सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

क्या मुझे इस मसले पर बोलने का हक़ है ?

मैंने महसूस किया था कि जब से उदय प्रकाश को इस बार के साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है कुछ जगह आँसू और गालियाँ जमा हो रहे हैं.लोग विलाप करना चाहते हैं.छाती कूटना चाहते हैं.वे जगह-जगह मौके की ताक में सुगबुगी पैदा करते,मन टटोलते,प्रतिबद्धता,क्रांतिकारिता की दूसरों की बुनी चादरें ओढ़े घूम रहे हैं.उनमें से अधिकांश का कृतित्व अभी तक इतना ही है कि वे किसी भी रचना में खामी खोज सकते हैं उसे दो कौड़ी का सिद्ध कर सकते हैं.भले ही इस उपक्रम में उघड़ जाएँ. हास्यास्पद हो जाएँ.अपनी किसी टीका को रचना से ऊँचे फहरा सकते हैं.इस बात की कोई ईमानदार खुशी ही नहीं दिख रही थी इन विकल वाग्वीरों में कि निर्मल वर्मा के कहानी संग्रह के बाद पहली बार कोई अकेली कहानी सम्मानित हुई है.यह आगे कितना बड़ा साहित्यिक चैलेंज होने जा रहा है इससे इन लोगों को कोई फर्क नही पड़ रहा था.

आज जब हर पुरस्कार घोषित होते ही संदिग्ध हो जाता है,पुरस्कार पाने जितना ही पुरस्कार स्थापित करने की होड़ है तब इस अकादमी पुरस्कार की अपार स्वीकार्यता से भी इन्हें सबक नहीं मिल पा रहा था.लेकिन कोई अचूक मौका नहीं मिल पा रहा था.आपने भी उनको देखा होगा वे समय-समय पर काफ़ी विनम्र भी हो जा रहे थे...आलोचक,विश्लेषक,समीक्षक की मुद्रा में जो थे.कह रहे थे कि उदय प्रकाश की रचना धर्मिता से हमें कोई शिकायत नहीं लेकिन उक्त सम्मान की वजह से इस लेखक ने हमारे दिलों में बनायी जगह तोड़-फोड़ डाली है.यह हो रहा था और इसी फेसबुक में.ब्लॉग,वेबसाइट्स में हो रहा था.इसकी असलियत यह थी कि इनकी कुछ बद्धमूल नारजगियाँ जो बैर में कबकी बदल चुकी थी कुलबुला रही थी.मैं भी शिकार बना था.इसी कवि की एक प्रिय छोटी रचना जो मारना शीर्षक से है और मेरे ब्लॉग हमारी आवाज़ में भी है अपनी वाल पर लगा दी थी.वे मुझे भी उदय प्रकाश का भक्त,चाटुकार,सवर्ण,मनुवादी जाने क्या क्या कह रहे थे.कुछ आतुर अवसरवादी उन्हें पसंद कर रहे थे.

मैं ग़लतफहमी में था कि वह मौक़ा नही आएगा जब फिर से निंदा,चरित्र हनन की पुरानी गंध फैलेगी.उदय प्रकाश काफ़ी संतुलित भी दिख रहे थे.लेकिन इस मिसाल बन चुके लेखक की एक बड़ी कमज़ोरी है.यह अमूर्त,गूढ़ बौद्धिक प्रतिवाद नहीं कर पाता बल्कि साफ़-साफ़ दोटूक शब्दों में सीधे बुरी नीयत पर चोट करता है.आखिर उदय प्रकाश जी को उकसाने में वह सफलता मिल ही गई जिसका लोग इंतज़ार कर रहे थे (इस पर भी हँसेगे वे.मुझे शातिर कहेगे कि उदय प्रकाश इतने भोले ठहरे कि उन्हें उकसा दिया जाए).उन्होंने ग्वालियर में होनेवाले कविता समय के संबंध में आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी.जिसने बोधिसत्व जी को आहत कर दिया.वे आपे से बाहर हो गए.चूँकि यह पूरा विवाद एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य रखता है,एक पुरानी घटना की कमज़ोरी से उपजा है इसलिए यह बोधिसत्व जी की जितनी नाराज़गी है उससे अधिक किन्हीं लोगों के हाथ सेंकने का अवसर है.फिर भी मुझे आश्चर्य है कि बोधिसत्व जी इस हद तक विचलित हो गए.यदि वे प्रतिवाद करना ही चाहते थे तो उनके पास अनुभव,धैर्य और समर्थ रचनाकार की अपनी शिष्ट भाषा है.

मुझे ताज्जुब है कि कोई मोहनदास को स्तरहीन कहानी मानता है,कोई मैगोसिल को मनुष्य विरोधी कहानी.कोई इस कथाकार को चरित्र हनन करनेवाला शिकारी कथाकार कहता है,किसी को यह लेखक हमेशा रोते रहनेवाला आक्रामक,आत्म दया से पीड़ित लगता है,किसी को आत्ममोह का मरीज़,किसी को नकलची.किसी को इसकी आत्मा तक कुंठा के दलदल में धँसी हुई प्रतीत होती.कोई इस सचमुच के जनपक्षधर अद्वितीय लेखक को पतित मानता है और..और फिर भी बड़ा लेखक कहते नहीं थकता,विभिन्न आयोजनों में बुलाना भी चाहता है.पत्रिकाओं में बधाइयाँ देता है.जबकि मैं रपटें पढ़ने का भी आदी हूँ मैने देखा है उदय प्रकाश करीब करीब कहीं जाने से बचनेवाले साहित्यकार हैं.साथ ही उन्होंने शायद ही किसी से कहा हो कि मेरी अमुक रचना की समीक्षा कर दीजिए.लेकिन हमारे यहाँ आजकल यह पाखंड चरम पर है कि पहले हर स्तर का विरोध करो फिर सम्मान देकर प्रशंसा करके वैचारिक उदारता का परिचय दो.

सब पढ़े-लिखे लोग जानते हैं कि उदय प्रकाश कम से कम पच्चीस बार लिख-कह चुके हैं कि गोरखपुर का आयोजन कोई सम्मान समारोह नहीं था उनके बड़े भाई की मरणोंपरांत सालभर बाद होनेवाली बरषी का पारिवारिक आयोजन था.लेकिन किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया.

यदि उदय प्रकाश की कोई कहानी किसी पर केंद्रित प्रतीत होती है तो इसका यह मतलब नहीं कि वे गुनहगार हैं.अंतत:हर कहानी किसी न किसी पर लिखी ही जाती है.पात्र-घटनाए इसी ज़मीन पर उपजती हैं.हिंदी में ऐसी कहानियों की लंबी फेहरिश्त भी है.ऐसे कहानीकारों के सम्मान में भी कोई कसर नहीं बरती गई है.

उदय जी ने ग्वालियर के आयोजन के संबंध में जो कहा है उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था.लेकिन उन्हें ऐसा कहने के लिए बाकायदा मजबूर किया गया है.इसे देख पाना मुश्किल नहीं.मैं अपने अनुभव से जानता हूँ कि वे उलझें इसका इंतज़ार किया जा रहा था.

सब जानते हैं आशीर्वाद देने के लिए बड़ा होना पड़ता है लेकिन गालियाँ देने के लिए कोई छोटा नहीं होता.आश्चर्यजनक ढंग से उदय प्रकाश के निंदक प्रशंसक बराबर हैं.

हम जो उदय प्रकाश को पसंद करते है और उनकी निंदा से काफ़ी दुखी होते हैं नादान लोग नहीं है.न ही चाटुकार हैं.हम इसी समय में अमरकांत,विनोद कुमार शुक्ल,श्रीलाल शुक्ल,मन्नू भंडारी,कृष्णा सोबती,काशीनाथ सिंह,असगर वजाहत,संजीव,शिवमूर्ति,प्रियंवद,अखिलेश आदि को उतना ही मान देनेवाले लोग हैं.यदि किन्हीं निंदा प्रवीण महत्वाकांक्षियों को लगता है कि हम टुँटपुजिए हैं तो यही सही पर सच्चाई वे भी जानते हैं कि उदय प्रकाश को पढ़ना,उनसे बातचीत करना कैसा अनुभव होता है.

उदय प्रकाश के बारे में बोधिसत्व जी का कहना है- बाबू साहब सारे संसार से नाराज है। वे खुश है तो केवल सम्मान,पुरस्कार-राशि, सेवकों और संरक्षकों से। सम्मान दे तो दंगाई की भी स्तुति कर आते हैं...वे साहित्य को जंगल समझ कर घूम रहे हैं अपनी कविता के सिंह की तरह पूँछ उठाकर। वे भूल गए हैं कि पूँछ उठाकर घूमने से किसी का भी अंग-विशेष दिखने लगता है। बाबू साहब को उनकी नंगई मुबारक....हम परजा हैं हमें हमारे हाल पर छोड़ दें राजाधिराज... आप...दोहाई है....

आज तक किसी दलित, पिछड़े और मुसलमान हिंदी लेखक को साहित्य अकादमी सम्मान नहीं मिला। राही मासूम रजा, गुलशेरखान शानी, मंजूर एहतशाम, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वजाहत, ओम प्रकाश बाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चौहान, यहाँ तक कि राजेन्द्र यादव ...और शिवमूर्ति जैसे कथाकार भी अब तक अपनी योग्यता नहीं सिद्ध कर पाए.... क्या बाबू साहब को मिले अकादमी सम्मान से ऊपरोक्त वंचित लेखकों के साथ न्याय हो गया है....क्या बाबू साहब इन सारे लेखकों से कहीं बढ़कर हैं...और आज तक किसी दलित और मुसलमान युवा कवि को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार नहीं मिला.....उम्मीद करते हैं कि अब तो उधर भी कुछ प्रकाश फैलेगा.....क्यों बाबू साहब..आपकी यह बाम्हन प्रजा ठीक समझ रही है न...

बाबू साहब इतने पवित्र हैं वे चाहते हैं कि हम उनके मूत्र का आचमन चरणामृत समझ कर करें..


मैं बोधसत्व जी की इस प्रतिक्रिया से हतप्रभ हूँ..मैंने उन्हें बहुत मिलनसार,मान देनेवाले और स्नेही व्यक्ति के रूप में जाना था.उनके फेसबुक की वाल पर के इस कथन से अन्य लोग भी सन्न हैं.कुछ लोगों ने कहा कि मुझे भी उदय प्रकाश की कविता समय संबंधी टिप्पणी से असहमति है मैं बोधिसत्व के उक्त कथन पर ठहाका लगा सकता हूँ लेकिन आत्मा गवाह नहीं देती.यह शैतानी खुशी होगी.गाली-गलौज का समर्थन नहीं किया जा सकता.

मैं भी सचमुच चाहता हूँ कि ग्वालियर का आयोजन सफलता पूर्वक संपन्न हो.जहाँ चंद्रकांत देवताले जी जैसे वरिष्ठ कवि और कुमार अनुपम जैसे युवा कवि को सम्मानित होना है वह आयोजन किन्हीं व्यक्तिगत छींटाकशी की वजह से चर्चा का विषय न बने.

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

अच्छी स्त्री

रेल में सफ़र करते हुए विश्वास कर लेने से बचने की सलाह दी जाती है.ट्रेन में आए दिन ऐसी ऐसी वारदातें,हादसे सुनाई देते रहते हैं कि लोगों द्वारा इस सलाह को आदत बना लेने में बुराई भी नहीं दिखती.लेकिन सच तो यही है कि रेल में दो चार को छोड़कर बाक़ी अच्छे मनुष्य ही होते हैं.मैं सोचता हूँ यात्रा में इंसान अपने मन के अधिक क़रीब होता है.इसी फ़ितरत को ध्यान में रखकर अपराधियों ने ट्रेन का इस्तेमाल शुरू किया होगा.इस पर विस्तार से सोचा जा सकता है.

मेरे साथ उल्टा होता रहा है.हर बार कोई न कोई दिलचस्प इंसान,यादगार शख्सियत मिल ही गयी.उनमें से कइयों से तो आज मेरा दोस्ताना है.अपनी इसी उपलब्धि और कमज़ोरी के चलते मैंने स्लीपर बोगी में ही चलने का नियम बना लिया है.साधारण डिब्बे में बहुत मुश्किल होती है.बैठना हो ही नहीं सकता वरना मेरा खूब मन होता है कि वहीं बैठें.जैसा नौकरी से पहले करते रहे हैं.लोगों को देखें,उनसे बातें हो...पिछले तीन सालों में मैंने हज़ारों किलोमीटर लंबी-लंबी रेल यात्राएँ की हैं.पचास-पचास घंटे ट्रेनों में बैठा हूँ.दर्जनों इंसान हैं जो इन यात्राओं में मेरे लिए यादगार रहे हैं.सब पर लिखने का मन भी होता है जो क्लासिक ही लिखने की सपने देखने जैसी प्रवृत्ति में जाने कब पूरा हो या न भी हो.

लेकिन आज मैं केवल पंद्रह मिनट के सफ़र के कुछ क्षण बाँटने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ.मैं आजकल तमिलनाडु में हूँ.यहाँ के तक्कोलम क़स्बे में रहते हुए जब मैं किसी काम से अरक्कोणम जाता हूँ और लौटते हुए पाँच बज रहे हों तो पाँच बजे की ही लोकल पकड़कर तिरवलंगाडु होते हुए घर लौटता हूँ.चेन्नै सेंट्रल जानेवाली इस लोकल को पकड़ लें तो ठीक पंद्रह मिनट में तीसरा स्टॉप तिरुवलंगाड़ु है.वहाँ से कैंपस में ही स्थित अपने घर के लिए सी.आई.एस.एफ. की शिफ्ट गाड़ी मिल जाती है...यानी छह बजने से पहले कुल दो रुपये के किराए में घर.

उस दिन मैं टिकट लेकर चार नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ा था.जब दस मिनट रह गए तो सोचा अब बैठते हैं.सामने की ही बोगी में खिड़कीवाली सीट खाली थी.बैठे हुए बाहर झाँकने में मैंने अंदाज़ किया कि एक स्त्री खाली सीट के लिए इसी बोगी में आना चाहती है.मैने उसे ग़ौर से देखा.उसका बुर्का पीठ पर उल्टा लटक रहा था.गेहुँआ रंग,भरे चेहरे की वह औरत मुझे अत्यंत सौम्य और शांत स्वभाव की लगी.वह जिस तरह देख रही थी उससे मुझे अनुमान लगाने में देर न लगी कि वह इसी बोगी में आएगी.सोच तो मैंने यहाँ तक लिया कि हो सकता है वह मेरे सामने की खाली सीट पर ही बैठना चाहे.कुछ मिनटों में वैसा ही हुआ.वह आ गई.इधर उधर नज़र दौड़ाने के बाद वह मेरे सामने खड़ी थी.मैंने देखा उसके साथ एक पंद्रह सोलह साल की लड़की,अधेड़ स्त्री-पुरुष भी थे.चारों मेरे सामने की सीट पर बैठ गए.लेकिन जब चार जन का बैठना मुश्किल लगा तो पुरुष मेरी बगल में आ बैठा.ट्रेन चल दी.सरकती ट्रेन के बाहर से मूँगफली बेंचनेवाले ने एक पैकेट बढ़ाया जिसे उस स्त्री ने हाथ बढ़ाकर पकड़ लिया.लड़की जैसे तैयार ही थी उसने पाँच रुपये का सिक्का बढ़ा दिया.

स्त्री पैकेट से निकालकर तीनों को फलियाँ दे रही थी.मैं असहज हो जाने से बचने के लिए कि वह मुझे भी मूँगफली देने लगी तो मुझे इंकार करना पड़ेगा मैं खिड़की से बाहर देखने लगा था.क्योंकि मुझे लग रहा था कि वह मुझसे भी ज़रूर पूछेगी.बाहर देखते हुए मैने महसूस किया कि खुला हुआ पैकेट मेरे सामने है.स्त्री मुँह से आग्रह करने की हिम्मत नहीं कर पा रही है.मेरी किसी तरह की प्रतिक्रिया न पाकर उसने लड़की की ओर पैकेट बढ़ा दिया.

उसका घूमता हुआ हाथ एक बार फिर मेरे सामने था.मैंने इस बार पैकेट को देखा और स्त्री को भी.वह कुछ नहीं बोली.मैंने सकुचाते हुए कहा धन्यवाद...आप लोग लीजिए.स्त्री तब भी पैकेट मेरे सामने किए रही.पुरुष ने कहा-ले लीजिए.ट्रेन में मूँगफली अच्छी लगती है.मैंने झिझकते हुए कुछ फलियाँ उठा लीं.सौजन्यता दिखाते हुए स्त्री से पूछा-आप लोग सेंट्रल जा रहे हैं ? नहीं पेरंबूर तक जाएँगे.मेरा अगला सवाल था-आपको हिंदी आती है ? उसने मुस्कुराकर कहा-थोड़ा थोड़ा.

वह मुझे काफ़ी सुंदर,समझदार लगी.अब मैने तीनों को ठहरकर देखा.मुझे उनकी की शक्ल ने चकित कर दिया.मैंने स्त्री से पूछा-यह आपकी बेटी है ? उसने कहा –हाँ.मैंने अगला सवाल किया-और ये आपकी मां हैं ? उसने सिर हिलाया.मैं चहककर बोला-आप तीनों की शक्लें इतनी मिलती हैं कि कोई भी झट से जान लेगा और सच तो यह है कि इतनी मिलती-जुलती शक्लें मैंने आज तक देखी ही नहीं.वह मुस्कुराई.उसने बताया यह मेरी एक ही लड़की है.नौ क्लास में पढ़ती है.मैं भी मां की अकेली हूँ.मुझे इस संयोग और समरूपता पर खासी खुशी हुई.

लड़की से मैंने उसका स्कूल पूछा.वह बताकर इयर फ़ोन लगाने में व्यस्त हो गई.आप कहाँ से हैं ? स्त्री ने मुझसे पहला सवाल किया.मेरे म.प्र. का बताने पर उसकी मां ने जोड़ा कि यहाँ खाने-बोलने में तो बहुत दिक्कत होता होगा.मैंने कहा कि अब उतनी नहीं होती.स्त्री ने मुझसे जानना चाहा मैं कहाँ उतरूँगा.मैंने बताया बस अगले ही स्टॉप पर.अच्छा....कहकर वह उबली हुई जड़ों का एक गट्ठर निकालने लगी.

इस जड़ को जो नीचे से मोटी और ऊपर पतली होती जाती है तमिलनाडु में लोग खूब खाते हैं.मैंने उसे देखा तो बहुत था पर खाया कभी नहीं था.वह मुझे भी देने लगी.मैंने पूछा यह क्या है?उसने नाम बताया.कई बार पूछने-बताने पर भी उसका उच्चारण मेरी पकड़ में नहीं आया (आज तक मैं उसका नाम नहीं याद कर पाया हूँ.तमिल अब तक सीख न पाने की एक बड़ी वजह यह भी है कि वह बोलने में बड़ी संक्षिप्त और उलझाऊ है.मेरी वैसी जीभ ही नहीं लटक पाती.) मुझे तो पता भी नहीं इसे कैसे खाते हैं.मैंने कहा.उसने एक जड़ को तोड़कर,छीलकर मुझे खाना समझा दिया.साथ ही एक छीला हुआ टुकड़ा भी पकड़ा दिया.मुझे उसका स्वाद उबले सिंघाड़े से मिलता जुलता लेकिन थोड़ा कसैला लगा.अच्छा है...मेरे कहने पर उसने कहा मुझे मालूम है आपको अच्छा नहीं लगा होगा...लेकिन थोड़ा बाद मे पसंद आने लगेगा...

यह स्त्री वाकई समझदार,अच्छी और कितनी निश्छल है !..

ट्रेन धीमी होने लगी थी.मैं अपना बैग कंधे में टाँगकर खड़ा हो गया.चलने लगा तो उसने टोका आपका झोला.मैंने शुक्रिया कहा और उतर गया.

मैं प्लेटफार्म पर खड़े खड़े एक बार उस स्त्री को देखना चाहता था.पर लोकल चलते ही रफ्तार पकड़ लेती है.वह चाहकर भी मेरी मदद नहीं कर सकती थी.खिड़की पर उसकी बेटी बैठी थी.लड़की ने मुझे हँसमुख बाय किया था...

घर लौटने के बाद और कई बार अरक्कोणम स्टेशन पर मुझे वह स्त्री याद आई.उसके बारे में सोचते हुए मुझे अपना यह सोचना अजीब लगता है कि वह इतनी सुंदर और अच्छी है कि उसने ज़रूर ज़िंदगी में बड़े धोखे खाए होंगे.लेकिन उसे भूल कोई नहीं पाया होगा...साथ ही कुछ लोगों के इस कहने पर चीख पड़ने का मन होता है कि मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया जा सकता....