शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

मारना

मुझे किसी समय मारा जा सकता है
मेरा सब छीना जा सकता है एक इशारे पर
बार-बार बोले गये झूठ मिटायेंगे मेरा सच
आरोप छा जायेंगे मेरी करनी पर
मुझ पर थोपी जायेगी दूसरी पहचान
जिसके लिये क़ानून में सज़ा हो
अन्याय होगा न्याय की ज़रूरत सा।

जान के भूखे मारते हैं
सबसे भागते हैं
छुपते हैं कि कोई पहचान न पाये
लेकिन मुझे मारने वाले
हाथों में किताब लेकर आयेंगे
पहने होंगे सूट-बूट
झूठ विनम्रता से बोलेंगे
मेरे बयान पर मुस्कुरायेंगे
जैसे दूध में पानी मिलाया जाता है।

आदेशों, अनुशासन और उचित माध्यमों के
शानदार अनुपालन से
मैं रोज़ अकेला होता जाऊँगा।

जैसे दलित को दान मिलता है
मुझे न्याय मिलेगा।

संसदीय भाषा में बड़ी संक्षिप्ति के साथ
अंत में कहा जायेगा
मेरा सज़ा पाना ज़रूरी है।

कुछ लोग जिन्हें पहले से अनुमान होता है
थोड़े और लायक हो जायेंगे
महत्वाकांक्षी फैसले की भाषा के कायल होंगे।

मेरे सम्मानित हत्यारे की तरक्की होगी
जैसे निर्दोष क़ैदियों को
जेल अपराधी बनाता है
और जेलर ईनाम पाता है

मुझे किसी क्षण मारा जा सकता है
मेरा डर नहीं है
जीवनरक्षक परिस्थितियों में
अपनी वैधानिक हत्या के लिए
गढ़े गए सबूतों, जुटाये गये हथियारों को देख लेना है
इस तरह मारे जाना है
कि बचने की कोशिश में और मारे जायें।

इतना निरापद मैं
मेरे पक्ष में कोई नहीं बोलने वाला
मारने वाले जानते हैं
अपनी बारी आ जाने से हर कोई डरता है

लेकिन जिसने हाकिम को हत्यारा देख लिया
जो बोलता है

वह चुपचाप नहीं मिटेगा।

-शशिभूषण(बया, जुलाई-सितंबर 2013 में प्रकाशित)

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

शब्द और स्मृति

लोकसेवक मालिक हैं। बापू कोई भी कहला सकता है। कहा जाता है कि सत्ताओं द्वारा अर्थ बदल दिये जाते हैं। स्मृतियाँ झुठला दी जाती हैं। शासकों के संबोधन मे अर्थ और स्मृतियों की बड़ी गूँज सुनायी देती है । लेकिन आदेशों में ईमानदार और निर्दोषों के लिए सज़ा होती है। कहा जाता है कि सब स्वतंत्र हैं। लेकिन जो कहा जाये वही करने की आज़ादी है। सभी दफ्तरों में गाँधी जी की तस्वीर देखी जा सकती है। गाँधी जी की स्मृति दफ्तर में शायद ही कभी आती हो। लोकसेवक जिस वेश भूषा में गाँधी जी की तस्वीर के सामने या ठीक नीचे बैठते हैं उसकी तुलना अंबेडकर से की जा सकती है। लेकिन दफ्तर में अंबेडकर की ही स्मृति आती हो ऐसा नहीं है। लोकसेवक अंबेडकर और गाँधी को अपनी जेब में रखते हैं। बोलने का हक़ सबको है। कहा तो यहाँ तक जाता है ...लेकिन सरकार का मतलब आज तक नहीं बदला। सही सत्ता पकड़ने के हाँके में भी जंगल काँपता है। जिसकी सुनी जाती है देश उससे चलता है। अर्थ और स्मृतियों का क्या है उनसे केवल कुछ दीवाने पैदा होते हैं। 

-शशिभूषण