गुरुवार, 30 मई 2019

संसद के लिए शील, शांति, न्याय और पवित्रता सर्वोपरि होने चाहिए

आज भारत की 17वीं संसद पद एवं गोपनीयता की शपथ लेने जा रही है। यह ऐसा अवसर है जब भारत के सभी लोग नव निर्वाचित सांसदों को बधाई एवं आगामी पांच साल के लिए नयी सरकार को शुभकामना देना चाहेंगे। दुनिया भर के जागरूक नागरिक भारत के आज के इस ख़ास दिन को इच्छानुसार अपनी-अपनी डायरी में नोट करेंगे। 

मैं भी समझता हूँ आज का दिन है ही विशेष जब भारत के विभिन्न दलों के सांसद एक साथ मिलकर 17वीं संसद का चेहरा बन जाएंगे। यहीं मुझे लगता है एक बात पर विशेष रूप से विचार करने की ज़रूरत है। अनेक समाचार माध्यमों से यह जानने में आया है कि भारत की 17वीं नव निर्वाचित संसद में लगभग 44 प्रतिशत ऐसे सांसद हैं जिन पर अपराध पंजीबद्ध हैं। इन अपराधों के बारे में कहा गया है कि यह सब प्रकार के हैं। 

जैसा कि दुनिया का चलन है सम्भव है कि इन दागी जनप्रतिनिधियों में से कुछ पर मुकदमें दुर्भावनावश लगाए गए हों जो अदालत में आगे सही साबित न हो पाएं। सम्भव यह भी है कि आगे इन सांसदों में से कुछ का प्रभाव इतना बढ़ जाए कि अपराधों के सबूत छोटे पड़ जाएं। कोई अदालत इन नेताओं को दोषी साबित न कर पाए। सम्भव यह भी है कि माननीय सचमुच दोषी हों। 

सवाल यह नहीं है कि भविष्य में कौन बच जाएगा, किस दल में कम ज्यादा आरोपी हैं और कौन अपने अपराधों की सज़ा पायेगा ? बल्कि सवाल यह है कि क्या यह भारतीय संसद का आदर्श चेहरा है जहां 43 या 44 प्रतिशत निर्वाचित सासंद आरोपी हों ?यदि एक भी सांसद दोषी सिद्ध हो गया तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा ? संसद की पवित्रता का क्या होगा ? 

मेरे ख़याल से आज यह सवाल सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए कि यदि भारतीय लोकसभा को अपने किसी सदस्य के लिए भविष्य में पछताना पड़े, शर्मशार होना पड़े, विश्व बिरादरी में नीचा देखना पड़े, जवाब देना पड़े तो इसका जिम्मा किस पर जाएगा ? क्या राजनीतिक दलों पर जिन्होंने प्रत्याशी खड़े किए ? क्या चुनाव आयोग पर जिसने इन्हें चुनकर आने दिया ? क्या न्याय पालिका पर जो समय रहते इन पर अपराध तय नहीं कर पाई ? क्या विभिन्न सरकारों पर जो इन पर अंकुश नहीं लगा पाईं ? या फिर अंतिम रूप से जनता पर जिसने दागी नेताओं को भारी मतों से अपना नुमाइंदा या रहनुमा चुना ? 

आज इन सवालों पर देश को गौर करना ही होगा। अब वह समय नहीं रहा जब विजेता के सब दोष माफ़ होते हैं। यह लोकतांत्रिक विश्व है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लोकतंत्र में बहुमत से कम महत्व मत का नहीं होता। यदि एक भी नागरिक जानना चाहता है कि संसद में आरोपी क्यों और कैसे पहुंचे ? तो जवाब देना होगा। यही जनादेश का सच्चा सम्मान होगा। 

भारत एक महान देश है। इसे अपने उच्च मानवीय गुणों के लिए दुनिया भर में आदर से देखा जाता है। भारत के जनादेश का सम्मान करने वालों का यह पहला कर्तव्य है कि वे इस देश की संसद को पवित्र रखें। बिना इस तू-तू मैं-मैं के कि पिछली संसद में निर्वाचितों का आपराधिक डेटा क्या रहा है। 

मैं सबसे क्षमा सहित यह कहना चाहता हूं कि भारत की नवनिर्वाचित मज़बूत सरकार और विपक्ष चाहे वह कितना ही कमज़ोर क्यों न हो कि यह पहली साझी ज़िम्मेदारी होगी कि संसद में जो सदस्य चुनकर आये हैं वे जल्द से जल्द अगर दोषी हैं तो दोषी और बेदाग़ हैं तो बेदाग़ निकलें। इन पर लंबित मुकदमों की सुनवाई प्राथमिकता में त्वरित सुनिश्चित हो। कोई भी नया कार्यक्रम लागू करने से पहले इस जनादेश को निष्कलंक किया जाए। मेरा यह सोच अगर किसी रूप में गलत है तो मुझे माफ़ किया जाए। 

भारतीय नागरिक होने के नाते मेरी केवल एक ही इच्छा है कि जैसे भारत के करोड़ों लोग ग़रीबी, मजबूरी, सताये जाने पर भी नेक, निर्दोष, विनीत और निष्कलंक रहते हैं वैसी ही भारत की संसद भी हो। दुनिया में इसकी पहचान क़ायम हो कि यह भारत की संसद है जिसके लिए शील, शांति, न्याय और पवित्रता सर्वोपरि हैं। 

सभी निर्वाचित सांसदों एवं पदाधिकारियों को मेरी ओर से शुभकामनाएं। प्रधानमंत्री जी के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं कि सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में सबसे अधिक आरोपी सांसद भी आपकी ओर से ही हैं  इसलिए अब इतनी बड़ी संसद को सम्हालने और निर्दोष रखने का सर्वाधिक जिम्मा आपका ही है। 

जय हिंद ! भारत माता की जय !!

- शशिभूषण

सोमवार, 27 मई 2019

लोग अंगूठा लगाकर विश्व गुरुओं की सरकार चुनते हैं


इसे कहानी में लिखूंगा तो शायद आप मानेंगे नहीं इसलिए सीधे सीधे एक अनुभव कहता हूँ ताकि आप सवाल जवाब भी कर सकें।

मैं पीठासीन अधिकारी था। इस बार मतदान हेतु बीएलओ पर्ची मान्य नहीं थी। एक दिन पहले ही एजेंट से अनुरोध कर लिया था बीएलओ पर्ची से वोट नहीं पड़ पायेगा। किसी हाल में नहीं। लेकिन अगले दिन मतदाता आधार कार्ड और वोटर कार्ड आदि के साथ बीएलओ पर्ची भी ला रहे थे।

यह बीएलओ पर्ची तब परेशानी और डर का सबब बन गयी जब कुछ बुजुर्ग मतदाता जिनमें अधिकांश महिलाएं थीं स्याही लगवाने, मतदान अधिकारी 3 द्वारा बैलेट इश्यू करने के बाद हाथ में लिए लिए बूथ में जाते और इसे कहीं डालना चाहते। चूंकि बैलेट यूनिट में कहीं से कुछ डाला नहीं जा सकता तो ये उसे वीवीपीएटी में डालना चाहते।

एक दो बार तो मुझे अपनी जान सूखती सी लगी। मेरी प्रार्थना थी कि यह मशीन 6 बजे तक ऐसी ही चलती रहे। मतदान सम्पन्न हो जाये। लेकिन यह नई समस्या थी। मैं बूथ पर नहीं जा सकता था। मतदाता के पीछे पीछे कोई दूसरा नहीं जा सकता था। एक को समझाओ भी तो दूसरा मतदाता नया होता। फिर क्या किया जाए ?

जैसे ही कोई बुजुर्ग मतदाता आता या आती मैं मतदान कक्ष के बीचोबीच दूसरे मतदान अधिकारी के सामने खड़ा हो जाता था। उनके हाथ से बीएलओ पर्ची और परिचय पत्र लेता था। विनती करता था- केवल बटन दबाना है और कुछ नहीं। उसके बाद मुझसे यह ले जाओ।

इतना ही होता तो गनीमत थी। कमाल तो तब हुआ जब मतदान समाप्ति के बाद वीवीपीएटी की बैटरी निकालने के लिए बैक साइड खोली तो उससे बीएलओ पर्ची निकली। शाम को 6 बजे रोने लायक जान न बचने के बावजूद मुझे जोर की हँसी आई। हम चारो हँस पड़े। मतदान समाप्त हो चुका था।

इसीलिए कहता हूं कि माई बाप जनता जनार्दन की खूब इज्जत कीजिये। उन्हें सर आंखों पर बिठाइए। लेकिन केवल इज्जत से और उनके जनादेश से कुछ खास नहीं होने वाला। भारत की जनता जनार्दन को शिक्षित करना पड़ेगा। उसे शिक्षित कीजिये। भारत में शिक्षा पहली ज़रूरत है।

यदि यह देश शिक्षा के लिए आगे नहीं आता तो जनादेश आदि की इज्ज़त का कोई अर्थ नहीं है। यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि लोग अंगूठा लगाकर विश्व गुरुओं की सरकार चुनते हैं।

- शशिभूषण

नेहरू का सपना हमारा भारत


ऐसे माता-पिता, शिक्षकों और परिजनों पर आज ग़ुस्सा आता है जिन्होंने बच्चों से कहा था - पढ़ो लिखो, अच्छे बनो। गांधी, नेहरू, भगत सिंह, आदि महापुरुषों की राह पर चलो। अपने से पहले समाज के बारे में सोचो। भारत निर्माण का रास्ता आजादी के आंदोलन के महान सपनों से होकर निकलेगा।

वैसे है तो यह गर्व करने की बात मगर गुस्सा इसलिए आता है क्योंकि इसी दौर में स्कूल, कॉलेज, विश्विद्यालय और शिक्षा नष्ट किये जा रहे थे। लोग परहित से विमुख होकर अपने-अपने घर भर रहे थे। बस कुछ पुराने अच्छे नागरिक उन्हीं महान सपनों के साथ जिये जा रहे थे। जिनकी तादाद घटती जा रही थी। पढ़ाई या तो थी नहीं या खोखली हो चुकी थी, आज़ादी के सपने टूट रहे थे, राष्ट्र निर्माण और नेकी की राह मुश्किलों एवं अपना सब कुछ खो देने की राह बनती जा रही थी।

इसी वक़्त की कोख से वह पीढ़ी पैदा हुई, जो इस सही मगर कठिन राह पर चलने में भविष्यहीनता देखती थी। उसके सामने करियर का प्रश्न अहम हो चला था। परिणाम क्या हुआ ? ऐसे-ऐसे नेता, रणनीतिकार पैदा हुए जिनकी दिखायी राह पर चलने में आदर्शों की कोई शर्त नहीं थी, त्याग की, ईमानदारी की कोई अड़चन नहीं थी। शिक्षित होना भी अनिवार्य नहीं था। बल्कि प्रतिभाएं विदेशों में शरण खोज रही थीं। नेता खुलेआम बोलने लगे थे- गांधी, नेहरू शैतान थे। भारत विभाजन के जिम्मेदार थे। भगत सिंह कम्युनिस्ट था। अम्बेडकर शूद्र। आरक्षण बुराई है। अल्पसंख्यक हिंदुओं पर खतरा हैं। इस्लाम खतरे में है। देश ख़तरे में है। संस्कृति पर संकट के बादल देखे जाते। बुद्धिजीवियों को त्याज्य, अलगाववादी समझा जाता। कारण ? इनसे ब्राह्मणवाद, धार्मिक चरमपंथ और जातिवाद आदि कमज़ोर पड़ रहे थे। इन अतिवादी नेताओं को कोई टोकने वाला नहीं था कि यह झूठ क्यों ? ऐसी नफ़रत क्यों ? धर्म का धंधा क्यों ? यह उस वक़्त का आगमन था जब दंगाई या लुटेरा होकर भी समाज हितैषी या सेवक कहलाया जा सकता था। जब जातियों, समाजों के संगठन, सेनाएं बन रही थीं। मेले-त्यौहार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के अड्डे बनते जा रहे थे।

ऐसे में क्या होता ? कम पढ़े लिखों की उन्मादी फ़ौज तैयार हो गयी। वो धर्म में लग गयी। बिजनेस सम्हालने लगी। राजनीतिक कार्यकर्ता बन गयी। ट्रोल हो गयी। लिंचिंग करने वाली मॉब बन गयी। नौजवान बिना पढ़े लिखे ही स्मार्ट, अमीर होने लगे। समझदार कहलाने लगे। विभाजनकारी जन नेता कहलाने लगे। कुछ भी करके जनसमर्थन जीत लेने में सफल होने लगे। धंधा, सबसे बड़ा रोज़गार हो गया। मुनाफ़ा सदगति। सेठ, धर्म और राजनीति के मालिक बन बैठे। लोग खुलेआम पूछने लगे समाज सेवा से क्या फायदा ? हम सरोकार के लिए क्यों मरें ? हमें भी सुख चाहिए। हमारे भी बाल बच्चे हैं। भलाई के लिए हमी क्यों शहीद हों ? फिर क्या था अपराध का ऐसा कोई क्षेत्र न बचा जहां से चुनकर सांसद, विधायक सदनों में न पहुंचें।

हमें शहीद नहीं होना, हमें भी येन केन प्रकारेण ऐश ओ आराम चाहिए युवाओं के जीवन का मूलमंत्र बन गया। बुजुर्ग आखिरी सांस तक शासन करना चाहने लगे। भारत में धर्मनिरपेक्षता गाली हो गयी। वैज्ञानिकता को नास्तिकता समझा जाने लगा। नास्तिक को देशद्रोही प्रचारित कर दिया गया। विरोधी विचारधारा को शत्रु समझ लिया गया। मानवतावाद की जगह राजनेताओं की भक्ति और धार्मिक उन्माद आ गया। मीडिया धनपशु और सत्ता का प्रचारक बन गया। व्यक्ति पूजा चरम पर पहुंच गयी। ऐसे वक़्त में नेहरू को कौन अच्छा कहता ? अम्बेडकर के पीछे कौन चलता? इतिहास कौन पढ़ता जबकि पुस्तकालय खत्म हो गए । ज्ञान विज्ञान की जगह वाट्सअप का मायावी जाल छा गया। रही सही कसर अंतरार्ष्ट्रीय उपभोक्तावाद ने पूरी कर दी। देश में कंपनियों का साम्राज्य फैल गया। भारत के लोग फेक न्यूज़ और धार्मिक राष्ट्रवाद के चंगुल में फंस गए। फिल्मी कलाकार या तो सट्टेबाज़ हो गए या नेताओं के विज्ञापन करता। एंकर गुंडे हो चले। योग-अध्यात्म महाकाय कारोबार बन गया। ऐसे लोगों की सत्ता, रस्साकशी में जनता की नज़र में गांधी, नेहरू इज्ज़त पाने भी पाएं तो कैसे ?

लोग ही गिनती के बचे जो आंख में आंख डालकर कह सकें - जवाहर लाल नेहरू जैसा पढ़ा लिखा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रधानमंत्री भारत में दूसरा न हुआ न होगा। नेहरू जी आधुनिक भारत के महान स्वप्नदृष्टा और शिल्पी थे। उनका चिंतन और राजनीति भारत की आत्मा के ख़ुराक हैं। आज जिस प्रकार से नेहरू को कलंकित किया जा चुका है और दोषियों को कोई ठोस जवाब नहीं दे पाता वह भारत की ही दुर्गति का कारण है, कारण बनेगा।

दुष्प्रचार और चरित्र हनन के विशाल राजनीतिक औद्योगिक समय में आज सबसे बड़ा सवाल है भारत निर्माताओं का खोया गौरव कैसे लौटे ? कौन उनके असल संदेशों को जनता तक ले जाए ? सवाल बड़ा है लेकिन उम्मीद भी बड़ी है कि यह घटाटोप सदा नहीं चलेगा। अफवाह, छल, झूठे वादे, तिकड़मी भाषा और झूठ हमेशा नहीं चलते। ठगों की कलई एक दिन खुल ही जाती है। भले देर लगे मगर नेहरू फिर से पहचाने जाएंगे। क्योंकि वे किसी दल विशेष के नेता नहीं थे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और महान स्वप्नदृष्टा थे। भारत उनका सदैव ऋणी रहेगा।

आज 27 मई है। नेहरू जी की पुण्यतिथि। भारत माता के इस सपूत और गांधी जी के वास्तविक उत्तराधिकारी को मेरी ओर से विनम्र श्रद्धांजलि ! नमन ! जय हिंद !! भारत माता की जय !!!

- शशिभूषण

रविवार, 26 मई 2019

बेटी की चिट्टी देश के नाम



मेरे प्यारे देश भारत,
आज जबकि मैं वह हूँ, जो होना चाहती थी, तो इसका सारा श्रेय मैं तुम्हें देना चाहूँगी। तुमने मेरी साँसों को हवा दी, जीवन को अन्न-जल और विकास को वह सुंदर दुनिया, जिसमें सपनों के विस्तार के लिए अनंत आकाश था और उन्हें साकार करने के लिए असीम धरा।

बढ़ती उम्र की समझ के साथ मैंने जाना कि तुम अपनी एक ऐसी विशेषता के कारण अपने आत्महिंसक, आत्मपीड़क पड़ोसी देशों से अलग और महान हुए, जो संविधान द्वारा तुम्हें दी गयी उद्देशिका है- सम्पूर्ण संप्रभुता संपन्न लोकतंत्रात्मक संघ गणराज्य और पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवादी। यह एक प्रतिज्ञा तुम्हारी उस पवित्र और उदात्त आत्मा का प्रतिबिंब है जिसमें सबके लिए सबकुछ है। अपनी आदिम अवस्था से तुम अपने इसी धर्म का पालन करते आ रहे हो। ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों और इतिहास को पढ़कर मैंने जाना कि तुम्हारी धरती दुनिया के तमाम बाशिंदों को अपनी गोद में पालने, उन्हें संरक्षण व मुक्त आकाश देने को सदा से आतुर रही है। वात्सल्य का ऐसा अनुपम भंडार धरती के किसी और टुकड़े पर नहीं दिखता।

मैं सच्चे दिल से यही प्रार्थना करती हूँ कि तुम्हारी वनस्पतियाँ सदा हरी रहें, तुम्हारी नदियाँ सदा भरी रहें, तुम्हारे पशु-पक्षी, खेत-खलिहान, किसान-जवान और सभी इंसान सदा सलामत रहें।

पर सच कहूँ- मन तब उदास ज़रूर हो जाता है जब सत्ताओं की शतरंज में तुम्हें मोहरा बना देखती हूँ। तुम्हारी हरी-भरी धरती की चटख रंगत जब चंद रंगों और तूलिकाओं में समेटने की कोशिश की जाती हैं, तुम्हारी उदात्त आत्मा को जब तुम्हारे ही आत्मज और आत्मजाएँ खंडित करने का प्रयास करते हैं, जब एक ओर तुम्हें माता का दर्ज़ा देकर पूजनीय बनाया जाता है और दूसरी ओर सत्ताओं का लोभ, क्षुद्र स्वार्थों का अतिरेक तुम्हारे आत्म सम्मान को तार-तार करते हैं, तब मेरी आँखों के सामने बार-बार अपने प्यारे भारत के आँगन में युधिष्ठिर के जुएँ का खेल और द्रौपदी के चीर हरण का दृश्य अपनी पूरी नग्नता के साथ जीवंत हो उठता है।

ऐसा नहीं है कि तुम्हारे साथ यह सबकुछ मेरे ही जीवन काल में हो रहा है ! हाँ, मेरी पीड़ा नयी है, तुम्हारा दुख सदियों पुराना है। यह दुख कुछ बुरा नष्ट न कर पाने के लिए उतना नहीं है, जितना आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ अच्छा सहेज न पाने का, अपने बच्चों को सुंदर और स्वस्थ वातावरण, स्वच्छ पर्यावरण, पवित्र और लोकमंगलकारी आचरण न दे पाने का है।

मेरे प्यारे देश भारत ! मैं कैसे मान लूँ कि जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोज़गारी जैसी अनगिनत समस्याओं की सौगात साथ लेकर आ रही राजनीति में दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी तुम्हारे आत्मगौरव की रक्षक होगी, तुम्हारे प्रेम के विस्तार को समझ पाने की संवेदनशीलता उसमें होगी ! वह मानव धर्म को सभी धर्मों से ऊपर मान भी पायेगी या नहीं !!

प्यारे भारत ! मैने बहुत जादुई उम्मीदें नहीं पाल रखी हैं तुमसे। बस एक दिन ऐसा आए, जब तुम्हारे सबसे कमज़ोर और अकेले इंसान तक मदद के हाथ पहुँचे, एक रात वह शुरुआत हो, जब तुम्हारा सबसे ग़रीब इंसान भूखा नहीं सोए- ऐसे दिनों और ऐसी रातों वाला प्यारा भारत बनते मैं तुम्हें देखना चाहती हूँ।

तुम्हारी बेटी
कविता जड़िया
शिक्षिका, के वि उज्जैन

रवीश आप नहीं हारे हैं

प्रिय रवीश जी,
नमस्ते !

मैंने आपका लेख 'क्या 2019 के चुनाव में मैं भी हार गया हूँ' ध्यान से पढ़ा। चूंकि आपके लेख का शीर्षक बिना प्रश्नवाचक चिन्ह के एक सवाल की तरह है इसलिए मैं पहले जवाब ही देना चाहता हूं- नहीं, आप बिल्कुल नहीं हारे हैं। आप हैं तो बहुत कुछ है। हम लोग अकेले नहीं हैं। कमज़ोर नहीं है। लोगों की समझ पर चारों तरफ़ से हमले हैं मगर वे आपको देख सुनकर अपनी समझ ठीक कर सकते हैं। रवीश कुमार अकेला ही आज की राजनीति का ईमानदार अटल विपक्ष है। मैं व्यक्तिगत रूप से इतने सालों में आपके लिखे बोले दिखाए से काफ़ी मजबूत हुआ हूँ। मेरे आत्मबल में वृद्धि हुई है। मैंने अनेक बार महसूस किया है कि मैं अपने काम को प्यार करने लगा हूँ। मुझमें निडरता आ गयी है। दृढ़ता, आत्मीयता, प्रतिबद्धता और मैत्री बढ़ी है। मैंने रवीश कुमार को देखते हुए जाना है कि कैसे विषम परिस्थिति में भी रचनात्मक, दोस्ताना, खुशमिजाज़ रहा जा सकता है। कैसे एक साथ बच्चों जैसा सुकुमार और परम दृढ़ हुआ जा सकता है। मैंने रवीश कुमार के कठोर राजनीतिक दृष्टि सम्पन्न मनुष्य और किसी फिल्मी गाने पर मचलते किशोर रूप को देखा है। 

मैं आज आपसे एक बात साझा करना चाहता हूं। मुझे अपनी इस उम्र में आकर एक इंसान मिला है जिसे मैं प्यार कर सकता हूँ। जिसकी हर बात पर यकीन कर सकता हूँ। मुझे गहराई से लगता है कि वह इंसान झूठ नहीं कह सकता। आप उस इंसान का नाम जानना चाहेंगे ? उसका नाम है सिद्धार्थ गौतम। सिद्धार्थ गौतम को दुनिया बुद्ध के नाम से जानती है। दुर्भाग्य से दुनिया ने एक गलत पाठ भी रट लिया है कि बुद्ध भगवान थे। अवतार थे। उन्होंने कोई धर्म चलाया। जबकि सच यह है कि बुद्ध इंसान थे। उन्होंने इंसानी संदेश दिए। बुद्ध कदाचित दुनिया के सबसे प्यारे और खरे इंसान हैं। उन्होंने एक बात कही है कि मैत्री, प्रेम से श्रेष्ठ है। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा होगा क्योंकि हम विराट विश्व में रहते है। प्रकृति से लेकर मनुष्य तक सबके प्रति मैत्री ही श्रेष्ठ और दोषरहित मानवीय गुण है। इसी से करुणा उत्पन्न होती है। मनुष्य में करुणा आ जाए तो वह सबका मित्र हो जाता है। उससे किसी का अहित नहीं हो सकता। रवीश जी मैंने महसूस किया है कि आपमें करुणा है। पत्रकारिता में रहते हुए इसी करुणा से आपकी भाषा बड़ी मैत्रीपूर्ण और मार्मिक हो गयी है। आपने इतना विरोध और धमकियां झेली हैं कि आपकी भाषा सहज ही दिल को छूने वाली और दोस्ताना है। उसमें विश्वास है। वह अपनी ओर खींचती है। आपकी भाषा में दर्द है। उसमें खुशमिजाजी भी है। क्योंकि आप उम्मीद से भरे हुए हैं। 

मैं दोहराता हूँ कि आप बिलकुल नहीं हारे हैं। जो लोग जीते हैं वे जीते नहीं हैं उन्होंने बस कुछ चीजों पर कब्ज़ा कर लिया है। वे विजेता नहीं हैं कब्जेदार हैं। लोकतांत्रिक राजनीति में बहुमत पर कब्ज़ा करना आसान है अगर मीडिया, पूंजी और धर्म मिल जाएं। मत जीतना असम्भव। उसके लिए गांधी बनना पड़ता है। गांधी ने बिल्कुल शुरुआत में ही विश्व के महानतम मानवतावादी तोल्स्तोय और रवीन्द्रनाथ ठाकुर का दिल जीत लिया था। मैं गंगा में खड़े होकर कह सकता हूँ कि मोदी जी चाहे जो और जितना जीत लें वे दुनिया के किसी भी महान मानवतावादी का दिल कभी नहीं जीत पाएंगे। उनमें वे खुबिया नहीं हैं। मोदी जी को अब तक हो चुके भारत के महान संतो का कभी समर्थन नहीं मिल सकता। यहीं मैं आपसे हार जीत के संबंध में एक पौराणिक यथार्थ को साझा करना चाहता हूँ। इसे ध्यान से पढ़ियेगा-

पुराणों में जिन्हें राक्षस कहा लिखा गया उनके पास सब हुआ करता था। रावण का ही उदाहरण ले लीजिए, तो उसके पास महा सत्ता थी, अकूत सोना था और विराट सेना यानी महा शक्ति थी। रावण परम तपस्वी था। वह महा उद्यमी था। लंका में विभीषण को छोड़कर शायद ही कोई था जिसने उसका विरोध किया हो अथवा प्रजा में विद्रोह भड़काया हो। संसार में शायद ही कोई रहा हो जिसके पास उससे बड़ी प्रभुता हो। वह क्या दृष्टि थी कि पुराणों के राक्षसों के पास सब कुछ था । वे युद्ध में कभी हारते नहीं थे। उन्हें जिस देवता से जो वरदान चाहिए वह मिलता था ? उनकी प्रजा कभी विद्रोह नहीं करती थी। फिर राक्षस कैसे हारते थे ? उनका अंत कैसे होता था ? वे कब हारते थे ? इन सवालों का पुराणों में एक ही उत्तर मिलता है कि राक्षस हमेशा जीतते। उनकी ताक़त, उनकी दहशत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जाती। वे पराजित कब होते थे ? इसका उत्तर है वे अंत में हारते थे। राक्षसों के अंत में ही हारने की प्रवृत्ति या नियम पुराणों में मिलते हैं। तो क्या पुराणों में अंत में ही हारने के लिए राक्षसों की कल्पना की गयी अथवा यह प्रकृति का कोई शाश्वत नियम है ? जो भी हो अब कोई भी जवाब देने के लिए कोई पुराणकार हमारे बीच नहीं है। फिर इस चर्चा का औचित्य क्या है ? इस चर्चा का अभिप्राय यह है कि पुराणकारों ने उद्धारकों की आवश्यकता को प्रमुख बना दिया। उन्होंने यह नियम बना दिया कि कोई नायक आएगा जो हमेशा जीतने वाले राक्षस राजा का अंत करेगा। बिना नायक के ऐसा असम्भव है। प्रजा अपने बलबूते ऐसा नहीं कर सकती यही स्थापना पुराणों की इस देश को सबसे भयानक देन है। यही कारण है कि पुराणों में प्रजा के विद्रोह की कोई कहानी नहीं मिलती। वहां सदैव नायक आता है। तो क्या यह व्यवस्था जान बूझकर है ? नायकों का पुराणकर्ताओं से कोई रिश्ता है ? इन दोनों का एक ही उत्तर है कि पुराण कथाओं के जितने भी नायक हैं वे पुराण लिखने कहने वाले ऋषियों के माता पिता, बंधु, सखा, गुरु हैं।

रवीश जी आप पढ़ते बहुत हैं। मैं आपसे बुद्ध का 'धम्मपद' पढ़ने का आग्रह करता हूँ। अम्बेडकर की लिखी बुद्ध की जीवनी पढ़ने का आग्रह करता हूँ। काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'उपसंहार' पढ़ने का आग्रह करता हूँ। आप इन्हें ज़रूर पढ़िए। आज गीता से अधिक ज़रूरी है भारत के लोगों का बुद्ध को पढ़ना। सम्भव है जिन बुजुर्ग ने आपको गीता दी उन्होंने आपमें अपना पुत्र देख लिया हो। वे आपकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो गए हों। सलिये गीता दी। ताकि वह आपके पास रहे तो गौलल्ला आप पर हमले न करें। मैं माफ़ी सहित कहना चाहता हूं गीता आज की किताब नहीं है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन से झूठ बोला। महाभारत के बाद अर्जुन को न भोगने लायक धरती मिली न स्वर्ग। महाभारत ने सब नष्ट कर दिया था। सब कुछ। कृष्ण के राजनीतिक जीवन, उसकी महत्वाकांक्षाएँ, सबका खोखलापन और समूर्ण हार जानने के लिए काशीनाथ सिंह का उपन्यास उपसंहार अप्रतिम है। पढ़ियेगा। अम्बेडकर वाली बुद्ध की जीवनी हिंदी में उपलब्ध है। इसकी भूमिका भदंत आनंद कौसल्यायन ने लिखी है। मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि जब आप ये किताबें पढ़ लें तो अपने दर्शकों से भी इनकी चर्चा कर लें मुझे संतोष होगा।

आखिरी बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि आप हारे नहीं हैं। मोदी जी भी जीते नहीं है। अगर उनकी जीत के बाद भारत हिन्दू राष्ट्र बनता है तो यह भारत की हार होगी। लेकिन मुझे उम्मीद है कि भारत ऐसा ही रहेगा। मोदी जी का नाम केवल लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में ही शुमार होकर रह जाएगा। भारत का विशाल हृदय उन्हें भीतर से बदलेगा भी और जहां आवश्यक होगा रोकेगा भी। होना भी यही चाहिए। मैं उनसे यही चाहता हूँ। मोदी जी आप महा जीते, आपको लोगों का समर्थन मिला। ठीक। आप राज करें। विकास करें। लेकिन हमारे भारत को वैसा ही रहने दें। जैसा बुद्ध, गांधी, भगत सिंह, अम्बेडकर से लेकर टैगोर तक इसे देखना चाहते रहे हैं। इसे नया भारत यानी हिन्दू राष्ट्र न बनाएं। भारत के लोग यह नहीं चाहते। कभी नहीं चाह सकते।

रवीश जी, मैं भविष्य में आपके अधिक सक्रिय तथा प्रतिबद्ध पत्रकारीय जीवन की कामना करते हुए कहना चाहता हूं कि हम सब यहीं हैं। इसी लोकतंत्र और देश में। आप हारे नहीं हैं। क्योंकि महामानव समुद्र भारत का लोकतांत्रिक समाजवादी, पंथ निरपेक्ष सपना हम सबका साझा सपना है। आपके द्वारा चलायी गयी विश्वविद्यालय और नौकरी सीरीज तथा अन्य सीरीज का भारत को ऋणी होना चाहिए। मुझे यक़ीन है कि भारत में कोई दूरदर्शी मनुष्य सत्ता में आया तो वह आपके इन कामों को देखकर ठोस सुधार करना चाहेगा। आप हिंदी पत्रकारिता के एकलव्य हैं। हम जानते हैं आप अपनी शिक्षा पर जियेंगे लेकिन अपना अंगूठा कभी नहीं देंगे। अनंत शुभकामनाओं सहित !
जय हिंद !

आपका
शशिभूषण

शुक्रवार, 17 मई 2019

वो वक़्त आएगा

- प्रशासन से शिकायत होती है ?
- नहीं। नहीं होती।
- क्यों ?
- अर्थहीन है।
- शिकायत का कोई अर्थ ही नहीं ?
- किसी के लिए हो सकता है। मेरे लिए नहीं है।
- इसकी वजह ?
- प्रशासन अभी शैशवावस्था में है।
- क्या मतलब ?
- यह अभी मातहत से कुछ कायदों को मनवा लेने और अपने पद से संबंधित कुछ कायदों को मानते हुए निजी सुविधाओं, रसूख और यश के उपभोग तक ही पहुंचा है।
- ऐसा तो नहीं। एक से एक अफसर हैं जो मिसाल और लोक प्रशासन की शान हैं। उन्होंने बड़े बड़े काम किये। सुधार कर रहे।
- व्यक्तिगत उदाहरण और अपवाद किसी भी क्षेत्र में मिल सकते हैं।
- आपके कहने का मतलब यह बहुतायत में नहीं ?
- हां। अभी वह यात्रा शुरू होनी है जब राजनीति का उद्देश्य लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, हक़, बराबरी और जन कल्याण तथा प्रशासन का उद्देश्य मनुष्यता एवं लोकसेवा होंगे।
- यह संभव है ?
- जब तक राजनीति जन कल्याणकारी नहीं होगी। फिर बेहतर नहीं होती रहेगी प्रशासन में मनुष्यता नहीं हो सकती।
- फिर जो लोग प्रशासन से असंतुष्ट होते हैं। नाराज़ होते हैं। शिकायती हैं उनका क्या ?
- सम्भव है वे एक दिन समाधान तक पहुँचे। लेकिन वह आंशिक और अल्पकालिक ही होगा। वैसे ज्यादातर लोग प्रशासन में ईमानदारी की कमी की ही शिकायत करते हैं। उनकी शिकायत के बाद अगर कोई दूसरा आता भी है तो दूसरे की ईमानदारी की गारंटी नहीं होती। लेकिन शिकायत करने वाला खुश होता है। मैंने कुछ किया। मेरी शिकायत से कुछ बदला।
- तो क्या भ्रष्टाचार वाकई कोई इश्यू नहीं ?
- हो सकता है। लेकिन ईमानदारी से भी पहले है मनुष्यता। वरना डाकू भी अपने गिरोह में अत्यंत ईमानदार होता है। अगर मनुष्यता ध्येय हो तो कोई इंसान बेईमान नहीं हो सकता। न राजनीति में न प्रशासन में न कहीं और।
- मनुष्यता के अलावा आपका कोई फ़र्ज़ नहीं ?
- मेरा फ़र्ज़ है अपना काम ठीक से, मेहनत से करना। बड़ों की बात सुनना। ग़लती हो जाने पर उसे नहीं दोहराना। शिकायती होकर नहीं जीना। जहां लगे मैं सही हूँ उसे निर्भीक होकर कहना और जरूरत पड़ने पर अच्छाई के लिए लड़ना।
- इससे आपके साथ न्याय होता रहेगा ?
- यह देखना उनका काम है जिन्हें न्याय करना है। कुछ अनसुनी, अन्यायों से इंसान को हार मानकर वैसे ही नहीं हो जाना चाहिए जैसे लोगों वह सही नहीं मानता।
- यही आपका सपना है ?
- नहीं। मेरा सपना है वह दिन देखना। जब राजनीति सामाजिक न्याय, बराबरी और हक़ के लिए होगी और प्रशासन में लोकसेवा और मनुष्यता सर्वोपरि होंगे।
- ऐसा दिन आएगा ?
- ज़रूर आएगा।
- कौन लाएगा ?
- बच्चे।
- आपको यकीन है ?
- मुझे यकीन है।
- आप घोर आदर्शवादी और आशावादी हैं।
- मैं शिक्षक हूँ।


- शशिभूषण

शुक्रवार, 10 मई 2019

साहित्य का तकाज़ा और नामवर सिंह


"यद्यपि जिन रचनाओं की चर्चा वे कर रहे थे, वे मेरी नहीं हरिशंकर परसाई की लिखी थीं। पर विषय बदलने के डर से तथा अपनी सहज नम्रतावश मैंने उनके कथन में सुधार करना उचित नहीं समझा। सोचा चलने दो, कौन यह नामवर सिंह है, जिसकी भूलें सुधारना साहित्य का तकाजा हो।" - शरद जोशी, 'कहहुँ लिखि कागद कोरे' शीर्षक व्यंग्य का अंश।

मैंने अपने विद्यालयी दिनों में यानी बालिग़ होने से पहले तत्कालीन लागू हिंदी पाठ्यपुस्तक में शरद जोशी के व्यंग्य 'कहहुँ लिखि कागद कोरे' के इसी अंश में पहली बार रीवा जैसे शहर में 'नामवर सिंह' लिखा पढ़ा था। तब तक मेरे लिए नामवर सिंह को जानना या उन्हें सुन रखना दोनों का सवाल ही नहीं उठता था। मैंने अपने हिंदी शिक्षक से पूछा नहीं कि नामवर सिंह कौन हैं ? इस व्यंग्य का क्या अभिप्राय है ? शिक्षक ने मानो केवल इतना ही कहा- नामवरों का क्या भरोसा ! मैंने चौंकते हुए अपनी बाल बुद्धि से सोचा- नामवर सिंह यानी साहित्य का तीसमारखाँ टाईप। यदि आगे साहित्य में डूबना है तो नामवर सिंह से सतर्क रहना होगा अथवा उनकी भूल सुधार सकने की तैयारी रखनी होगी। 

इसके बाद मैंने राज्य और संघ लोक सेवा आयोग के हिंदी विषय लेने वाले प्रतियोगियों से नामवर सिंह की उद्धरणों वाली बाक़ायदा चर्चा सुनी- ये कहा, वो कहा, इस पर विवाद है, इस स्थापना को कोई काट नहीं सकता आदि आदि। मैं प्रभावित हुआ। होना ही था। फिर मैथ्स ग्रेड्यूएशन के बाद हिंदी से एम ए करने विश्विद्यालय गया तो नामवर सिंह को विधिवत पढ़ा - लेख, भाषण, किताबें जो भी प्रो कमला प्रसाद की बनायी हिंदी विभाग की उस लाइब्रेरी में उपलब्ध था। आगे उन्हें सुनने का भी मौका मिला। उन्हीं सालों एक मशहूर शेर मेरे जेहन से टकराया था- हुए नामवर बेनिशां कैसे कैसे/ ज़मी खा गयी आसमां कैसे कैसे। लेकिन नामवर सिंह तो अमर हैं, ख्याति में सर्वोपरि। आलोचकों में सिरमौर। विद्वानों में बादशाह। इनका कभी अंत न होगा- ख़याल आता।

कुछ भी हो शरद जोशी की इस एक पंक्ति ने असर निर्णायक किया, करती है इसमें दो मत नहीं। व्यंग्य का प्रभाव अमिट होता ही है। मेरे भीतर नामवर सिंह की भूलें तजवीज करने की प्रवृत्ति यहीं से आयी। यह हुआ तो नामवर सिंह के प्रति श्रद्धा विकलांग होने से बची रही। मैंने गौर किया नामवर सिंह की मुस्कुराती तस्वीरें व्यंग्य, आक्रामकता और बेपरवाह दृढ़ता की तस्वीरें हैं। उनके चेहरे में हजारी प्रसाद द्विवेदी के चेहरे की उदात्त सौम्यता की जगह व्यंग्य है। यह अनायास नहीं है कि नामवर सिंह ने बड़े बड़ों को ध्वस्त करने के लिए व्यंग्यपूर्ण बारीक विवेचना और किसी को भी स्थापित करने के लिए उदार व्याख्या का सहारा लिया। आइए संक्षेप में नामवर सिंह की कुछ भूलों पर गौर करते हैं -

नामवर सिंह का लिखना छोड़कर बोलने पर आ जाना कालांतर में उनके आलोचक की हार साबित हुई। वे लोकप्रिय व्याख्याता रह गए। नामवर सिंह चाहते तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह इतिहास लिख सकते थे। लिखने पर केंद्रित रहते उन विरोधाभासों, अंतर्विरोधों परस्पर विरोधी निष्पत्तियों, परिवर्तनशील स्थापनाओं को स्वतः संपादित कर उस दोष से बच सकते थे जो बोलने के साथ जुड़े होते हैं। यह कहना अच्छा लगता है कि नामवर सिंह ने हिंदी साहित्यालोचन में ओशो का दर्जा हासिल किया। लेकिन इसके ख़तरे भी सर्वविदित हैं। अध्यात्म का सम्बंध परमात्मा से है और साहित्य का यथार्थ से। परमात्मा किसी को नहीं मिलता। यथार्थ सबका अपना होता है। ओशो अंत में ध्यान कराते थे और साथ नृत्य भी करते थे। लेकिन नामवर सिंह को हमेशा अपने श्रोताओं को उनके हाल पर छोड़कर अकेले ही प्रोफेसर, कुलपति आदि रहना पड़ा। छूटे हुए कुछ श्रोता, पाठक भी थे और स्वयं लेखक भी। वे सुनकर मुग्ध हो सकते थे तो बाद में चिढ़ भी सकते थे। ऐसा हुआ भी। यह अब तक का शुक्र है कि नामवर सिंह हरिशंकर परसाई और कांतिकुमार जैन के वैसे हत्थे नहीं चढ़े जैसे रजनीश। इसके पीछे दो कारण हैं पहला परसाई अब हैं नहीं दूसरा कांतिकुमार जैन प्रोफेसर रह चुके हैं। वे शिवमंगल सिंह सुमन सरीखा यानी मरने के पहले और मरने के बाद जैसा दांव नामवर सिंह के साथ नहीं खेल सकते।

नामवर सिंह भले ही राजेन्द्र यादव से टकराते रहे हों मगर वे अपनी वाचिक प्रतिष्ठा के शिखर पर स्नोवा बार्नो को स्त्री कहानीकार की तरह ही महत्वपूर्ण मान पाए। यह बाक़ायदा शोध का विषय है कि नामवर सिंह जैसा विमर्श विरोधी आलोचक एक पुरुष को स्त्री नाम से लिखता पाकर उसे बड़ी स्त्री कहानीकार मान बैठा और बाद में सब कुछ जानने के बावजूद अनजान बना रहा। इतना ही नहीं नामवर सिंह ने ज्योति कुमारी की किताब के लोकार्पण में भी काफ़ी कुछ बोला और नाना प्रकार की दूसरी किताबों, साहित्यकारों पर भी भाषण दिए जो बाद में सही नहीं उतरे।

हिंदी दलित लेखन भी नामवर सिंह के मज़बूत हाथ न पा सका। काफ़ी बाद में उन्होंने यह स्वीकार किया कि दलित आत्मकथाओं का यथार्थ गंभीर और विचारणीय है मगर वे इस पर डंटे रहे कि साहित्य की कसौटी में केवल स्वानुभूति को मुख्य नहीं माना जा सकता। इसके पीछे यही कारण समझ में आता है कि नामवर सिंह आत्माभिव्यक्ति की भावना को छायावाद युगीन प्रवृत्ति मानते रहे। जहाँ साहित्यिक उदात्तता थी। चूंकि वे छायावाद में उस व्यक्तिवादी भावना का उभार लक्षित कर ही चुके थे जिसमें आत्मकथा लेखन की परंपरा सी चल पड़ी थी इसलिए वे दलित लेखन से साहित्यिक कलात्मक उत्कृष्टता की मांग पर अडिग रहे किंतु दलित साहित्य को सामाजिक यथार्थ के अध्ययन के लिए उपयुक्त भी मानते रहे।

नामवर सिंह की आलोचना विरासत भी जो अब हमारे सामने है वह उनकी भयंकर भूलों से भरी हुई है। इसमें दो तरह की प्रवृत्तियां मुख्य हैं। पहली वह जिसमें नामवर सिंह ने दूसरे आलोचकों को सामने नहीं आने दिया अथवा विनम्रता में दबकर कहना चाहिए उनके तेज में दूसरे मंद ही रहे और कालांतर में बुझ गए। दूसरी वह प्रवृत्ति जिसके आधे में वे आलोचक हैं जो हैं तो नामवर अनुगामी लेकिन वे आलोचना को दूसरी परम्परा से आगे नहीं ले जा पाए यानी नामवर सिंह की उत्तराधिकारी आलोचना की अनुपस्थिति। यहीं कमाल यह है कि जहां कुछ टीकाकार बाद के आलोचकों को नामवर सिंह की जेब से निकला पाते हैं वहीं कुछ को उनकी जेब फाड़कर निकला। कुल मिलाकर इसमें नामवर सिंह की भूलें भी बराबर की उत्तरदायी मानी जायेगी कि वे हिंदी और साहित्य के लोकतंत्र में अधिनायक बनकर रहे। उन्होंने अपनी इंटेलिजेंट स्थापनाओं से हिंदी समाज को जितना चमत्कृत किया उतना ही शब्दों को भी यथावसर बारीक पकड़ने वाली विदग्धता से किसी को भी उठाया गिराया। उदाहरण के लिए यह नामवर सिंह ही थे जो कह सकते थे- कविता एक खेल है। उन्होंने ज़रूरत पड़ने पर शब्दों से खेल सकने वाले को भी बड़ा कवि साबित किया।

नामवर सिंह ने कृतियों के मूल्यांकन के संबंध में भी भूलें की। उन्होंने धर्मवीर भारती के कालजयी नाटक 'अंधा युग' को सिर्फ़ इसलिए ख़ारिज़ कर दिया था क्योंकि लेखक की विचारधारा दूसरी थी। यह अच्छा है कि अब पुरानी किताबों मे गोते लगाने को अच्छा नहीं माना जाता वरना नामवर सिंह की पुरानी किताब इतिहास और आलोचना उनके माथे आ जाती। हिंदी में भला वह कौन होगा जो अंधा युग के लिए आलोचक को माफ़ कर दे वो भले नामवर सिंह ही क्यों न हो। क्या यह कहना गप होगा कि भारत में जितने अंधा युग के मंचन हो चुके और होते जा रहे उतने तो नामवर सिंह ने व्याख्यान भी न दिए होंगे। ध्यान रहे इसी के समांतर उन्होंने निर्मल वर्मा को ख़ूब सराहा। यह अलग बात है कि निर्मल वर्मा को मोहन राकेश जैसा पाठकों का प्यार न मिला। शैलेश मटियानी जैसा उनका लोक महत्व तो शायद ही कभी स्थापित हो पाए। नामवर सिंह ने शिवमूर्ति और संजीव को भी कम ही पहचाना। 

उठाना गिराना, खंडन महिमामंडन, विवाद, सत्ता संधान नामवर सिंह के आजीवन प्रिय कर्म रहे। उन्होंने जिसे निशाने पर लिया उसे लगभग बिरादरी बाहर होना पड़ा। यह नामवर सिंह की खासियत रही कि उन्होंने जिसे लक्ष्य किया उसे देखते हुए अपनी एक आँख सदैव दबाकर रखी। व्यंग्य और अचूक प्रसंगों से ऐसा बेधा भेदा कि उन्हें पढ़ने के बाद संबंधित साहित्यकार में पाठक की रुचि ख़त्म हो जाये। यक़ीन न हो तो रामविलास शर्मा, अशोक वाजपेयी आदि के कृतित्व पर उन्हें पढ़ लीजिये। अशोक वाजपेयी को कवि और रामविलास शर्मा को आधुनिक प्रगतिशील मानने में सदैव संकोच रहेगा। इस प्रवृत्ति का अपवाद भी नामवर सिंह में ही मिलता है। उन्हें पढ़ने के बाद आपको अज्ञेय की 'नाच' कविता से प्रेम हो जाएगा। यह नामवर सिंह ही हैं जिनके कारण अगर आप अवसरवादी हैं तो आपको अटल जी से नफ़रत और राजनाथ सिंह से मोहब्बत साथ साथ हो सकती है। बावजूद इसके एक भाजपा का संस्थापक सदस्य रहा है दूसरा अध्यक्ष। यहां इस बात का कोई खास मतलब नहीं है कि अशोक वाजपेयी नामवर सिंह को ही अचूक अवसरवादी कहते हैं। यह सर्वविदित है कि नामवर सिंह न होते तो मुक्तिबोध को गांधीवादी साबित कर डालने में अशोक वाजपेयी को कोई रोक न पाता।

नामवर सिंह की चुप्पियां भी उनकी भूल मानी गयी हैं। लेकिन उन्होंने इतना बोला है कि उनकी चुप्पियों का ग़लत अर्थ निकालना असंभव है। इस संबंध में काशीनाथ सिंह के एक दृष्टांत का स्मरण ही उचित होगा कि नामवर सिंह उस शेर की तरह रहे जो उठकर बोला तो जंगल में सब चुप हुए, शांति हुई और जब जंगल में शोर बढ़ा तो नामवर चुप ही रहे। क्योंकि जब सब बोल रहे हों तो शेर चुप ही रहता है। अपनी भूलों और खूबियों के शिखर से बने नामवर सिंह के आखिरी दिनों का यही चित्र उभरता है -

जिसमें मज़बूत तना, ठूंठ डालें पर हरहराते फुनई (शीर्ष) रह जाते हैं नदी किनारे के ऐसे पुराने पीपल सरीखे रह गए हैं नामवर सिंह। उनकी उपलब्धि जड़ों को ढंके मिट्टी सदृश हिंदी समाज के कगार बड़ी छोटी लहरों के साथ टूटकर -घुलकर नदी में मिल रहे हैं। गिनी जा सकने वाली नामवर सिंह की देह की नसें हिंदी की धमनी-शिरा हैं। संस्कृत, अपभ्रंश, हिंदी-उर्दू की मनीषा और विश्व साहित्य की हवा पानी से ऊंचे उठे इस पीपल की पत्तियां आज भी सामाजिक -राजनीतिक- सांस्कृतिक वायुमंडल की आती -जाती सांस पर डोलती हैं। चुप्पियां तोड़ती हैं। ऐसे पेड़ हैं नामवर सिंह जिनकी बची -खुची पत्तियों के लिए आज भी हँसिया, कुल्हाड़ी, रस्सी लेकर चढ़ते हैं कुछ महत्वाकांक्षी, कुछ सामंती, कुछ वर्चस्ववादी अकादमिक दुनिया के, कुछ बेरोजगार, भूमिहीन युवा और कुछ विस्तारवादी साहित्यिक सामंत। फिर भी नामवर सिंह है कि आज भी केवल अपने कह सकने की आन पर रहते हैं। चाहे वक्तव्य कितनी ही बड़ी भूल या कायरता साबित होने जा रहा हो। वो नामवर सिंह ही हैं जो कन्नड़ लेखक एम एम कलबुर्गी की दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी ताकतों द्वारा नृशंस हत्या के बाद लेखकों के सम्मान वापसी आंदोलन को लोकप्रियता प्राप्ति का उद्यम बताकर मौन साध लेते हैं।

पंचतंत्र की एक उक्ति के अनुसार जो विद्वान या व्यक्ति राजा को प्रिय होगा वह लोक की नजर में दुष्ट होगा। जो लोक को प्रिय होगा वह राजा की नजर में संदिग्ध होगा। हिंदी के नामवर सिंह इसके अपवाद हैं। वे जितने हिंदी समाज में स्वीकृत हुए उतने ही संस्थानों, विश्वविद्यालयों और साहित्य के या भाषा के सत्ता केंद्रों में। नामवर सिंह के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने जितना दिया उससे कई गुना ज्यादा पाया। यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है लेकिन सच्चाई यही है। आरक्षण पर नामवर सिंह की राय कि क्या सवर्णों के बच्चे भूखों मरेंगे, कटोरा लेकर भीख मांगेंगे ? उनकी आखिरी भूल मानी जा सकती है। दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से जिसे हमारे समय के फासीवाद की ओर झुके पूंजीवादी लोकतंत्र ने 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण देकर स्थायी कर दिया। यह हिंदी का सौभाग्य होगा कि सेलेब्रेटी का जीवन जीकर गए पब्लिक इंटेलेचुअल नामवर सिंह की भूलों को सुधारा जाए । मगर इसकी संभावना कम ही है कि ऐसी किसी भावना तक को मूर्खता, कृतघ्नता अथवा छोटा मुँह बड़ी बात नहीं समझ लिया जाएगा। इसलिए अंत में नामवर सिंह को ही प्रिय रहा एक शेर-

हमको सज़ा मिली है ये हयात से
समझ हरेक राज़ को मगर फ़रेब खाएजा

- शशिभूषण

(उद्भावना, जनवरी-मार्च 2019 में प्रकाशित)

शिक्षकों की शिक्षण गुणवत्ता के मूल्यांकन का आधार PI मान क्यों नहीं हो सकता !

इन दिनों विद्यालयी शिक्षा में बोर्ड कक्षाओं के परीक्षा परिणाम पर आधारित PI की गणना कर शिक्षकों के श्रेणीकरण का अभियान जोरों पर है। आइए जानते हैं कि PI मान किस प्रकार शिक्षकों की शिक्षण गुणवत्ता आकलन का मानक आधार नहीं हो सकता:- 

वर्तमान ग्रेडिंग अनुत्तीर्ण विद्यार्थियों को और उनके द्वारा प्राप्त अंको को शून्य मानती है। जबकि किसी एक विषय में अनुत्तीर्ण विद्यार्थी के पास एक और परीक्षा का अवसर होता है। विद्यार्थी के अनुत्तीर्ण होने के पीछे अनेक कारण होते हैं। किसी विद्यार्थी के परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने का अभिप्राय यह नहीं हो सकता कि वह अब शैक्षणिक संसार में अनुपस्थित है।

अंको के विषयवार ग्रेड निर्धारण में उत्तीर्ण विद्यार्थियों को शामिल किया जाता है। कुल उत्तीर्ण विद्यार्थियों के ऊपर से आठवें हिस्से को A1 ग्रेड दे दिया जाता है। आगे के ग्रेड A2, B1, B2 आदि इसी प्रकार क्रमश: शेष आठवें भाग को आवंटित किए जाते हैं। एक समान अंक पाने वाले उत्तीर्ण विद्यार्थियों की संख्या ग्रेडिंग को प्रभावित करती है। इतना ही नहीं एक ही अंक के लिए अलग-अलग विषय में अलग-अलग ग्रेड होंगे। यह अंतर दहाई तक भी पहुँच सकता है।

ग्रेड निर्धारण विद्यार्थियों को मनुष्य समाज की अद्वितीय इकाई नहीं केवल प्राप्तांकों वाली संख्या मानता है। पी आई शिक्षण कार्य को अंकीय मान से आँकता है। यदि पीआई उपलब्धि को मानक मान लिया जाये तो शिक्षा का लक्ष्य परीक्षा रह जायेगा। ऐसी स्थिति में संगीत, आर्ट, खेलकूद, पुस्तकालय, कार्यानुभव आदि के शिक्षकों के मूल्यांकन के लिए क्या पैरामीटर होंगे बड़ा सवाल होगा ?

वर्तमान ग्रेड निर्धारण प्राप्त अंकों के संबंध में मॉडरेशन पॉलिसी के साथ लागू है। मॉडरेशन पॉलिसी निर्दोष नहीं है। यह कम अंक अर्जित करने वाले विद्यार्थी को अधिक अंक पाने वाले विद्यार्थी के समकक्ष खड़ा कर देती है। मॉडरेशन पॉलिसी को निरस्त किए जाने संबंधी सुझावों- आदेशों को नज़र अंदाज किया जा रहा है। यदि कुछ समाचार वेबसाईट की खबरों को सच मानें तो मॉडरेशन पॉलिसी को हटाने के आदेश दिल्ली हाई कोर्ट और मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा भी दिये जा चुके हैं।

क्या अनुत्तीर्ण विद्यार्थी पर शिक्षक द्वारा किया गया शिक्षण कार्य शून्य होता है ? क्या अधिकतम ग्रेड पाने वाले विद्यार्थी का सारा श्रेय शिक्षक को जाता है ? क्या शिक्षकों के मूल्यांकन की पी आई पद्धति में असमान कक्षाओं, बेशुमार कोचिंग संस्थानों, विद्यार्थियों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का उनके प्राप्तांकों पर पड़ने वाले प्रभाव को घटाने का कोई उपाय है ?

मान लीजिए किसी कक्षा में केवल 1 विद्यार्थी है। यदि वह A 1 ग्रेड ले आए तो शिक्षक का पीआई 100 होगा। A1 ग्रेड का अंक 90 से लेकर 100 के बीच कुछ भी हो सकता है। विद्यार्थी के प्राप्तांक और शिक्षक के पीआई का यह अंतर शत प्रतिशत उपलब्धि की अवधारणा को ही ध्वस्त कर देता है। विद्यार्थी का प्राप्तांक 91 और शिक्षक का पी आई 100 यह अजीब नहीं है? पी आई पर विद्यार्थियों की संख्या का भी खासा प्रभाव पड़ता है।

अंक और ग्रेड अलग-अलग प्रदान करना। विद्यार्थियों के लिए अंक को मुख्य मानना तथा ग्रेड मान को शिक्षकों की पी आई के लिए मुख्य मानना असंगत है। जहां आवश्यक हो पी आई से बेहतर विद्यार्थियों द्वारा अर्जित अंकों के मीन (माध्य) को माना जा सकता है। कुछ लोग यह सवाल उठा सकते हैं कि यदि पी आई नहीं तो फिर शिक्षकों के मूल्यांकन का क्या आधार हो सकता है ? खराब प्रदर्शन करने वाले शिक्षक और अच्छा प्रदर्शन करने वाले शिक्षक कैसे पहचाने जायेंगे ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि शिक्षण का मापन पी आई से करना शिक्षकों की पहचान को और धुंधला कर सकता है।

क्या शिक्षण का कोई अंकीय मान हो सकता है ? केवल बोर्ड कक्षाओं के परीक्षा परिणाम और उसके पी आई के आधार पर शिक्षण गुणवत्ता का मानकीकरण शैक्षिक आयामों का संकुचन है। यहीं यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि फिर प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के शिक्षकों को किस आधार पर अच्छे और कम अच्छे शिक्षकों में वर्गीकृत किया जाएगा ?

किन्ही भी 2 शिक्षकों की तुलना पी आई के आधार पर तब तक नहीं की जा सकती जब तक दोनों शिक्षकों का विषय एक ही न हो और उनके विद्यार्थियों की उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन एक ही व्यक्ति ने न किया हो। मूल्यांकन निर्दोष साबित होना भी आवश्यक है। जाहिर है यह असंभव जैसा है। यदि संस्कृत विषय में 60 पीआई लाने वाला शिक्षक विज्ञान विषय में 55 पीआई लाने वाले शिक्षक से खुद को श्रेष्ठ मानने लगे तो अव्वल यह तुलना ग़लत होगी दूसरे उपयोगिता का सवाल भी उठ जायेगा।

शिक्षण गुणवत्ता के आकलन का आधार बोर्ड के उत्तीर्ण विद्यार्थियों के ग्रेड पर निर्भर पी आई नहीं हो सकता। शिक्षकों का सतत समावेशी निरीक्षण ही युक्तिसंगत ठहरता है। उनके द्वारा पढ़ायी जाने वाली अन्य कक्षाएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं।

शिक्षा का परीक्षा केंद्रित होते जाना स्वयं एक बड़ा संकट है। केवल बोर्ड कक्षा के परीक्षा परिणाम के पी आई के आधार पर शिक्षकों का कुशल और अकुशल में वर्गीकरण अन्य अनेक संकटों को जन्म देगा। शिक्षकों के बीच मान्य उत्कृष्टता भेदभाव पूर्ण होगी। क्योंकि अंततः एक शिक्षक शिक्षक ही होता है। कक्षाओं के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं। 

शिक्षकों से अपील है कि यदि आप उचित समझें तो उपर्युक्त बिंदुओं पर संशोधन या सुझाव या अपनी राय रखें। परीक्षा केंद्रित हो चली शिक्षा को वास्तविक व्यापक लक्ष्यों की ओर मोड़ने के लिए शुद्ध प्रयत्न करें और निर्मल बुद्धि से नीति निर्धारकों के सम्मुख अपने मत रखें। 

- शशिभूषण 



सिल्क स्मिता हो या हिटलर दुखी मरते हैं


किसी भी प्रकार से, किसी भी रास्ते से, किसी भी प्रकार के उद्योग द्वारा ,भले तो भले बुरे कर्मों के द्वारा भी जीवन में सबसे बड़ी उपलब्धि, सबसे अधिक धन, सबसे बड़ा पद और सबसे अधिक यश पाने की महत्वाकांक्षा रखने वालों को ज्यादा नहीं एक बार फिल्म 'डर्टी पिक्चर' ही देख लेनी चाहिए। इस फिल्म में फ़िल्मी डांसर सिल्क स्मिता का चरित्र है। सिल्क स्मिता फिल्मी व्यावसायिक कामुकता की नृत्यांगना थी। जिसने फिल्मों को इसलिए चुना कि उसे पैसा और प्रसिद्धि मिल सके। वह महत्वाकांक्षा का शिकार थी। उसने अभिनय की बजाए, चरित्र निभाने की बजाए अपने युवा अंगो का उत्तेजक प्रदर्शन करना स्वीकार किया। उसने ऐसा नृत्य करना स्वीकार किया जो दर्शकों की वासना यानी उनकी काम उत्तेजना को उद्दीप्त कर दे। इस प्रकार उसे कुछ लोग मिले जिन्होंने उसे अत्यंत प्रोत्साहित किया। उन्होंने सिल्क स्मिता को इस तरह प्रोत्साहित किया कि वह कभी समझ ही नहीं पायी मैं उनकी स्वार्थसिद्धि का साधन हूँ। फिर क्या था उसे सब कुछ मिला, और उसने किसी की परवाह नहीं की। आलोचकों और नेक सलाहकारों को ठेंगे पर रखा। उसने फ़िक्र की ही नहीं। किसी की भी नहीं। उसे दर्शकों की सीटियां, सीत्कार, कामुक हंसी और उत्तेजक दशाएं बड़ी प्रिय विजयी लगीं। वह कथित सफलता की सीढ़ी चढ़ती गयी। 

लेकिन धीरे-धीरे उसकी यह महत्वाकांक्षा विकृत होती गयी। उसमें अहंकार भी चढ़ता गया। हिंसा, छल, दूसरों को अपमानित करने, नीचा दिखाने का भाव बढ़ता गया। उसने घर तोड़े। उसने प्रतियोगियों को जलाया। उसे यकीन हो चला था कोई मेरा क्या कर लेगा ? वह प्रतिहिंसा और बदले की भावना में भी बहुत कुछ कर गुजरने में धँसती चली गयी। बिना कुछ सोचे। बिना परिणाम की चिंता किये। सिर्फ आगे, और आगे देखती गयी। अंत में क्या हुआ? इसी फ़िल्म में एक शांत स्मृति यानी मित्र का स्मरण है। वह कहता है- उसकी यानी सिल्क की जिंदगी में सब ठीक चल रहा था। लेकिन तभी तक जब तक उसने लोगों के बारे में नहीं सोचा। अपने बारे में लोगों की राय के बारे में नहीं सोचा। वह आगे बढ़ती गयी। सफलता के पायदान चढ़ती गयी। फिर उसकी जिंदगी में ढलान आया। इसी बीच उसने लोगों की राय पर ध्यान दिया। वह पलटकर सोचने लगी। अवसाद में घिर गयी। उसका सब बिखरने लगा। टूटने लगा। उसका आत्मविश्वास और खुद पर यक़ीन ध्वस्त हो गया। एक दिन वह अपने घर में मृत मिली। 

सिल्क स्मिता की यह कहानी बहुत कुछ कहती है। इसमें बड़े बड़े संकेत हैं। ग़ौर से देखिये कोई चैंपियन आपके आसपास भी तो अपने बारे में लोगों की राय याद नहीं कर रहा ? वह सहानुभूति बटोरने दूसरों की केवल निंदा तो नहीं करता जा रहा? यदि हाँ तो समझ लीजिए। इतना इशारा काफ़ी है। यह हताशा है। अपनी भविष्यहीनता की मुनादी है। ध्यान रखिये हिटलर मारे नहीं जाते। वे आत्महत्या करते हैं। जिसने भी ग़लत राह चुनी उसकी सज़ा उसे खुद से मिलती है। यदि आप हिटलर के अंतिम 6 महीनों का किस्सा जानेंगे तो आपको यकीन हो जाएगा कि उस नृशंस तानाशाह ने यही सोचा था लोग मुझे कायर समझेंगे ? मैंने इतने लाख लोग मौत के घाट उतार दिए फिर भी मुझे कायर पराजित समझा जाएगा। बदले में उसने क्या किया ? खुद को वैसी ही मौत दी जैसी उसके कुत्ते को मिली। यही होता है। यही होता आया है। ग़लत इंसान दुख पाता है। जिसके हृदय में अवैर और करुणा है वह सुख पाता है। यही संसार का नियम है। सिल्क स्मिता हो या हिटलर दुखी मरते हैं। उन्हें कोई सुख और शांति नही दे सकता।

- शशिभूषण