकार-प्रकार को याद कर बिना दर्ज़ी के पास ले गए कपड़े सिलवा लाएं।

एक खूबसूरत सा रिश्ता होता है कि कभी बच्चे को मां बाप अधिक समझते हैं तो कभी उनके शिक्षक। इस समझने में और पारस्परिक सहयोग में उतना ही सुन्दर सामंजस्य होना चाहिए। किन्ही कारणों से जब इस बिंदु पर टकराव होते हैं तब बच्चे को तनाव का सामना करना पड़ता है। उसमें अप्रत्याशित टूट फूट होती है। हाल ही में आई फ़िल्म दंगल में आप देखेंगे पहलवान पिता से एक ज़बरदस्त चूक होती है। वह मोह में कोच से जो कह बैठता है उसका भाव है- बच्ची में खूबी है। ध्यान रखने से बढ़िया करेगी। फिर जो होता है उसमें साफ़ साफ़ बहुत कुछ देखा जा सकता है बशर्ते जानबूझकर टू डी फ़िल्म में थ्रीडी चश्मा न पहन लिया जाये।

जिन्होंने एक साथ कई बच्चों को 12 वर्ष की उम्र से लेकर 18 वर्ष तक धीरे-धीरे बढ़ते, विकसित होते और बदलते देखा हो, हो सकता वे कुछ रेडीमेड विशेषज्ञों, भाषा में क्राफ्ट कुशल लोगों के आगे फीके लगें। नकली चीजें अधिक चमकदार होती ही हैं। और इस दौर में तो अति आत्मविश्वास, वाचाल विमर्श अच्छी टीआरपी के लिए साधा ही जाता है इसमें दो राय नहीं। लेकिन यदि इन विमर्शकारों से थोड़ी देर बात की जायेगी तो वे ऐसे ही हकलायेंगे जैसे तैराकी की किताब पढ़कर पानी में कूद गया शख्स पानी पी जाने के कारण ठीक से साँस नहीं ले पाता, डूबता उतराता है।

माँ बाप को प्रथम दृष्टया ही तानाशाह, सामंतवादी मातृ सत्ता या पितृ सत्ता का प्रतिनिधि आदि समझ लेनेवाले व्याकुल कथित मौलिक, दूर की कौड़ी लानेवाले विमर्शकारों से एक आग्रह ही काफ़ी है। साहब, एक हज़ार बच्चों से पूछ लीजिये- आप क्या बनना चाहते हैं? बच्चा चाहे जो बनना चाहता हो वह अपने माँ बाप के सपने ज़रूर पूरा करना चाहता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बच्चे माँ बाप के सपने ही जीना चाहते हैं। वे बच्चे और जिन्हें अपने माँ बाप से पर्याप्त आज़ादी और सुविधा मिली होती हैं। प्रभु जोशी या रंगनाथ सिंह जैसे गंभीर अपवाद नाम छोड़ दें तो इन्हीं बौद्धिकों के यहाँ हाल ही में करीना पुत्र के तैमूर नामकरण में न सेलिब्रेटी मैनेजमेंट न ही पितृ सत्ता दिखाई देती है। तब वे बड़ी आप्त वचनीय मुद्रा में कूल रहने के लिये जुमला फेंकते हैं।

बिना समुचित निरीक्षण के किसी बच्चे को बेशर्त, अनुशासनहीन और जवाबदेही रहित स्वायत्त चुनाव की आज़ादी देने की वकालत करना दरअसल भीषण प्रकार की अज्ञानता है। 18 वर्ष से पूर्व ही बच्चे के चुनाव पर अंध यक़ीन अक्सर तब परिलक्षित होता है जब बच्चा पड़ोस का हो। योग्य और सक्षम पिता की जगह कोई प्रशिक्षक ले सकता है इसके बारे में तर्क जुटाना और उसे किसी सामाजिक सत्ता संबंधी समस्या से नत्थी करना ख़ास तरह की बौद्धिक महत्वाकांक्षा से अधिक नहीं।

यह परखा हुआ और प्रमाणित तथ्य है कि बच्चे परंपरागत, पैतृक पेशे में अधिक सर्वाइव करते हैं। कुछ विशिष्ट बच्चे जो किसी स्वतन्त्र क्षेत्र में खुद को प्रमाणित और स्थापित करते हैं उनके लिए प्रकृति के विशेष नियमो के तहत कई बार किसी गुरु की भी आवश्यकता नहीं होती। वे अपने गुरु या तो खुद होते हैं या अपना गुरु स्वयं खोज लेते हैं।

एक उदाहरण अवश्य देना चाहूंगा। महात्मा गांधी द्वारा बचपन में अपने पिता के पांव दबाने का ज़िक्र मिलता है। महात्मा गांधी जब पढ़ने सात समुन्दर पार जा रहे थे तब उनकी मां पुतली बाई ने मोहनदास को शपथ दिलवाई थी। मांसाहार नहीं करोगे और शराब नहीं पियोगे। गांधी इस प्रतिज्ञा के साथ ही यह भी कभी नहीं भूले कि वे विवाहित हैं। उनकी पत्नी भारत में है। जबकि उनके अन्य मित्र पाश्चात्य स्वच्छंदता को भरपूर अपना कर प्रेम संबंध आदि विकसित करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचा रहे थे। एक बार युवकोचित झूठ से जन्मा प्रेम का अवसर आया भी तो गांधी जी अपने विवाहित होने के सच से ही उस सम्बन्ध से सम्मानजनक ढंग से न केवल निकले बल्कि युवती और उसकी माँ की नज़रों में हमेशा के लिए गिर जाने से बचे। गांधी जी चिट्ठी लिख स्थिति स्पष्ट करते हुए क्षमा मांगी।

अब यदि किसी को लगता है कि बच्चों को बेशर्त, निर्बंध, अनुशासनहीन आज़ादी देकर वह गांधी या अन्य महापुरुषों, महास्त्रियों से बेहतर भविष्य दे सकता है तो भारत में उसका स्वागत कौन नहीं करना चाहेगा? लेकिन क्या यह संभव है? भारत जैसे देश में क्या मां बाप इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि अपना बच्चा सब कुछ ठीक ठाक करता रह पाएगा?

दुनिया में किसी बच्चे के लिए माँ बाप की कठोर उदारता से बड़ी जरूरत नहीं होती। इसका महत्त्व प्रेम से न कम है न अधिक। पितृसत्ता हो या मातृ सत्ता बच्चे समय आने, परिपक्व होने पर ही अपने लिए सही निर्णय कर पाते हैं। उससे पहले बच्चों की तरफ़ से महज दृष्टा हो जानेवाले माँ बाप से समाज को शायद ही कोई बड़ी इंसानियत या शख्सियत मिले। हरियाणा की गीता फोगाट हो या मणिपुर की मेरी कॉम अलग अलग सामाजिक सत्ता से सम्बन्ध रखने के बावजूद इनके लिए जितने सख्त अनुशासन होते हैं उतने ही उदात्त समर्थन भी।

शशिभूषण

जहां का खाप वहीं से दंगल

आप उसी समाज से 'खाप' सामने लाये. बहस पैदा की. आपका सरोकार सिध्द हुआ. लोगों ने आपको सराहा. आप और गहराई में गए दूसरे तरह की हत्याएं भी सामने लाए. लोगों ने आपकी नीयत को सलाम किया. आपको मान मिला. राज्य ने भी आपका थोड़ा बहुत साथ दिया. अमानुषिकता पर बंदिशें लगीं.

अब उसी समाज से एक कलाकार 'दंगल' लेकर आया है. लोकप्रिय फ़िल्म. एक बहुत पुराने लुप्त हो रहे भारतीय खेल के लिए संवेदना लेकर आया है. गांव का अखाड़ा, कस्बे के दर्शक, बेटियों की कुश्ती, छोरियों का मंगल. लोग दीवाने हो रहे हैं. सब तरह की समीक्षाओं का औसत 4 स्टार बैठता है. ख़ूब है. कोई पसंद करे तो उसका सर नहीं मांगते.

फ़िल्म में पहलवान की बेटी इंटरनेशनल जीतती है, वह राष्ट्रगान पर खड़ा होता है तो पूरा हॉल खड़ा हो जाता है. कोई बुजुर्ग कहता है फ़िल्म देखी तो मन से नहीं उतरी. दो बजे रात तक सोचते रहे. घर में सबसे कहता है सब देख आओ फ़िल्म. साल की सबसे अच्छी फ़िल्म है. पांच साल की बच्ची पूरी फ़िल्म में हिलती नहीं और बताती है बहुत अच्छी है. सुल्तान से भी अच्छी. मुझे गीता की मां सबसे अच्छी लगी. मैंने सीखा अगर इंसान ने पहले कोई अच्छी बात सीख ली तो उसे बाद में छोड़ना नहीं चाहिए.

दंगल के कलाकार कोई तुक्का मारनेवाले भी नहीं है. बाप बननेवाला 'सत्यमेव जयते' जैसा दस्तावेज़ी काम दे चुका है. आलोचकों के बीच मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहलाता है. मां बनी अभिनेत्री टीवी की दुनिया की पुरखिन है. उसे शायद ही कोई न जानता हो. चारों लड़कियों ने अपने कलाकार होने का पक्का सबूत दिया है. कहानी सच्ची है. डायरेक्टर ने चांस भी नहीं मांगा. नैरेशन में कहानी कही है.

अब समस्या कहाँ है? जिसका जो काम था उसने किया. पब्लिक भी अपनी पसंद का इज़हार कर रही है. करने दीजिये. थोपा जाना बुरा हो सकता है. लेकिन राष्ट्रगान ही है. उस पर खड़े होने को दिल पर मत लीजिये. भारत के लाखों बच्चे रोज़ राष्ट्रगान का हिस्सा बनते हैं. वे सब कट्टर नहीं बनते.

याद कीजिए आप कहा करते थे वे रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रगान को किसी जॉर्ज की अभ्यर्थना मानते हैं, राष्ट्रगान को विकृत करना चाहते हैं. अपने यहाँ नहीं गाते. उन्होंने इसे इतना दिल पर लिया कि वे जहाँ आपकी पुलिस है उस राज्य में ही महज न खड़े होने को लेकर लोगों को गिरफ़्तार करवा रहे हैं. वे धीरे धीरे आपकी जेब में भी तिरंगा रखने को विवश कर सकते हैं यही हाल रहा तो. तब आपने नहीं सोचा था अब भी नहीं सोच रहे वह दिन आ सकता है. यही हाल रहा तो.

आपने दंगल देख ली होगी. कुश्ती के कोच और पहलवान का फ़र्क समझ लिया होगा. किसी को बदल देने से पहले सोचिये उसकी खूबी और ताक़त क्या है? यदि आप हारते ही जा रहे हैं, हारते ही जा रहे हैं तो कोच के डिफेन्स अटैक, डिफेन्स अटैक का काशन मानने की बजाय शिक्षा, अपनी खूबी और सामनेवाले की कमज़ोरी पर फोकस कर लीजिए. क्या पता गोल्ड मेडल आपका ही इंतज़ार कर रहा हो.

पब्लिक ही है. आपका भी साथ दे सकती है. देती रही है. भारत में कोई बाहरी नहीं है. हम भी कहीं बाहर के नहीं हैं. कहीं जानेवाले भी नहीं हैं. क्यों जाएँ? हम भी भाषा को चाहते हैं.

कला और कलाकार अपनी रक्षा खुद करते हैं. दंगल ने गौरक्षकों का, भारत माता छाप भक्तों का अच्छा काम लगाया है. उछल कूद करने लायक छोड़ा ही नहीं. राज्य को भी समझाया है. उदाहरण रखा है राष्ट्रगान गाने में बुराई नहीं. बशर्ते अवसर हो और वह दिल से गाया जाये. इस सन्देश पर ग़ौर किया जा सकता है.

शुक्रिया आमिर ख़ान! थैंक्यू दंगल!!

शशिभूषण

शनिवार, 24 दिसंबर 2016

खेल भावना की राष्ट्रीय फ़िल्म है दंगल

दंगल शानदार फ़िल्म है। इसमें बेटियों जैसी बेटियां हैं बाप जैसा बाप। गांव जैसा गांव है और घरनी जैसी पत्नी। प्रेम, अनुशासन, सपने और खेल भावना के निश्छल रूप से रची है फ़िल्म।

लेकिन फ़िल्म की सफलता केवल इसी में नहीं है। फ़िल्म की जान है, वहां है जहां पहलवान जैसा पहलवान है और गुरु जैसा गुरु।

आज अगर हिंदी के अप्रतिम कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ज़िंदा होते तो उनका सीना चौड़ा हो जाता। रेणु ने 'पहलवान की ढोलक' जैसी कहानी लिखी है। आमिर ने भारत की बहुत प्रिय कुश्ती में जीवनी फूंकने की कोशिश की है।

चरम तब घटता है जब पता चलता है यदि बन सके, हो सके तो बाप से बेहतर गुरु दूसरा नहीं हो सकता।

बेटी का बाप अगर बेटी के लिए अपना सब दांव पर लगा दे, बेटी पिता की शाबासी को तरसे। जब वह क्षण आये जिसके लिए कुश्ती जीना ही शुरू हुआ था तो बेटी गोल्ड मेडल पिता के हाथों पहनना चाहे इससे बड़ी कहानी क्या होगी?

इससे बड़ा कहानी का, खेल का, फ़िल्म का साधारणी करण क्या होगा?

दंगल में एक मिनट भी भरती का नहीं है। गानों और रोमांस में वक्त ख़र्च नहीं हुआ है। फ़िल्म कुश्ती या रेसलिंग में ही रची बसी है। खेल, रिश्ते और खेल नीतियां फ़िल्म में अपनी बारीकियों से उभरे हैं।

मां, पिता, गीता, बबिता, चचेरा भाई, गांववाले, चिकनवाला, कोच, मेडल, हार-जीत, अपनत्व सब रिश्ते बड़े हाड़ मांस के बने लगते हैं। यह खेल पर बनी राष्ट्रीय महत्व की फ़िल्म है जिसमें बेटियों का, बहनों का, मां का, गांव की छोटी बच्चियों का मान और मन दोनों दीखता है।

मुझे लगता है फ़िल्म की वह भी एक बड़ी सफलता है जब फ़िल्म में राष्ट्रगान बजता है। कमरे में बंद कर दिया गया पिता जान जाता है जीत गयी बेटी, बेटी जीत गयी है। वह खड़ा हो जाता है।

मैंने देखा पूरा सिनेमा हॉल खड़ा हो गया है। सचमुच। पूरी गंभीरता के साथ। शुरुआत से पहले राष्ट्रगान में सब खड़े न हुए थे। जो खड़े हुए थे उनमें मसखरी भी दिख रही थी।

लेकिन फ़िल्म के राष्ट्रगान ने मानो अपना वही असर दिखाया जिसकी कल्पना राष्ट्रगान को लेकर कभी सच्चे लोगों ने की होगी या आज भी करते होंगे।

फ़िल्म की बाक़ी खूबियां अधिकारी लोग बताएँगे। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ। चाहे जैसे मन के साथ फ़िल्म देखने चले जाइए। जब लौटेंगे आपके पास एक बड़ा दिल होगा। तारीफ़ से अधिक आत्मबल और धन्यवाद।

धन्यवाद आमिर आपने सच्चे मन से बड़ी लगन, बड़े शोध से, बड़े सपने के साथ फ़िल्म बनाई है।

शशिभूषण

केवल परिचय ही नहीं काम भी होना चाहिए

रोहिणी अग्रवाल, हिंदी कथा साहित्य की महत्वपूर्ण विपुल समीक्षक हैं। न केवल कहानियों पर बल्कि उपन्यासों पर भी किताबें लिखीं। लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में लंबे लंबे लेख छपते आ रहे हैं।

अब ठीक से याद नहीं 2005-06 के किसी महीने में अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय हिंदी की एक पीएचडी के लिए मौखिकी लेने आती हैं। हिंदी विभाग में हमारी उनसे भेंट और लंबी बातचीत होती है। कविताएं भी सुनी सुनाई जाती हैं।

रोहिणी जी एक अत्यंत चौकाने वाली बात बताती हैं कि मेरा नाम जाने कैसी शरारत में कुछ लोगों द्वारा राजेंद्र यादव की घाघरा पलटन में जोड़ दिया गया है। सच यह है कि मैं राजेंद्र यादव से अब तक एक बार भी नहीं मिली हूँ। फोन पर बात हुई। मैं लेख भेज देती हूँ और वे हंस में प्रमुखता से प्रकाशित होते हैं।

इसके बाद वे ख़ुद आश्चर्य व्यक्त करती हैं कि दिनेश जी(कवि दिनेश कुशवाह) आपके हिंदी विभाग में आलोचना की किताब पर इतनी अद्यतन जानकारी रखने वाले विद्यार्थी हैं। स्मरण रहे रोहिणी जी की उपन्यास पर किताब साल डेढ़ साल पहले ही आई थी।

लगभग छह-सात महीने बाद कथादेश में मेरी एक कविता 'क्रांति के सिपाही की जेब में प्रेम कविता' छपती है। एक दिन शाम को रोहिणी जी का फ़ोन आता है। वे बधाई देती हैं और वैसी ही उम्दा बात करती हैं जैसी बातें स्त्री विमर्श से सम्बन्ध रखनेवाले किसी अच्छे आलोचक को करनी चाहिए। मैं उनका आभार मानता हूँ और जितना खुश हुआ जा सकता है ख़ुश हो जाता हूँ।

इसके कई साल बाद जब मैं पाता हूँ कि रोहिणी जी भी फेसबुक पर आ चुकी हैं उन्हें तत्काल मित्रता निवेदन भेजता हूँ। पिछले अप्रैल में मेरी उनसे भोपाल में वनमाली स्मृति सम्मान के कार्यक्रम में भेंट होती है। दोपहर में चाय के दौरान उनसे आत्मीय नमस्कार होता है और कहानीकार राकेश मिश्रा, मनोज पांडेय और आलोचक राहुल सिंह के साथ अच्छी सी बात भी होती है।

इन सबके बावजूद इतने साल बाद भी फेसबुक पर मित्रता निवेदन पेंडिंग है। मैं सोचता हूँ एक इनबॉक्स करना चाहिए। लेकिन लगता है अनुरोध के लिए भी अनुरोध ठीक नहीं। किसी आलोचक को याददाश्त पर जोर डालने के लिए कहना कदाचित धृष्टता होगी। मैं इनबॉक्स नहीं करता।

समीक्षक रोहिणी अग्रवाल के विषय में सोचता हूं तो एक बात, ज़रा भिन्न प्रसंग और याद आ जाता है। वनमाली स्मृति सम्मान समारोह में ही आलोचक विजय बहादुर सिंह जी मिलते हैं। वे संतोष चौबे जी, प्रभु जोशी जी और स्वयं प्रकाश जी के साथ खड़े हैं। मैं अपनी सभी पुरानी पहचान समेटकर दोनों हाथ जोड़कर उनसे नमस्कार करता हूँ। विजय बहादुर जी नमस्कार का जवाब देने की बजाय अपने दाएं हाथ को प्रतिज्ञा की मुद्रा में तानकर तर्जनी सीधी कर लगभग सबको सुनाकर कहते हैं मैं इन्हें नहीं जानता।

मैं सन्न रह जाता हूँ। मेरी समझ में नहीं आता अभिवादन का यह कैसा जवाब था। उनके द्वारा जिनसे कई बार मिलना हो चुका है और जिनकी तीमारदारी जैसे कामों में भी लगना पड़ा था। क्या क्या संभव है! ऐसे ही किसी क्षण में बुजुर्गों के लिए स्थायी अरुचि उत्पन्न होती होंगी। खैर

कुल मिलाकर बाक़ायदा स्टेटस लिखकर कहना यह चाहता हूँ कि हमारे आलोचक बुरे नहीं हैं लेकिन उनकी याददाश्त बड़ी सेलेक्टिव है। जिन्हें भी यह भ्रम है कि हिंदी में उच्च शिक्षा ग्रहण करने से साहित्यिक प्रतिष्ठा वृद्धि में कोई बड़ा सहयोग मिलता है वे अपनी राय दुरुस्त कर लें। हर बात की एक सीमा होती ही है। हर आदर चाटुकारिता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। किसी को भी भाव न देने की बेलगाम प्रवृत्ति खुद्दारी या ईमानदारी ही नहीं होते।

कभी कभी अपयश की ही तरह यश भी संक्रामक होता हैं। अपरिभाषित ढंग से बढ़ता जाता है। केवल परिचय ही काफ़ी नहीं। अपना काम भी याद दिलाने लायक होना चाहिए।

शशिभूषण

सबसे बड़ा खोया पाकर लौटानेवाला



सभी विद्यालयों के विद्यार्थियों की तरह केंद्रीय विद्यालय, शाजापुर के विद्यार्थी भी बड़े सरल और सच्चे हैं। ऐसे अच्छे अच्छे काम करते हैं कि मन भर आता है। गर्व से भी भर जाता है।

पिछले डेढ़ साल में देखा है कि कभी-कभी सप्ताह में दो से तीन बार तक विद्यार्थी आ आकर खोई हुई वस्तुएं सौंपते हैं। इन खोयी पायी चीजों में छोटे-मोटे सामान के आलावा एक रुपये से लेकर सौ दो सौ रुपये तक होते हैं।

बड़े सामान यथा चेन, अंगूठी, चाभी, बॉटल, घडी आदि अगले दिन ही प्रातःकालीन सभा में जिसके हैं उसे लौटा दिए जाते हैं। सबसे अधिक मुश्किल आती है एक, दो या पांच रुपये के सिक्कों के साथ।

विद्यार्थी जमा कर जाते हैं लेकिन लेने कोई नहीं आता। मन बहुत बड़ा हो जाता है कि कैसे सच्चे बच्चे हैं जिन्हें लालच नहीं डिगाता।

ऐसे इकठ्ठा होते-होते इस साल सौ रुपये हो गए। बड़ा उहापोह रहा कि इन रुपयों का क्या किया जाये? थे तो सौ रुपये ही लेकिन लगता था बड़ी भारी पूंजी है। बच्चों की नेकी की जमा पूंजी।

सोचते-सोचते विचार आ ही गया कि क्यों न इन रुपयों में कुछ रुपये मिलाकर एक किताब खरीदी जाये और उसे बतौर निशानी पुस्तकालय में रखा जाये।

इस तरह तय हुआ और डॉ योगेंद्र की शिक्षा पर केंद्रित अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'जस देखा तस लेखा' हाथ आई।

किताब आई तो संयोग से एक शानदार सालाना मौका भी आ गया। केविसं भोपाल संभाग के वरिष्ठ सहायक आयुक्त सुनील श्रीवास्तव विद्यालय आये। उनके साथ थे प्राचार्य प्रमोद पराते, जयश्री गुप्ता और प्रधान अध्यापिका रूपाली यादव।

सहायक आयुक्त के हाथों यह किताब विद्यालय के पुस्तकालय को सौंपी गयी। चित्र में प्राचार्य अतुल व्यास और लाइब्रेरियन ब्रह्मदेव गौड़ किताब प्राप्त कर रहे हैं।

उम्मीद है विद्यार्थियों की यह अच्छाई एक अच्छी किताब की शक्ल में विद्यालय को हमेशा आलोकित करती रहेगी। मैं मंच से कही हुई अपनी बात दोहराना चाहूंगा:-

मारनेवाले से बचाने वाला बड़ा कहा गया है
इसी तरह खोनेवाले से पानेवाला बड़ा होता है
लेकिन सबसे बड़ा होता है
खोए को पाकर लौटा देनेवाला

शुक्रिया विद्यार्थियो!!!...

शशिभूषण


मैं जो भी हूँ 'गुलाल' से हूँ - पियूष मिश्र , इंदौर लिट्रेचर फेस्टिवल 17 दिसंबर 2016

गीतकार, गायक, अभिनेता, रंगकर्मी पियूष मिश्र को सुनना उनसे सवाल पूछना और बाद में कुछ बातचीत कर पाना कल के दिन की ख़ास उपलब्धि रहीं।

सुबह जब सत्र शुरू हुआ तो लोग नहीं आये थे। पियूष जी मंच पर अपनी कुर्सी ख़ुद खींचकर बैठ गए और प्रवीण शर्मा जी, आयोजक से बोले- जब तक लोग नहीं आते हम सामने मौजूद लोगों से बातचीत शुरू करते हैं। उन्होंने सामने मौजूद लगभग सारे युवाओं से ही कहा- आगे आ जाओ। शुरू करते हैं। गाना मैं सुनाऊंगा लेकिन तब तक बात करते हैं। पूछो।

पहला सवाल मैंने पूछा -आप जेएनयू के बारे में क्या सोचते हैं? पियूष जी ने जवाब दिया- देखो मेरा आईक्यू लेवल जेएनयू के लेवल का नहीं है। मैं जेएनयू को नहीं समझ पाता। मैं लेफ्टिस्ट नहीं हूँ। नास्तिक नहीं हूँ। मैं आस्तिक हूँ। भगवान को मानता हूँ। लेफ्टिस्ट होने के लिए नास्तिक होना ज़रूरी है। मैं आस्तिक हूँ।

फिर सवाल शुरू हुए। जिनमें पियूष जी की नशाखोरी, प्रेम, सफलताओं और भावी योजनाओं से जुड़ी बातें मुख्य रहीं। इन्ही बातों के दौरान उनकी कुछ यादगार बातें ये रहीं-

1 नशा एक बीमारी है। कब गिरफ़्त में ले ले पता नहीं चलता। नशे में आप चार पैग में वो सब कर डालते हैं जो होश में जीवनभर न कर पाएं। एक बार तो मैंने पहले पैग में स्क्रिप्ट लिखना शुरू किया चौथे पैग में फ़िल्म को ऑस्कर मिल गया। लेकिन मैं लुढ़क चुका था। सुबह देखा काग़ज़ पर एक शब्द नहीं लिखा गया था। नशे ने मुझे बहुत तबाह किया। मैं बहुत बार गिरा उठा। अब विपश्यना करता हूँ। योग करता हूँ। सम्हल चुका हूँ। इसी से झेल सकने लायक हूँ। वरना मेरा ईगो। बाप रे। मैं मैं मैं, मेरा काम, सिर्फ़ मैं, मेरा काम होता था। लोग मेरे सामने बैठ नहीं पाते थे। विनम्र बनकर ही खूबियों को अर्जित किया जा सकता है। दूसरों का काम दिखता है। अब मैं बहुत ठीक हूँ। मुझे लोग अच्छे लगते हैं।

2 मैं जो भी हूँ। गुलाल की वजह से हूँ। अनुराग कश्यप की वजह से हूँ। लेकिन उसने रमन राघव में जो किया वह सत्यानाश है! मैंने कहा ये क्या किया? वह बोला इसमें मेरे मन का सब काला, गंदगी निकल गये। अब साफ़ सुथरी फ़िल्म बनाऊंगा।

3 अभिनय स्कूल आपको अनुशासन सिखाते हैं। लेकिन पैशन वह आप खुद सीखते हैं। मैंने यह अमिताभ बच्चन में देखा, उनसे सीखा। पिंक में जब मुझे काम करने को मिला तो मैं अमिताभ जी की रिहर्सल से दंग रह गया। मैं मानता था मुझसे अधिक रिहर्सल कोई नहीं कर सकता। अमिताभ जी को देखा तो जाना इतनी रिहर्सल मैं नहीं कर सकता। वे बहुत सज्जन हैं। सेट पर पूरी तरह डूबकर मौजूद होते हैं। इस उम्र में नाचकर दिखाते हैं। इतनी मेहनत। बहुत है। मैंने उनसे पैशन सीखा। वे पिंक के दौरान लड़के लड़कियों को अपनी कार में घर ले जाते, खूब घुलते मिलते। यह यदि 45 साल से नकली भी है तो मैं इस नकली जीवन को जीना चाहूंगा।

4 अपवाद छोड़ दें तो आज के पैरेंट जल्लाद हैं। वे जो बनाना चाहते हैं बच्चे उसमें घुटकर रह जाते हैं। आप को मालूम नहीं क्या-क्या करियर है और आप गिने-चुने लक्ष्य में जोत देते हैं। क्या आपको मालूम है कि कोई केवल बाल काटकर, सैलून से अपनी पहचान बना सकता है? मेकअप के काम में कितना सम्मान और आत्मनिर्भरता है? मुझसे लोग पूछते हैं सिनेमा में क्यों चले गए? थियेटर में रहते। मैं कहता हूँ जब मैं थियेटर में था पूछा किसी ने मैं क्यों आया? मैं अपनी मर्ज़ी से हूँ जहाँ भी हूँ। अपने मन का कीजिए।

5 मेरे उम्मीद नरेंद्र मोदी से थी। मैं उन्हें नेताओं में पसंद करता हूँ। मुझे लगा था कुछ होगा। नोटबंदी से लगा बात होगी। लेकिन अब जो देख रहा हूँ। गरीब परेशान हैं। बच्चे परेशां हैं। लोग मर रहे हैं। दिल कहता है ये हो क्या रहा है? यह नहीं होना था। तो अब मेरा उनसे भी यानी मोदी जी से भी हो चुका है। अब ख़त्म ही हो चुका है भरोसा। अब और उम्मीद नहीं लगती। बस ही है अब। बहुत हुआ।
6 ये मेरे असिस्टेंट हैं। इनके बिना मेरा कार्यक्रम नहीं हो सकता। लेकिन इनका नाम सुनेंगे आप तो इनपर से आपका भरोसा उठ जायेगा। नाम है राहुल गांधी।

और बहुत सी बातें हैं जो ज़ेहन में हैं; जिन्हें यहाँ दर्ज करने में अधिक विस्तार हो जाने का खतरा है। पियूष मिश्र ने अपने कई गीत सुनाए। इक बग़ल में चाँद होगा, गणेश वंदना आदि। उन्होंने एक बच्ची पर कविता भी सुनाई जिसका आशय था अंकल मत आया करो मुझे डर लगता है।

पियूष मिश्र के ठीक बाद साहित्य का सत्र शुरू हुआ जिसे प्रभु जोशी मॉडरेट कर रहे थे। आप तस्वीर में देख सकते हैं पियूष जी किस तरह लोगों को बिठा रहे हैं।

भोजनावकाश में मुझे भी पियूष जी से बात करने का मौका मिला। मैं कहानीकार वंदना राग, उपन्यासकार महुआ माजी और निर्मला भुराड़िया जी के साथ बैठा था। बातें हो रहीं थी कि पियूष जी आये। वंदना जी और महुआ जी को देख बैठ गए। उनका खाना हुआ और साथ में बातें हुईं। गीत इक बग़ल में चाँद...फ़िल्म रिवाल्वर रानी के चरित्र और पिंक के संवादों को लेकर। पियूष जी ने माना कि रिवाल्वर रानी में मैंने अच्छे से अभिनय किया है।

इसके बाद नए सत्र शुरू हुए। पियूष जी अलग-अलग जगहों में हो रहे सब सत्रों में आये-गए। अरुण कमल और लीलाधर जगूड़ी, सरोज कुमार के गीत संबंधी सत्र में उन्होंने सवाल भी पूछा और गीतकार मनोज मुन्तशिर ने अपने सत्र में मंच से पियूष जी को नमस्कार किया।
कुल मिलाकर पियूष जी से जो लगाव था वह असहमति के बावजूद अब बहुत गाढ़ा हो चुका है। मेरा मानना है पियूष मिश्र जैसे कलाकार विरल होते हैं। उनके जैसे कलाकार बैसाखी के सहारे आये नहीं होते। उनमें जो अपना होता है वह बहुत तीखा और असहज कर देनेवाला होने के बावजूद आपके सर चढ़कर बोलता है। पियूष जी ने अपनी जो जगह बनाई है वह ज़मीन ही उनकी थी। उसे कोई अपने नाम नहीं करा सकता था। उनका क्षेत्रफल बढ़ता रहे ऐसी दिली कामना करता हूँ।

शशिभूषण

फिदेल कास्त्रो : एक क्रांतिकारी जीवन का उत्सव

किसी आयोजन की इतनी घनत्ववाली रिपोर्ट याद नहीं आता पिछली बार कब, कौन सी पढ़ी थी। आग्रह है इसे ज़रूर पढ़ें। इसके तथ्यों के साथ ही इसकी प्रस्तुति की ईमानदार सफलता के लिए भी। यह रिपोर्ट कहीं गहराई में किसी कार्यक्रम को देखने का सलीका और नज़रिया पेश करती है। विनीत तिवारी कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हैं बिना विचलित हुए बिना आह्लादित हुए और बिना अतिरेक के वे जो दर्ज़ करते हैं वह अद्वितीय होता है.  -मॉडरेटर

फिदेल कास्त्रो 90 वर्ष की उम्र में एक दीर्घ सक्रिय जीवन जीने के बाद २५ नवम्बर २०१६ को इस दुनिया से रुखसत ज़रूर हुए लेकिन वे करोड़ों - अरबों दिलों में हमेशा के लिए बसे रहेंगे। वे बेशक दुनिया के दूसरे सिरे पर मौजूद एक छोटे से देश के शासक थे लेकिन उन्होंने अनेक देशों की आज़ादी की लड़ाई में निर्णायक भूमिका निभायी और बेहतरीन मानवीय गुणों वाले मनुष्य समाज को बनाया। कहा जा सकता है कि अगर फिदेल न होते तो अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के अनेक देशों के मुक्ति संघर्षों का नतीजा बहुत अलग रहा होता। उनके निधन के उपरान्त इंदौर में उनके प्रशंसकों ने तय किया कि फिदेल की याद में कोई कार्यक्रम शोक या श्रद्धांजलि का नहीं किया जाएगा बल्कि उनकी याद में एक क्रांतिकारी जीवन का उत्सव मनाया जाएगा।

इसलिए ३ दिसम्बर २०१६ को इंदौर के सभी प्रगतिशील-जनवादी और वामपंथी संगठनों द्वारा फिदेल कास्त्रो की याद में "फिदेल कास्त्रो : एक क्रांतिकारी जीवन का उत्सव" कार्यक्रम आयोजित किया। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया (एसयूसीआई), भारतीय जन नाट्य संघ, जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, मेहनतकश, रूपांकन और संदर्भ केंद्र का ये संयुक्त आयोजन हिदी साहित्य समिति सभागृह में किया गया। वक्ताओं में भी उनके नाम तय किये गए जो क्यूबा जा चुके हैं और अपनी नज़रों से क्यूबा देख चुके हैं। इंदौर में ऐसे दो ही नाम ढूंढें जा सके। एक अर्थशास्त्री डॉ. जया मेहता का जो १९९० के दशक में कुछ महीनों के लिए क्यूबा गईं थीं, एक बैंक अधिकारी यूनियन के प्रमुख राष्ट्रीय नेता आलोक खरे का जो कुछ वर्षों पहले ट्रेड यूनियन के अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने क्यूबा गए थे और एक भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया जो १९७० के दशक में पत्रकारों के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में भाग लेने क्यूबा गए थे।

कार्यक्रम की शुरुआत में फिदेल कास्त्रो और क्यूबा का संक्षिप्त परिचय देते हुए जया मेहता ने बताया कि फिदेल कास्त्रो का यूँ तो पूरा जीवन ही संघर्षपूर्ण था लेकिन मैं तीन संघर्षों को उनके सबसे बड़े संघर्ष मानती हूं। पहला संघर्ष जो उन्होंने अपने देश क्यूबा को बटिस्टा की तानाशाही से आजाद कराया। दूसरा संघर्ष था क्यूबा जैसे पिछड़े देश में में समाजवादी व्यवस्था और समाजवादी चेतना कायम करने का। उनका तीसरा सबसे बड़ा संघर्ष था कि जब ९० के दशक में सोवियत संघ का विघटन हो गया और पूर्वी योरप के देशों में समाजवादी व्यवस्थाएं ढह गईं तब बिना डगमगाए समाजवाद के परचम को क्यूबा ने थामे रखा।

डॉक्टर जया मेहता, आमिर और विक्की द्वारा अमेरिकी डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता सॉल लैंडो द्वारा फिदेल कास्त्रो पर बनाई हुई डॉक्यूमेंट्री "फिदेल १९७१" के चुने हुए हिस्से दिखाए। फिल्म के इन दृश्यों से फिदेल और उनके साथियों का क्रांतिकारी जीवन, क्यूबा की जनता के साथ उनका जीवंत संबंध, क्यूबा की जनता का संघर्ष, आजादी के बाद देश की समस्याएं और समाधान ढूंढने के जनवादी तरीके फिल्मों के इन टुकड़ों के माध्यम से दिखाए गए।

पहले दौर में क्यूबा को मुक्त कराने का संघर्ष भी एक हैरतअंगेज़ बहादुराना संघर्ष था जिसमें उनके पास न अधिक साथी थे और न ही अधिक संसाधन। फिर भी उन्होंने मुक्ति की अदम्य चाहत, विवेक संम्मत रणनीति और सजगता के साथ दृढ इच्छाशक्ति से जीत हासिल की। इसमें उन्हें हौसला और साथ हासिल हुआ सिएरा मेस्त्रा के गरीब किसानों का जिनका रक्त शोषण की आंच में सूख रहा था। उस गुरिल्ला लड़ाई और साथियों की याद फिल्म में फिदेल को भावुक कर देती है।

फिल्म दिखाने के साथ-साथ डॉ. जया मेहता ने बताया कि जब फिदेल ने बटिस्टा के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई छेड़ी तो उनके साथ मात्र ३०० साथी थे जबकि उनके खिलाफ 10 हज़ार हथियारबंद सेना थी। फिल्म में फिदेल कहते हैं कि हम क्यूबा की सिएरा मेस्त्रा पहाड़ों के जंगल में थे जिसका हम चप्पा चप्पा जानते थे। हमारा मोर्चा सुरक्षित जगह पर था लेकिन फिर भी हमें स्थानीय किसानों और गाइडों का सहारा लेना पड़ता था। कई बार ऐसा हुआ जब लोगों ने हमें धोखा दिया। पद और पैसों के लालच में हमारी जानकारी सीआईए को दे दी गयी। कई बार हम बाल-बाल बचे और कई बार हमारे साथी शहीद हुए। उन्होंने हवाई जहाज़ों से भी हम पर हमले किए। लेकिन हर मुठभेड़ ने हमें मज़बूत बनाया और कई बार बचने के बाद हमें ये भरोसा हो गया था कि अब हमें कोई नहीं हरा सकता।

फिदेल ने एक शोषक तानाशाह से अपने देश को मुक्त करवाकर एक अशिक्षित, अविकसित और संसाधनहीन देश की बागडोर संभाली। सन १९५९ में क्यूबा में क्रांति हुई और देश अमेरिकी साम्राज्यवादी तानाशाही और शोषण से आज़ाद हो गया, लेकिन ठीक अमेरिका के पीछे मौजूद क्यूबा में नयी व्यवस्था कैसे कायम की जाए, जो लोगों के लिए बेहतर ज़िन्दगी देने वाली हो, ये सवाल क्रांतिकारियों के लिए भी बहुत अहम् था। इसी सवाल से जूझते हुए फिदेल कास्त्रो इस नतीजे तक पहुंचे कि मनुष्य का सही विकास केवल समाजवादी सकता है, न कि पूँजीवाद में। जिस समाजवादी राष्ट्र का उन्होंने निर्माण किया उसमें उन्होंने जनवाद को समाज के निचले सिरे तक पहुंचाना सुनिश्चित किया। ये उनका दूसरा बड़ा संघर्ष था।

फिल्म में फिदेल लोगों से खूब मिलते-जुलते दिखते हैं। वे खुद भी कहते हैं कि बटिस्टा का तख्ता पलटने के बाद हमारे पास असल समस्या थी कि देश को कैसे चलाया जाए, लेकिन हमें भरोसा था कि हम कर लेंगे। फिदेल कहते हैं कि मेरे काम करने का तरीका ये है कि मैं दफ्तर में लगभग नहीं के बराबर रुकता हूँ और अक्सर गाँवों और बस्तियों में लोगों के पास जाता रहता हूँ। जनता से बेहतर आपको कोई अपनी समस्याएं नहीं समझा सकता और समस्याएँ ठीक से समझे बिना आप उनका सही समाधान नहीं ढूँढ़ सकते।

फिल्म में क्यूबा की क्रांति के १५ वर्ष पूरे होने पर फिदेल को क्यूबा के अपने देशवासियों को संबोधित करते दिखाया गया है। वे क्रांति की १५ वीं वर्षगाँठ को अपने साथी शहीद चे गुएवारा को समर्पित करते हुए सामने मौजूद लाखों की जनता से कैसे जोशीला संवाद स्थापित करते हैं, इसे लक्ष्य करके डॉ. जया मेहता ने फिदेल के बारे में चे गुएवारा की बात को साझा किया। चे कहते थे, 'फिदेल का जनता से जुड़ने का तरीका कोई तब तक नहीं समझ सकता जब तक उन्हें उस रूप में कोई देख न ले। वे जनता से इस तरह संवाद स्थापित करते हैं मानो किसी चिमटे की दो भुजाएं एक जैसे कम्पित हो रही हों, बिलकुल सम पर। ये कम्पन बढ़ता जाता है और चरम तक पहुँचता है जिसमे फिदेल उस संवाद को 'संघर्ष, इन्किलाब की जीत' की गर्जना से अचानक समाप्त करते हैं और वो जनता के भीतर बहुत देर तक झंकृत होता रहता है।'

तीसरे दौर का संघर्ष, जिसे 'मुश्किल दौर (difficult peiod)' कहा जाता है, 90 के दशक में शुरू हुआ। इस दौर में सोवियत संघ की सरकार गिर चुकी थी। सोवियत संघ से सभी विकासशील देशों को बहुत सहायता मिलती थी। सोवियत संघ के बिखरने से क्यूबा को भी बड़ा आघात पहुंचा। लेकिन फिदेल ने अपनी जनता से कहा कि इतिहास ने समाजवाद को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी हमें सौंपी है और हम इसे कामयाबी से निभाएंगे। और तमाम मुश्किलों के बाद भी पूरे क्यूबा को साथ लेकर समाजवाद की जिम्मेदारी को उन्होंने मजबूती से आगे बढ़ाया। फिदेल कास्त्रो ने अपनी मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से अपनी पूरी आबादी को साथ में लेकर उस 'मुश्किल दौर' को पार किया। क्यूबा बटिस्टा के जमाने से यानि 1960 के पहले से ही रासायनिक खेती और उत्पादन की पूंजीवादी पद्धतियों से चल रहा था। अमेरिकी कॉरपोरेटों के लिए गन्ने की खेती और शक्कर का उत्पादन ही उनकी एकमात्र आर्थिक और उत्पादन गतिविधि थी जो वो अपनी ही ज़मीनों पर गुलामों की तरह करते थे। क्रांति के बाद भी क्यूबा रासायनिक उर्वरक आधारित खेती से अपनी आर्थिक व्यवस्था चलाता था। ये फर्क ज़रूर आया था कि अब वो अपनी शक्कर अमेरिका के बजाय मित्र देश सोवियत संघ को बेचने लगा था जिसके उसे अच्छे दाम और अन्य अनेक सहयोग मिलते थे।

क्यूबा ईंधन के लिए पूरी तरह सोवियत संघ से प्राप्त होने वाले तेल पर आश्रित रहता था। सोवियत संघ के विघटन के बाद जब तेल और रासायनिक खाद की आपूर्ति मिलना बंद हो गई। लेकिन क्यूबा लड़खड़ाया नहीं क्योंकि क्यूबा की क्रांति तेल और बाहरी मदद पर आधारित नहीं थी, बल्कि क्यूबा की क्रांति समाजवाद के मूल्यों पर आधारित थी। अपने देश के लोगों की मदद से फिदेल कास्त्रो ने अपने समाज में आमूलचूल बदलाव लाकर भी समाजवाद को कायम रखा। उस वक्त फिदेल की उम्र करीब 65 साल रही होगी जब उन्होंने अपने नागरिकों को अपने देश को सन्देश दिया कि हम अब साइकिल चलाएंगे। रातोरात चीन से हजारों-लाखों साइकिल आयात की गई और 65 बरस की उम्र में खुद फिदेल कास्त्रो ने भी साइकिल चलाना सीखा। पूरा मुल्क मोटर- कारों को छोड़कर साइकिल पर आ गया।

क्यूबा की लगभग 99% खेती रासायनिक उर्वरकों पर आधारित थी। फिदेल कास्त्रो ने अपने वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि अब हमारे पास रासायनिक खाद का संकट है, और उनके वैज्ञानिको ने बमुश्किल पांच से 10 सालों के भीतर क्यूबा को जैविक खेती के क्षेत्र में दुनिया में अव्वल नंबर पर पहुंचा दिया।

क्यूबा की शिक्षा व्यवस्था, क्यूबा के डॉक्टर, क्यूबा की रिहायश व्यवस्था, क्यूबा की रोजगार व्यवस्था - यह सब मिलकर क्यूबा को क्यूबा बनाती हैं और फिदेल कास्त्रो को फिदेल कास्त्रो।

फिल्म में फिदेल कहते हैं जनता के पास अगर घर है तो उन्हें रोड चाहिए। रोड हैं तो उन्हें परिवहन चाहिए। परिवहन मिल गया तो उन्हें अस्पताल चाहिए, स्कूल चाहिये, वगैरह, वगैरह। इसलिए उनकी ज़रूरतों को समझने का बिना उनके पास जाए कोई विकल्प नहीं है। और ये काम लगातार होते रहना चाहिए

कार्यक्रम का सूत्र सञ्चालन करते हुए विनीत तिवारी ने फिल्म का एक दृश्यबंध दिखाते हुए कहा कि फिदेल के समाजवादी शासन - प्रशासन से क्यूबा की पूरी जनता खुश हो गयी हो, ऐसा नहीं था। जो मुट्ठी भर लोग बटिस्टा के शासन में लाभ उठा रहे थे, उनके मुताबिक तो फिदेल ने क्यूबा को नरक बना दिया था। फिदेल ने ज़मींदारों से ज़मीनें चाहें लीं और उन्हें भी खेतों में काम पर लगा दिया। फिल्म में ऐसे सुविधाभोगी लोगों के साक्षात्कार दिखाए गए जो क्यूबा छोड़कर अमेरिका में मियामी, फ्लोरिडा, और न्यू यॉर्क तरफ जाने आवेदन लेकर क़तार में खड़े हैं। उनसे पूछा गया कि क्यों जाना चाहते हैं आप क्यूबा छोड़कर तो वे कहते हैं, 'यहां तो हमारे बच्चों का भविष्य असुरक्षित है, यहां उन्हें क्रांतिकारी बातें सिखा रहे हैं।' एक कहता है, 'मैं अच्छा-खासा व्यापारी था। मुझे उन्होंने खेत में काम पर लगा दिया। देखिये काम करते करते मेरी नाक में चोट भी लग गयी।' फिल्म में बताया गया कि क्रांति के बाद क्यूबा में ये नियम बनाया गया कि अगर किसी को देश छोड़कर जाना है तो राष्ट्र निर्माण में श्रमदान करके बिना प्रमाण पत्र हासिल किये नहीं जा सकते हैं। ऐसे ही चंद सौ असंतुष्ट लोगों के ज़रिये दुनिया भर में फिदेल को बदनाम करने की कोशिश की गयी हालांकि वे अधिक कामयाब नहीं हुए। फिदेल का कहना था कि समाजवादी दुनिया में गैरबराबरी को जगह नहीं दी जा सकती।

फिल्म का अंतिम हिस्सा फिदेल कास्त्रो के अंतरराष्ट्रीयतावाद पर है। उल्लेखनीय है कि फिदेल ने अनेक पड़ोसी देशों को ही नहीं बल्कि अफ्रीका के भी अनेक देशों को मुक्ति संग्राम जारी रखने के लिए मदद की। फिदेल कास्त्रो ने अपनी लड़ाई को केवल एक देश की आजादी तक सीमित नहीं रखता उनका कहना था समूची मानवता सारी इंसानियत ही मेरा देश है इसलिए जहां कहीं भी शोषण और अन्याय के खिलाफ जनता लड़ रही थी वहां उन्होंने क्यूबा की ओर से मदद मुहैया कराई। ये मदद केवल आर्थिक ही नहीं थी, बल्कि क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण भी दिया और अपने सैनिक भी भेजे। कार्यक्रम में मंच पर लगे मुख्य बैनर पर भी यही सन्देश लिखा था - 'इंसानियत हमारा मुल्क है।' जया मेहता ने बताया कि केवल दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्यूबा ने अंगोला, अल्जीरिया, तंज़ानिया, इथियोपिया सहित अनेक देशों में भी क्यूबा के सैनिकों ने स्थानीय तानाशाह से निपटने में जनता और क्रांतिकारियों की मदद की। फिल्म में अफ्रीका के एक विशेषज्ञ अकादमिक विद्वान कहते हैं कि अगर फिदेल नहीं होते तो अफ्रीका का नक्शा बहुत अलग होता।

फिल्म का एक दृश्य है जहां दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के बाद नेल्सन मंडेला फिदेल को किसी अन्य देश में मिलते हैं और अपने कमरे में फिदेल का स्वागत कर कहते हैं - 'किसी भी और बात से पहले मैं यह जानना चाहता हूं कि आप हमारे दक्षिण अफ्रीका में कब आएंगे? दुनिया के तमाम देशों के नेता दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं और जिस देश की वजह से हम आजाद हैं, जिसने दक्षिण अफ्रीका की आजादी की लड़ाई में सबसे ज्यादा साथ दिया, जो हमारा सबसे करीबी दोस्त है - फिदेल कास्त्रो। वो अब तक दक्षिण अफ्रीका नहीं आया। अब मैं और कुछ भी बात सुनने के पहले यही सुनना चाहता हूँ कि फिदेल कब दक्षिण अफ्रीका आओगे।' बहुत बार नेल्सन मंडेला का आग्रह सुनकर फिदेल कहते हैं, 'दक्षिण अफ्रीका भी मेरा देश है। मैं वहां जल्दी ही आऊंगा।' और उसके बाद फिदेल कास्त्रो दक्षिण अफ्रीका गए भी। जहां अफ्रीका के अन्य अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने उनका स्वागत किया।

ऐसे ही अनेक लैटिन अमेरिकी देशों के भीतर चल रहे मुक्तिसंग्रामों को भी क्यूबा ने हर तरह से मदद मुहैया कराई। वेनेजुएला की 21वीं सदी के समाजवाद की क्रांति के रचयिता ह्यूगो शावेज फिदेल कास्त्रो को दक्षिण अमेरिकी देशों का पितामह मानते थे। बोलीविया, इक्वाडोर, अल-साल्वाडोर, निकारागुआ, चिली जैसे अनेक देशों के क्रांतिकारियों ने फिदेल कास्त्रो, चे गुएवारा और क्यूबा की प्रेरणा और समर्थन से बहादुराना संघर्ष करे और जीते।

ट्रेड यूनियन नेता आलोक खरे इस मीटिंग में नहीं शामिल हो सके लेकिन भोपाल से आये वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदेनिया ने अपनी १९७० के दशक में एक पत्रकार सम्मलेन में भाग लेने के लिए की गयी क्यूबा यात्रा के संस्मरण सुनाये। उन्होंने बताया कि वे पत्रकारों के एक दल के साथ सम्मेलन के लिए क्यूबा गए थे। उस समय क्यूबा मास्को से होकर ही जाना होता था। हवाई जहाज का ईंधन खत्म हो गया था। हमारा ढाई सौ पत्रकारों का दल था जिसमें कई संपादक भी शामिल थे। हमें कहीं उतरने की अनुमति नहीं मिल रही थी। नामचीन संपादकों ने अमेरिका और ब्रिटेन सहित तमाम देशों के राष्ट्रपतियों से बात की तब जाकर हमें बरमूडा में उतरने की अनुमति मिली। वहां हमसे हमारे कैमरे ले लिए गए और हमें कह दिया गया कि खिड़की से बाहर भी नज़र मत डालिये वरना आपके साथ कुछ भी हो सकता है। वे लोग हमें खतरनाक समझ रहे थे क्योंकि हम क्यूबा जा रहे थे। यह खबर क्यूबा में भी पहुंच चुकी थी। जब हम क्यूबा उतरे तो वहां पर फिदेल कास्त्रो मौजूद थे। उन्होंने करीब आधा घंटे संबोधित किया। वहां 15 से 20000 लोगों का हुजूम था। हम 15 दिन क्यूबा में रहे। लगभग हर दिन वे कार्यक्रम स्थल पर आते थे। हालांकि उनकी सुरक्षा इतनी कड़ी थी कि कार्यक्रम का जो स्थान हमें बताया जाता था, वहां कार्यक्रम कभी भी नहीं होता था। ऐन वक़्त पर बदल दिया जाता था क्योंकि उनके पीछे सीआईए लगी हुई थी। यह उनकी सावधानी और लोगों का प्यार था कि वह बचे रहे। उन्होंने कहा कि फिदेल कास्त्रो को मारने के 664 से ज्यादा प्रयास अमेरिका द्वारा किए गए लेकिन सावधानी और अपने देशवासियों के प्यार और विश्वास के सहारे फिदेल कास्त्रो समाजवाद का परचम बुलंद किये रहे और साम्राज्यवाद की आँखों की किरकिरी बने रहे।

श्री हरदेनिया ने कहा कि क्यूबा के डॉक्टर पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है जहां भी कभी जरुरत हुई वहां के डॉक्टरों ने अपना सहयोग दिया चाहे वह अमेरिका में हो या पाकिस्तान में। सबसे ज़्यादा दुर्गम इलाकों और तूफानों, भूकंपों से पीड़ित लोगों के बीच सबसे पहले क्यूबा अपने डॉक्टर भेजता है। उन्होंने कहा कि क्यूबा की सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा खर्च करती है। यही कारण है कि वहां की यह दोनों सुविधाएं दुनिया के अनेक विकसित देशों से भी बेहतर है। दरअसल फिदेल मानते थे कि अगर लोग शारीरिक और मानसिक तौर पर स्वस्थ होंगे तभी वह तरक्की के मार्ग पर अग्रसर होंगे। हरदेनिया जी ने बताया कि फिदेल अपने हर भाषण से पहले अपने देश के पूर्वज जननायक-नायिकाओं को याद करते थे। भारत में, हमारे यहां आजकल कुछ ऐसा हो रहा है जैसे आज के नेताओं से पहले के नेताओं ने कुछ किया ही नहीं। बेशक नेहरू और गाँधी ने या अन्य पूर्ववर्ती नेताओं ने गलतियां भी की होंगी लेकिन हमारे प्रधानमंत्री उनके हर अच्छे बुरे को भूलकर ऐसे भाषण देते हैं मानो सबकुछ शून्य से उन्होंने ही शुरू किया हो। ये कृतघ्नता है और अच्छी बात नहीं है। हमें फिदेल कास्त्रो से सीखना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं पूर्व पुनर्जन्म में विश्वास नहीं रखता लेकिन यह मेरी ख्वाहिश है कि अगर फिदेल का फिर से जन्म हो तो भारत में हो।

वरिष्ठ अधिवक्ता और इप्टा के संरक्षक समाजसेवी आनंद मोहन माथुर ने फिदेल के जीवन से प्रेरणा लेते हुए पूँजीवाद के खिलाफ आवाज उठाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि अमेरिका हो या भारत, दोनों ही जगहों पर पूँजीवादी सरकारें हैं जो सिर्फ अमीरों का भला चाहती हैं। फिदेल कास्त्रो के हर कदम के पीछे अपनी जनता के भले का उद्देश्य होता था और इन सरकारों का हर कदम जनता की मुसीबत बढ़ाने वाला और कॉर्पोरेट को फायदा पहुँचाने वाला होता है। उन्होंने कहा कि अगर सहते रहते तो आज भी क्यूबा के लोग गुलामों की तरह ही रह रहे होते। हमें गलत चीज़ों के खिलाफ खामोश नहीं रहना चाहिए। यही हमारी फिदेल को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उन्होंने नोटबंदी को गलत फैसला बताया और कहा कि इससे लोग परेशान हो रहे हैं, लेकिन बोल कुछ नहीं रहे हैं। उन्होंने कहा कि अब हमें बोलना होगा अगर हम चुप रहे तो इसके आज से भी ज्यादा घातक परिणाम होंगे।

कार्यक्रम के अंत में इप्टा के १४वें राष्ट्रीय सम्मेलन को कामयाब बनाने के लिए जुटे करीब ८० नौजवान लड़के-लड़कियों को आनंद मोहन माथुर जी के हाथों प्रमाण-पत्र देकर सम्मानित किया गया। ये नौजवान रूपांकन, इप्टा के ग्रीष्मकालीन शिविरों, सन्दर्भ केन्द्र और वर्चुअल वॉयेज कॉलेज के ज़रिये इप्टा से जुड़े हैं। ज्ञातव्य है कि २-४ अक्टूबर को इंदौर में हुए इप्टा के १४वें राष्ट्रीय सम्मलेन पर दक्षिणपंथियों ने हमला किया था। तब यह सब नए नौजवान साथी वालंटियर्स के तौर पर मौजूद थे और भयभीत होने के बजाय उन्होंने तार्किक तौर पर इप्टा के साथ अपने प्रगाढ़ करने का और भविष्य में भी जुड़े रहने का फैसला किया था।

फिदेल कास्त्रो को अपना सलाम पेश करने के लिए इंदौर जैसे घनघोर पूंजीवादी और दक्षिणपंथी होते जा रहे शहर में भी १५० से ज़्यादा लोग इकट्ठे हुए। सभागृह पूरा भरा हुआ था और अनेक लोग खड़े-खड़े पूरा कार्यक्रम देखते सुनते रहे। कार्यक्रम में सीपीआई, सीपीएम और एसयूसीआई के ज़िला सचिव क्रमशः कॉमरेड रुद्रपाल यादव, कॉमरेड कैलाश लिम्बोदिया और कॉमरेड प्रमोद नामदेव तो मौजूद थे ही, साथ ही अनेक अन्य ट्रेड यूनियनों, दलों और संस्थाओं से जुड़े वरिष्ठ और युवा मौजूद थे। समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद श्री कल्याण जैन ने भी फिदेल कास्त्रो को अपनी श्रद्धांजलि दी।

आयोजकों ने भोपाल गैस त्रासदी दिवस की बरसी पर मारे गए लोगों को याद करते हुए श्रद्धांजलि दी। साथ ही हिंदी और उर्दू ज़ुबानों के बीच मज़बूत पल की तरह सक्रिय रहे शायर बेकल उत्साही के निधन पर उन्हें भी श्रद्धांजलि दी गयी।

विनीत तिवारी
कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता

सेल्फ़ी की लत यानी आत्मपरक होते जाना

यदि आप यह तस्वीर देखें या अभिनेत्री स्मिता पाटिल, की कोई तस्वीर देखें तो आपके मन में यह ख़याल आ सकता है क्यों न इसे दीवार पर लगा लें! पर्स में रख लें।

इसके बाद आपके मन में आनेवाले ख़याल बहुत सी बातों पर निर्भर करेंगे। इस तस्वीर को लगाने या न लगाने, प्रोफाइल पिक्चर बनाने या न बनाने के निर्णय में आप अपनी भावनात्मक ज़िन्दगी की ही समीक्षा कर बैठें तो आश्चर्य नहीं।

आप सोच सकते हैं पसंद है, चिर सुन्दर है मगर छोड़ो यार अब ऐसी दीवानगी का प्रदर्शन भी क्या? लोग क्या सोचेंगे? आपकी ज़िन्दगी जैसी होगी आप उस अनुपात में कई तरह की बातें सोचेंगे।

आप जो भी सोचें इस तस्वीर पर या जैसा मैंने कहा स्मिता पाटिल की किसी भी तस्वीर पर आपकी नजर ठहर ज़रूर जायेगी।

नज़र ठहर जाना, पलटकर देखना या देखना चाहना या सुन्दर कहते कहते रुक जाना बड़ा स्वाभाविक है। नितान्त इंसानी अरमान। वह सुंदरता ही क्या जिस पर मुंह से बात न निकल जाये!

इस तस्वीर या स्मिता पाटिल की किसी तस्वीर को यदि कोई किशोर या किशोरी देखेगा तो क्या करेगा? मेरे ख़याल से वह अधिक नहीं सोचेगा। यदि उसे सुन्दर लगी तस्वीर तो पलक झपकते या तो वॉलपेपर बना लेगा या प्रोफाइल पिक्चर।

बच्चे या युवा जो भी करेंगे आनन्द से जल्द कर लेंगे। अधिक सोचेंगे नहीं। आपने देखा होगा युवा दीवारों पर अपनी तस्वीर की बजाय अपने स्टार की तस्वीर लगाना पसंद करते हैं।

मुझे यह बात बड़ी अच्छी लगती है। युवक या युवती जो किसी स्टार से खुद कई गुना सुन्दर होते हैं अपनी तस्वीर की बजाय अपने हीरो या हीरोइन की तस्वीर क्यों लगाते हैं? जवाब सरल है क्योंकि उन्हें यह पसंद है। आप पूछकर देखिये यही जवाब मिलेगा।

सचमुच यह बहुत खूबसूरत बात है कि कोई अपने से अधिक दूसरे चेहरे पर नाज़ करने लगे। यह एक उम्र या समय के बाद लगना बंद सा हो जाता है। कभी अचानक हूक उठती है तो हम सोचते हैं छोडो भी। हम तुरंत अपनी तस्वीर लगा लेते हैं या एल्बम से कोई पुराना फ़ोटो निकाल उसे फ्रेम करा टांग लेते हैं।

आपने भी ज़रूर सोचा होगा, सेल्फ़ी ने हमारी नज़र को अपने चेहरे तक केंद्रित कर दिया है। सबसे मज़ेदार तब होता है जब हम किसी चेहरे पर अपनी रीझी हुई नज़र टिका देते हैं लेकिन सेल्फ़ी अपनी लेने लगते हैं। पसंद करना भी अपनी कमियों को भर सकता है। हर वक़्त होने की फ़िक्र अंत में उदास करती है।

यह हो रहा है और बढ़ता जायेगा। इसमें बुराई कोई नहीं है लेकिन यह सुंदरता को आत्मपरक बना देता है। सुंदरता अपने असल रूप में सामाजिक है। उससे सबके मन में आनंद का सोता फूटता है।

भले अपने हाथ में न हो लेकिन किसी का सुन्दर होना भी मामूली बात नहीं। किसी को केवल सुदर्शन कहकर तंज करनेवाले लोग ठीक नहीं होते। मगर सुंदरता पर ही काम धाम भूले लोग भी लोकहित में कुछ खास नहीं कर पाते।

शशिभूषण

प्रभु जोशी

आज कहानीकार, चित्रकार, फ़िल्मकार, कला चिंतक और भाषा सिद्ध लेखक, हिंदी सेवी प्रभु जोशी का जनम दिन है।

रंग, शब्द और कला का अपनी तरह का अकेला साधक। विनम्रता, दृढ़ता और आत्म सम्मान की अपनी मिसाल आप।

जिन्होंने नहीं जाना, नहीं सुना, नहीं देखा, नहीं पढ़ पाये उनकी बात अलग और स्वाभाविक है पर जो जानते हैं उनके मुंह से यही सुना प्रभु जोशी जीनियस हैं।

प्रभु जोशी, परिश्रम में अद्वितीय हैं। जितने प्रकाशित और पुरस्कृत हैं उसके कई गुना अप्रकाशित और अनजाने हैं।

अपने यहाँ ऐसा दौर है जब पंचवर्षीय ख्याति से भी उतरकर प्रतिभाएं साल छह महीने की स्टार होती हैं तब प्रभु जोशी अनेक दशक से सृजनरत हैं।

इन दिनों सुखद यह है कि वे अपने अधूरे उपन्यास और कुछ किताबों को अंतिम रूप देने में लगे हैं। कदाचित पेंटिंग से अवकाश लेकर भाषा में कुछ अधूरे वादे पूरे कर रहे हैं।

प्रभु जोशी जी को बहुत अच्छा स्वास्थ्य और अनंत रचनात्मक दिन मिलें। मेरी ओर से हार्दिक बधाई और अशेष शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है उनका एक पुराना दस्तावेज़ी लेख, ताकि सनद रहे वक़्त पर काम आवे

इसलिए विदा करना चाहते हैं हिन्दी को हिन्दी के कुछ अख़बार / प्रभु जोशी - Gadya Kosh - हिन्दी कहानियाँ, लेख, लघुकथाएँ, निबन्ध, नाटक, कहानी, गद्य, आलोचना, उपन्यास, बाल कथाएँ, प्रेरक कथाएँ, गद्य कोश

नाम में क्या रखा है?

एक बार की बात है। मध्य प्रदेश के रीवा में संस्कृत के परम विद्वान माने जानेवाले भास्कराचार्य पधारा करते थे।

चूँकि वे रीवा विश्वविद्यालय अनेक कारणों से आते रहते थे, उनके भाषण, जिसे विद्वानों के बीच व्याख्यान कहा जाता है; होते रहते थे तो एक दिन वे चर्चित कवि और हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक दिनेश कुशवाह के घर आए।

उन दिनों यदि कोई दिनेश जी के घर आये तो उनसे मेरी भेंट ज़रूर होती थी। क्योंकि दिनेश जी के यहाँ दिन में मेरी उपस्थिति उनके बेटे-बेटी से थोड़ी अधिक और दिनेश जी से थोड़ी कम ही रहती थी।

दिनेश कुशवाह मेरे शिक्षक थे। उनसे मेंरे रिश्ते में दूसरे इंसानी रिश्तों का भी आत्मीय मेल था। ऐसा बिलकुल नहीं था जैसा उच्च शिक्षा में होता है कि बहुत सोच समझकर रिश्ते, श्रद्धा निर्मित होते हैं। सबकुछ लगभग स्वाभाविक था जिसमें शायद अपेक्षा ही थी जो सबसे कम रही होगी। मैं बीएससी मैथ्स कंप्लीट करके हिंदी विभाग आया था और प्रोफेसर हो सकने से थोड़ा थोड़ा उदासीन हो रहा था। अपेक्षा दोनों तरफ़ ही लगभग नहीं थी।

उस दिन भास्कराचार्य , परम विद्वान संस्कृत जब दिनेश जी के पीछे पीछे घर के अंदर आये तो सफ़ारी सूट में थे और देखने से ऐसा लगता था कि भांग का विधिवत सेवन करके आये हैं।

मैं समुचित अभिवादन के बाद फर्श पर बिछी दरी पर ही अपने काम में पूर्ववत लग गया। भास्काराचार्य जी ने कुछ भी नहीं ग्रहण करने का आदेश दिनेश जी को दे दिया था। वे सोफे पर बैठ गए थे कुछ इस अंदाज़ में कि अब और किया ही क्या जाये फिर।

भास्काराचार्य जी की नज़र सहसा मेरे बगल में बैठे उत्कल पर पड़ी। उन्होंने पूछा- दिनेश जी ये बालक आपका पुत्र है? दिनेश जी ने कहा- हां बेटा है एक बेटी भी है।

ममता(अंशुला कुशवाह) तब अंदर के कमरे में थी। भस्काराचार्य जी ने कहा -क्या नाम है बेटे का? उत्कल, दिनेश जी ने बताया। उत्कल? उत्कल का मतलब क्या? दिनेश जी ने बताया- उत्कल, उड़ीसा को कहते हैं और इसका एक अर्थ बेचैन होता है। ये जब पैदा हुए कुछ-कुछ बेचैन से रहते थे।

भास्काराचार्य जी उखड़ गए- नाम सही नहीं है। अर्थ भी ठीक नहीं। दिनेश जी, नाम अच्छा नहीं है। आप विद्वान हैं पुत्र का नाम सोच-विचार कर रखना चाहिए। आप अभी भी नाम परिवर्तन पर विचार कर सकते हैं।

मैं चकित था। उत्कल के नाम पर संकट था। उत्कल के चेहरे से भी स्पष्ट था कि वे इस वार्तालाप को कुछ-कुछ समझ रहे हैं। उत्कल पिताजी की ओर कुछ आश्चर्य और कुछ कातरता से देख रहे थे। मैंने मन ही मन कहा चिंता मत करो। पिताश्री, घर नशेड़ी ले आये हैं।

भास्काराचार्य बीच में रुक जानेवाले संस्कृत के विद्वान नहीं थे। लग रहा था नामकरण संस्कार की किसी समिति के संचालक हैं। उन्होंने एक किस्सा सुनाया-

एक विद्वान थे। जिनका नाम गलत था। एक बार विद्वत सभा में उनके नाम का बड़ा उपहास हो गया। सब हंसने लगे। उस विद्वान ने अंत में अपनी प्रतिभा से अपने नाम को सही साबित कर दिया। सभा सन्न रह गयी और कुछ विद्वान् रुआंसे भी हो गए।

अंत में सभा प्रमुख ने शास्त्रार्थ का निष्कर्ष सुनाया- विद्वान ने नाम को सही साबित किया। इससे उनकी विद्वत्ता जो कि प्रणम्य है; का पता चलता है। लेकिन उनका नाम गलत है, लोक विरुद्ध है इससे विद्वान के पिता यानी उनके कुल की शिक्षा का पता चलता है।

इस कथा श्रवण के बाद हम सबके चेहरे उतर गए। मुझे लगा दिनेश जी अब कहेंगे आचार्य जी आपको देर हो रही है चलिये आपको छोड़ देते हैं मगर उन्होंने कुछ नहीं कहा। आखिर मैंने हस्तक्षेप किया

सर, आपका नाम क्या है? भास्काराचार्य जी ने इस तरह देखा मानो कह रहे हों दिनेश अपने विद्यार्थियों को मेरा नाम नहीं बताया? 
ये कौन हैं? उनका जवाब आया
मेरे एम ए के विद्यार्थी हैं। शशिभूषण नाम है दिनेश जी ने बताया।
मैंने सवाल दोहराया -सर, आपका नाम?
भस्काराचार्य
सर, आपका यह नाम बचपन से है?
उन्होंने कहा -हाँ, मेरे भाइयो के भी ऐसे ही नाम हैं। दिवाकराचार्य, प्रभाकराचार्य।
सर, आप बचपन से आचार्य हैं?
क्या मतलब आपका?
मेरा अभिप्राय यह है कि बच्चा तो बच्चा होता है। वह आचार्य होगा या मूर्ख यह तो जनम से तय नहीं हो सकता। आपके पिताजी ने बचपन में ही आपका नाम भास्काराचार्य रख दिया! क्या यह ठीक हुआ?

इस बार दिनेश जी बोले- 
पिता जी ने आपका नाम रख दिया भास्काराचार्य बाद में सिद्ध करने का काम आचार्य जी ने स्वयं किया। जैसा कथा में हुआ।

भास्काराचार्य, परम विद्वान् संस्कृत तेजहीन हो गए। मुखमंडल लाल। उन्होंने मुझे अतिथि अपमान का मौन श्राप दिया। खड़े हो गए-दिनेश जी मुझे विलम्ब हो रहा। यदि आप छोड़ने नहीं चल रहे तो हम अकेले चले जायेंगे। दिनेश जी ने तत्काल अपने सौजन्य और समृद्ध औपचारिकता का परिचय दिया-चलते हैं सर, आइये। बच्चों से कहा आचार्य जी को प्रणाम करिए।

इसके बाद मेरी भास्काराचार्य जी से कोई बात न हुई। जब कभी सामने पड़े तो नमस्ते के जवाब में उनका अपरिचय ही प्रकट हुआ। इसे कहते हैं उनकी रौशनी मुझ पर पड़ती तो थी लेकिन वापस नहीं लौटती थी। प्रकाशिकी के नियमानुसार ऐसी स्थिति में प्रतिबिम्ब नहीं बनता।

बाद में मैं धीरे-धीरे दिनेश जी के चेले की तरह याद किया जाकर अवमूल्यन का शिकार भी होने लगा था। लेकिन मज़े की बात यह है कि मुझे इससे फ़र्क नहीं पड़ा। अब तो और भी नहीं पड़ता।

शशिभूषण

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

कहि न जाई का कहिए

स्थान: अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा परिसर में स्थित कुलपति, उपन्यासकार विभूतिनारायण राय का आवास।
समय: रात के लगभग साढ़े नौ से दस बजे के मध्य।
अवसर: अज्ञेय आदि लेखकों के जन्म शताब्दी समारोह के अंतिम दिन कुलपति आवास में रात्रि भोज।
उपस्थित जन: हिंदी के लगभग सभी नए पुराने महत्वपूर्ण साहित्यकार।

सहसा युवा कहानीकार और उपन्यासकार कुणाल सिंह ने मुझे आवाज़ दी- शशिभूषण, इधर आओ।

मैं नज़दीक पहुंचा। चन्दन पाण्डेय, मनोज मनोज पाण्डेय, कैलास वनवासी सहित कई लोग थे। एक गोल घेरा था जो वरिष्ठों से अलग जान पड़ता था।

कुणाल सिंह- शशिभूषण, इससे मिलो ये है कहानीकार आशुतोष मिश्र। इसने एक कहानी लिखी है 'रामबहोरन की अनात्म कथा'। तदभव में छपी है।

मैं- सुना है मैंने कि इनकी कहानी आयी है।
कुणाल सिंह- तुम उसे पढ़ो।
मैं- ज़रूर पढूंगा।
कुणाल सिंह- मैं चाहता हूँ तुम पढ़ो और उसकी बुराई करो।
मैं- बुराई भी की जा सकती है। लेकिन पढ़ने और बुरी लगने के बाद ही। मैं ज़रूर पढूंगा।
कुणाल सिंह- मैं चाहता हूँ तुम कहानी के विरोध में लिखो। तुम कर सकते हो।

मैं आगे नहीं बोल पाया। समझ भी नहीं पाया कि कुणाल सिंह ने मुझसे यह क्यों कहा? 

बात केवल इतनी ही हुई थी कि मैं दिन के एक सत्र में आशुतोष मिश्र द्वारा सत्यनारायण पटेल की कहानी की भाषा में मालवी या देशज प्रयोग  के सम्बन्ध में की गयी एक प्रतिकूल टिप्पणी का विरोध कर चुका था।

शाम के झुटपुटे में धीरेंद्र अस्थाना की कहानी 'पिता' के पाठ के दौरान आशुतोष को सुनील कुमार 'सुमन' समझ लेने की गलती कर चुका था। जब पास जाकर उल्लास से मिला तब पता चला आप आशुतोष मिश्र हैं। मुझसे  जल्दी के कारण पहचानने में गलती हुई थी।

बहुत बाद में अनुभव में आया आशुतोष मिश्र की एक कहानी सत्यनारायण पटेल के यहाँ विचारार्थ आई हुई है। वे उससे काफ़ी असंतुष्ट हैं, फ़ोन पर बता भी देते हैं लेकिन वह कहानी पत्रिका 'पल प्रतिपल' में छपती है।

'पल प्रतिपल' का वह अंक कथा का समकाल बनता है। आशुतोष, ठीक-ठाक कहानीकार माने जाने लगते हैं। या कहिये वे शुरुआत से ही अच्छे कहानीकार थे। उनसे दूसरे शहर में भी भेंट होती है। वे बहुत अच्छे से मिलते हैं।

लेकिन कहानीकार और उप संपादक रहे कुणाल सिंह जिनके लेखन से किसी भी अच्छा लिखनेवाले युवा लेखक को ईर्ष्या हो जैसे अचानक आउट ऑफ़ रीच हो जाते हैं। पहले जेएनयू छोड़ते हैं फिर दिल्ली भी छोड़ देते हैं।

कुणाल सिंह की उपस्थिति से फेसबुक भी उदासीन रहने लगता है। अब उनकी वाल पर शशिभूषण द्विवेदी और उमाशंकर चौधरी आदि लेखक नहीं लड़ते। कुणाल सिंह कहाँ हैं, कैसे हैं कोई खबर नहीं आती।

मुझे, जिसकी कुणाल सिंह से गाढ़ी मैत्री नहीं रही उनकी याद आती है। मैंने इस युवा लेखक को पहली कहानी से अब तक की आखिरी कहानी तक पढ़ रखा है।

साहित्यकार और साहित्यिक रिश्ते भी कितने गुमसुम से होते हैं। कभी समझ में नहीं आते, कभी दिखाई नहीं पड़ते।

शशिभूषण

डिस्क्लेमर



लेखन में व्यक्त विचार
नागरिक के भीतर बसे
लेखक के अपने विचार हैं
लेखक की नागरिकता से
राज्य की नीतिगत मर्यादा से
रचनाएं पूर्णरूपेण स्वतन्त्र हैं
लिखने के लिए नागरिक
दोषी नहीं माना जायेगा
प्रत्येक विवाद के लिए
भाषा और विचार ही
ज़िम्मेदार माने जाएँगे।
किसी भी दशा में नागरिक
लिखने के कारण
राजकीय समर्पण के लिये
विवश या बाध्य नहीं है।

शशिभूषण

काश, भारत के पास तमिलनाडु जैसा दिल और सादगी होते



मैं लगभग तीन साल तमिलनाडु में रहा हूँ।

भारत के इस राज्य में ऐसी अनगिनत बातें देखी हैं मैंने जिनसे कोई साधारण नागरिक अपनी राज्य सरकार से सचमुच का प्रेम कर सकता है।

मैंने 4 रुपये के किराए में 22 किलोमीटर का सफ़र समय से चलनेवाली सरकारी बस में किया है।

मैंने 25 रुपये में मुफ्त RO वाटर के साथ वह खाना खाया है जिसके साथ 2 केले भी मिलते थे और जो उत्तर भारत में 150 रुपये में भी नहीं खाया जा सकता।

कल से आज तक जयललिता के प्रति उमड़ा हुआ प्रेम बहुत स्वाभाविक है। इसकी लकीर टीवी तक ही नहीं है वह दिलों में बहुत पीछे से आगे तक जाती है।

तमिलनाडु के लोग भारत में किसी राज्य के लोगों से अधिक मेहनती, खरे और सबसे कम दिखावटी हैं। सादगी और सम्पन्नता का योग देखना हो तो तमिलनाडु से बेहतर राज्य नहीं हो सकता।

मेरे मन के एक कोने में अब भी यह अरमान पलता है कि तमिलनाडु में रहने का फिर अवसर मिले। जबकि मुझे न तमिल आती है न वहां की गर्मी सूट करती है। मेरे सर के बाल झड़ने लगे थे और तमिल न जानने के कारण अनगिनत बार रुआंसा हुआ था।

फिर भी एक नागरिक के रूप में इससे बड़ी आश्वस्ति नहीं होती कि आपके साथ जानबूझकर बुरा नहीं किया जायेगा।

मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि हिंदी मीडिया खासकर टीवी बिना किसी किंतु परंतु के दो तीन हिंदी भाषी राज्यों की फूहड़ डफली है। जिसके सामने न नेताओं का आदर्श है न भाषा का। सच्चाई का तो छोड़ ही दीजिये।

हिंदी टीवी को जयललिता के प्रति लोगों का प्रेम समझने के लिए एक लंबा वक्त चाहिए। जिसमें विनम्रता और तर्क के लिए सचमुच की जगह हो। इसे ऐसे पुष्ट मानिये कि उसे यही पता नहीं चल पा रहा है कि जयललिता वास्तव में अभी कैसी हैं?

काश, भारत के पास तमिलनाडु जैसा दिल और सादगी होती।

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मैं एक बार फिर याद करना चाहता हूँ और दोहराना चाहता हूँ कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं में मां को अम्मा कहते हैं।

अम्मा, माँ जैसा महसूस करने पर ही किसी स्त्री के लिए लगातार की ज़बान में आ सकता है। एक दो बार किसी उम्र दराज स्त्री को अम्मा कहा जा सकता है। लेकिन बिना भावना के हमेशा, कभी नहीं।

मैं कामना करता हूँ कि यह स्मृति मिटने न पाए कि तमिल नाडु की जनता जयललिता नाम की एक नेत्री को अम्मा कहती थी।

अम्मा का संबोधन एक स्त्री नेत्री ने राजनीति में रहते जीकर, संभव कर दिखाया इसे याद रखा जाना चाहिए। हमेशा।

अब जब जयललिता, अपने लिए प्रकृति से तय जीवन जीकर जा चुकी है उनके लिए हमारी श्रद्धांजलि में स्मृति को अक्षुण रखने का संकल्प अवश्य होना चाहिये।

श्रद्धांजलि
नमन

 शशिभूषण

शिक्षा ही एकमात्र उपाय है

हमेशा नहीं लेकिन कभी-कभी चेक करना चाहिए। हम जो बातें बोलते हैं, जो बातें लिखते हैं और हमारी जितनी बातें थोड़े पढ़े-लिखे लोगों को भी सबसे साधारण यानी औसत मानी जाने लायक लगती हैं; उन्हीं बातों का कितने प्रतिशत, भारत में जिसे जनता कहा जाता है वह समझ सकती है?

स्थिति सचमुच बहुत दयनीय है। हम बोल देते हैं लाख, बोल देते हैं करोड़। सिर्फ़ बोल देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अभी हमारे देश में करोड़ो लोगों को यह जानना बाक़ी है कि एक करोड़ में कितने लाख होते हैं। एक करोड़ में कितने हज़ार होते हैं यह अच्छा खासा करोड़पतिया सवाल है। जिसे पूछकर कोई भी अमिताभ बच्चन भारत का पॉकेट मार सकता है।

इनकम टैक्स, काला धन, 2जी, 3जी स्कैम, पेटीएम वगैरह भारत के लोगों के लिए बड़ी ऊँची या दूर की बात जैसी हैं। आप हायर सेकंडरी पास इंसान से पूछ कर देखिये वो इनकम टैक्स के बारे में कुछ बता पाये तो मुझे जितनी मर्ज़ी आये बोलिये। सच यह है कि भारत में राजपत्रित अधिकारी न अपना आयकर कैलकुलेट कर पाता है न किसी किस्म का कोई फॉर्म बिना क्लर्क से पूछे भर पाता है।

हम चाहे जितनी मामूली जागरूकता संबंधी बात करें भारत के लिहाज़ से वह जनता को अगले पचास साल में समझ में आनेवाली बात होगी। माफ़ कीजियेगा मैं अभी उस जनता की बात कर रहा हूँ जो मतदान केंद्र तक सचमुच जाती है।

हम अक्सर जिन चर्चाओं में मग्न होते हैं जिन परिसंवादों के लिए लाखों फूँक देते हैं उनके सन्देश जनता को समझने लायक होने में लंबे समय और करोडो और फूंकने की ज़रूरत होती है। यही कारण है कि भारत का रेलवे उसी ट्रेन का उसी सीट का टिकट 10 प्रतिशत अधिक में बेच लेता है जो कुल सीट के 10 प्रतिशत के बाद बुक होता है।

माफ़ कीजियेगा भारत की खोज व्यापारियों ने की थी। उन्होंने खोजा तो उनकी औलादें उसे भुना रही हैं। आप पहले अपना भारत इकठ्ठा कर लीजिए तो जितनी मर्ज़ी चाहे लोकतंत्र बनाइये। अभी जो लोग भारत के भाल पर शुभ लाभ लिख रहे हैं कायदे से वे अपने खोजे भारत पर ही लिख रहे हैं।

मेरी राय में हम अमेरिका का मन चाहे जितना समझते हों लेकिन जिसे भारत की जनता कहते हैं वह गंभीर रूप से अशिक्षित रखी जाती आ रही है। उसे अशिक्षित रखने में हमारे पढ़े लिखे लोग आगे आगे रहे हैं। सब्र रखिये उन्हें राष्ट्रवाद अवश्य सम्मानित करेगा। उनकी मूर्तियां न बनें तो कहिएगा।
जनता को हमारी बातें समझ में नहीं आतीं। हम किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों जैसी बात करते प्रतीत होते हैं। यह बिलकुल जायज़ है।

वरना ऐसा हो नहीं सकता था कि भयंकर उच्चारण दोषों और ग़लत सूचनाओं से बजबजाते भाषण सुनने लोग घंटों धक्के खाते। क्या लोगों को सचमुच याद नहीं सरकारों को कुल कितने साल हुए? किस सरकार के कितने साल बैठते हैं? हद है। लोग जानते होते तो टोकते। धोबी जितना जानता था उतना उससे पंडितों ने टोकवाया कि नहीं? मुझे नहीं मालुम आप कितना सहमत होंगे लेकिन भारतीय लोक में एक मान्यता यह भी है कि जो नाकियाकर बोलता है, वह सच्चा नहीं होता। फिर क्या हुआ कि झूठ नारे बन गए?

हमारी दिक़्क़त यह है कि सबसे साधारण बुद्धिजीवी भी जल्द ही भविष्य में समझ में आनेवाले की गति को प्राप्त हो जाता है। हमारे मन में जनता के लिए करुणा नहीं पायी जाती बल्कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से हीन क़िस्म की प्रतिस्पर्धा पायी जाती है। हमारे लिए बौद्धिकता कर्तव्य नहीं प्रतिष्ठा युद्ध है। जनता नहीं जानती पानी कैसे बनता है उसे अभी पेट की आग का ही खूब अनुभव है। वह दिल में आग जलाने के बारे में कैसे सोच सकती है? मैं इस बात से बहुत दुखी रहता हूँ कि अति साधारण होने के बावजूद लोगों के लिए अबूझ क्यों और कैसे सोचने लगा? इतनी ऊँची ऊँची बातें!!! धिक्कार है!!!

वे लोग जो राज करना चाहते हैं हम लोगों को बखूबी जानते हैं क्योंकि वे उन्ही(जनता) के बीच के हैं। भारत के अधिकांश नेता कम पढ़े-लिखे और कदाचित अज्ञ हैं। यही उनके लिये वरदान है। उनके लिए धर्म का ज्ञान काफ़ी है। वे जनता से धर्म के तार से तुरंत कनेक्ट होते हैं। हो सकते हैं। धर्म के बारे में आप जानते हैं वह नासमझ लोगों के लिए पहले समर्पण फिर घृणा और उन्माद ही है। जहाँ धर्म होगा वहां मत का क्या काम? धर्मस्थल में लोकतंत्र किस चिड़िया को कहते हैं?

वे धर्म के रास्ते अतिचार और शासन में हैं आप उन्हें लोकतंत्र से हराना चाहते हैं। कैसी अहमक बात है! निरी असंभव कामना।

भारत को धर्म की नहीं शिक्षा की ज़रूरत है। शिक्षा के लिए काम होना चाहिए। शिक्षा के काम आइये। बाक़ी हवाई बातें हैं कि वामपंथ क्यों फ़ेल है? नेहरू में कहाँ कमी रह गयी?? किस बात का पंथ? कहाँ कि मंजिल? अँधेरी खाई में हैं लोग तो पहले बाहर निकालिये। फिर अपने माचिस का करतब कीजियेगा।

एक मोटी बात याद रखिए जिसे हनुमान चालीसा पढ़ने की लत है, जो गीता या क़ुरान पर मरने मारने को तैयार है, जो टीवी देखता है उसे कुछ भी समझा पाना नामुमकिन है। यदि ऐसे विज्ञापन बन रहे है कि शौच के बाद हाथ अवश्य धोएं तो दो ही बात हो सकती हैं। जनता मूर्ख है या विज्ञापन का धंधा चालू आहे। तीसरी बात केवल देवता सोच सकते हैं। क्योंकि भारत के लोग इतने गंदे नहीं हो सकते। जहाँ सोच वहां शौचालय धन्य है! धन्य धन्य अभिनेत्री!! यही कहने का मन होता है बेवजह माथा मत फोड़िये। जनता को धीरे धीरे इस लायक कीजिये कि वह दुनिया को समझने लगे।

उम्मीद है शिक्षा। उपाय है शिक्षा। जिसने भी कहा 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो' उसने बड़ी करुणा और सूझ-बूझ वाली बात कही है। याद रखिए धर्म नहीं शिक्षा।

यदि हम शिक्षा के साथ आगे बढ़ें तो संभव है अगले कुछ दशकों में भारत की जनता हमें समझने लगे। वह सही ग़लत जानती है अगर उसे पता चले कहा क्या जा रहा है।

शशिभूषण

हार्ट कनेक्शन विद रवीश एंकर



रवीश जी,
हम आपकी मार्मिकता के कायल नहीं वो बात नहीं। अपन की नज़र में टोटल एक नंबर हैं आप। कोई भी, भेजा हो जिसमे, सवाल जवाब सुनकर फैन हो जायेगा आपका।

माँ कसम, अब आपको अपन इसलिए देखना छोड़ने की सोच रहे हैं कि फिर नींद आने में अड़चन आ जाती है। साला दिन भर साँस लेने को फुर्सत नहीं मिलती और नाइट में आप सबक पकड़ा देते हो।

नो डाउट, आप सॉलिड बोलते हो। सॉलिड इसलिए बोलते हो क्योंकि आपका मन साफ़ है। लेकिन एक बात है और इस बात को अपन समझते हैं तो आप भी ज़रूर जानते ही होंगे।

पॉइंट ये है डियर सर के उन्हें मेरा मतलब उनसे ही है को गांधी के उदाहरण से समझाना ऐसे ही है जैसे जीभ से मुंह का टेढ़ा दांत सीधा करना। वे दांत हैं सर। अपन जीभ।

गाँधी ने वकालत पढ़ी थी। फिर कइयों ने पढ़ी। अब हालात ये हैं कि काला कोट से डर लगता है। जिनने इसे उतार दिया है, खादी पहन ली उनसे और। अब उनकी अंतरात्मा ने पहन रखा है काला कोट।

प्लीज सर! सोच विचार के उदाहरण दिया करें। उनके हाथ में चिड़िया है। आप दावा कर रहे टीवी से कि ज़िन्दा है। वे दबा देंगे मुट्ठी क्या कल्लेगें आप?

मर जाएंगी वो। वैसे भी मरना ही है उसको। फिर भी! अब इस फिर भी का अपन को भी नहीं पता। आप समझ लेना।

एक ही बात बचती है अब सो उसे भी लिख देते हैं। पढ़ लेना। आपको देखने के बाद अपन बहन अंजना कश्यप को देखते हैं। देखना पड़ता है। गलती आपकी ही है। इस पर कुछ बोल नहीं सकते आप!

अंजना बहन कैसा भी बोलें दुखी नहीं करतीं। उनके जबड़े भिंचे रहते हैं, गले की नशे तनी रहती हैं, नाक फूली हुई। एकदम हल्ला बोल! अपन जुकाम में नहीं नहाते। हमला नहीं बोलते तो क्या। हल्ला बोल एंजॉय कर ही सकते हैं। आप जैसे एंकर होंगे तो थोड़ा तो रिलैक्स चाहिए के नहीं? चाहिए के नहीं??

थोड़े को बहुत समझना! एनडीटीवी इंडिया का फेसबुक के बाद का प्राइम टाइम दर्शक हूँ। कनेक्शन है अपन का आपसे। किस्मत कनेक्शन नहीं हार्ट कनेक्शन!

आपका ही फेथफुली
एक स्टेटस लेखक

शशिभूषण

फ़िल्म से पहले राष्ट्रगान कुछ सवाल

सिनेमा हॉल अब तक मनोरंजन की जगह ही रहे हैं। फ़िल्म कितनी भी क्लासिक या कमर्सियल रही हों उन्होंने मनोरंजन मनोरंजन में ही जो किया होगा किया होगा। सिनेमा घरों में शुरुआत से पहले राष्ट्रगान द्वारा किसी और उद्देश्य की उम्मीद भले राष्ट्रवादी दिखायी दे मगर अंत में उसे भी मनोरंजन के पीछे ही रह जाना होगा। लेकिन अब जब उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका के फैसले में फ़िल्म से पहले राष्ट्रगान गाना और परदे पर तिरंगे का डिस्प्ले अनिवार्य कर दिया है तो मेरे मन में कुछ सवाल हैं(कृपया इन सवालों को अवमानना की तरह न देखें। मैं अधिवक्ता नहीं हूँ। अदालती कार्यवाही में शामिल नहीं था केवल इसीलिए ये सवाल मन में फैसले के बाद उठे।)


1 राष्ट्रगान सार्वजनिक या सरकारी स्थलों पर ही विशेष अवसरों पर गाया जाता रहा है। क्या किसी फीचर फ़िल्म का प्रदर्शन विशेष अवसर के अंतर्गत या राष्ट्रीय महत्त्व के प्रदर्शन का दर्ज़ा सचमुच रखता है?

2 सिनेमा हॉल का नियंत्रण या निगरानी भले सरकारी हो लेकिन वे निजी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। जब वहां दिन में कम से कम तीन बार राष्ट्रगान गाया जाएगा तो वे निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्थल की तरह गरिमापूर्ण हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में उनकी सुरक्षा या वहां दर्शकों की सुरक्षा या आपदा की स्थिति में मुआवजे के क्या राष्ट्रीय प्रावधान होंगे?

3 सिनेमा घरों में चीजों के दाम मनमाने होते हैं। यदि वहां राष्ट्रगान सुनिश्चित हो सकता है तो दामो के निर्धारण के लिए क्या कदम उठाये जायेंगे? क्या देश के सभी सिनेमा घरों में एक से दाम और समान सुविधा हेतु समान भुगतान प्रणाली लागू की जायेगी?

4 सिनेमा घरों में फ़िल्म प्रदर्शन के अतिरिक्त सभा एवं समारोह भी किराए पर आयोजित किये जाते हैं। क्या इन आयोजनों से पहले भी राष्ट्रगान अनिवार्य किया जा सकता है? क्या इनके मिनट्स आदि सिनेमा घरों में रखे जाएंगे?

5 जब अधिकांश सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण किया जा रहा हो तब सिनेमा घरों में राष्ट्रगान अनिवार्य कर दिए जाने से भारत सरकार निगरानी एवं उत्तरदायित्व का अतिरिक्त बोझ नहीं उठाने जा रही है? क्या इसका निबाह अखिल भारतीय स्तर पर दोष रहित संभव है?

6 फ़िल्म से पूर्व राष्ट्रगान की अनिवार्यता को क्या मनोरंजन को भी सरकारों से नाथ लेने की कवायद की तरह देखा जा सकता है? अब जब फ़िल्में बनेंगी तो उस नए दर्शक की तरह सेंसर बोर्ड देखने को बाध्य नहीं होगा जो पहले ही भारत का राष्ट्रगान गाकर फ़िल्म देखनेवाला है?

7 सिनेमा घरों में राष्ट्रगान की अनिवार्यता को क्या बाया न्यायालय अंधराष्ट्रवाद की दिशा में गतिमान फ़िल्म उद्योग की तरह देखा जा सकता है? देखा जाना चाहिए?

ये कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर तलाशने की कोशिश की जा सकती है। साथ ही यह भी सोचा जा सकता है कि कहीं राष्ट्रीय महत्त्व के सभी धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक स्थलों पर भी दिन की शुरुआत से पहले ही सही राष्ट्रगान करवाये जाने की मांग तो ज़ोर नहीं पकड़ लेगी? क्या यह मांग भी ऐसी ही आलोचना को प्राप्त होगी जैसे यह न्यायालय का आदेश? न्यायालयीन आदेश के प्रति सम्मान सहित उपर्युक्त कुछ सवाल स्वस्थ बातचीत हेतु निवेदित हैं।

शशिभूषण

नोटबंदी का सबसे सरल आकलन बाया उपन्यास राग दरबारी

संसद में विमुद्रीकरण संबंधी बिल से कल नतीज़ा निकल आया. यदि काला धन आपने बताया तो वह आधा ही काला धन है. पहले 45 प्रतिशत था. अब भी वक़्त है आधा रखिये. आधा जमा कीजिये.

यदि आयकर विभाग ने पकड़ा तो 85 प्रतिशत काला धन मान लिया जायेगा. तब 15 प्रतिशत अपने पास रखिये. बाक़ी राजसात हो जायेगा.

कुछ वैसे कुछ हमारे आपके जैसे असल बिस्किट से दूर इसे 50-50 (फिफ्टी फिफ्टी) समाधान कह रहे हैं. उन्हें भी सुनिए. कीजिये हमेशा की तरह अपने मन का.

खैर, अब सवाल यह है कि सरकार का अधिक फ़ायदा किसमें है? मेरे ख़याल से आयकर विभाग द्वारा अधिक से अधिक पकड़ पाने में. आप भी यही सोचते हैं न?

फिर सवाल यह है कि आयकर विभाग का फायदा किसमें है? कहीं यह आयकर विभाग का ग्रीवांस रिड्रेसल तो नहीं थी सारी उठा पटक? आप गूंगे बहरे हो चले थे. धमाका करना पड़ा.

लोग तो लाइन में थे ही पहले बक़ौल प्रधानमंत्री मोदी जी यूरिया के लिए लाइन में लगे थे और अब नोट भंजाने के लिए लाइन में आ लगे हैं.

बिल से क्या खूब पुराना निल बटा सन्नाटा निकला है. श्रीलाल शुक्ल(राग दरबारी) बहुत पहले कह गए.

हर काम लाइन से करो. क्योंकि लाइन दिखती है. जो दिखती है वही तरक्की है. इसके आगे तुम्हें सोचने की ज़रूरत नहीं. उसके लिए दूसरे लोग हैं.

शशिभूषण

जेएनयूवाली इंटरनेशनल डायरी

जब समय, सत्ता की भाप से निर्मित झूठ के कुहरे में बार बार ढँक दिया जाए
जब देशकाल और विद्या की ज़मीन विश्वविद्यालय, दमन-षडयंत्र और दुरभिसंधियों के केंद्र बना दिये जाएं
जब सबसे प्रतिभाशाली और प्रतिरोध के प्रतीक विद्यार्थी और छात्र नेता जानबूझकर देशद्रोही बना दिये जाएं
जब सबसे उजले दिखनेवाले और रौशनी में नहाए हुए मीडिया के सुदर्शन चेहरे कालनेमि या मामा मारीच की काली भूमिका में आ जाएं
जब सब कुछ निराशा में डूब रहा हो, अन्याय को नयी नयी नीतियों से ढंका जा रहा हो और मनुष्य विरोधी, विघटनकारी ताक़ते स्वच्छंद काली खप्पर खेलने लग जाएं
जब लगने लगे कि भारतीय उपमहाद्वीप का नागरिक होने का आपद धर्म निबाहना भी खतरे से ख़ाली नहीं, सच बोलने में देशद्रोह लग जाए
तब क्या किया जाये?
कौन सी राह चला जाये?
किसकी बांह गही जाये?
जवाब वही पुराना है
जिससे क़ौमी याराना है
लिखा जाये
किताब निकाली जाये

तो किताबी सलाम हाज़िर है
जेएनयू डायरी हाज़िर नाज़िर है
जेएनयू वाले मिथिलेश की
कलम से निकली 
कलाम जेएनयू का

पढ़िए 
पढ़ाइये
फैला दीजिये देश में

शशिभूषण