शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

मैं फैजान,आपसे अपनी ज़िंदगी के कुछ अच्छे और बुरे क्षण बाँटना चाहता हूँ.


यह फैजान ने लिखा है.फैजान दसवीं में पढ़ रहे हैं.इसे पढ़कर ही आप अंदाज़ा लगाइए कि फैजान कैसे हैं.कितना सोचते और याद रखते है.उनके बारे में कुछ साधारण बातें यह हैं कि पढ़ने में अच्छे हैं.शिक्षकों के दिए काम नियत समय पर करते हैं.घर में इकलौते हैं.कभी किसी को शिक़ायत का मौका नहीं देते.इसे सुनकर कक्षा के छात्र-छात्राओं की टिप्पणी थी कि फैजान लेखक बनेगा.आप भी अपनी राय ज़रूर बताएँ.


तब मैं उड़ीसा में रहता था.हालांकि मेरा जन्म भिलाई,म.प्र. में हुआ.पिताजी के स्थानांतरण के बाद हम सब उड़ीसा आ गए थे.मैं उस समय छोटा था इसलिए इसलिए मेरी सारी यादें धुँधली हैं.मैं बहुत प्रेम और दुलार में रहा.मुझे अपने पड़ोस की उस बूढ़ी दादी की बहुत याद आती है जो 10 दिन तक अस्पताल में रहकर मेरी देखभाल करती रही थी.हमारा उनसे कोई रिश्ता-नाता नहीं था.वे हमारी कुछ भी नहीं लगती थी.मगर उन्होंने वह किया जो कोई सगा भी हमारे साथ नहीं करेगा.

मैं बचपन में हट्टा-कट्टा था.मेरी लंबाई अपनी उम्र के बच्चों से बड़ी थी.इसलिए जब भी मुझसे कोई मेरे साल पूछता तो मेरी दादी मेरी उम्र बढ़ाकर बतातीं थीं.मेरे शरीर पर कपड़े हों या न हों एक काला टीका ज़रूर होता था.मेरी दादी पुराने खयालात की थी.वे अँधविश्वासों में यक़ीन करतीं थीं.इसलिए मेरी एक कुंडली बनी.मैं सबका दुलारा था.खासकर अपने पापा का.पापा मुझसे कहा करते-पहली बार कोई बच्चा बोलता है तो मुह से माँ निकलता है मगर मैंने पापा कहा था.दुनिया से हटकर मैं काम करता था.मेरे पिताजी भी दुनियादारी से हटकर चलनेवालों में से हैं.वे चाहते थे कि उनका बेटा मज़बूत बने.दुनिया की हर परिस्थिति का सामना करे.चाहे वह दुख हो या सुख सबको क़रीब से देखे.मेरी दादी पिताजी को डाँटती रहतीं थीं.

मेरे पिताजी बहुत अनुशासनवाले थे.इसलिए उन्होंने एक बार मुझे चांटा मारा,ताकि मैं चुप हो जाऊँ.दादी मेरे पिताजी को कहती थीं-कोढ़ी तेरा हाथ जल जाए.मेरे पिताजी जाकर मेरी दादी का महँह सूँघकर उनका गुस्सा शांत करते थे.मैं पिताजी के दोस्तों का भी दुलारा था. मेरी माँ.मुझे दरवाजे पर छोड़कर काम पर लौट जाती थी.जब आती तो मुझे न पाकर हैरान हो जाती थी.बाद में देखती तो मैं पापा के दोस्तों के कंधों पर घूम रहा होता था..इंसपेक्शन का दिन होता तो मेरे पिताजी मुझे पुलिस की वर्दी पहनाकर DIG का स्वागत करने के लिए खड़ा कर देते थे.ट्रेनिंग ले रहे भैया लोग भी मुझे बैरकों में ले जाकर मेरे गाल खींचा करते.

सब कुछ अच्छा चल रहा था.मगर मैं उस रात को कभी नहीं भूल पाऊँगा.जब सरकार ने खबर दी कि पारादीप में बाढ़ आनेवाली है.समुद्र से ज्यादा दूर नहीं थी वह जगह इसलिए वहाँ खतरा बहुत ज्यादा था.मेरे चाचाजी तब साथ थे.वे उस खबर को टालकर सो गए.मगर पिताजी उस रात जागते रहे.ठीक 12.47 मिनट पर बरगद का पेड़ सामनेवाले मेस पर गिरा.मेस वह जगह थी जहाँ से ट्रेनीस खाना लेते थे.पेड़ गिरने की बात से मेरे पिताजी ने आपा खो दिया.उन्होंने जल्दी-जल्दी माँ और चाचा को जगाया.बोरी-बिस्तर बाँधकर सामने के दोमंजिला घर में घुस गए.वर्षा ज़ोरों से होने लगी.पिताजी जब घर लौटे तो उन्होंने देखा कि चोर घुस आए हैं.पिताजी को देखकर वे भाग गए.फ्रिज,खटिया,टीवी सब पानी में तैर रहे थे.पिताजी ने एक डंडा,टॉर्च और कुछ ज़रूरत की चीज़ें लीं और घर-घर जाकर बाढ़ की सूचना देने लगे.सब मतलब वे दो सौ आदमी जो वहाँ रहते थे..सब उसी पक्के घर में आ गए थे.मैंने देखा था कई फीट ऊँची पानी की लहर जब उस घर से टकराई तो सब कुछ हिल गया था.सब जगह पानी ही पानी था.न लोग बाहर जा सकते थे न बाहर .भीड़ इतनी ज्यादा थी कि कुछ लोग वहीं दबकर मर गए.उस समय लोगों में घृणा या नफ़रत नहीं थी.सब एक ही जगह एक-दूसरे की जान बचाने में लगे थे.

उस समय कुछ भी मुमकिन था.लोग दो दिन तक बिना खाए जी रहे थे.आलू के दाम आसमान छू रहे थे..एक किलो आलू सौ रुपये में मिल रहा था.मजबूरन कुछ लोग खरीदते तो कुछ चोरी करते.कुछ लोग दुकानों के ताले तोड़ सामान चुरा लिया करते थे.मुझे वह सब अब भी याद है जब मेरी बातों को सुन पिताजी की आँखें नम हो गईं थी.मैंने पिताजी को कहा बस दो मुह खाना दे दो.और मैं कुछ नहीं माँगूगा.पिताजी अपने मासूम बच्चे की बात सुन दोस्त से खाना मांग लाए थे और मुझे दिया था.पर खुद भूखे रहे.लोग भी इतने भूखे थे कि कच्ची मछली भी खा लेते थे.सारी जगह मौत का मंजर था.

एक आदमी की राशन की दुकान थी.वह इतना दयालु था कि अपनी दुकान से सबको चावल दाल दिया.और वह भी फ्री में.लोगों ने खिचड़ी बनाकर खायी.जब बाढ़ चली गई तब सबकुछ तहस नहस हो चुका था.वह मुसीबत पूरी तरह टली ही नहीं थी कि एक और हादसा हुआ.पास ही में सिलेंडर फट जाने से ज़हरीली गैस फैल गई.सब लोग जान बचाकर भागने लगे.पिताजी ने दरवाज़ा बंद कर लिया.खिड़की झरोखों में कपड़ा लगा दिया.मम्मी से बोले कि कपड़े से अपना और मेरा मुँह अच्छे से ढँक लो.जब यह घटना टली तो लोगों की क़दम-क़दम पर लाशें मिलीं.कोई अनाथ तो कोई विधवा थी.सरकार ने बचे हुए लोगों की मदद की.पिताजी को नवीन पटनायक द्वारा मेडल मिला.

उस जगह का पूरा नक्शा ही बिगड़ गया था.पूरी जगह को मुंडली नामक जगह में शिफ्ट कर दिया गया.वहाँ से मेरा स्कूल 29 किलोमीटर था.मैं बस से अपने स्कूल जाया करता.वह एक अच्छी जगह थी.उसे पहाड़ काटकर बनवाया गया था.इसलिए दूर दूर तक दुकानें नहीं थी.वहाँ मुझे पढ़ाई में भी दुविधा थी.वहां न तो कोई पढ़ानेवाला था न किताबें मिल पाती थीं.मैं पहले जिस स्कूल में जाया करता था वह उधर भवन में चलता था.लेकिन जब बच्चे ज्यादा आने लगे तो खुद का भवन बनवाया गया.वह एक बड़ी इमारत थी.उसके सभी कमरे हवादार थे.वहाँ मेरे बहुत अच्छे दोस्त बने थे.हम सब बहुत मज़ा करते.

फिर पिताजी की पोस्टिंग चेन्नई हुई.एक बार तो नाम सुनकर उसका मतलब ढूँढने की कोशिश की.मगर चेन्नई का कोई अर्थ नहीं मिला.पिताजी को जल्द ही वहाँ से आउट कर दिया गया.मगर चेन्नई आने पर पिताजी को रहने को घर नहीं मिला.इसलिए हमें पिताजी से दूर भाड़े पर घर लेकर रहना पड़ा.वहाँ से मेरा स्कूल पाँच मिनट की दूरी पर था.वहाँ मुझे बहुत अनुभव हुए .कुछ महींनों बाद हमें चेन्ई में घर मिल गया.और हम चेन्नई के लिए रवाना हो गए.यह मेरी ज़िंदगी की पहली ट्रेन यात्रा थी इसलिए मैं बहुत भावुक था.मुझे डर लग रहा था कि हादसा न हो जाए.मगर कुछ नहीं हुआ.मैं आखिरकार चेन्नई पहुँच गया.तब पता चला कि एक और लोकल ट्रेन पकड़नी है.कई घंटे ट्रेन में बैठे हुए जब मैं ज़मीन में उतरा था तो ऐसा लगा कि अभी भी ट्रेन चल रही है.मैं अपने घर गया और स्कूल में मेरा दाखिला हुआ.

मेरे लिए यह डरावना था कि मैं स्कूल पहुँचा तो मुझे पता ही नहीं था कि मेरी आठवीं कक्षा कौन सी है.मैं घबराया हुआ था.डरते हुए एक सर से पूछा-सर आठवीं कक्षा कहाँ है?वह मुझे कक्षा के पास ले गए और एक लड़के के पास छोड़ दिया.उसका नाम उन्नी कृष्णन था.वह मुझे कक्षा में ले गया.मैं जब कक्षा में गया तो हैरान रह गया कि इतने ही छात्र कक्षा में पढ़ते हैं...

सैयद फैजान अहमद
केन्द्रीय विद्यालय तक्कोलम

सोमवार, 20 सितंबर 2010

‘फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी‘:प्रभु जोशी


हिंदी का क्रियोलीकरण (हिंग्लिशीकरण) कितनी गंभीर समस्या है तथा यह किन साम्राज्यवादी सुनियोजित नीतियों का प्रतिफल है इसे प्रभु जोशी पिछले कई सालों से लगातार अपने भाषणों तथा लेखों में दो-टूक उदघाटित करते आ रहे है.इस संबंध में उनके कथादेश में प्रकाशित दो लेख-इसलिए हिंदी को विदा करना चाहते हैं हिंदी के कुछ अखबार तथा डोमाजी उस्ताद मारो स्साली को दस्तावेज जैसे हैं.बीते 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर लेखक का प्रतिरोध तब कार्य मुखर और आंदोलन की शक्ल में सामने आया जब उनकी अगुवाई में इंदौर के लेखकों,बुद्धिजीवियों ने गांधी प्रतिमा के सामने बीस से अधिक हिंदी अखबारों की होली जलायी.यह विरोध अखबार विरोध नहीं था(हालांकि दुर्भाग्य से मीडिया का एकतरफ़ा वर्चस्व इसे इसी रूप में दफ़नाने में क़ामयाब दिखा)बल्कि प्रतिकात्मक रूप से अखबारों की उस स्वेच्छाचारिता के खिलाफ़ आवाज़ थी कि अखबारों द्वारा ज़ारी बेलगाम हिंग्लिशीकरण बंद हो.क्रियोलीकरण के पीछे चली आती देवनागरी को विस्थापित कर रोमन लाने की कूटनीति,प्रायोजित बौद्धिकी असफल हो.वास्तव में यह अपनी भाषा,लिपि बचाने की एक वाजिब,पूर्वग्रहरहित मांग थी जिसका मीडिया से भयाक्रांत समाज ने नोटिस तक नहीं लिया.कुछ आतुर-अंध विकासवादियों ने दकियानूसी,निदनीय पहल साबित करने में भी वर्चुअल स्पेस का पूरा फायदा उठाया.नीचे जो लेख आप पढ़ेंगे उसकी इतनी लंबी भूमिका शायद उचित न लगे.मेरी भी असहमति अपनी जगह है ही कि इस लेख का शीर्षक,अनेक उद्धरण अँगरेज़ी में क्यों हैं (हालांकि जोशी जी इसे भास्कर के लिए लिखे गए सीमित शब्दसीमा होने की बाध्यता से जस्टीफ़ाई करते हैं) पर इसके बावजूद इस लेख और प्रभु जोशी जी की समग्र चिंता से मैं खुद को गहरे जुड़ा हुआ पाता हूँ.मैं भी सोचता हूँ यह लड़ाई जीतने तक ज़ारी रहे.आप क्या कहते हैं?-ब्लॉगर

सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित एल्विन टॉफलर की पुस्तक ‘तीसरी लहर‘ के अध्याय ‘बड़े राष्ट्रों के विघटन‘ को पढ़ते हुए किसी को भी कोई कल्पना तक नहीं थी कि एक दिन रूस में गोर्बाचोव नामक एक करिश्माई नेता प्रकट होगा और ‘पेरोस्त्रोइका‘ तथा ‘ग्लासनोस्त‘ जैसी अवधारणा के नाम से ‘अधिरचना‘ के बजाय ‘आधार‘ में परिवर्तन की नीतियां लागू करेगा और सत्तर वर्षों से महाशक्ति के रूप में खड़े देश के सोलह टुकड़े हो जायेंगे। अलबत्ता, राजनीतिक टिप्पणीकारों द्वारा उस अध्याय की व्याख्या ‘बौद्धिक अतिरेक‘ से उपजी भय की ‘स्वैर-कल्पना‘ की तरह की गयी थी। लेकिन, लगभग ‘स्वैर-कल्पना‘ सी जान पड़ने वाली वह ‘भविष्योक्ति‘ मात्र दस वर्षों के भीतर ही सत्य सिद्ध हो गयी। बताया जाता है कि उन ‘क्रांतिकारी‘ अवधारणाओं के जनक अब एक बहुराष्ट्रीय निगम से सम्बद्ध हैं।

हमारे यहां भी नब्बे के दशक में ‘आधार‘ में परिवर्तन को ‘उदारीकरण‘ जैसे पद के अन्तर्गत ‘अर्थव्यवस्था‘ में एकाएक उलटफेर करते हुए, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा उनकी अपार पूंजी के प्रवाह के लिए जगह बनाना शुरू कर दी गयी। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी निगमें और उनकी पूंजी विकसित राष्ट्रों के नव-उपनिवेशवादी मंसूबों को पूरा करने के अपराजेय और अचूक शक्ति केन्द्र हैं, जिसका सर्वाधिक कारगर हथियार है, ‘कल्चरल इकोनॉमी‘ और जिसके अन्तर्गत वे ‘सूचना‘, ‘संचार‘, ‘फिल्म-संगीत‘ और ‘साहित्य‘ के जरिये ‘अधोरचना‘ में सेंध लगाते हैं। और फिर धीरे-धीरे उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं। नव उपनिवेश के शिल्पकार कहते हैं, ‘नाऊ वी डोण्ट इण्टर अ कण्ट्री विथ गनबोट्स, रादर विथ लैंग्विज एण्ड कल्चर‘। पहले वे अफ्रीकी राष्ट्रों में उनको ‘सभ्य‘ बनाने के उद्घोष के साथ गये और उनकी तमाम भाषाएं नष्ट कर दीं। ‘वी आर द नेशन विथ लैंग्विज व्हेयरएज दे आर ट्राइब्स विथ डायलेक्ट्स‘। लेकिन, भारत में वे इस बार ‘उदारीकरण‘ के बहानेख् उसे ‘सम्पन्न‘ बनाने के प्रस्ताव के साथ आये हैं। उनको पता था कि हजारों वर्षों के ‘व्याकरण-सम्मत‘ आधार पर खड़ी ‘भारतीय भाषाओं‘ को नष्ट करना थोड़ा कठिन है। पिछली बार, वे अपनी ‘भाषा को भाषा‘ की तरह प्रचारित करके तथा ‘भाषा को शिक्षा-समस्या‘ के आवरण में रखकर भी, भारतीय भाषाओं के नष्ट नहीं कर पाये थे। उल्टे उनका अनुभव रहा कि भारतीयों ने ‘व्याकरण‘ के ज़रिये एक ‘किताबी भाषा‘ (अंग्रेजी) सीखी। ज्ञान अर्जित किया, लेकिन उसे अपने जीवन से बाहर ही रख छोड़ा। उन्होंने देखा, चिकित्सा-शिक्षा का छात्र स्वर्ण-पदक से उत्तीर्ण होकर श्रेष्ठ ‘शल्य-चिकित्सक‘ बन जाता है, लेकिन ‘उनकी‘ भद्र-भाषा उसके जीवन के भीतर नहीं उतर पाती है। तब यह तय किया गया कि ‘अंग्रेजी‘ भारत में तभी अपना ‘भाषिक साम्राज्य‘ खड़ा कर पायेगी, जब वह ‘कल्चर‘ के साथ जायेगी। नतीज़तन, अब प्रथमतः सारा जोर केवल ‘भाषा‘ नहीं बल्कि, सम्पूर्ण ‘कल्चरल-इकोनामी‘ पर एकाग्र कर दिया गया। इस तरह उन्होंने भाषा के प्रचार को इस बार, ‘लिंग्विसिज्म‘ कहा, जिसका, सबसे पहला और अंतिम शिकार भारतीय ‘युवा‘ को बनाया जाना, कूटनीतिक रूप से सुनिश्चित किया गया।

बहरहाल, भारत में अफ्रीकी राष्ट्रों की तर्ज पर सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के जरिये ‘यूथ-कल्चर‘ का एक आकर्षक राष्ट्रव्यापी ‘मिथ‘ खड़ा किया गया, जिसका अभीष्ट युवा पीढ़ी में अंग्रेजी के प्रति अदम्य उन्माद तथा पश्चिम के ‘सांस्कृतिक उद्योग‘ की फूहड़ता से निकली ‘यूरो-ट्रैश‘ किस्म की रूचि के ‘अमेरिकाना मिक्स‘ से बनने वाली ‘लाइफ स्टाइल‘ (जीवन शैली) को ‘यूथ-कल्चर‘ की तरह ऐसा प्रतिमानीकरण करना कि वह अपनी ‘देशज भाषा‘ और ‘सामाजिक-परम्परा‘ को निर्ममता से खारिज करने लगे। यहां पुरानी ‘रॉयल चार्टर‘ वाली सावधानी नहीं थी ‘दे शुड नॉट रिजेक्ट ‘ब्रिटिश कल्चर‘ इन फेवर ऑफ देअर ट्रेडिशनल वेल्यूज।‘ खात्मा जरूरी है, लेकिन, ‘विथ सिम्पैथेटिक एप्रिसिएशन ऑव देयर कल्चर।‘ इट मस्ट बी लाइक अ डिवाइन इन्टरवेशन। नतीजतन, अब सिद्धान्तिकी ‘डायरेक्ट इनवेजन‘ की है। ‘देयर स्ट्रांग एडहरेंस टू मदरटंग्स‘ हेज टु बी रप्चर्ड थ्रू दि प्रोसेस ऑव ‘क्रियोलाइजेशन‘ (जिसे वे रि-लिंग्विफिकेशन ऑव नेटिव लैंग्विजेसेस‘ कहते हैं)।

क्रियोलीकरण का अर्थ, सबसे पहले उस देशज भाषा से उसका व्याकरण छीनो फिर उसमें ‘डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘ के जरिए उसके ‘मूल‘ शब्दों का ‘वर्चस्ववादी‘ भाषा के शब्दों से विस्थापन इस सीमा तक करो कि वाक्य में केवल ‘फंक्शनल वर्डस्‘ (कारक) भर रह जायें। तब भाषा का ये रूप बनेगा। ‘यूनिवर्सिटी द्वारा अभी तक स्टूडेण्ट्स को मार्कशीट इश्यू न किये जाने को लेकर कैम्पस में वी.सी. के अगेंस्ट जो प्रोटेस्ट हुआ, उससे ला एण्ड आर्डर की क्रिटिकल सिचुएशन बन गई (इसे वे फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ कहते हैं)।
उनका कहना है कि भाषा के इस रूप तक पहुंचा देने का अर्थ यह है कि नाऊ द लैंग्विज इज रेडी फार स्मूथ ट्रांजिशन।‘ बाद इसके, अंतिम पायदान है-‘फायनल असाल्ट ऑन लैंग्विज।‘ अर्थात् इस ‘क्रियोल‘ बन चुकी स्थानीय भाषा को रोमन में लिखने की शुरूआत कर दी जाये। यह भाषा के खात्मे की अंतिम घोषणा होगी और मात्र एक ही पीढ़ी के भीतर।

बहरहाल, हिन्दी का ‘क्रियोलाइजेशन‘ (हिंग्लिशीकरण) हमारे यहां सर्वप्रथम एफ.एम. ब्रॉडकास्ट के जरिये शुरू हुआ और यह फार्मूला तुरन्त देश भर के तमाम हिन्दी के अखबारों में (जनसत्ता को छोड़कर) सम्पादकों नहीं, युवा मालिकों के कठोर निर्देशों पर लागू कर दिया गया। सन् 1998 में मैंने इसके विरूद्ध लिखा ‘भारत में हिन्दी के विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका जिस प्रेस ने निभायी थी, आज वही प्रेस उसके विनाश के अभियान में कमरकस के भिड़ गयी है। जैसे उसने हिन्दी की हत्या की सुपारी ले रखी हो। और, इसकी अंतिम परिणति में ‘देवनागरी‘ से ‘रोमन‘ करने का मुद्दा उठाया जायेगा।’ क्योंकि, यह फार्मूला भाषिक उपनिवेशवाद (‘लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म‘) वाली ताकतें अफ्रीकी राष्ट्रों की भाषाओं के खात्मे में सफलता से आजमा चुकी हैं। आज ‘रोमन लिपि‘ को बहस में लाया जा रहा है। अब बारी भारतीय भाषाओं की आमतौर पर लेकिन हिन्दी की खासतौर पर है। हिन्दी के क्रियोलीकरण की निःशुल्क सलाह देने वाले लोगों की तर्कों के तीरों से लैस एक पूरी फौज भारत के भीतर अलग-अलग मुखौटे लगाये काम कर रही है, जो वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ., ब्रिटिश कौंसिल, बी.बी.सी., डब्ल्यू.टी.ओ., फोर्ड फाउण्डेशन जैसी संस्थाओं के हितों के लिए निरापद राजमार्ग बना रही हैं।

नव उपनिवेशवादी ताकतें चाहती हैं, ‘रोल ऑव गव्हमेण्ट आर्गेनाइजेशंस शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोटिंग डॉमिनेण्ट लैंग्विज। हमारा ज्ञान आयोग पूरी निर्लज्जता के साथ उनकी इच्छापूर्ति के लिए पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों से ही अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य करना चाहता है। यह भाषा का विखण्डन नहीं, बल्कि नहीं संभल सके तो निश्चय ही यह एक दूरगामी विराट विखण्डन की पूर्व पीठिका होगी। इसे केवल ‘भाषा भर का मामला‘ मान लेने या कहने वाला कोई निपट मूर्ख व्यक्ति हो सकता है, ऐतिहासिक-समझ वाला व्यक्ति तो कतई नहीं।

अंत में मुझे नेहरू की याद आती है, जिन्होंने जान ग्रालब्रेथ के समक्ष अपने भीतर की पीड़ा और पश्चाताप को प्रकट करते हुए गहरी ग्लानि के साथ कहा था ‘आयम द लास्ट इंग्लिश प्राइममिनिस्टर ऑव इंडिया।’ निश्चय ही आने वाला समय उनकी ग्लानि के विसर्जन का समय होगा। क्योंकि, आने वाले समय में पूरा देश ‘इंगलिश‘ और ‘अमेरिकन‘ होगा। पता नहीं, हर जगह सिर्फ अंग्रेजी में उद्बोधन देने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह प्रसन्नता का कारण होगा या कि नहीं, लेकिन निश्चय ही वे दरवाजों को धड़ाधड़ खोलने के उत्साह से भरे पगड़ी में गोर्बाचोव तो नहीं ही होंगे। अंग्रेजी, उनका मोह है या विवशता यह वे खुद ही बता सकते हैं।

यहां संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों की तुलना में देवनागरी लिपि की स्वयंसिद्ध श्रेष्ठता के बखान की जरूरत नहीं है। और हिन्दी की लिपि के संदर्भ में फैसला आजादी के समय हो चुका है। रोमन की तो बात करना ही देश और समाज के साथ धोखा होगा। अब तो बात रोमन लिपि की वकालत के षड्यंत्र के विरूद्ध, घरों से बाहर आकर एकजुट होने की है- वर्ना, हम इस लांछन के साथ इस संसार से विदा होंगे कि हमारी भाषा का गला हमारे सामने ही निर्ममता से घोंटा जा रहा था और हम अपनी अश्लील चुप्पी के आवरण में मुंह छुपाये वह जघन्य घटना बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप देखते रहे।
(सीमित शब्द संख्या के बंधन के कारण अंग्रेजी शब्दों और वाक्यांशों का हिन्दी रूपांतर नहीं दिया जा रहा है।)



-प्रभु जोशी
4-संवाद नगर,नवलखा
इंदौर

बुधवार, 15 सितंबर 2010

अखबारों की जलायी होली

हिंदी को सचमुच बचाने की चिंता और उसके सम्मुख उपस्थित सर्वग्रासी संकट से जूझने की प्रतिबद्धता जिन गिने-चुने बुद्धिजीवियों में देखी जाती है उनमें प्रसिद्ध चित्रकार-लेखक-चिंतक प्रभु जोशी का नाम प्रमुख है.उनकी प्रेरणा और साथियों के सहयोग से हिंदी दिवस के अवसर पर अखबारों की होली जलाने का निर्णय लिया गया.हम उस अवसर के कुछ चित्र और हिंदी के क्रियोलीकरण के विरुद्ध ज़ारी वक्तव्य को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं.चित्रों में हैं-प्रभु जोशी,कथाकार प्रकाश कांत,जीवन सिंह ठाकुर,अनिल त्रिवेदी आदि








भाषा के क्रियोलीकरण के विरोध में वक्तव्य

आज हिन्दी दिवस के अवसर पर हम इंदौर नगर के बुद्धिजीवी गाँधी-प्रतिमा के समक्ष देश भर के लगभग सभी हिन्दी अखबारों की एक-एक प्रति जुटाकर उनकी होली जलाने के लिए एकत्र हुए हैं। आज-हम-सब जानते हैं कि जब निवेदन के रूप में किये जाते रहे संवादात्मक-प्रतिरोध असफल हो जाते हैं तब ही विकल्प के रूप में एकमात्र यही रास्ता बचता है जो हमें गाँधी जी से विरासत में मिला है।

आज हिन्दी के अखबारों की प्रतियों को जलाकर प्रतीकात्मक रूप से हम भारतीय समाचार-पत्रों उनके संचालकों,पत्रकारों,सम्पादकों के साथ ही साथ पूरे देश के हिन्दी-भाषा-भाषियों को इस बात की स्मृति दिलाना चाहते हैं कि आज हम हिन्दी का जो विकास देख रहे हैं उस हिन्दी को बनाने और बढ़ाने में सबसे बड़ी और ऐतिहासिक भूमिका आजादी की लड़ाई में हथियार की तरह काम करने वाले हिन्दी के समाचार-पत्रों ने ही निभायी थी- लेकिन दुर्भाग्यवश वही समाचार-पत्र जगत आज विकास के इतने ऊँचे सोपान पर चढ़ चुकी हिन्दी को अंग्रेजी के नव साम्राज्यवाद को नष्ट करने पर उतारू हो चुका है। नतीजतन स्थिति यह है कि पिछली एक शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य ने हिन्दी को जितने क्षति नहीं पहुँचायी थी आज उससे दस गुनी क्षति मात्र दस साल में हिन्दी को हिन्दी के समाचार पत्रों ने पहुँचा दी है।

यहाँ हम यह ऐतिहासिक तथा भाषा-वैज्ञानिक तथ्य याद दिलाना चाहते हैं कि दुनिया भर में भाषाओं के विकास का मुख्य आधार भाषा के बोले गये नहीं बल्कि लिखित-रूप के कारण होता है। लिखित रूप ही किसी भाषा को अक्षुण्ण रखता है। लेकिन आज हिन्दी को सबसे बड़ा धोखा उसके लिखित-छपित शब्द की जगह से ही मिल रहा है। चीन की मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को बहत सूक्ष्म और धूर्तयुक्ति से नष्ट किया जा रहा है जिसे कहा जाता है भाषा का क्रियोलीकरण. आज का हमारा यह प्रतीकात्मक-प्रतिरोध हिन्दी के अखबारों द्वारा चलाये जा रहे उसी खतरनाक क्रिओलीकरण की प्रक्रिया के विरूद्ध है।

क्रियोलीकरण एक ऐसी युक्ति है जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। ‘क्रियोलीकरण की प्रक्रिया नहीं बल्कि सुनियोजित षड्यंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है।

क्रियोलीकरण की प्रक्रिया का पहला चरण होता है जिसे वे कहते हैं स्मूथ डिसलोकेशन आफ वक्युब्लरि अर्थात् मूल भाषा के शब्दों का धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। इस अवस्था को अखबारों अब अपने सर्वग्रासी सीमा तक पहुँचा दी है।

उदाहरण के लिए यह क्रिओलीकरण ठीक उस समय किया जा रहा है जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सीमित भाषाओं की सूची में शामिल करने के प्रयास बहुत तेज हो गये हैं। हिन्दी के दैनंदिन शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ परीक्षा की जगह एक्झाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह इंस्टीट्यूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच मॉरली लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड प्रोग्राम/

वे कहते हैं धीरे-धीरे स्थिति यह कर दो कि अंग्रेजी के शब्द 70 प्रतिशत तथा मूल भाषा के शब्द मात्र 30 प्रतिशत रह जायें। और इसके चलते हिन्दी का जो रूप बन रहा है उसका एक स्थानीय अखबार में छपी खबर से दे रहे हैं।
इंग्लिश के लर्निंग बाय फन प्रोग्राम को स्टेट गव्हमेण्ट स्कूल लेवल पर इण्ट्रोड्यूस करे, इसके लिए चीफ मिनिस्टर ने डिस्ट्रिक्ट एज्युकेशन आफिसर्स की एक अर्जेंट मीटिंग ली, जिसकी डिटेक्ट रिपोर्ट प्रिंसिपल सेक्रेटरी जारी करेंगे।

इसके बाद वे दूसरा और अंतिम चरण बताते हैं: फाइनल असालट ऑन लैंग्विज। अर्थात् भाषा के पूरी तरह खात्मे के लिए अंतिम हल्ला। और वह अंतिम प्रहार यह कि उसे भाषा की मूल लिपि को बदल कर रोमन कर दो। भाषा समाप्त। और कहने की जरूरत नहीं कि बहुत जल्दी अखबारों को साम्राज्यवादी सलाहकार की फौज समझाने वाली है। कि हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी अफ्रीकी भाषाओं को अंग्रेजी के सम्राज्यवादी आयोजना के तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं की है। इसलिए हिन्दी हिंग्लिश,बांग्ला बांग्लिश, तमिल तमिलिश की जा रही है। हम यह प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के क्रिओलीकरण के विरूद्ध है जिसमें गुजराती-मराठी कन्नड़,उड़िया,असममिया सभी भाषाएँ शामिल हैं।

बहुत मुमकिन है कि देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के भीतर अपनी भाषा का बचाने की एक सामूहिक चेतना के जागृत होने के खतरे का अनुमान लगा कर अखबार-जगत हिन्दी के क्रियोलीकरण की प्रक्रिया एकदम तेज कर दें। क्योंकि जब 5 जुलाई 1928 को यंग इंडिया में जब गाँधी ने ये लिखा था कि अंग्रेजी उपनिवेश की भाषा है और इसके हम हराकर रहेंगे - तब गोरी हुकुमत अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार पर तबके छह हजार पाउण्ड खर्च करती थी- वह खर्च की राशि 1938 तक 3,86,000 पाउण्ड कर दी गयी थी। बहरहाल अंग्रेजी का जो नया साम्राज्यवाद अमेरिका और इंग्लैण्ड की रणनीति के चलते बढ़ रहा है - उसमें हमारे यहाँ हाथ बँटाने के लिए देश का प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया एकजुट हो गये हैं- हम उनकी इस खतरनाक मुहिम के विरोध का संकल्प लेते हैं।

अनिल त्रिवेदी
304 ए भोलाराम उस्ताद मार्ग
ग्राम-पीपल्याराव ए.बी. रोड
इन्दौर-17

रविवार, 5 सितंबर 2010

यह देश जिन बच्चों को पानी देता है केवल उनकी भी प्यास मिटाने में अक्षम क्यों हैं?

हमारे देश की अच्छी स्कूलों में बच्चे खुश नहीं हैं.मैं जब यह कह रहा हूँ तो जानबूझकर यह नहीं कहना चाहता कि बच्चे कचरा बीनते हैं,मजदूर हैं,कुपोषित हैं एक शब्द में कहना चाहें तो कह सकते हैं अनाथ हैं.जिस उम्र में उनकी हड्डियाँ मज़बूत होनी हैं उस उम्र में वे जूठन खा रहे हैं.जब उनके बस्तों में रंग बिरंगी ढेर किताबें होनी हैं इस शर्त के साथ कि बस्ता तब भी फूल सा हल्का होना है तब उनके अंगों से भरे हुए पालीथीन सुंदर कॉलोनियों की नालियों में सड़ रहे हैं.थाना,अदालत,समाज सिर्फ़ देख रहे हैं.

मैं आज उन बच्चों की बात कर रहा हूँ जो उस वर्ग से आते हैं जिनमें से चुने हुए कुछ बच्चे हमारे देश के राष्ट्रपति को साल के यादगार त्यौहार रक्षाबंधन में राखी बाँधते हैं.उन बच्चों को कितनी सुरक्षा मिलती है राष्ट्र से ये तो बच्चों की माँ का दिल ही जानता है.या फिर वे हरे भरे पेड़ जो सचमुच बढ़कर उन्हें चूम नहीं सकते.दौड़कर बचा नहीं सकते.

तो उन कॉलोनियों के बच्चे जिनका नाम इस देश में किसी दिन निठारी हो सकता है और उनके स्कूल जिनके विद्यार्थियों को कभी भी अमेरिका या जर्मनी की फेलोशिप मिल सकती है अपनी पढ़ाई की उम्र में खुश नहीं हैं.वे महसूस नहीं कर सकते कि यह हमारी ज़िंदगी की बेहतरीन उम्र है.

उनके चेहरों में झल्लाहट है,तनाव है,काम पूरा नहीं कर पाने का अपराधबोध है,कक्षा में अपमानित हो जाने का डर है.भागती हुई दिन भर की कक्षाएँ हैं,शाम रात की मंहगी पड़ती कोचिंग हैं,प्रोजेक्टस और असाइनमेंट्स की व्याकुल तैयारी है,दौड़ी चली आती परीक्षाओं का डर है,सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने की जबरदस्ती है कुल मिलाकर बेस्ट रहने के अनुशासन का दुख है जिसे बच्चे साफ़-साफ़ टेंशन कहते हैं.

क्योंकि दुख का शब्दकोश उन्हें मिला ही नहीं.वे खुशहाल घरों से आते हैं.मां-बाप के दुलारे हैं.उन्होंने घर में कभी मार नहीं खाई.नियमत: स्कूलों में पीटे नहीं जा सकते.वे बच्चे कैसे दुखी होंगे?उन्हें सिर्फ़ तनाव होता है.इसे सुनिए तो रहा नहीं जाता कि बच्चों को टेंशन है.तनाव जो सिर्फ़ खोखला करता है.आँसू तो ताक़त भी बख्शते हैं.पर अच्छी स्कूलों के बच्चों को रोने का अभ्यास नहीं है.वे उस दुनिया में अपनी उमर जी रहे हैं जहाँ तनाव ही दुख है.

अच्छी स्कूलों के बच्चे खुशहाल बचपन में नहीं हैं.उनके माँ बाप मानते हैं कि ऐसी बात नहीं.घर में कोई कमी नहीं.बच्चों से पूछता हूँ तो वे कहते हैं.वीक में एक दो दिन ही लगता है कि हमारी लाइफ़ बेस्ट है.बाक़ी दिन होमवर्क,क्लासवर्क पूरा करने का टेंशन.मंथली टेस्ट की चिंता.कितना भी करें काम पूरा नहीं हो पाता.क्लास में इन्सल्ट होने का डर हमेशा बना रहता है.यह किन्हीं एक दो बच्चों की असलियत नहीं प्यार से पूछ लीजिए तो कोई भी बच्चा बता देगा.

इसी बीच स्कूलों में सीसीई यानी सतत समावेशी मूल्यांकन दाखिल हुआ है.कारण यह बताया जा रहा है कि साल का एक निर्णायक इम्तहान बच्चों को आत्महत्या जैसे क़दम उठाने की ओर धकेल देता है.वे नर्वस होते हैं.सीखने से ज्यादा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं.इस सीसीई में क्या होना है?संक्षेप में कहें तो बच्चे का साल भर मूल्यांकन होना है.उनकी हर गतिविधि का मूल्यांकन करना है यहाँ तक कि उनके व्यवहार विचारशीलता,सक्रियता तक का हिसाब रखना है.वे प्रात: कालीन सभा में कुछ करते हैं या नहीं,खेलकूद सीसीए आदि में उनका भाग लेना कितना है आदि-आदि.इन्हीं आधारों पर उन्हें अंको की बजाय ग्रेड मिलने हैं.91 से 100 तक पानेवालों का एक ही ग्रेड A1 होगा.A1 पानेवाले एक दसरे का कम-ज्यादा होना नहीं जान सकेंगे. यानी प्रतियोगिता रुकेगी.स्वस्थ सीखना होगा.

पर बच्चों का कहना है ऐसे में हमारा बचपना छिन जाएगा.हमें बनावटी रहना पड़ेगा.पुराने लोगों ने अपने समय में मस्ती कर ली और हमें हर समय के आब्जरवेशन में रख दिया.हम चोर हैं क्या?कि शिक्षक हमें हर समय जाँचें.हम शरारतें कब करेंगे?दूसरे मेधावी बच्चों का कहना है.91 और 100 बराबर हो गए.91 पानेवाला समझेगा मैं 100 पानेवाले के बराबर हूँ इससे तो हंड्रेड नंबर लाने की खुशी ही खतम हो गई.

कुल मलाकर तमाम शैक्षिक प्रयोगों और सुविधाओं के बीच बच्चे संतुष्ट नहीं हैं.मैं सोचता हूँ जिनके लिए सबकुछ है वही बच्चे तनाव में हैं तो उनकी कौन सुनेगा जो जीवन भर नया कपड़ा नहीं पहन पाते.जो खुद भूखे रहकर स्कूल कैंटीन में अपने ही हमउम्र बच्चे को खाना परोसते हैं. अच्छी स्कूलों की बच्चियाँ तो बलात्कार के डर से लेकर प्रेम में पड़ जाने तक का दु:स्वप्न जीने को मजबूर हैं.मैं सचमुच यह बोल रहा होता तो मेरी ज़बान की कंपकपी आप महसूस कर सकते. यह सब कहते हुए मैं उन बच्चियों की भी चिंता से अवगत नहीं कराना चाहता जिन्हें न स्कूल है न घर.जिनके लिए गर्भ भी सुरक्षित नहीं है.जाने कब उच्च चिकित्सा का भेदी कैमरा पकड़ ले और धरती पर आ ही न पाएँ.


मैं यह लिखते हुए सिर्फ़ यह पूछना चाहता हूँ कि यह देश जिन बच्चों को पानी देता है केवल उनकी भी प्यास मिटाने में अक्षम क्यों हैं?