रविवार, 25 अक्तूबर 2020

नवीन सागर एक बड़ी कहानी जैसे हैं, जिसका एक टुकड़ा हमने बयान किया; बाकी टुकड़ा कोई दूसरा बयान करेगा

“अभी बेड रेस्ट पर हूँ। रेस्ट तो बेड ही कर रहा है मैं तो उस पर एक बीड़ी के लिए तरसती हुई घुटन सा पड़ा हूँ। माँ आ गयी है। जो दिन में पच्चीस बार मेरे कमरे में डरकर झाँकती है। वे भगवान से नाराज़ हैं। कि उन्हें कभी कोई बीमारी नहीं हुई जबकि उनके बेटों को कुछ भी हो जाता है।” एक पत्र में नवीन सागर। 

ऊपर ही उपर से देखने पर उपर्युक्त पत्रांश ममता की जीवनी है। माँ होने की करुणा। लेकिन हिंदी साहित्यिक जगत में यह माँ, हिंदी कहानी है। नवीन सागर कहानीकार। इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि नवीन सागर (29 नवंबर 1948 – 14 अप्रैल 2000) का पहला कविता संग्रह ‘नींद से लंबी रात’ उनके जीवन के 48वें साल 1996 में प्रकाशित हुआ। कहानीकार (पहला संग्रह ‘उसका स्कूल’ 1989) के रूप में आज उनका कहीं नाम नहीं लिया जाता। जबकि अनेक कुलेखकों की कट्टा भर किताबें प्रकाशित हैं। कई अलेखकों के घर पुरस्कारों से भरे हैं। यह अनायास ही होगा कि जिन्होंने नवीन सागर को पढ़ा होगा फिर चाहे कविताएँ हों या कहानियाँ उन्हें मुक्तिबोध, रेणु और स्वदेश दीपक की याद आ जायेगी। रेणु को अपना उपन्यास ‘मैला आँचल’ खुद छपवाना पड़ा। कालांतर में उन्हें आंचलिक कथाकार के अकादमिक बस्ते में डाल दिया गया। स्वदेश दीपक का कहीं कोई समाचार नहीं है कि वे अब कहाँ हैं ? मुक्तिबोध के बारे में यह तसल्ली की बात हो सकती है कि साहित्य-समाज कम से कम जानता तो है कि उनके साथ क्या-क्या हुआ ! यहीं यह दर्ज़ करना उपयुक्त होगा कि कहानीकार नियति में मुक्तिबोध और नवीन सागर में मार्मिक साम्य है। आज तक मुक्तिबोध को कहानीकार की तरह नहीं पुकारा जाता जबकि उन्होंने नयी कहानी के दौर के किसी कहानीकार से कम यादगार कहानियां नहीं लिखीं। यही कहानीकार नवीन सागर के साथ है। बतौर लेखक नवीन सागर की पहली महत्वपूर्ण किताब ‘उसका स्कूल’ कहानी संग्रह ही है। इस संग्रह की कहानियाँ सत्तर-अस्सी के दशक के किसी हिंदी कहानीकार की कहानियों से कमतर नहीं हैं। बल्कि कहना चाहिए कि नवीन सागर के कहानीकार की उपेक्षा का उनके समकालीन कहानीकारों को फ़ायदा ही मिला। नवीन सागर की कहानियों की भूमि वाली उनसे कमज़ोर कहानियाँ चर्चा में बनी रहीं। 

नवीन सागर ऐसे हैं भी कि अगर उनकी कविताओं का ध्यान करें तो कहानियों के बारे में मन चला जाता है। अगर कहानियों पर राय बनाने बैठें तो कविताएं दोहराने का दिल हो आता है। कहीं जो कविता कहानी दोनों के विषय में खुद को समेटने के प्रयास में बैठें तो उनका बाल साहित्य और चित्र आमंत्रित करने लगते हैं। इतना ही नहीं इंसान नवीन सागर का प्रेम, मैत्री, सपने, बड़प्पन, परिश्रम अपने जादुई प्रभाव में ही खींच लेते हैं। हृदय में लालसा भर जाती है काश ! हम भी नवीन सागर हो पाते। कुछ-कुछ हम भी ऐसी ही फितरत वाले हैं हाय पूरे ही नवीन सागर क्यों न हुए! वैसे ही सुदर्शन होते। वैसे ही दोस्त, प्रेमी, पिता और मेज़बान हो पाते। नवीन सागर को कम उम्र मिली तो क्या हुआ जीवन-लेखन ऐसा ही जिजीविषा-संवेदना से भरा होना चाहिए। कमाल की बात यह है कि यह सब मेरे भीतर की फीलिंग्स हैं। मैं नवीन सागर से कभी मिला नहीं। मैंने नवीन सागर को कभी दूर से भी नहीं देखा। बल्कि कहिए नवीन सागर यह नाम ही मैंने उनकी मृत्यु के 10 साल बाद सुना। लेकिन जब सुना, पढ़ा और जाना नवीन सागर मेरी आत्मा के मित्र हो गए। इस प्रेम में डूबते चले जाने में जिन लेखकों व्यक्तियों का बड़ा हाथ है उनमें से कुछ के नाम हैं- विष्णु खरे, कमला प्रसाद, ज्योत्सना मिलन, उदय प्रकाश, विष्णु नागर, राजकुमार केसवानी, मुकेश वर्मा, विनीत तिवारी, प्रयाग शुक्ल, समता सागर, और स्वयं नवीन सागर का रचना संसार। 

विरले साहित्यकार हुए हैं जिन्होने कविता, कथा, बाल साहित्य, चित्रकला चारों प्रकार की मिट्टी में अपने लेखकीय श्रम, कला प्रतिभा, रचनात्मकता और प्रतिबद्धता से संवेदना, मनुष्यता, सौंदर्य, शिल्प, प्रयोग, व्यंजना का हरापन पैदा किया, भावत्मकता को सींचा और उसे विचार पुष्ट लहलहाया है। जाने-माने कवि समीक्षक विष्णु खरे नवीन सागर के बारे में लिखते हैं- “यदि हम मुक्तिबोध को सूर्य मानें और शमशेर बहादुर सिंह, विनोद कुमार शुक्ल और नवीन सागर को उनसे अपने-अपने तरीक़े से ऊर्जा पाने वाले ग्रह तो हम पायेंगे कि स्वायत्त होते हुए भी, शमशेर अपनी परिक्रमा में मुक्तिबोध के सबसे नज़दीक आ जाते हैं, विनोद उनसे कम और नवीन विनोद से भी कम।“ विष्णु खरे अपनी इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए फिर एक जगह लिखते हैं- “मुक्तिबोध और नवीन सागर को परस्पर समकक्ष ठहराना दोनों के प्रति एक मूर्खतापूर्ण अन्याय होगा लेकिन निम्नमध्यमवर्गीय विपन्नता, यंत्रणा, असुरक्षा, आतंक और अकेला कर दिए जाने को दोनों अपनी कविता में मार्मिक रूप से लाते हैं।“ 

किसी कहानी की इससे बेहतर समीक्षा नहीं हो सकती कि उसे सुना दिया जाये। कहानी सुनाने में अगर यह प्रयत्न शामिल हो कि कहानी बिल्कुल वैसे ही सुनाई जाये जैसी कि वह है यानी कहानी का कोई संकेत, मंतव्य और मर्म छूटने न पाये तो कहने की ज़रूरत नहीं कि कहानी भूलने लायक नहीं है। यदि कहानी सुनाने की यह अभिलाषा और लालसा किसी ग़ैर पेशेवर वाचक, आलोचक, नागरिक, शिक्षक और पालक में मिले तो समझिए कहानी सफल है। अकादमिक जगत में, आलोचकों की दुनिया में उस कहानी का चाहे जो मूल्यांकन होता हो या फिर हुआ ही न हो फिर भी वह कहानी बड़े काम की है। ऐसी कहानियों की ज़रूरत समाज को हमेशा पड़ती है। बल्कि कहना चाहिए ऐसी कहानियों से ही समाज अपने भीतर झांकता है। बदलाव लाता है। इसे मज़बूती से कहना चाहिए कि नवीन सागर के पास ऐसी सुनाने की आकांक्षा पैदा करने वाली कहानियों की संख्या ही अधिक है। उनके पास अविस्मरणीय कहानियों की संख्या भी उन कहानीकारों से कम नहीं हैं जिन्होंने सत्तर-अस्सी के दशक में कहानीकार की प्रसिद्धि हासिल की। इतना ही नहीं नवीन सागर की कहानियाँ पढ़ते हुए अमरकांत, विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश, स्वयं प्रकाश, शिवमूर्ति की बरबस याद आती रहती है। कहीं-कहीं भावनात्मक रूप से लगता है कि नवीन सागर ऐसा ही चमकता कहानी का एक नक्षत्र था जो असमय आसमान से टूट गया। मृत्यु ने इस गहरी नवीन कथायात्रा को बीच में ही रोक दिया। यद्यपि नवीन सागर का एक ही कहानी संग्रह ‘उसका स्कूल’ जानने में आता है। लेकिन उनकी जो कहानियाँ पढ़ने के बाद हमारे मन में टंक जाती हैं और अपने वक्त को पहचानने के लिए हमें दृष्टि देती हैं उनमें से कुछ के नाम हैं- उसका स्कूल, मोर, पत्थर, घोड़ा का नाम घोड़ा, तीसमार खाँ, लौटा तो कहीं नहीं, मूँछ, माँ, अंतहीन, हत्यारा, किसी की शक्ल, बोझ, घर, क्षेपक, अपनी ज़मीन और सत्यकथा। किसी एक संग्रह वाले कहानीकार की इतनी महत्वपूर्ण कहानियों की फेहरिश्त समय-समाज की ही नहीं हिंदी कहानी आलोचना की कहानी भी कहती है। 

इससे पहले कि नवीन सागर की कुछ उल्लेखनीय कहानियों की विवेचना करें उनकी कहानियों की उन विशेषताओं का उल्लेख आवश्यक है जिनसे यह जानने में आसानी हो कि नवीन सागर की कहानियां कैसी हैं- 

1. नवीन सागर की कहानियों में फैंटेसी मिलती है। यह फैंटेसी कहानियों के देशकाल को विस्तृत कर देती है। इन्हें पढ़ते हुए मुक्तिबोध की याद आना स्वाभाविक है। 

2. नवीन सागर की कहानियों में प्रतिबद्धता और विचार वैसे ही हैं जैसे कुम्हार की सानी हुई मिट्टी से बने बर्तन में रूप। कहना मुश्किल ही रहेगा कि बर्तन का यह रूप पानी से मिला, चाक से, मिट्टी से, हाथों से या फिर आंवा की आग से। 

3. संवेदना, उसूल और सुधार नवीन सागर की कहानियों के केंद्र में हैं। शायद ही कोई ऐसी कहानी मिले जिसके कथा चरित्रों से हमारी संवेदना का रिश्ता न बन जाये। 

4. नवीन सागर की कहानियों की भाषा में काव्यात्मकता वहीं है जहाँ काव्यात्मक स्थल हैं। संवाद ऐसे हैं कि यकीन हो जाता है जीते जागते इंसानों की बातचीत चल रही। बिल्कुल वैसा ही टोन, विट और ह्यूमर। 

5. यथार्थ को नवीन सागर ने कहानियों में वैसे ही बरता है कि उनकी कहानियाँ बिल्कुल यथार्थ लगती हैं लेकिन यथार्थ की मात्रा उतनी ही है जैसा कि नामवर सिंह कहते हैं कि यथार्थ नमक की तरह होता है उसे कहानियों में वैसे ही इस्तेमाल करना चाहिए। 

6. नवीन सागर की कहानियों में व्यंग्य नहीं मिलेगा लेकिन भाषा हँसमुख मिलेगी। कहीं कहीं इतनी विनोदिनी भाषा कि हँसते–हँसते पेट में बल पड़ जायें। मन निर्मल हो जाए। इसी बीच आँखों के कोर भी भीग जायें। 

7. मनुष्यता, बराबरी, न्याय, प्रेम, मैत्री, सहकार और परिवर्तनकामना नवीन सागर की कहानियों में सहज मिलते हैं। मर्म, व्यंजना और चोट की अप्रतिम कहानियों के कृतिकार हैं नवीन सागर। 

8. नवीन सागर की कहानियों में आज की हिंदी कहानी में लगभग अनुपस्थित किस्सागोई मिलती है। 

‘उसका स्कूल’ नवीन सागर की कुछ-कुछ वैसी ही मार्मिक कहानी है जैसी स्वयं प्रकाश की ‘बलि’, शिवमूर्ति की ‘केशर कस्तूरी’ और प्रकाशकांत की ‘अमर घर चल’। चूँकि कोई भी दो कहानियाँ एक सी नहीं होतीं इसलिए कुछ-कुछ वैसी ही कहने का अभिप्राय यह है कि इस कहानी में आयी व्यवस्था विडंबना, सामाजिक निरुपायता और मानवीय दुख बोध भी वैसे ही हैं। ‘उसका स्कूल’ एक घरेलू नौकरानी की बच्ची की कहानी है। बाई, मालिक के आग्रह पर जो प्रोफेसर हैं अपनी बच्ची को उनके घर में बच्चों की देखभाल के लिए भेजना शुरू कर देती है। प्रोफेसर की पत्नी को नयी नयी नौकरी मिली है। उसके सामने शर्त है कि वह नौकरी छोड़ दे या कोई छोटे बच्चों की देखभाल करे। नौकरानी की बच्ची इसके लिए तैयार नहीं है। वह स्वयं स्कूल जाना चाहती है। उसे स्कूल प्यारा है। बच्ची की माँ उसे मनाती है। बच्ची बेमन से जाती है। एक दिन वह अपना बस्ता भी ले जाती है। वहाँ उसकी किताबें फट जाती हैं। बच्ची रोती है। माँ को बताती है। माँ उसे डाँटती है -बस्ता लेकर क्यों गयी ? बच्ची के मना करने के बावजूद मजबूर माँ बेटी को प्रोफेसर के घर बच्चों की देखभाल के काम में भेजती है। इसी में बच्ची का अपना स्कूल छूट जाता है। बच्चों की देखभाल में लगाये जाने के कारण किसी बच्ची का स्वयं पढ़ न पाना, अभिलाषा के बावजूद उसके स्कूल छूट जाने की यह कहानी पढने-सुनने वाले का मन भिगो देती है। यहीं ऊपर की वह बात दुहराई जा सकती है कि सुनाने लायक कहानी है ‘उसका स्कूल’। जो पढ़ेगा, सुनाना चाहेगा। जो सुनेगा, वह समझ लेगा। कहानी भीतर रह जायेगी। स्कूल न जा पा रही बच्ची बार-बार याद आयेगी। यहीं लगता है नवीन सागर बच्चों का मसीहा कथाकार है। आज शिक्षा और बच्ची की माँ में कोई अंतर नहीं। 

‘घोड़े का नाम घोड़ा’ ऐसी प्यारी कहानी है कि जान फूँक दे। ऐसा गुदगुदाए कि मनहूस भी हँस पड़े। कठोर से कठोर हृदय इंसान भी बच्चों पर जान छिड़कने लगे। कहीं कोई अपने बेटे-बेटी से दूर रहता हो तो रो ही पड़े। इस कहानी की भाषा और मर्म जहाँ एक ओर रवींद्र नाथ ठाकुर की याद दिलाते हैं तो दूसरी ओऱ मन्नू भंडारी की। कहानी क्या है बाल-किशोर मन, खिलौनों, बचपन, भाई-बहन, माँ-बाप, पास-पड़ोस, बालश्रम, सख्य भाव और स्मृतियों की करुणा भरी हिरनी है। जिसके साथ-साथ मन दौड़ता जाए मगर थके-भरे न। अंत में पछताए हाय ओझल हो गयी। कहानी की शुरुआत से पहले ही दर्ज़ नोट मानीखेज है- यह दुनिया एक बड़ी कहानी जैसी है, जिसका एक टुकड़ा हमने बयान किया। बाकी टुकड़ा कोई दूसरा बयान करेगा। ‘घोडे का नाम घोड़ा’ मूलत: एक लड़की की कहानी है जो खिलौने बनाकर बेचने वाले लड़के से एक घोड़ा खरीदती है। वह जैसे ही घोड़ा घर लाती है भाई उसे पाना चाहते हैं। पड़ोस की एक प्यारी लड़की उसे लेना चाहती है। मगर घोड़ा लड़की को बहुत प्रिय है। लेकिन एक दिन ऐसा होता है कि उसे वह घोड़ा पड़ोस की दोस्त लड़की को देना पड़ता है। आगे की कहानी इसी खिलौना घोड़े के साथ साथ एक पूरी प्यारी स्मृति का चक्र पूरा करती है। घोड़ा खरीदने का यह शुरुआती अंश ही कहानी की सामर्थ्य, प्रभाव का पता देता है- 

वह विनती करता सा बोला, “दोनो ले लो, नहीं तो जोड़ी टूट जायेगी।” 

मैंने कहा, “जोड़ी टूट जायेगी तो क्या अकेला घोड़ा तुम्हारे पास रोयेगा ?” 

वह बोला, “एक आपके पास भी रोयेगा।” 

मैंने कहा, “मैं उसके आँसू पोंछ दूँगी।” 

वह मुस्कुराने लगा तो देखा उसके आगे के दो दाँत नहीं हैं। 

मैंने पूछा, “तुम्हारे दो दाँत कहाँ गये ?” 

वह बोला, “मैं जब सो रहा था चूहे ले गये।” 

अच्छा ! मैंने कहा, “बाकी दाँत क्यों छोड़ गये ?” 

वह हँसकर बोला, “वे जल्दी में थे पिर कभी आकर बाकी भी ले जायेंगे।” 

‘मोर’ नवीन सागर की ही नहीं हिंदी की मील का पत्थर कहानी है। इसके बारे में आलोचक कमला प्रसाद ने बिल्कुल ठीक लिखा है- ‘मोर’ यथार्थ की कालातीत गाथा है। वे आगे लिखते हैं ‘यह विजयदान देथा की कथा परंपरा की याद दिलाती है। मोर लोक की वाचिक परंपरा से अपना शिल्प गढ़ती हुई अपने प्रभाव को लोककथा के प्रभाव के समकक्ष निर्मित कर लेती है।‘ इस कहानी में हिंदी कहानी की लुप्त होती पठनीयता और किस्सागोई है। संभवत: ‘मोर’ आपातकाल के दौर को बयान करती हिंदी की सबसे सशक्त प्रतीकात्मक कहानी है। इस कहानी का थानेदार पुलिसिया क्रूरता, हिंसा, हत्या का चरम निष्करुण रूप संभव करता है। यद्यपि कहानी का नायक अमर लोक नायक ‘मोर’ ही है लेकिन मुख्य पात्र हुल्ले काछी है जो मोर की हत्या का ज़िम्मेदार पुलिस को मानता है। वह थाने जा जाकर जीवन पर्यंत जब तक कि मार नहीं दिया जाता थानेदार को गालियाँ देता है, धिक्कारता है। उसे बार-बार पीटा जाता है, घसीटा जाता है, उसकी पत्नी, उसे भी मार तक दिया जाता है मगर वह यह विरोध-भर्त्सना जीवित रहते नहीं छोड़ता भले थानेदार बदल गये, भले दवा तक के पैसे नहीं, भले अंग-अंग भंग किये गये। कहानी के अंत में उसी कुएँ से जिसमें हुल्ले काछी की गर्भवती पत्नी मरी थी लंबे अरसे बाद बाल्टी में फँसकर एक सांवला बच्चा निकलता है। पूछने पर वह बताता है कि मैं हुल्ले काछी का बेटा हूँ। लेकिन इतना लंबा वक्त गुज़र चुका है कि लोग हुल्ले काछी, थाने सब को भूल चुके हैं। यहीं प्रतिरोध अखंड और सार्वभौमिकता प्राप्त कर लेता है। उदय प्रकाश की प्रसिद्ध कहानी ‘टेपचू’ की याद आ जाती है। 

नवीन सागर की कहानियाँ अपने वक्त की सीमा को लाँघकर आज की कहानियाँ लगती हैं। इसका कारण यही समझ में आता है कि कहानीकार ने यथार्थ को समाज, देश, व्यवस्था, नागरिकों, संबंधों, प्रेम, सपनों, बदलाव, सुधार, निर्माण की ऐतिहासिक धारावाहिकता में गलाया है। समाजवादी निष्ठा से भरे कहानीकार नवीन सागर दृष्टि संपन्न कथाकार हैं। उनके कथा कौशल में दृष्टा होना मुख्य है। वे विचार-सिद्धांत का अनुयायी या प्रवक्ता प्रतीत नहीं होते। उनमें दार्शनिक तटस्थता, कलाकार की उदारता और कवि की हृदयस्पर्शिता तथा कहानीकार की कल्पना एवं परकाया प्रवेश सामर्थ्य हैं। जैसा कि अक्सर होता है नवीन सागर की कहानियाँ किसी एक भाव, घटना, दृश्य, विचार, प्रसंग की फोटोग्राफ़ या वीडियो या इतिवृत्त या स्टोरी नहीं हैं बल्कि वे उस किस्सागो के आख्यान की तरह हैं जो जानता है कि कुछ चीज़ें अवश्य बदल जायेंगी लेकिन कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलेंगी। मनुष्य समाज में जो सतत प्रवहमान रहते हैं उस सभ्यता, संवेदना, संबंधों, प्रतिरोध, एकाकीपन, अदम्य मनुष्यता, मैत्री को नवीन सागर की कहानियों में अपराजेय स्थान मिला है। यही कारण है कि भाषा, शिल्प, प्रयोग और किस्सागोई को नवीन सागर ने कभी नहीं छोड़ा। बल्कि वे उसे पुनर्नवा करते रहे। 

नवीन सागर की कहानियाँ ‘पत्थर’, ‘तीसमार खाँ’ और ‘लौटा तो कहीं नहीं’ बीते समय की ही दस्तावेज़ी कहानियाँ नहीं है। आज का भारत जिस हिंसा, बेकारी, नागरिक अकेलेपन, सांस्कृतिक विघटन, लोकतांत्रिक पूँजीवाद, धार्मिक राष्ट्रवाद, धूर्त बड़बोलेपन, उपमहाद्वीपीय स्वप्न भंग की गिरफ्त में हैं उसे डिकोड करने की दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं। मेरे विनम्र मत में देर से ही सही यह नवीन सागर को हिंदी कहानी की चर्चा और बहस में शामिल करने का सही वक्त है। हिंदी के इस अत्यंत महत्वपूर्ण कवि-कहानीकार की चली आती उपेक्षा असह्य है। 

दीपक ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा औऱ बोला, “ सुनाओ जनार्दन” जनार्दन बोला, “सुनो” 


ओ मेरे आदर्शवादी मन 

ओ मेरे सिद्धांतवादी मन 

अब तक क्या किया 

जीवन क्या जिया 

उदरम्भरि बन... 

यहाँ तक आते-आते जनार्दन की जीभ ऐंठ गयी। दूसरे ही क्षण उसने उल्टी कर दी। वह कुर्सी पर गिर पड़ा। फिर कुर्सी ज़मीन पर गिर पड़ी। वह धूल में औंधा पड़ा ओकने लगा। (तीसमार खाँ) 

“दद्दा, गाय विष्ठा खाती है। मंदिर के सामने घूरे बना लिए हैं। माँ-बाप को लात मारते हैं। आप समझते हैं आप ही यह सब भोग रहे हैं। अरे सब भोग रहे हैं।” (पत्थर) 


- शशिभूषण, उज्जैन, म.प्र. 
  मो. 9424624278 
(लमही, कथा-समय विशेषांक अक्टूबर-दिसंबर2019 में प्रकाशित)