शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

सुधारक



वे बहुत गुस्से में थे।
स्कूल में नहीं पढ़ाये जाने और अत्यधिक होमवर्क दिए जाने से तंग थे।
मैंने कहा "बेटी के कक्षाध्यापक और प्राचार्य का नाम बताएं तो कुछ किया जाये।"
वे बोले "मैं घर पहुंचकर वाट्सअप पर दोनों के फ़ोटो भेजता हूँ आप जरुर कुछ कीजिए।"
"अभी बता देते तो मैं नोट कर लेता मेरे पास स्मार्टफोन नहीं है।"
"कोई बात नहीं मैं कॉल करूँगा।" उन्होंने कहा।
मैं उन्हें तेज़ी से जाते देखता रहा।
मुझे बाय का जवाब ढंग से नहीं आता।

-शशिभूषण

धरती ने घूम लिया आषाढ़


बेटी को मां पालती आयी
पिता बेटी को बढ़ता देखता आया
बेटी का साथ पिता के नसीब में नहीं था
पिता को बेटी के साथ खिलखिलाना था
मगर वह मौके पर फफक पड़ता आया

पिता के हाथों बेटियां बड़ी हो रही हैं
मां से हजारों मील दूर पढ़ रही हैं
बेटियों का दिल मां जितना बड़ा है
कंधे पिता जितने मज़बूत

अब बेटियां
पिता के साथ चलती हैं
जड़ें गहरी हो रहीं
फलों में भर रहा स्वाद


-शशिभूषण

शनिवार, 27 जून 2015

प्रभु जोशी: अपनी ही किस्म का एक अकेला कथाकार



प्रभु जोशी जहांगीर आर्ट गैलरी में अपनी चित्र-प्रदर्शनी के लिए जब भी मुंबई आते हैं तब मैं हर बार ये तय करता हूँ कि प्रभुदा को लेकर कुछ संस्मरणात्मक-सा लिखूं लेकिन वह अभी तक टलता ही रहा। क्योंकि वे यहां आते हैं और भूत की तरह पूरे समय उसी में लगे रहते हैं और एक दिन पता चलता है कि आज तो उनकी इन्दौर के लिये रवानगी का दिन है। अब की बार वे इतमीनान से अमेरिका से लौटे अपने बेटे पुनर्वसु के साथ आये तो दिन भर उनके साथ अपने पुराने दिनों को खूब याद किया गया। उन्होंने अपना ताजा कहानी-संग्रह पितृ-ऋण मुझे भेंट किया तो लगा कि अब आलस्य या कोई बहाना नहीं ढूंढूंगा और ढंग से प्रभु जोशी पर कुछ लिखूंगा ही।


मुझे याद आता है प्रभुदा से मेरी पहली मुलाकात रायपुर में हुई थी। वे आपात काल के दिन थे और धर्मयुग जिसमें उन दिनों ही वे सबसे ज्यादा छप भी रहे थे में उनकी कहानी अलग-अलग तीलियां छप कर बहुत चर्चित हो रही थी। चूंकि वह श्रीमती इंदिरा गांधी की सर्वसत्तावादी राजनीति की बहुत प्रतीकात्मक ढंग से मीमांसा करती थी। हालांकि वह तब सेंसर द्वारा बहुत अधिक सम्पादित कर दी गई थी फिर भी उसके भीतर एक दक्ष-कथा शिल्पी की मारक क्षमता तो दिखाई देती ही थी। उन दिनों मैं रायपुर में अमोल पालेकर को आमंत्रित करके नाटक का वर्कशॉप कर रहा था। तभी प्रभुदा मिले। वे आकाशवाणी जगदलपुर में नौकरी ज्वाईन करने जा रहे थे। उन्होंने बताया था कि वे अपने एक एस.पी मित्र की सलाह पर ही यह नौकरी ज्वाइन कर रहे हैं। क्योंकि उसने समझाया था कि चूंकि वह देवास में है और उसके रहते उनका पुलिस-वेरिफिकेशन बहुत आसान हो जायेगा। मैने रायपुर में तत्काल उनका एक व्याख्यान रखा जिसके जरिए उन्होने अपने वक्ता रूप की ऐसी धाक जमायी कि रायपुर की मेरी पूरी मित्र मण्डली में वे बहुत प्रिय हो गये।


इसके बाद वे लगातार जगदलपुर से रायपुर आते और बताते कि वे आदिवासी इलाके में आकाशवाणी की स्थापना के काम में भूत की तरह लगे हुए हैं और बहुत मजा आ रहा है। चूंकि ये झाबुआ के आदिवासी क्षेत्र से काफी भिन्न है। उन्हीं दिनों वे अपनी एक मारक उक्ति के कारण विवादग्रस्त हो गए जो अंग्रेजी के हितवाद नामक अखबार में छपी थी। दरअस्ल उन्होने कहा यह था कि प्रिमिटिव कल्चर से समाजवादी समाज में संतरण आसान है अतः सरकार द्वारा यहां आकाशवाणी का खोलना दिगम्बरों के मुहल्ले में लाण्ड्री खोलने जैसी मूर्खतापूर्ण योजना है। उन्हें सबसे पहले रोटी-कपड़ा और मकान चाहिये। बस क्या था दफ्तर में उनसे सवाल-जवाब होने लगे। स्पष्टीकरण मांगे जाने लगे।


शायद आकाशवाणी यहीं से उनके पीछे ग्रहण की तरह लग गई। यह इसलिए कह रहा हूं कि 1976 में उन्होंने आकाशवाणी को ज्वाईन किया और 1977 में उन्होंने आखिरी कहानी लिखी जो शायद रविवार में छपी थी। लेकिन मैंने उनके साथ रहते हुए ये बाकायदा अनुभव किया कि तब भी उनकी काम करने की शैली भूत की तरह ही थी। वे हर समय सब कुछ भूलभाल कर भिडे़ हुए आदमी की तरह लगे मिलते । रीवा होते हुए जब वे इन्दौर आकाशवाणी स्थानांतरित हुए तो मैं उनसे दो-तीन दिन मिलकर मौज करने के इरादे से उनके पास इन्दौर गया था और साल भर उनके साथ चार कमरों के एक बड़े-से मकान में रहा। वहां रहा और मैंने देखा कि वे वास्तव में अभूतपूर्व हैं और धीरे-धीरे भूतपूर्व हो रहे हैं। वे पहली बार भूत-चित्रकार की तरह मिले। क्योंकि तब वे इन्दौर के एक चित्रकार की दिल्ली में होने वाली उसकी प्रदर्शनी के लिए तीन-बाय चार फीट की लगभग दो दर्जन तैलरंग कृतियाँ रच रहे थे। वे किसी के इसरार पर उसका लेख लिख देते किसी का रेडियो प्रोग्राम बना देते। किसी की कहानी लिख देते और बदले में कुछ लेते भी नहीं। ना खाने का शौक ना पीने का। नशा केवल किसी की भी मदद करने भर का। मैने उनसे लड़-झगड कर कहा भी कि वे कहानियाँ खूब लिख चुके हैं अब उपन्यास शुरू करें और उन्होंने कुल अठाईस दिनों में डेढ़ सौ पृष्ठ लिख डाले। वह देवास के संगीत-सम्राट उस्ताद रजब अली खाँ को केन्द्र में रख कर लिखा जा रहा गम्मत नामक उपन्यास था। वे दिन में जाने कब वक्त निकाल कर लिखते और रात में जब मैं नाटक की रिहर्सल से लौटता तो वे सुनाते। मैं उसमें नाटकीयता के समावेश का आग्रह करता और फिर बहस छिड़ जाती। बहस खत्म होने के बाद रात बारह बजे खाना बनाने की तैयारी होती। वे बहुत गोल रोटियां बनाते और मैं सब्जी बनाने में माहिर था। उन्हीं दिनों अनिता भाभी जो तब अनिता मलिक हुआ करती थीं आतीं और हमारे उस रेडियो-कालोनी वाले रंग-रोगन और कागज-पानडों से भरे चार कमरों वाले घर में सारे बिखरे को कर व्यवस्थित कर देतीं। लेकिन दो-एक दिन में आकर देखतीं तो पता चलता कि उनकी सारी मेहनत पर पूरी तरह पानी फिर चुका है। फिर से वही फडारा जस का तस फैल चुका है।


दूसरी बार मैं अपनी फिल्म अहिल्याबाई के सिलसिले में इंदौर गया तो वे दूरदर्शन के लिए फिल्म के निर्देशन और प्रोडक्शन में लगे हुए थे। तब भी वे किसी और कहानीकार के नाम से फिल्म की पटकथा पूरी कर चुके थे। तब भी मैं उनसे उसी पुरानी शैली में उनसे झगडा था कि आप ये प्रेतकर्म क्यों करते रहते हैं। आप अपने क्लोन क्यों बना रहे हैं..अब सिर्फ अपना ही लिखना-पढना और चित्र बनाना किया करें। और उसी का नतीजा है कि उन्होने अपनी लिखी छपी कहानियों को ढूंढा और चार कहानी संग्रह तैयार कर के राजकमल प्रकाशन को दे दिये। पहला संग्रह मुझे देकर उन्होंने कहा कि अशोक अब तुम मुझसे पंगा नहीं लोगे। लेकिन पंगा तो शुरू हो गया है क्योंकि वे फिर से कहानी में घुसेंगे और झंझटें शुरू हो जायेंगी।


बहरहाल जब संग्रह पितृऋण हाथ में आया तो दो दिन-दो रातों में जाग कर उसे पढ़ डाला। हांलाकि वे ऐसे कहानीकार हैं जिन्हें जल्दी से नहीं पढ़ा जा सकता। उनकी पितृऋण कहानी सारिका में स्वीकृत करते हुए कमलेश्वर जी ने प्रभुदा को चिट्ठी लिखी थी तुम्हारी यह कहानी पढ़कर आज मैं दिन भर कोई भी काम करने लायक नहीं रह गया हूँ । अद्भुत कहानी है। तुम अब और कोई काम मत करो सिर्फ कहानी और कहानी ही लिखो। मुझे कहानीकार की जरूरत है। कहना न होगा कि धर्मवीर भारती और कमलेश्वर दोनों को ही अपनी पत्रिका के प्रिय लेखक लगते रहे-- प्रभु जोशी। उनकी शायद एक कहानी पहल में और दो एक साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी बाकी तो सब धर्मयुग-सारिका में ही।


इन कहानियों को पढकर इस बात का शदीद अहसास हुआ कि आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व लिखी गई इन कहानियों ने अपने जिस कथा-मुहावरे से हिन्दी कथा-जगत को अचम्भित किया था जिसे प्रभु जोशी ने अपनी कलायुक्ति से गढ़ा था वह आज भी अपराजेय है और वह अपने परफैक्शन में इतना चुनौतीपूर्ण है कि उसका अनुकरण भी एक तरह से आसान नहीं हैं। क्योंकि जब प्रभु जोशी किसी पात्र को रच रहे होते हैं तो वे लगभग वही हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर उनकी कहानी कमींगाह को पढे़ जो भोपाल के एक मुस्लिम जिल्दसाज की है तो लगता है कि वे स्वयं इस्लाम में जज्ब कोई पक्के परहेजगार मुसलमान हैं जिसकी संवेदना में सूक्ष्म से सूक्ष्म मजहबी रिफ्लैक्सेस भरी हुई है। मुझे याद है रायपुर की एक होटल में हमारे साथ चाय पीते हुए विनोद कुमार शुक्ल जी ने उनसे कहा था- आपकी कहानी का दर्जी दर्जी की ही भाषा क्यों बोलता है...क्योंकि पात्र या चरित्र तो लेखक की सृष्टि हैं उसे तो लेखक की ही भाषा बोलना चाहिये। लेकिन प्रभु जोषी के पात्र अपनी ही भाषा के भीतर से अपनी लड़ाई का हथियार जुटाते हैं। यही उनकी खूबी और खुसूसियत है। देखा जाये तो कमींगाह एक राजीनितिक कहानी है जो धीरे-धीरे इतनी सूक्ष्मता के साथ मार करती चलती है कि लगता ही नहीं कि ऐसे राजनीतिक आशयों को ऐसी सहजता से मारक बना कर कथा के भीतर रखा जा सकता है। मेरी स्मृति में किसी भोपाली लेखक की कलम से ऐसा खाण्टी भोपाली मुस्लिम पात्र आज तक नहीं उकेरा गया। 


दूसरी कहानी शुरूआत से पहले है जिसे पहली बार पढ़कर ही मुझे लगा था कि इस पर एक गहरी और अर्थपूर्ण फिल्म बनायी जा सकती है और संयोग से इस कहानी को आधार बनाकर एक फिल्म की पटकथा लिखी भी जा चुकी है। इसमें एक कुम्हार की त्रासदी इतनी विश्वसनीय विवरणों के साथ कलात्मकता में गुंथी हुई है कि लगता है मालवा का कुम्हार प्रभु जोशी का निकट का रिश्तेदार है। यह प्रभुदा की विशेषता है कि पात्रों के भीतर उस हद तक कला को भी शामिल करते चलते हैं जिस हद तक वह उसके जीवन में रची-बसी है। वैसे मुझे याद है यह कहानी उन्होंने जगदलपुर को बंगाली क्लब के कमरे में किराये से रहते हुए लिखी थी जहाँ एक कुम्हार दुर्गा की मूर्ति बना रहा था। मैंने तभी इसे रायपुर में ही पढ़ा भी था और हमारी उस पर बहसें भी हुई थी। प्रभुदा ने उसमें परिवेश बदलकर देवास का कर दिया है जिसमें मालवा और मालवी बोली का बहुत विस्मयजनक और प्रीतिकर यथार्थ रखा गया है। लगता है जैसे कि वे ठेठ गांव के मालवी मनुष्य हैं 


प्रस्तुत संग्रह में इनकी कहीं भी प्रकाशित होने वाली पहली कहानी एक चुप्पी क्रॉस पर पहली बार पाठकों को पढ़ने को मिलेगी। हांलाकि कुछ समय पहले विश्वनाथ जी ने नवनीत में मेरी प्रथम कहानी स्तम्भ में प्रकाशित की भी थी। यह सन् 9173 में धर्मयुग में छपी थी और मोड़ पर कहानी भी यहां है जो सारिका में छपी थी। यह प्रभुदा की दूसरी कहानी थी। यह उनके कथा-सामर्थ्य का प्रमाण है कि हर कहानी की कथा-भाषा एकदम से भिन्न है। इन दोनों कहानियों को पढ़कर अब भी चमत्कृत हो जाना पड़ता है कि बाइस-तेईस की उम्र में प्रभु जोशी के पास कितनी परिपक्व भाषा और अभिभूत करने वाला कथा-शिल्प रहा है। मैं सोचता हूं कि पिछले तीस-पैंतीस वर्षों की हिन्दी कहानी में शिल्प की ऐसी चमत्कृत कर देने वाली विभिन्नता वाला ऐसा अकेला ही कथाकार है। कहानी में इतना शिल्प इस समय जबकि हिन्दी कहानी में अति-मूल्यांकन के चलते दो-चार लेखकों की कहानियों का बड़ा हो-हल्ला है लेकिन वे सब 1977 के बाद की उपज हैं । इंडिया टुडे में एक दफा प्रभु जोशी के बारे में ठीक ही टिप्पणी की गयी थी कि उन्होंने इतने वर्षों में हजारों जलरंग कृतियाँ बनाई लेकिन कहानी एक भी नहीं लिखी। लिख रहे होते तो वे कितने कथा-प्रतिमान बनाते। हालांकि वे कई के घोस्ट लेखक रहे और उन्होंने उनको चर्चा में भी ला दिया। लेकिन अभी भी उनमें वो माद्दा है कि वे लिखेंगे तो वह सबसे भिन्न और लगभग उदाहरणों से बाहर का ही होगा। पितृऋण कहानी जिसके कि नाम से संग्रह है उस पर जब दूरदर्शन ने इंडियन क्लासिक्स श्रृंखला में टेलीफिल्म बनाना प्रस्तावित किया तो मैंने ही उनसे कहा कि यह कहानी बर्बाद हो जायेगी और दूर-दर्शन उस काम में बहुत माहिर भी है। अंत में उखड़ता हुआ बरगद पर फिल्म बनाई गई जिसकी पटकथा लिखने का काम दूरदर्शन द्वारा मुझे सौंपा गया था। यह कहानी भी गांव और नगर की संवेदना के द्वैत को लेकर लिखी गई जबरदस्त कहानी है जो हर क्षण एक पीड़ाग्रस्त पात्र की आन्तरिक छटपटाहट को अद्भुत ढंग से रखती है। इस कहानी में मालवी बोली का जो दोहन प्रभु जोषी ने किया वह अद्भुत है। वैसे मालवा से रमेष बक्षी और नरेश मेहता भी रहे पर वे मालवा की बोली के भाषिक-सौंदर्य को पता नहीं क्यों पकड़ने के लिये आगे नहीं आये।


प्रस्तुत संग्रह की कहानी किरिच पर भी बात करना जरूरी है। क्योंकि ऐसे समय में जबकि प्रेम शब्द को बाजार ने हिन्दी कहानी में तो पोर्न अनुभवों के बरक्स रख दिया है ऐसे में प्रभु जोशी की ये कहानी भाषा की महीन पर्तों के भीतर प्रेमानुभव को ऐसे एहतियात के साथ रखते हैं कि लगता है कोई समय के परिन्दे के पंखों पे लगे परागकणों को कलम की नोंक से उठा रहा है। मैं उन्हें याद दिलाते हुए कहता हूं यह वैसी ही नफासत है जब वे सीसे की तीखी नोंक वाली पेंसिल से किसी कोमलांगी की आंख की पुतली बना रहें हों। ऐसी सृजन-प्रज्ञा में ही असाधरण कौशल मिलता है।


इसी संग्रह में सारिका के लिए लिखे गए गर्दिश के दिन नामक स्तंभ का आत्मकथ्य भी शामिल है जिसे पढ़कर लगता है कि प्रभु जोशी यदि कोई आत्मकथात्मक उपन्यास ही लिख डालें तो वह भी एक क्लासिक बन जायेगा । क्योंकि अपने आत्म को वे जिस तरह चीर-फाड़ करके उसमें से रिसते हुए को बूंद-बूंद बटोर कर अपनी भाषा के भीतर रखते हैं वह लगभग हतप्रभ करने वाला है । 


अंत में प्रभुदा के इस संग्रह के बारे में बात करते हुए लग रहा है कि इसमें उनके काम और कला-कौशल की सूक्ष्मताओं का तो सिलसिलेवार कुछ आया ही नहीं है, लेकिन यह लगता है कि वे जलरंग में निष्णात हैं और यदि प्रीतिश नंदी जैसा कला पारखी उन्हें भारत का जलरंग सम्राट कहता है तो यह खोखली प्रशंसा नहीं हकीकत है। हाल ही में इण्टरनेशनल वॉटर कलर सोसाईटी ऑफ अमेरिका की शाखा ने तुर्की द्वै-वार्षिकि में उन्हें शामिल किया। लेकिन मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि जितने दक्ष और सिध्दहस्त चित्रकार हैं वे उतने ही और उससे भी कहीं ज्यादा शिल्प-दक्ष कहानीकार हैं। वे अपने ढंग के अकेले ऐसे कथाकार हैं जहाँ भाषा रंग की तरह बहती हुई जीवन के अंधेरे-उजालों के मटमैले और उजले दृश्य लिखती है। मजेदार बात तो यह है कि वे अद्भुत वक्ता भी हैं और जब बोलते हैं तो लगता है कि हर शब्द उनकी आवाज के इशारे पर अपना अर्थ प्रकट कर रहा है। मैं तो हमेशा कहता हूँ कि आप मुम्बई आओ और फिल्में लिख दो या कर दो। वे अपने आप में क्लासिक ही होंगी। 


अन्त में कहना चाहूंगा कि प्रभुदा फिर से कहानियां लिखना शुरू करें। हांलाकि उनके पास पूरी की पूरी कोई तीस-पैंतीस कहानियां थीं और दो-तीन आधे-अधूरे उपन्यास थे। जो एक बारिश में गल कर लुगदी हो गये। बता रहे थे उनके पास अभी भी वे सुरक्षित-शवों की तरह किसी बक्से में दफ्न हैं। मैं उनसे उम्मीद करता हूं वे शव-साधना से उनमें पुनः प्राण फूंक दें। ऐसा हो गया तो कईयों को सकते में डाल ही देंगें।
(कथादेश, जून 2015 में प्रकाशित)

-अशोक मिश्र
फिल्मकार, श्याम बेनेगल के धारावाहिक भारत एक खोज सहित कई फिल्मों के फिल्म-पटकथा लेखक

गुरुवार, 25 जून 2015

हलफनामा



मैं हिंदी पढ़ाता हूँ

अंग्रेजी नहीं बोलने की माफ़ी कभी नहीं मांगूंगा
हिंदी को अंग्रेजी में पढ़ाने की कोशिश कभी नहीं करूँगा
रोमन में हिंदी नहीं लिखूंगा

मैं कभी नहीं चाहूँगा बच्चे ईमानदार लड़ाई का अनुवाद ग़लत फ़ैसले की भाषा में करें

जिन्हें अंग्रेजी न बोलना हीनता लगे वे अपना इलाज़ स्वयं कराएं
मैं अच्छी हिंदी लिखने बोलने का अभ्यास करूँगा

हो सकता है आपके खून में अंग्रेजी का नमक हो
हो सकता है अंग्रेजी में आपको पुरखों का सम्मान झलकता हो
जाने दीजिये आप जैसों से क्या लेना
आपके अपने ऋण होंगे
आपकी लज्जा समझी जा सकती है

मैं हिंदी की रोटी खाता हूँ
भाषा की नन्हीं चींटी को भी सलाम करता हूँ
अपनी जबान से मत कहियेगा
अंग्रेजी का विरोध करता हूँ

अपने हिस्से की हिंदी में मैं बचा रहूँगा
मेरी हड्डियां जब आग से निकलेंगी
कार्बन जितनी हिंदी बची रहेगी

मैं अपने पसीने का नमक हूँ
हिंदी का मास्टर हूँ
हिंदी पढ़ाता हूँ
अधमाई नहीं करूँगा
अंग्रेजी नहीं बोलने की माफ़ी कभी नहीं मांगूगा

-शशि भूषण

शनिवार, 30 मई 2015

एम गायत्री ने बिना ट्यूशन सीबीएसई AISSCE 2015 में टॉप किया



इस बार सीबीएसई 12 वीं का पास प्रतिशत 82 है। पिछले साल 82.7 प्रतिशत था।

इस कमी का सीधा कारण जो मेरी समझ में आता है वह यह कि इस साल सीबीएसई बोर्ड ने हर परीक्षा केन्द्र पर पर्यवेक्षक भेजे। 3 घंटे के पर्यवेक्षक।

यह इतनी मुस्तैदी से हुआ कि दूरदराज स्थित जिन विद्यालयों में बिजली पानी नहीं पहुँच पाता वहां पर्यवेक्षक पहुंचे। मैं इस बात के लिये बोर्ड को बधाई देता हूँ।


मेरी राय में सीबीएसई बोर्ड, परीक्षाओं में और ध्यान देकर थोड़ी घटत के साथ भी ईमानदार पालकों, शिक्षकों और शैक्षिक मनुष्यों, नागरिकों का दिल जीत सकता है।

मैं उन शिक्षकों का कभी सगा न हो पाया जिनके ट्यूशन के बच्चे सब पास हो जाते हैं लेकिन विद्यालयों के सब पास नहीं हो पाते। बीमे और बैंक लोन की ई एम आई के लिए भी ट्यूशन पढ़ाना सही नहीं। जो शिक्षक साथी परीक्षा हॉल में घुसकर किताबों के साथ ब्लैक बोर्ड पर नक़ल करा देते हैं उनके लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं। मुझे इन शिक्षकों से शहर के गुंडों से ज़्यादा डर लगता है। मेरे मित्र मज़ाक करते हैं तुम्हारी यदि कभी पिटाई हुई तो मार्च के महीने में इन्हीं गुरुओं के हाथों संपन्न होगी।

पूरे भारत की टॉपर एम गायत्री को इस बात के लिए विशेष बधाई कि वे ट्यूशन पढ़ने नहीं गयीं। सारा श्रेय अपने शिक्षको को देनेवाली यह छात्रा न केवल गर्व के लायक है बल्कि इस वक्त में बड़ी खुशनसीब है।

मैं उम्मीद करता हूँ कि सीबीएसई बोर्ड और सख्ती एवं तत्परता के साथ अगले साल थोड़े कम पर्सेंट के साथ ही अधिक विश्वसनीयता हासिल करेगा।

मेरी राय में सीबीएसई के प्रति थोड़े अधिक भरोसे और सम्मान का साल है यह। मुझ जैसों के विचार से जब तक नक़ल होती है किसी इम्तहान में किसी मेरिट का कोई अर्थ नहीं।

जिन विद्यालयों में ख़राब परीक्षा परिणाम आया है उनके अफसर उम्मीद है ठोस रणनीति बनाएंगे। चाहे जो कीजिए मगर रिजल्ट बढ़िया दीजिए की नीति हानिकारक एवं आपराधिक होती है। शिक्षकों को नक़ल कराने के लिए विवश कर देना हत्याएं करवाने के सामान है।

एम गायत्री की सफलता के बहुत मायने हैं। भारत में जो जानेगा अपने अपने विवेक से खुश होगा। खुश होना भी चाहिए।

उन सब मित्रों को बधाई जिनके घर अच्छे परीक्षा परिणाम आये हैं।

बी अर्जुन, केवि पट्टम, तिरुअनंतपुरम (द्वितीय स्थान) को विशेष बधाई। केन्द्रीय विद्यालय संगठन का परीक्षा परिणाम पिछले वर्षों से कम आया है इस सच के साथ बी अर्जुन का योगदान उम्मीद और गर्व के लायक है।

अपने विद्यार्थी तो हर हाल में अपने हैं। उनकी हर बात में हम पूरे साथ हैं।

शुक्रवार, 29 मई 2015

जानें, चुनें और हक से मांगें



सीबीएसई के AISSE 2015 का परिणाम आ चुका है। अच्छा प्रदर्शन करनेवाले विद्यार्थियों को हार्दिक बधाई और सभी विद्यार्थियों को हार्दिक शुभकामनाएँ। समय आ चुका है कल से ही विषय चुनाव के दिन शुरू हो रहे हैं। 11वीं में प्रवेश हेतु केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा विषयों का समूह खुला और पूर्वाग्रह रहित है। विशिष्ट इस अर्थ में है कि कला, विज्ञान और वाणिज्य संकाय में विषयों का समुच्चय किसी प्रकार के निषेध से नहीं बनाया गया है। जानकारी के अभाव में और विद्यालयों की सुविधा के फेर में अभिभावक और विद्यार्थी अपने मनपसंद संकाय के साथ विषयों का उपयुक्त समुच्चय नहीं चुन पाते। नतीजे में वे किसी अनचाहे विषय को स्कूल एजुकेशन के अपने आखिरी दो साल में केवल घसीटते हैं। यदि अभिभावक और विद्यार्थी चाहें तो नीचे दी गयी जानकारी से लाभ उठा सकते हैं। याद रखिए विषयो के लिए अध्यापक और आवश्यक इंतज़ाम विद्यालय की ज़िम्मेदारी है। संकोच में आप समझौता न करें।


गौर करेंगें तो हिंदी के चुनाव के संबंध में भी बहुत से भ्रमों और ग़लत मोटीवेशन से बच सकेंगे। नीचे दी जा रही सूचना केन्द्रीय विद्यालयों के लिए है लेकिन यह सीबीएसई की गाइडलाईन है इसलिए सभी सीबीएसई पाठ्यक्रमों वाले विद्यालयों के विद्यार्थी लाभ उठा सकते हैं। अभिभावकों और 11वीं में प्रवेश ले रहे सभी विद्यार्थियों से मेरा अनुरोध है कि विषयों को जानें, चुनें और हक से मांगें।


Article 108. SCHEME OF STUDIES :


Kendriya Vidyalayas being composite co‐educational schools having classes form I to XII, the subjects taught at various levels shall be as given below:


E Classes XI and XII


I. Science Group : 
Compulsory: Core Language ( English or Hindi or Sanskrit), SUPW, General Studies. Elective : Any four of the following : (i) Physics (ii) Chemistry (ii) Biology (iv) Mathematics (v) Information Practices (vi) Computer Science (vii) Multimedia & Web Technology (viii) Economics (iv) Language other than that offered as Compulsory Core language. (x) Biotechnology


II. Commerce Group : 
Compulsory : Core Language ( Sanskrit or English or Hindi) SUPW , General Studies Elective : Any four of the following: (i)Accountancy (ii) Business Studies (iii) Economics (iv ) Mathematics (v) Geography (vi) Informatics Practices (vii) Computer Science (viii) Multimedia & Web Technology (ix) language other than that offered as compulsory core language.


III. Humanities Group : 
Compulsory : Core Language ( Sanskrit or Hindi or English), SUPW , General Studies Elective : Any four of the following (i)History (ii) Geography (iii) Economics (iv) Mathematics (v) Language other than that offered as compulsory core language and (vi) Multimedia & Web Technology (vii) informatics Practices.(viii) Political Sciences (ix)Sociology and (x)Psychology.


Note : Students may offer any subject as prescribed by the CBSE provided 15 or more students opt for the same. However, a student can also opt for any other subject (s) other than the above, even if the number of students is less than 15, provided he/ she makes his/ her own arrangement for study. This applies for both compulsory and elective subjects.


उपर के तीनों संकाय में यह विकल्प "Language other than that offered as Compulsory Core language."(iv-Science Group, ix- Commerce Group, v-Humanities Group) महत्वपूर्ण है। यह विकल्प हिंदी और अंग्रेज़ी दोनो पढ़ने की सुविधा देता है।


इसी प्रकार Information Practices और Computer Sciences दोनों विषयों की विद्यालय में उपलब्धता विद्यार्थियों केे लिए वरदान साबित हो सकती है।