शुक्रवार, 11 जून 2010

साहित्य की एक सरल भावुक समझ



प्रार्थना एक पवित्र अपेक्षा होती है.एक ऐसी निश्छल कामना जो उपजती तो अपनी असमर्थता से है लेकिन बहुत ताक़तवर होती है.जब भी बुराई हारी है वह वास्तव में प्रार्थना की जीत थी.मैं जब भी यह श्लोक गुनगुनाता हूँ-सर्वे भवन्तु सुखिन:/सर्वे सन्तु निरामया:/सर्वे भद्राणि पश्यन्तु/मा कश्चिद दुख-भाग भवेत्.तो इसमें निहित करुणा और प्रेम से मेरी आँखें भर आती हैं.मैं कल्पना नहीं कर पाता कि हृदय की उदारता इससे बड़ी हो सकती है...जिसकी वाणी से ये बोल फूटे होंगे वह सच्चा कवि रहा होगा...कवि,जिसके दिल में जगत कल्याण की प्रार्थना रहती है.

इसी तरह जब मैं ईदगाह कहानी के हामिद को याद करता हूँ तो आँखों में आँसू आ जाते हैं.मेले से लौटा हामिद बूढ़ी दादी के लिए चिमटा लेकर आया है.दादी की आँखों से आँसू झर रहे हैं वह बच्चे के लिए दुआ कर रही है...बच्चे के लिए यह एक कथाकार की दुआ है.सोचता हूँ मूल रूप में कवि और कथाकार की आकाँक्षा में अंतर नहीं होता.इंकार और प्रतिरोध प्रार्थना के बल हैं.साहित्य की आकांक्षा प्रार्थना जैसी होती है.साहित्य,प्रार्थना की छाँव है कहें तो गलत नहीं होगा.