बुधवार, 31 अगस्त 2016

शुभम् करोति कल्याणम्.....



शुभम श्री को कविता 'पोएट्री मैनेजमेंट' पर मिले भारतभूषण अग्रवाल सम्मान के तत्काल बाद विवाद और संवाद की बाढ़ सी आ गयी थी। समर्थन और विरोध दोनों में लेखक आ जुटे। सम्मान के निर्णायक थे प्रसिद्ध और अद्वितीय कवि-कथाकार-फिल्मकार उदय प्रकाश। समकालीन हिंदी साहित्य में दखल रखने वाले अधिकांश लेखकों ने इस सम्मान के बहाने पुरष्कृत कविता और हिंदी कविता की गौरतलब प्रवृत्तियों पर अपनी राय देकर इसे एक अविस्मरणीय घटना बना दिया। इसी श्रंखला में यहाँ साभार प्रस्तुत है मशहूर मासिक पत्रिका 'कथादेश' में प्रकाशित ख्यात चित्रकार, कहानीकार और चिंतक प्रभु जोशी का दृष्टिसंपन्न लेख। उम्मीद है इस लेख से एक गंभीर बहस शुरू होगी। पहला पैराग्राफ़  प्रभु जोशी की ही एक फेसबुक टिप्पणी है- ब्लॉगर

पश्चिम में दशकों पूर्व एक काव्य-युक्ति, साहित्यिक फैशन की तरह चली थी कि एक कवि, अपनी तरफ जनाकर्षण के लिए 'परंपरागत पावित्र्य में द्रोह' का वितान रच कर, उसे आराजकता की सीमा के निकट जा कर संकट ग्रस्त करता। और इस तरह उसे प्रश्नांकित करता। मसलन, मसीह के शिश्न से वीर्यपात हो रहा है। या यीशु, स्ट्रेप्टीज नृत्य करते हुए, अपनी देह के एकमात्र वस्त्र को उतार देते है। कुलमिला कर अश्लीलता को अश्वशक्ति के साथ इस्तेमाल किया जाता। सलमान रुश्दी ने एकेश्वरवादी इस्लाम के साथ ऐसी ही पवित्र को संकटग्रस्त करने वाली , इसी फैशन की झोंक में जो किया, तो इस्लाम ने उसे अपने अस्तिव के विरुध्द एक चुनौती की तरह लिया और विश्व भर में उसको लेकर विवाद खड़ा कर दिया। फ़्रांस में व्यंगचित्रकार ने भी तो यही किया था। लेकिन हिन्दुत्व , एक देव् बहुल धर्म है, जिसमें , सूअर की शक्ल के भी देवता है और अप्रतिम सुन्दर कृष्ण भी। इसमें पवित्रता का पूज्य प्रतिमान रचने वाली पञ्च कन्याये है और वे विवाह पूर्व ही अपने कौमार्य को विसर्जित कर चुकी है। सरस्वती, विद्या और ज्ञान की देवी है और पिता बृह्मा से छली गयी हैं ।इस लिए ऐसे ढीले ढाले तैंतीस करोड़ बेव आबादी वाले , धर्म में अराजक हो कर , अश्लीलता के आश्रय से कुछ भी ध्वंस कर दे। फर्क नहीं पड़ता। फिर कवि के ऐसे काव्य-कृत्य, से असहमति व्यक्त करने वाले में एक डर, ये भी ठूंस ठूंस कर भर चुका है, कि ऐसे काव्य कृत्य की आलोचना से वह साहित्य के बाड़े से ही बाहर कर दिया जायेगा। दरअसल , वह प्राच्य के ज्ञान की एक पूर्वग्रह् युक्त समझ की भूल-भलैय्या में फंसा हुआ है, नतीजतंन ,, कविता की ऐसी निरर्थ फैशन को समकाल की महान कविता समझ रहा है। ये बहुत दिलचस्प बात है कि कविता के इतिहास में 'अतिशय संरक्षणवाद ' ने, बहुत सारी प्रतिभाओं हमेशा के लिए अपाहिज और वध्य बना दिया। गार्डनर ने ठीक इस प्रवृत्ति की ओर इशारा किया, अक्लमंद आलोचक कभी भी कवी के माथे पर छत्र लेकर नहीं चलता। और, और ये भी कि कवि के आरंभ के जीवन में , की गई उसकी भूरी भूरी प्रसंशाये, कुछ ही समय बाद उस के साथ बुरी तरह पेश आती हैं।

हिन्दी कविता के क्षितिज पर एक नवोदिता के ‘आकस्मिक’ उदय का हो-हल्ला, इस दुर्घटना के कारण हो गया कि उसकी एक कविता को ‘भारत-भूषण सम्मान’ दे दिया गया। कहना न होगा कि हिन्दी कविता के परिसर में, अधिकांश काव्य-नागरिकों की बिरादरी के बीच, यह पुरस्कार, एक प्रवेश-पत्र की ही अधिमान्यता रखने का, एक लंबे समय से भ्रम निर्मित करने की अपने सामर्थ्य को, सुरक्षित रखे हुए है। अर्थात्, इस पुरस्कार को प्राप्त करने के बाद, सहज ही, यह मिथ्या विश्वास निर्मित हो जाता है कि पुरस्कार ग्रहणकर्ता, कविता के उच्चासन पर, अब हमेशा के लिये विराजित हो जाएगा। और अभी तक के शेष-सर्जक, उसकी उपस्थिति की चमक के सामने निष्प्रभ हो जाएँगे। कदाचित् ,इसी वजह से ही हिन्दी-पट्टी के ‘काव्य-कुटुम्ब’ में, एक चतुर्दिक कोहराम-सा मचा हुआ है। कईयों ने, इस अप्रत्याशित घटना से दुखी हो कर, कविता के कपाल पर हाथ मार कर; मातम मनाया कि ऐसी कविता को पुरस्कार से विभूषित करना, यानि एक अनिष्ट का अविलम्ब आगमन है। कुछ ऐसे भी रहे जिन्हें ‘नए’ के ‘स्वागत’ में आतुरता दिखाना और ‘पुराने के दमन’ के लिए दहाड़ने में, उन्हें स्वयम् को ‘साहित्य के भविष्यदृष्टा के रूप में दिखाई देने’ की संतुष्टि मिलती है। वे आरती के लिए थालियों में कपूर लिए दिखने भी लगे हैं। 

वैसे, यह एक दिलचस्प बात है कि हिन्दी के हलकों के हरकारे, हमेशा से ही दो विपरीत छोरों में छंटे और बंटे हुए रहे हैं। या तो वे, स्तुतियों की भाषा में भाव-विभोर हो जाते हैं या, फिर घृणा के घनघोर में घुसे मिलते हैं। कुल मिलाकर, वे विह्वलता के ही अधीन रहते हैं। मतलब कि कतिपय, भाव-विह्वल तो कतिपय, विचार-विह्वल। परन्तु मुझे खुशी हुई, उस पुरस्कृत कविता तथा उसकी दो एक अन्य कविताओं को पढ़ कर कि ‘मेक इन इंडिया’ के मोदी-मार्का आह्वान के समय में, हिन्दी में ‘कवितोत्पादन’ के लिए, अंतर्जाल पर दिखाई देती, पश्चिम की ही ‘मेकिंग ऑफ पोएट्री’ की पापुलिज्म वाली, मनोरंजक तकनीक का, अब विधिवत् प्रवेश हो गया है। यह एक मसखरी के रोचक ‘जुगाड़’ से, कविता के निर्माण की एक अबोध-सी जान पड़ती, शुभम् शुरुआत है। अतः इस पर इतना गगनभेदी तुमुलनाद किसलिए?

जैसा कि स्पष्ट है, पुरस्कृत कविता को, हमारे ‘समकाल के काव्य-विवके’ से भरे, हिन्दी-साहित्य में, नक्षत्र की तरह दमकते एक सर्जक ने चुना है तो निर्विवाद रूप से, उस कविता के भीतर, कुछ ऐसा अप्रतिम तत्व, अनिवार्यतः वहां उपस्थित होगा ही, जिसके चलते वह कविता चयनकर्ता को तमाम युवाओं की कविता के बीच, सर्वथा उत्कृष्ट लगी होगी। शायद, उसकी अलक्षित उत्कृष्टता ने, स्वयं के लिए, ‘कृति’ का दर्जा पाने की मांग, पुरस्कार के निर्णायक से, काफी पुरज़ोर ढंग से की होगी और वह, उसके काव्य-तत्व की विशिष्टता सामने, अन्ततः नतमस्तक होने को बाध्य हो गया हो। फिर, इस बात को पहचान लेना भी तो अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ‘युग-विशेष’ की प्रथम श्रेणी की प्रतिभा, कभी भी ‘सामान्य रुचि’ के अधीन रहकर, उसके ‘आनंदोत्सव’ का हिस्सा बनने के प्रस्ताव को, हमेंशा के ही खारिज करती आई है। अतः यह स्वतः स्पष्ट है कि इस, एक पुरस्कृत कविता ने, यह, एक लम्बी कालावधि से स्थगित काम तो आसानी से सम्पन्न कर ही दिया कि पिछले पचास-सौ वर्षों से, अभी तक लिखी चली जा रही कविता के ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ के, विसर्जन की घड़ी आ चुकी है। यह सारी हलातोल, इस अभी तक की चली आ रही कविता-परंपरा के विसर्जन के संकेत को, पढ़ लेने की ही तो है। यों भी, भूमंडलीकरण के भम्भड़ में, किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति के लिए, अनिंद्य रहना, उसे काफी हद तक शर्मसार बना देता है। फिर जे॰एन॰यू में जन्मी इस काव्य-सत्ता की तो यह पहली प्रतिज्ञा बनती है कि यदि वह विवाद न खड़ा कर पाये तो, निस्संदेह उसमें स्पष्टतः ‘क्रिएटिव-थ्रिल’ का अभाव समझा जायेगा। 

मुझे हिन्दी आलोचना की बिरादरी अमूमन, फ्रेंच लेखक मौलिये के उन नीम-हकीम चिकित्सकों की बरबस ही याद दिलाती है जो, रोग के यथोचित निदान में, अपनी ‘अल्पज्ञता’ की वजह से चूकती रहती है। क्योंकि, वह अधैर्य की शिकार है, नतीज़तन, देखते ही अविलम्ब उपचार में भिड़ जाती है। सो, उन्होनें लगे हाथ, उस कविता में एक काव्य-रुग्णता का निदान किया और अपने पुराने और बासी पड़ चुके नुसखों के सहारे, उसका उपचार करना शुरू कर दिया।

पिछले वर्षों में, युवा प्रजाति के बीच, महाकवि की ऊंचाई को प्राप्त कर चुके, पीयूष मिश्रा और इसी तरह के चित्रपटीय ‘अन्यों’ ने, अपनी ‘मौलिकता के मुरीदों’ की, एक बड़ी तादाद पैदा कर दी है, जिसके चलते कविता में, एक नए ‘बाँकपन’ की अपेक्षाएँ अत्यधिक बढ़ गई हैं। बहरहाल, इस पुरस्कृत कविता में भी ‘बाँकपन’ है, ‘बालपन’ नहीं। क्योंकि, कुछ लोग, पुरस्कृत कविता की रचयिता को ‘लड़की-लड़की’ कह कर, उसकी काव्य-चेष्टा को बार-बार ‘बालपन’ की तरह देखने की त्रुटि कर रहे हैं। जबकि, वह हिन्दी की उत्तर-आधुनिक कविता की ‘श्री’ युक्त शुभम् है। वह, श्री-हीन नहीं है, क्योंकि अब श्री-हीन होने का समय तो कभी का बिदा मांग कर चला गया है। अब तो पुराने को ‘श्री-हीन’ करने का समय है। फिर वह बालिग भी है, इसका प्रमाण उसके परिपक्व और गहन काव्यानुभवों से प्रमाणित भी होता हैं।

कहना न होगा कि मेरे समझ से, यह तह-ओ-बाल, इसलिए भी मार-तमाम मचा हुआ है कि अब हमारी आलोचना, साहित्य के भग्नावेश में, एक वृद्ध-स्वामिनी का जीवन जी रही है। वह लिखती तो है ही नहीं, बल्कि बोलने भी कम लगी है। क्योंकि, वह, अब अपने वर्चस्व के अन्तिम चरण में है। उसकी दशा-दुर्दशा, भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ़ की दावत’ की उस माँ की तरह हो गई है, जो घर के पिछले हिस्से के अंधेरे बंद कमरे में, अपनी जर्जर काया के साथ जी रही है। 

मित्रो, हर्बर्ट मार्क्यूज ने कहा था,‘फॉर्म एक्सप्लोडस्’ अर्थात् कलाओं में, जितने भी परिवर्तनकारी ‘नवाचार’ ( पददवअंजपवदे) हुए हैं, वे सबसे पहले वहां, ‘फॉर्म’ के स्तर पर ही होते रहे हैं। हालाँकि, अब यह पूछा जाना, सचमुच ही निरर्थ होगा कि वे ‘पददवअंजपवद कितने असली-नकली रहे, याकि कितने अल्पायु-दीर्घायु रहे हैं। 

़यह कविता, और उन अन्य कविताओं की गढन्त की भंगिमा, जिसको लेकर चतुर्दिक चर्चा और चिख-चिख चल रही है; वह मूलतः उनके ‘फॉर्म’ के स्तर पर ही हैं। यहाँ हमको, इस बात पर, खासतौर पर गौर करना होगा कि, जितने भी ‘नवाचार’, ‘कथ्य’ या ‘रूप’ के स्तर पर हुए, वे सबसे पहले ‘कला’ के क्षेत्र में घटित हुए, और इसके पश्चात् कुछ विलंब से साहित्य में प्रकट हुए। फिर चाहे, वह ‘मॉडर्निज्म’ हो या ‘पोस्ट- मॉडर्निज्म’, ये दोनों ही पहले मूलतः कला-जगत में ही नुमायाँ हुए हैं। साहित्य में तो में काफी देर बाद में। इसलिए, मुझे इस नये मिजाज की कविता पर बात करने के लिए कला के, पश्चिम के आंदोलनों की ओर कुछ-कुछ कूच करना पड़ेगा।

मैं कहने की अनुमति चाहूँगा कि कला के इतिहास में, जब भी ‘नवाचार’ का शंख फूंका गया, तो ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि उसने, अपने ‘समकाल’ के महानों का मस्तकाभिषेक किया हो। कलाओं में, ऐसा सौभाग्यशाली कालखण्ड कभी आया ही नहीं। उल्टे ‘नवाचार’ ने अपने आगमन के साथ ही, अपने समय के जीवित और मृत-महानों का, मान-मर्दन और शिरोच्छेदन ही किया। अँग्रेजी कविता में, ई॰ई॰ कमिंग्स की शरारतों को याद कर लीजिये। फ्रेंच कविता और कला में, नयों ने अपने ‘समकाल’ के महानों के वंश-वृक्ष के जड़ों में, तेल की तरह, अपने कविता-गिरोह के केवल तीन-चार रचनाकारों की सृजनात्मकता को छाछ की तरह उड़ेंला। अंग्रेजी में टी. एस. एलियट और फ्रेंच में, मलार्मे और पॉल वेलेरी ने भी ये ही कर्मकाण्ड किये क्योंकि ये तीनों ही ‘पोएट टर्न्ड क्रिटिक’ भी थे और उन्हें अपना रथ हांकना था। इसलिये कुछ अतिरिक्त निर्ममता के साथ वे पेश आये।

निर्विवाद रूप से सौन्दर्य, एक शाश्वत किस्म का ‘अभिव्यक्त औचित्य’ है और कला और साहित्य में, उसे उलटने के लिए, युग लगते हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश, उसे समय से पूर्व ही उलटने की चेष्टा की गई तो वह ‘उत्कृष्टता’ के सहारे से नहीं बल्कि ‘निकृष्ट’ युक्तियों के आश्रय से ही हुआ है। हम यहां अपनी बात, कला के क्षेत्र के सन्दर्भ को सामने रखकर करें तो अमूमन होता यही रहा कि एक अप्रत्याशित आकस्मिकता, अपनी ‘फूहड़ता’ के रूप में, सबसे अमोघ अस्त्र की तरह से सामने आती रही है। याद रखिए कि ‘फूहड़ता’, ज्ञान के ‘अभाव’ से भी आती है और ज्ञान के ‘आधिक्य’ से भी। अलबत्ता, ‘ज्ञान के आधिक्य’ से आने वाली ‘फूहड़ता’ सर्वाधिक घातक होती है। क्योंकि, ‘अभाव’ से आने वाली ‘फूहड़ता’, पूरी तरह वध्य होती है। उसका यथा-समय अवसान भी हो जाता है, लेकिन ‘ज्ञान के आधिक्य’ से आई ‘फूहड़ता’, अपनी ‘आत्म रक्षा के तमाम कवच-कुण्डलों’ के साथ जन्म लेती है। उसमें, बौद्धिक-धूर्तता की, एक बहुत ही परिष्कृत प्रविधि, अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर काम करती है। वह अपने आसपास, तर्क का ऐसा बारीक जाल बुनती है, जिस के भीतर से गरजता-गूँजता समुद्र तो गुजर जाता है, लेकिन उसको दंश मार कर खत्म करने वाले व्याल उलझ जाते हैं। कई बार तो, वह एक खामोश अराजकता के नैपथ्य में आती है। और कहने दीजिये कि वह एक मादा-श्वान की तरह आती है, जो अपने ही जन्मे को जीम जाती है, बहुत नृशंसता के साथ।

पश्चिम में, जब कला के ‘ज्ञानग्रस्त’ लोगों, जिनके पीछे एक बड़ी कूटनीति भी काम कर रही थी, ने तय किया कि प्रचलित कला-प्रवृत्ति को अपदस्थ करना है तो उन्होंने स्थापनाएं देना शुरू की कि हर ‘चित्रकृति’ अपनी दृष्य-भाषा से इनकार करती हुई, अपनी अन्तिम इच्छा में, अन्ततः शब्द हो जाना चाहती है- तो ‘कलागत‘ विजुअल’ सौन्दर्य को झाड़कर, ‘फूहड़ता’ को वरेण्य बनाया गया और कला में, ‘डिस्टार्शन’ के पक्ष में, तर्कों का ऐसा जाल बुना कि ‘विरूपता’ ने अपने लिए सम्मानजनक जगह और स्वीकृति हथिया ली। ‘क्लासिक और कैनन’ का द्वन्द्व ही निर्मूल होने लगा। जिसके पास भी, रंग और कैनवास खरीदने की पर्याप्त कुव्वत थी- वह भी कलाकार होने का जयघोष करने के योग्य हो गया। ध्यान रखिये कि हमेशा से ही ऐसा ‘उथलधडा‘ सिर्फ ‘अस्थिरता’ के युग में ही होता आया है। ‘अस्थिरता’ का युग ही ‘फैशन’ का जन्मदाता होता है। ‘अस्थिरता’ के युग में, ‘फैशन’ सामाजिक जीवन मे मौजूद सभी तरह के अनुशासनों की गर्दन पर सवार हो जाती है। ‘फैशन’, चाहे वह साहित्य की हो या कला की, वह ‘विचारहीनता’ के एक अवध्य से जान पडते, ‘धूर्त विचार’ का वर्चस्व बनाती है। और जल्दी ही ‘सर्वस्व’ को अपने अधीन कर लेती है। डेविड हॉकनी से लगाकर, उस कालखण्ड के सभी कथित आधुनिक कलाकार, ‘विरूपन’ और ‘फूहड़ता’ को, अपनी कृतियों के ज़रिये नहीं, बल्कि हार्वर्ड और येल विश्वविद्यालयों के कला-स्नातकों की, ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता’ के सहारे ही, कला की उस ‘सौन्दर्य-दृष्टि’ को ध्वस्त करने में लगे थे, क्योंकि, उसके सहारे से ही, सोवित-रूस की कला, शेष-संसार के चित्रकारों को अपने दायरे में, बडी तेजी से खींच कर लेती जा रही थी। अमेरिका की ‘शीतयुध्द-कालीन’ रणनीति के लिए, यह एक अत्यन्त चुनौतीपूर्ण काम था।

कहना चाहिये कि तब अमेरिकी कूटनीति के शिल्पकार ,तीसरी दुनिया के देशों में, कला का ‘लाक्षागृह’ खड़ा कर रहे थे और ‘वाम-चिंतन’ के लगभग ‘माचिस’ मानकर, उसे दूर भगाने में जुट गए थे। यह, विश्व में सांस्कृतिक स्तर पर भी लडाई का दौर था, जिसमें सारी साजिशें काफी कुछ गुप्त थीं। क्योंकि, संस्कृति, साहित्य और कला में, ‘विनष्टीकरण’ के लिये औपनिवेशिक शक्तियों की कूटनीतिक गाइडलाइन ये थी कि ‘ दीज़ आर टु बी किल्ड विथ काइण्डनेस’। उन्हें , शनैः शनैः और ममत्व से मारा जाये। यही कारण रहा आया कि वे प्रकट ही तब होती दिखतीं थी, जब वे सर्वग्रासी हो चुकती थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे लोग, उस ध्वंस में सफल भी हो गये। क्योंकि, उसके पीछे रॉकफेलर फाउंण्डेशन के सी॰आय॰ए॰ द्वारा दिया गया वह धन था, जो अड़तीस देशों के कलाकारों को, उनके द्वारा कैनवास पर की गई किसी भी प्रकार की ‘फूहड़ता और मूर्खता’ को ‘अव्दितीय’ बताकर, अपने अधीन कर रहा था। उसी ने ‘कला’ और ‘साहित्य’ में वाम-विचार के प्रति बढ़ती आसक्ति को नष्ट करके, कथित ‘आधुनिकतावाद’ से नाथ दिया। यह, उनकी सफलता का प्रथम चरण था। 

भारतीय-कला, में इस ‘फूहड़ता’ को, आजीवन अपनी कला की ‘आत्मा’ से चिपकाये रहने वाले कलाकार का सर्वोत्तम उदाहरण मिलता है, फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के रूप में, जो ‘फूहड़ता और विकृति’ को अपनी कला के, ‘कथ्य’ और ‘रूप’ में, ठूँस- ठूँस कर भरने में सफल रहे। उनका भारतीय-कला में सबसे बड़ा योगदान, अगर कोई है तो बस इतना ही है कि उन्होंने, भारत में, कला-आलोचक के ‘कूड़े’ को कूड़ा’ कह सकने के बौद्धिक-पुरुषार्थ का बधियाकरण कर दिया। क्योंकि, तब तक उनकी, लगभग ‘कलर्ड गारबेज’ की तरह दिखाई देती कृतियों के पीछे पूँजी आकर खड़ी हो गई थी। नतीज़तन, भारत के कथित कला बाजार में, इस रंगीन कूडे की कीमत करोडों में हो गयी थी।

यहाँ, मुझे यह याद दिलाना ज़रूरी लगता है कि जब अमृता शेरगिल, पश्चिम से लौटी थीं तो वह, यह कहती हुई आई थीं कि ‘पिकासो, पश्चिम तुम्हारा है, मेरा तो पूरब ही है।’ वह भारतीय-चित्रकला के इतिहास में, पहली सुविज्ञ कला-दृष्टि के साथ आई थी, जिसने अपनी देशज परंपरा के भीतर से ही ‘नवोन्मेष’ को आविष्कृत करते हुए, ‘आधुनिकता’ का, वह ‘रूप-स्वरूप’ गढ़ा, जिसके गुणसूत्र, अपनी जड़ों और पुरातन-परम्परा से अभिन्न रूप से नालबध्द थे। लेकिन, पश्चिम के दबाव और नेहरू के आधुनिक-भारत के रेडीमेड स्वप्न ने, जल्दी उस कला-चेष्टा को, विस्मृति के गर्भ में दफ़्न कर दिया। यही वह वजह रही है कि इस कृतघ्न राष्ट ने अमृता शेरगिल को एकदम से भुला ही दिया। कला-आलोचक, हर्बर्ट रीड, जब भारत आए थे तो उन्होंने गहरी वितृष्णा में, भर कर कहा था कि मुझे तो ये उम्मीद थी कि भारत अपनी हज़ारों वर्षों की संस्कृति, साहित्य और कला परम्परा के भीतर से, ‘अपनी ही तरह’ की कोई ‘आधुनिकता’ विकसित कर लेगा, लेकिन वह तो उल्टे, अपने ‘स्वत्व’ को विस्मृत करके, पश्चिम के उच्छिष्ट में ही अपना कला-आस्वाद ढूंढ रहा है।

बहरहाल, प्रसंगवश, यहाँ पर मैं फ्रांस के कुछ कलाकारों के द्वारा किए गए, एक रोचक स्वांग का उल्लेख करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ। उन कलाकारों ने पूरी तैयारी से, एक कैनवास को मेज पर रखा और उस के निकट एक गधे को खड़ा करके, उसकी पूँछ से रंगों में डूबे ब्रश को बांध दिया और फिर उसे चारों कोनों में घुमाया। नतीज़तन, तरह-तरह के आकारों के रंगीन चकत्ते कैनवास पर, सब दूर बन गए। इस पूरे कर्मकाण्ड के साक्षी के रूप में, उन्होंने कला-जगत के एक प्रतिष्ठित और वरिष्ठ कला-पारखी को, पहिले से ही नियुक्त कर लिया था ताकि वह कैनवास पर घटती प्रक्रिया को प्रमाणित कर सके। बाद इसके, उन्होंने इस कैनवास को, एक उत्कृष्ट फ्रेम में मढ़ कर, फ्रांस की चर्चित कला-दीर्घा में प्रदर्शनार्थ रख कर, कला-समीक्षा के क्षेत्र के तत्कालीन दिग्गजों को आमंत्रित करके, उनसे उस ‘कृति’ के मूल्यांकन का आग्रह किया गया। चि़त्रकृति का एक गूढ़ और जटिल शीर्षक भी दिया गया। कला-मर्मज्ञों ने कृति पर विभिन्न कोणों और आयामों पर, गहन मंथन करने के उपरान्त अपनी-अपनी सारगर्भित टिप्पणियाँ दीं। जो ध्यान देने योग्य हैं। एक ने लिखा- “यह चित्रकार की आत्मा के भीतर की छटपटाहट की, एक गहन रंगाभिव्यक्ति है, जिसमें उसने रेखांकनों को भी निरस्त कर दिया, क्योंकि रेखांकन बंधन है।“ दूसरे ने लिखा- ‘चितेरे ने गहन दार्शनिक चिंतन के सहारे, आकारों को अवसाद से, जिस तरह भरा है, वह कला के क्षेत्र में, नए अध्याय के आरंभ के संकेत देता है’। तीसरे ने लिखा- ‘यह मन की अव्यक्त पीड़ा का काव्यात्मक रूपांकन है’। और चौथे की टिप्पणी थी-‘एक विश्रंृखलित कालखण्ड को रूपांतरित करती हुई, यह अद्भुत रंग-दग्ध चित्रकृति है’।

कुल मिलाकर, कला-मर्मज्ञों की अभिव्यक्तियों ने लोगों में, कृति के रचयिता कलाकार से मिलने की अनियंत्रित उत्कंठा पैदा कर दी। तब कृतिकार को, सबके सामने प्रस्तुत किया गया, जिसकी पूँछ में विभिन्न रंगों से सनी तूलिकाएँ लटक रही थीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह प्रसंग, कला-मर्मज्ञों द्वारा अपनी विवेचना में किये गये, ‘निरर्थ शब्द-निवेश’ के खोखलेपन पर सर्वाधिक समर्थ कटाक्ष करने वाला सार्थक स्वांग सिद्ध हुआ। 

मैं देख रहा हूँ कि शुभम्श्री की काव्य-चेष्टा पर, जिस तरह कुछ कवियों और हिन्दी आलोचना के काव्य-मर्मज्ञों की गहन दार्शनिक और समाजशास्त्रीय मुद्रा में किये गये विवेचन से भरी टिप्पणियां आई हैं, वे प्रकारान्तर से उस युवा कवि की कविताओं को, हिन्दी के काव्येतिहास के लिये युगांतरकारी सिद्ध करने में आकाश-पाताल एक करती जान पड़ती हैं। वे लोगए उसकी कविता की रक्षा मेंए इस तरह तैनात और सावधान हैं कि यदि प्रलय हो तो सारा साज्यि चाहे डूब जाय, पर इन कविताओं को पवित्र देवशिशु की तरह बचाना है। 

दरअस्ल, दुर्भाग्यवश हो यह रहा है कि इस विदूषकीय समय में, ‘कवि या रचनाकार’ उतना डरा हुआ नहीं है, जितना कि कविता का मूल्यांकनकर्ता। क्योंकि, मूल्यांकनकर्ता मूलतः, डर इस बात से रहा है, कि कहीं इस कविता की आलोचना से, उसकी अभी तक की कविता सम्बन्धी समझ ही संदिग्ध न हो जाये, क्योंकि उसकी कविता का चयन, अंततः समकाल के साहित्य के सूर्यमुखी कवि कथाकार और पूर्व जे॰एन॰यू॰ प्रोफेसर ने किया है। उसके द्वारा ‘चयन’ का अर्थ ही, उस कविता की उत्कृष्टतम होने की एक निर्विवाद घोषणा है। अब फिर, हम उस पर क्या प्रकाश डालें केवल अक्षत-कुंकुम के सिवाय। 

इसी क्रम में, मुझे कविता के क्षेत्र में की गई एक और प्रीतिकर युक्ति याद आ रही है। वह कला का ‘डाडाइज््म’ का दौर था। 1924 में फ्रेंच कवि लुई अरांगा ने, एक कालजयी कविता के लिख चुकने की घोषणा की और कहा कि वह उनकी युगांतरकारी कविता है। उसने रोमन-लिपि की वर्णमाला के अक्षरों को, काव्यपंक्ति के संयोजन में, जस-का-तस लिख दिया

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हमारे यहाँ, ‘पूर्वग्रह’ पत्रिका में, भोपाल के वरिष्ठ कवि श्री ध्रुव शुक्ल ने भी इसी तरह की ही प्रयोगशील कविता लिखी थी। उन्होंने, कविता के नाम पर, पूरी बारहखड़ी लिख दी थी। वे उसका एक रोचक नाटकीय पाठ भी कई मंचों पर करते रहें हैं। मैंने भारत-भवन में, एक काव्य-मर्मज्ञ से, इस कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा सुनी थी, जिसमें उन्होनें कविता को कालजयी बताते हुए कहा था कि ‘संसार की सारी कविता को समेटने वाली, यह एक कालजयी कविता है- जिसके बीच संसार के सभी ‘आदि’ से ‘अंत’ तक के अनुभव व्यक्त हो रहे हैं।’ यह एक अव्दितीय व अद्भुत कविता है। तब भोपाल स्कूल की स्थिति ऐसी विकट थी कि कविता या कलाकृति के बारे में मुँह खोलते ही हरेक से, ‘अद्भुत’ शब्द निकलता था और यदि इस शब्द की मनाही हो जाती तो वे लगभग गूँगे हो जाने की दुर्दम्य विवशता से घिर जाते। जबकि लुई अरागॉ की कविताएं तत्कालीन काव्यालोचना के खोखलेपन के प्रति कटाक्ष के लिये लिखी गई थी।

बहरहाल, यह हिन्दी की कविता के बाड़े में हक्की और बक्की कर देने वाली दूसरी साहित्यिक घटना है, जब कई ‘कवितज्ञ’ इन की कविताओं के बारे में, असहमति व्यक्त करने से भयभीत हैं। अतः अब ऐसे काव्य पुरुषों के बारे में, क्या कहा जाये? दरअस्ल, देखा जाये तो ये लोग, कविता के बारे में भी स्पष्ट नहीं हैं। यहाँ तक कि वे स्वयं की समझ के बारे में भी स्पष्ट नहीं हैं। मित्रो, यह बहुत लज्जास्पद स्थिति है कि पचपन करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के साहित्य के भाग्य और भविष्य के मानचित्र का निर्धारण, जैसे इस कविता से होने जा रहा है। और यदिद इन कविताओं का आलोचना से क्षति पहुंची साहित्य का इहुत बउ़ा अहित हो जायेगा। 

हां, यह जरूर है कि इस सारे प्रपंच से, इन और इे तरह की कविताओं के यशस्वी होने के लिए, निस्संदेह पर्याप्त मात्रा में एक खुला ‘स्पेस’ मिलेगा और कवि इससे लगे हाथ ‘यंग सेलेब’ ही कहलाने लगे। यह भी हो सकता है कि, यह काव्य-प्रवृत्ति, कविता में एक नितान्त नए ‘सर्वोदय’ की महती संभावना के द्वार ही खोल दे। क्योंकि कविता में कुछ भी और किसी भी तरह की कोई भी बात या शब्द को मिला देने की युक्ति, एक सहज सरल जुगाड़ का ही पर्याय है। उत्त्र-आधुनिक आलोचक, इसे ‘पेस्टिश’ कहते हैं। कला में इीप पद दिनों नही हो रहा है कि कैनवास पर ‘अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौन्दर्य ना हो’ तो भी, उसके सामने चुरूट पीता हुआ, कला-समीक्षक कैनवास की तरफ, ऐसी नाटकीय दार्शनिक मुद्रा में देखता हुआ मिलेगा जैसे कि उसकी मुठभेड़, संसार की किसी जटिलतम-कलाभिव्यक्ति से मुठभेड़ हो गई है। फिर, हिन्दी के कवि कुनबे का यह भी तो सच है कि उसमें ‘नये’ के स्वागत के लिए एक विचित्र और असाध्य-सा अंधत्व पाया जा रहा है। ये लोग, नये की तरफ, लपक से इतने भरे हुए हैं कि वे अपना सब कुछ ‘पुराना’ फेंकने के लिए बेचैन हैं। अब ‘नये पैक में’ की विज्ञापन पंक्ति ही ðष्य में, भम्भड़ के भम्भड़ को खींच लेती है। और माल के क्रेताओं में धक्का-मुक्की होने लगती है। और, सही भी है, क्योंकि यह बता दिया गया है कि तुम ‘इतिहास बोध’ नहीं बल्कि ‘इतिहास के बोझ’ से लदे हो। निराला को ‘निबटाओ’, ‘फकीरी’ की गुहार लगाने वाले कवि को, इस हैप्पी-इकॉनोमिक्स वाले, उपभोक्ता युग में निकाल के बाहर फेंको। 

मुझे लगता है, इस कथित कविता के प्रतिभाशास्त्र ने कदाचित् इसी तरह के आह्वान को सुन कर ही निराला की ‘वीणा-वादिनी’ कविता के बरअक्स, अपनी ‘वीणा‘वादिनी’ के रचने के लिये गहरी चुनौती अनुभव की और एक कालजयी कविता का सृजन किया होगा। उस बहुप्रशंसित कविता ने, वीणा-वादिनी के पावि़त्र्य पर, जिस कला-कौशल्य से पोता फेरा, वह ‘अमेजिंग’ और ‘अनमैच्ड’ भी रहा। तभी तो उसने, भूरि-भूरि प्रशंसा हासिल की है। हमें उसको पढने के बाद लगता है कि उक्त कवित के पास, सहसा काव्य-दृष्टि का कोई ऐसा मैग्निीफाइंग-ग्लास हाथ लग गया है कि पहली बार किसी कविता में वीणा-वादिनी की रोमयुक्त योनि का प्रत्यक्ष-दर्शन हुआ। मुझे तो महाकवि निराला, हो सकता है, ‘महाकवि’ का विशेषण ही सुपाच्य ना हो और इससे खट्टी डकारें उठने लगें--- से निवेदन करने का मन होता है कि उनसे कहूं कि उन्हें कम-ज-कम, इस तरह की ‘युगान्तकारी’ प्रतिभा का तो आभार प्रकट करना ही चाहिये कि उसने केवल आपकी ‘वीणावादिनी’ पर ही कविता लिखी, आप पर नहीं। उसमें ‘नवोन्मेष’है। आपकी ‘वीणावादिनी’ पर, कोई उन्होंने लम्पट दृष्टि नहीं डाली है। लम्पट तो वे होगें, जो इस ‘दृष्टि’ को प्रश्नांकित करेंगे। वह तो युवा कवि का एक बिन्दास ‘एक्सप्रेशन है। कुण्ठित और शुचितावादी लोग इसमें अभद्रता देखते हैं।

बहरहाल, एक ‘कथित’ नवोन्मेष मैंने भी देखा ,जब मुक्तिबोध को, इस नई काव्य-वृत्ति के, एक युवा कार्ड होल्डर कवि ने, ‘मुक्तिचोद’ के ध्वनि-साम्य से जोड़ने के बाद, बाकायदा दांत निपोरते हुए, अपने उस काव्य-चातुर्य पर, मेरी तरफ कॉम्प्लीमण्ट की उम्मीद से देखा भी।, जैसे ‘भैंचो’ को आमिर खान ने ‘रैंचो’ में बदला और ‘भोसडी’ जैसे अपशब्द का, ‘बोस.डी. के. में रूपांतरित किया गया। अपनी समझ से उसने ‘मुक्तिबोध’ के नाम में, ये भाषिक-नवोन्मेष किया। दुर्भाग्यवश, ऐसी प्रतिभाएं, इतने विलम्ब के पश्चात् जाकर कहीं अपने को ‘युगान्तरकारी’ कहलाने की मांग की स्थिति में आ पायीं हैं। 

अतः, अब ये स्वीकार लीजिए कि यह कोई भारत-रुदन का समय नहीं है। मजे और मौज का है। ‘फन’ और ‘फक’ का दौर है। मनोरंजन, अब सभी अनुशासनों का अंतिम अभीष्ट है। उसने सब को अपने अधीन कर लिया है। इसी के चलते, हमारे समय और समाज के जटिल यथार्थ को, कच्चे माल की तरह उपयोग करते हुए, मसखरी का एक विराट कारोबार चल रहा है। हम अब शवयात्रा में भी, जब तक चिता, धूधू करके जलती है, वाट्स-एप्प के लतीफों से मनोरंजन का घूंट भरते रहते हैं। कह भी सकते हैं कि ‘मृत्यु-बोध के विरुद्ध, एक कारगर अस्त्र की तरह है, हँसी। रहो, हरदम हँसी के साथ। मनोरंजन चहु-दिस चाहिए। हँसो, हँसो और खूब हँसो। सब जगह हंसो आमतौर पर, और शवयात्रा में हंसो खासतौर पर। 

मिसाल के तौर पर, जब लोकसभा के ग्यारह सांसद, कदाचार और भ्रष्टाचार के कारण संसद से निकाले जाते हैं, तो अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बनने वाली हेडलाईन से पाठकों के मन में कतई कोई सामाजिक-क्रोध नहीं पैदा होता, बल्कि उसके उलट उसे आनन्द आता है। हेडलाईन होती है- इलेवन आऊट। यह खेल और मनोरंजन का मिक्स है। जिसमें मीडिया का महा-मिक्सर, खेल राजनीति, सेक्स, अर्थशास्त्र और पोर्न, इन सबको मनोरंजन के मीठे घोल में मथ देता है। ‘विचार’ को मनोरंजनग्राही नहीं, ‘मनोरंजनग्रस्त’ बनाया जा चुका है, फिर अपनी कविता में हिन्दी का युवा-कवि इसको मिक्स क्यों ना करे? फिर, मसखरी के उद्योग में लगे, माहिर लोग, यश और धन बटोरते हुए ‘बावनगजा’ की ऊँचाई ग्रहण कर चुके हैं। न कहो, एक दिन, हरिशंकर परसाई और शरद जोशी से अधिक साहित्यिक ऊँचाइयों के दावेदार, राजू श्रीवास्तव और कपिल शर्मा हो जायें, क्योंकि ‘परसाई और शरद जोशी’ ‘सेक्स का ‘मैजिकल मिक्स’ माल तैयार करने से परहेज किया करते थे। अब ये अवश्यम्भावी है चूंकि, युवा पीढ़ी में, पोर्न-क्लिप्स का सांस्कृतिक आदान-प्रदान, एक दैनंदिन का चरण-बद्ध कार्यक्रम है। इसलिये, कविता में भी इसका ‘मैजिकल-मिक्स’ कविता और उसके युवा उपभोक्ता की प्राथमिक डिमाण्ड है। ये भारत में सेक्स के आगे सदियों से लटकते सांस्कृतिक संकोच के नैपथ्य को, चिन्दी-चिन्दी कर डालने वाले, उस कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम की देन है, जिसके चलते पिछले दशक में, भारतीय समाज में ऐसी टेलिजिनिक मांएं अवतरित हुईं, जो अपनी लाड़लियों के पर्स में, मुस्कान के साथ कण्डोम का पैकेट रखकर खुश हो उठती थीं। वे उन्हें सेक्स-स्टार्विंग दुरावस्था से बाहर लाने में लगीं थीं। इसलिये, अब कविता में सेक्स खुल तो रहा ही है, खिल और खेल भी रहा है।

बहरहाल, पुरस्कृत काव्य-शैली वाली कविता, सच को भी सेक्स और सनसनी में सांधती है और उसे दाँत निपोरकर कहने में ही अपनी सार्थकता खोजती है। दाँत पीसकर कहने से ‘आनंदवाद’ का क्षय होता है। फिर, धीरे-धीरे इस पीढ़ी में, ‘थ्री ईडियट’ और ‘देल्ही-बेल्ही’ के बाद तो अपशब्दों में आत्म निर्भर होने की होड़-सी लगी है। और गालियां भर्त्सना का काम करने के बजाय, वे योनि और शिश्न केन्द्रित होने से, आनंद के आयामों को अधिकाधिक विस्तृत करती हैं। अब अपशब्द, फिल्म में ‘यथार्थ’ की, एक अनिवार्य कलात्मक मांग है। मजेदार तथ्य यह है कि एक भी गाली का उपयोग किये बगैर, सत्यजीत रे, विश्व में फिल्म की दुनिया के महान् ‘यथार्थवादी’ फिल्मकार मान लिये गये और गब्बरसींग, बिना एक भी अपशब्द का उपयोग किये, अभी भी वह सबसे बड़ा फिल्मी खलनायक है। यहा। यह भी याद रखिये कि दैनंदिन पोर्न का दृष्यपाठ भी, पीढी को बिन्दास बनाने में इमदाद करता है। बहरहाल, इस सब को सुन कर सिर मत पीटिये, बल्कि ताली पीटिये, क्योंकि यह ताली पीटने का ही युग है। यह मुट्ठी बांध कर, गुस्से में आवाज उठाने का नहीं है, मुट्ठी मार कर ‘विसर्जन’ का सुख बटोरने का है। ‘हस्तमैथुन’ हिन्दी में, अकविता के दौर में, शब्द की तरह आ चुका है। बहुत सम्भव है कि नेट-पोएटी के युग में, अंग्रेजी की चालू कविताओं के सहारे, जिस तरह से ‘सैनेटी नैपकिन’ और ‘ब्रेस्ट-कैंसर’ वाली, हिन्दी में कविता आ गई, वैसे ही ‘हस्तमैथुन पर लिखी गई, अंग्रेजी की ढेरों कविताएं, हिन्दी में एक चमत्कार की तरह किसी नई कविता को जन्म दे दे। जिस तरह वहां का, नेट पर बिखरा रंगीन कूड़ा --कलर्ड गारबेज-- यहां कलाकार पैदा कर रहा है, ठीक वैसे ही, महानगरीय विश्व-वि़द्यालयों में नेट का टैश, कवि पैदा कर रहा है। वह ‘सामाजिक-क्रोध’ को, ‘सामूहिक-हास्य और मसखरी’ के सहारे विसर्जित करने में बहुत बिन्दास है। इस पूरे पुरस्कार प्रसंग की मजेदार, हकीकत तो यह है कि इस तरह की कविताओं का पहरेदार-आलोचक, अपनी एक भी पंक्ति की भी बखिया उधड जाये तो बौखला उठता है। तुरंत ही उसकी आलोचना, शब्द के ‘जेंडर’ को सार्थक करते हुए, स्त्रैण अदा में मुँह फुला लेती है। मसखरी को कविता में देख कर मुग्ध होने वाली आलोचना, अपने विरोध पर, क्रोधाग्नि में भपकने लगती है। 

कुल मिलाकर, वस्तुस्थिति यह है कि, एक रुग्ण समय में, ‘समझ’ और ‘सोच’ भी, रुग्णता के अधीन रहते हुए, इतनी दुर्बल हो गई है कि उसकी घिग्घी बंध जाती है कि वह इन नई स्थापनाओं के समक्ष कैसे मुँह खोले? अगर, संयोग से आपको इस कविता पर बात करते हुए, दस आलोचक दिखाई देते हैं, तो वे आलोचना में ‘बहुल के जनतंत्र’ का कोई भास नहीं कराते। वे कोरस के कलाकार हैं। एक मुख्य-स्वर है, उसी में वे अपने अनुगमन का दिग्दर्शन करते हैं। वे दस अलग अलग सिर जरूर हैं लेकिन वे सब एक जैसा ही सोचते समझते और अपनी सहमतियाँ व्यक्त करते हैं। सिरों की संख्या दस होने से जनतंत्र की निर्मिति होती तो रावण, रामायण युग से जनतंत्र का विराट रूपक नहीं कहला रहा होता। 

इसी वजह से, मैं इस कविता के चयन को लेकर, यह अनुमान गढ़ रहा हूँ और कामना भी करता हूँ कि यह शायद कभी गलत ही सिद्ध हो जाये। बहरहाल, अनुमान यह है कि उदय मेरा प्रिय मित्र और कवि कथाकार है, और उसमें विनोद का एक अतुल कौशल्य है। वह ‘विनोद’ का या ‘विरोध’ का सृजन करके, वह तुरंत स्वय हीं, उससे दूरी बना लेता और सारे दृश्य का दूर बैठ कर आनंद लेता है। मसलन, पुरस्कार लौटाया और दशहरा मनाने अपने गाँव चला गया और बाकी लोग थे कि जन्तर-मन्तर पर इकट्ठे हो कर, तह-ओ-बाल मचाते रहे। क्योंकि, कविता की चयन दृष्टि पर मचते बवाल के बाद, इस टिप्पणी के लिखे जाने तक भी उदय की कोई टिप्पणी मुझे कहीं छपी दिखाई नहीं दी, अब तक तो। बल्कि, कहना चाहिए कि उसका मौन ही सर्वथा पूर्ण टिप्पणी बन रहा है। बहुत संभव है, वह रक्षा-बंधन मनाने गाँव चला गया हो। हिन्दी कविता के अस्त-समय में उदय का यह बहुत अद्भुत (!) विनोद है, जिसके शुक्ल पक्ष का मुझे इंतजार है। उदय की इस निर्णय-दृष्टि को, मैं फ्रांस के उन चित्रकारों के व्यंग्य-विनोद से कम कतई नहीं मानता, जिन्होंने कला-मर्मज्ञों के मुखौटे उतार कर, उनके खोखलेपन का दिग्दर्शन करा दिया था। यह हिन्दी की काव्य-विवेचना के आपादमस्तक निर्वसन होने की घड़ी है। क्योंकि ये कवितायें उनके बोलते ही उनकी समझ के अंग-वस्त्रों को उतार देंगी। 

दोस्तो, अगर इस तरह की कविता की कोई दार्शनिक मुद्रा में एक खोखला शब्द-निवेश करते हुए, रक्षा करने के जोश से आगे आता है तो वह अकूत मूढ़ता का मालिक है। यह विकृति या ‘फूहड़ता’ के पदार्पण के शुभ घड़ी है। आप तालियाँ बजाइये या गाल बजाइये। परंतु, यह नई काव्य-चेष्टा, पुरातन कविता की, आज के ‘युवा की भाषा के मीडियाई मुहावरे’ में कहूँ तो ‘बजाकर’ धर देगी। अब धूमिल की तरह, उसे व्याकरण की नाक पर रुमाल रख कर, ‘निष्ठा’ की तुक ‘विष्ठा’ से मिलाने में हिचकिचाहट कतई नहीं है। वह उस किस्म के मूढ-सांस्कृतिक संकोच से परे और काफी उंची उठ चुकी है।

बहरहाल, हमें इतनी जल्दी आशा नहीं छोड़नी चाहिए कि हो सकता है कि शीघ्र ही अगला कोई प्रतिभाग्रस्त कवि, अपने साहित्यिक-पुरुषार्थ के साथ, क्षितिज पर धूमकेतू की तरह प्रकट हो और गहरी सम्वेदना और ममत्व से भरी, सैनेट्री नैपकिन्स पर लिखी गई नेट-छाप कविता से, कुछ आगे कूच करते हुए, ‘विष्ठा’ पर ही कोई कालजयी कविता लेकर आ जाये और तब उसके पक्ष में हमारे समय और समाज की नब्ज पर हमेशा हाथ रख कर बैठे रहने वाले आलोचक-वृन्द प्रस्ताव करें--‘जब तक, विष्ठा एक सुंदर स्त्री की देह के भीतर थी, वह ‘स्त्री देह’ का ही सम्मान और सौन्दर्य प्राप्त किए हुए थी। लेकिन सहसा ऐसा क्यों है कि देह से बाहर आते ही, उसे इतनी घृण्य और जुगुप्सापूर्ण बताया जाने लगे? जबकि, वह भविष्य में अपना कायान्ंतरण करके, पौधे के प्राण तत्व को जैविक-शक्ति के रूप में, सुदृढ़ बनाने के अचूक गुणसूत्र रखती है। वह पृथ्वी पर हरियाली के रचने के स्वप्न के साथ देह से बहिष्कृत हुई है। और कहना न होगा कि केवल वह किसान-दृष्टि ही है, जो उसमें अन्तर्निहित शक्ति को चीन्ह पायी है। और उसे वह फसल के हित में सहेजती है।’ हो सकता है, हिन्दी के वे काव्य-पारखी, जो सैनेटरी नैपकिन की उपेक्षा से, उस ‘त्याज्य’के प्रति वत्सल-भाव से भर कर उस कविता पर मुग्ध रहे हैं, वे ही कुछ काव्य-नागरिक, मुझ पर थू-थू करें, या काशीनाथ के एक पात्र की तरह थूंकने ही लग जायें मुझ पर कि प्रभु जोशी कितनी विकृत और जुगुप्सा भरी बात कर रहा है- लेकिन, मित्रो, जब पश्चिम की कला के उच्छिष्ट पर ही हमारी कविता की सौन्दर्य-बुद्धि जीवित है तो यह बता दूँ कि कला की ‘इन्स्टालेशन विधा’ में जब कई-एक कलाकारों ने सेनेटरी नेपकिन्स को चित्र प्रदर्शनी में स्थापित किया और उसे कृति का सम्मान दिलाया तो कुछ कलाकारों ने उत्साह के साथ, अन्य ‘त्याज्य’ की तरफ भी अपना ध्यान केन्द्रित किया। 

बहरहाल, एक इतालवी चित्रकार पिएरो मानजोनी ने अपनी ‘विष्ठा’ को ही टीन के कैन में भर कर अपनी एक चित्रप्रदर्शनी में, उसे ‘इन्स्टालेशन’ की विधा के अन्तर्गत प्रदर्शित किया और उसकी भी, चित्रकृतियों की तरह, उसने करोड़ों में कीमत लगाई। और कलावन्तों ने, उस ‘विष्ठा कृति’ की अत्यंत सराहना की। आखिरकार, उस चि़त्रकार ने, विष्ठा को कमोड से उठाकर कला-दीर्घा में, कला-रसिकों के बीच स्वीकार्य बनाने के लिये, कोई अजेय तर्क गढा तो होगा ही न। फिर हिन्दी की कविता में विष्ठा की चर्चा और उसके प्रवेश को वर्जित कैसे करेंगे...श्रीमान आप.....?

हिन्दी कविता को, इस पुरस्कार प्रसंग को, एक नये प्रस्थान बिन्दु की तरह स्वीकारने में नाक-भौंह नहीं सिकोड़ने की, अबौध्दिक किस्म की संकीर्णता कतई प्रकट नहीं करनी चाहिए। कविता भी तो मनुष्य देह की तरह है। उसमें सुंदर और विकृत, दोनों ही तो साहचर्य में रहते हैं। ‘विकृत’ का भी काव्योचित स्वीकार और सम्मान सीखिये। एडर्नो की तो एक पूरी पुस्तक ही है, ‘ इन प्रेज आफ अगलीनेस’। दरअसल, हिन्दी की युवा-कविता, शमशेर, नागार्जुन, और मुक्तिबोध की लद्धड़ भाषा को मरी हुई खाल की तरह फेंक कर एक नई ‘फ्रेश-लिंगुइस्ट आउटफिट्स’ में, समाज के समक्ष आ रही है। यदि आप स्वागत न करें तो भी उसका क्या बिगाड़ लेंगे? बोलिए, श्रीमान? दरअस्ल, अब कविता, आपके द्वारा लाद दिये गये, पुराने कपड़े बदल रही है, और अबकी बार वह आलोचकों की तरफ मुँह करके बदल रही है--कर लो क्या करते हो? वह परम्परागत ‘गोपन’ के गुंजलक से धडडाती, हुई वेग और आवेग से बाहर आकर, खुल रही है, खिल रही है- और खेल रही है। अब, वह तुम्हारी घिस चुकी, वेदना-संवेदना की परवाह नहीं करती है। वह क्रीडा पर उतर आई है। वह अपने ही तरह के गूगल की खोज से आविष्कृत मनोरंजन के खेल में मग्न है। आप, बीच में घुसकर, एक अभद्र और एक अवांछित रेफरी बनकर, उसकी व्यक्तिगत-स्वतंत्रता में व्यवधान बिलकुल मत डालिए। उसे उसके रोचक खेल को जारी रखने दीजिये। प्लीज, आप उसके खेल के लिए मैदान खाली करिए। क्योंकि आपका स्वामित्व समाप्त हो रहा है। लीज खत्म हो गई है.......

दोस्तो, यह कविता एक नई चतुराई से लैस है। जिसमें ‘बालमन’ के से भोलेपन का, धोखादेह उपयोग करके अश्लीलता को तत्सम शब्दों की पर्तों में, ऐसी युक्ति से लपेटती हैं, जैसे अरबी के पत्तों पर रसोईघर में बेसन लपेटा जाता है। यह मनोरंजनग्रस्त कविता का नया सुस्वादु व्यंजन है, जिसमें दृष्यभाषा वाली ‘यौनिकता’ के आस्वाद के लिए, चटनीफाइंग हिंग्लिश से मसाले की तरह ऐसी प्रविधि से भरा जा रहा है कि वह आपत्तियों को छीनने में कामयाब हो जाती है। उसमें ‘पवित्र में द्रोह’ का भी एक हिट फार्मूला है, जिसमें, एक लम्बे समय से चली आ रही आस्था को, प्रश्नांकित करते हुए, प्रवंचना में बदल कर, उसको भदेस में धकेलो फिर, सेक्स से मिक्स करो और अन्त में, मसखरी करो। ‘वीणावादिनी’ कविता कविता नहीं, एक ऐसा ही उत्पाद ही तो है। ऐसे बहुतेरे प्रतिभाग्रस्त युवा कथा-कहानी में भी बरामद होते जा रहे हैं। 

चलिये, अब हम लोग समापन की ओर पहुँचे। मेरे अनुमान से स्वर्गीय भारत भूषण अग्रवाल की कविता परंपरा का यह बहुत विचित्र और विस्मयकारी पिण्डदान है। वे पवित्र-प्रेत की तरह, उपस्थित हो कर पूछने तो नहीं आयेंगे कि मेरी काव्य परंपरा क्या बना? और क्या यह पुरस्कार मेरी कविता परंपरा के संवर्धन और संरक्षण के संकल्प से स्थापित किया गया था? लेकिन, यह सच है कि शुभम श्री की कविताएं, भारतभूषण जी की आत्मा के लिए तो ‘मोक्षदा’ सिद्ध होंगी। ये, उनकी अन्त्येष्टि का सही कर्मकाण्ड है। शुभम् ही समूची कविता का कल्याण करेगी। अगले ‘भारतभूषण पुरस्कार’ देने के लिए, अश्लीलता की नई काव्य पैकेजिंग के साथ कोई नया नक्षत्र उभर कर आयेगा। प्रतीक्षा कीजिये... मैं तो उदयप्रकाश को, एक विजेता की तरह ही देखता हूँ, उसे किसी ने हिन्दी कविता की रेल के डब्बे से धक्का दे दिया था। उस धक्के के क्षोभ ने, उसे एक अवसर दिया कि वह जिस काव्य परम्परा की रेल में बैठ कर यात्रा करना चाहता था, उसके पहियों के नीचे उसने विस्फोट कर दिया। जय शुभम्। तुम हिन्दी के अंधेरे से भरे आकाश में, अटल नक्षत्र की तरह चमको। बहरहाल, मेरे लेख की यहीं होती है, इतिश्री। 


प्रभु जोशी,
303, गुलमोहर-निकेतन, वसन्त-विहार, 
इन्दौर, म. प्र. 452.010
मोबाइल-942534636 दूरभाष- 0731-2551716








गुरुवार, 18 अगस्त 2016

साबरमती एक्सप्रेस


नरेन्द्र दामोदर दास मोदी
इसके ऊपर से उड़कर संसद पहुंचे

लोग इसमें बैठकर अपनी अपनी जगह पहुँचते हैं

मोदी जी प्रधानमंत्री हैं
बैठनेवाले भारतवासी हैं

यह ट्रेन लोहे की बनी है
ज़िंदगियां लेकर चलती है

लोहे की नहीं होती
तो साबरमती एक्सप्रेस
सावित्रीबाई होती
देश पढ़ाती

सीता होती
धरती में
समा जाती
अयोध्या नहीं जाती

-शशिभूषण

गाय को कुछ नहीं आता है

गाय एक पशु है। यह भारत में तबसे है जब यहाँ चुनाव नहीं होते थे। जब यहाँ टीवी चैनल नहीं थे।

गाय जहाँ भी लोग रहते थे रह लेती थी। गाय का अपना कोई घर नहीं होता था मगर वह सदा एक घर में लौटती आ रही है।


गाय ने कभी नहीं कहा कि मेरी पूजा करो। गाय ने कभी मना नहीं किया कि मरने के बाद मेरी खाल मत उतारना। मेरी खाल के जूते मत बनाना।

गाय के पास भाषा नहीं थी। वह केवल बोल लेती थी। बोल लेती थी तो रंभा लेती थी। अपने बछड़े के लिए फुसकार लेती थी। गाय जब बोलने से अधिक भावुक होती थी तो अपने रखवाले का हाथ अपनी खुरदुरी जीभ से चाट लेती थी। वह आज तक यही करती है।

गाय कृतिकार नहीं रही। वह कलाकार नहीं थी। वह दूध देती थी। सारा दूध अपने बछड़े को पिला देना उसके हाथ में नहीं था।

गाय अपना दूध नहीं पीती जब लोगों ने जाना तो उसके बछड़े से भी छीन लिया यह देखकर भी वह आक्रामक नहीं हुई। क्योंकि वह रहते रहते प्यार करना, दया करना सीख गयी थी।

गाय ने कृष्ण की बांसुरी सुनी, उसने चुनावी भाषण सुने, उसने टीवी के विज्ञापन सुने। गाय ने केवल गरीब बच्चों का दूध के लिए तड़पना ही नहीं सुना।

गाय बकरी से नहीं लड़ी। गाय ने भेड़ को नहीं मिटाया। गाय ने शायद ही कभी सोचा हो कि वह भैंस से श्रेष्ठ है।

गाय चरानेवाले, भेड़ चरानेवाले, बकरी चरानेवालों के बच्चे जब खून की नदी बहा देनेवाली लड़ाई लड़े तब गाय को नहीं मालूम था आगे कैसी दुनिया बननेवाली है।

गाय दरअसल जीवन के बारे में, मनुष्यों के बारे में उतना ही जानती है जितना कोई पशु जानता है। उसमें करुणा है कि नहीं उसकी आँखों में झाँककर कोई इंसान ही बता सकता है।

गाय ने सोचा भी नहीं होगा कि उसके मांस या खाल से जीनेवाले गरीबों को एक दिन उसका दूध पीनेवाले पीट पीटकर मारेंगें। चूँकि वह पशु है इसलिए वह कोई सांस्कृतिक मातम भी नहीं मना सकती।

गाय राजनीति के बारे में और भी कम जानती है। उसे विज्ञान संबंधी अपनी खूबियों का पता नहीं। गाय क्या जाने कि वह सोना मूत सकती है, आक्सीजन छोड़ सकती है।

गाय यह भी नहीं जानती कि आज वह संकट में है या मजे में। भविष्य में वह पूरी तरह नष्ट कर दी जायेगी या भेड़ या भैसों या बकरियों को ख़त्म कर उसे आबाद करा दिया जायेगा।

गाय सभा नहीं कर सकती। लाल किले पर अपना प्रतिनिधि नहीं भेज सकती। गाय कानून नहीं बना सकती। गाय यह भी नहीं जानती कि दुनियाभर के दीन जब अन्याय के विरोध में लड़ने के लिए एकजुट होने के लिए सोचते भर हैं उससे पहले भाषा में हर लड़ाई जीतकर युद्ध समाप्ति के बाद की शांति का ऐलान कर दिया जाता है।

गाय को सचमुच कुछ नहीं आता है। वह किसी की माता है। कोई उसे खाता है। कोई मरता है कोई मरवाता है। वह नहीं जानती लोकतंत्र बांस है कि छाता है।

गाय को अगर कुछ मालूम है तो यह कि अब उसे ऐसे नहीं देखा जाता जैसे इंसान उन्हें देखा करते थे जिनमें जान होती है। पशुओं को इंसानी निगाह से देखनेवाले इंसान कम हो रहे हैं वह देखती है।

गाय जान गयी है स्वर्ग, नरक से ऊपर अब उसे हड्डी, मांस, दूध, मूत्र, गोबर, वोट आदि की नज़र से देखा जाता है। पहले उसे कोई किसान, बच्चा, मां या कलाकार देखता था अब पत्रकार देखते हैं, नेता देखता है। चूँकि गाय पालतू बनने से पहले की दुनिया में लौट नहीं सकती इसलिए वह इस दुनिया को करुणा से देखती है।

गाय एक मूक पशु है। उसके हाथ नहीं हैं। वह दूध देती है। कुछ भी होने में पशु होने के कारण उसका कोई वश नहीं है।

गाय नहीं जानती वह मेरे लिखने का विषय है।

-शशिभूषण

रविवार, 14 अगस्त 2016

उदय अजेय है, वह अपनी आत्मा में अस्सी से अधिक घाव लिए हुए है और हरदम हंसता ही मिलता है- प्रभु जोशी

प्रिय शशिभूषण,
जब तुमने ध्यान दिलाया तो मैंने, युवा कथाकार मनोज पाण्डे की वह पोस्ट पढ़ी. पढ़ कर, मुझे ऐसा कुछ भी अप्रत्याशित और अवमानना या आपत्तिजनक नहीं लगा. क्योंकि, ऐसा अमूमन होता ही है कि हम कई बार अपने प्रिय रचनाकार को, उसके रचनात्मक और बौध्दिक शौर्य का कमतर आकलन की त्रुटिवश ऐसा कर लेते है, गालिबन वह मिटटी के किसी कच्चे पात्र की तरह है. और डरने लगते है कि कहीं वह, असहमति के ऐसे मामूली धक्के से दरक ना जाएँ.

ऐसी चिंताएं, कदाचित, अपने आकलन की उतावली पर, नियंत्रण कर पाने की असफलता के कारण उत्पन्न होती हैं. और वे अपने प्रिय कलाकार या लेखक को, यह सब बताने की अनियंत्रित होने वाली उत्कंठा में, उससे व्यक्त असहमत को भ्रमवश शत्रु की तरह ही चीन्ह लेते हैं.


कहना न होगा कि यह बहुत सहज है और एक कारण ये भी है कि भाई मनोज पाण्डे को, शायद इस बात का पता नहीं है कि उदय मेरा प्रिय मित्र और प्रिय कथाकार भी है, और इस मित्रता ने, तीन दशक से ऊपर का कालखंड पूरा कर लिया है मैं उदय की कहानियों का आरम्भ से ही पाठक और प्रशंसक रहा हूँ. मैं जब आखिरी कहानी लिख रहा था, तब उदय की पहली कहानी सारिका में [ मौसाजी ] छप रही थी. इसके पश्चात् सन १९७७ से मैंने कोई कहानी ही नहीं लिखी. और ‘हंस’ और ‘ज्ञानोदय’ में, मेरी जो एक–दो कहानी छपी दिखाई दी, वे भी पूर्व प्रकाशित कहानियां थी, मैंने सम्पादक महोदय को कहा भी था इस बात का उल्लेख, कहानी के अंत में कर दे. लेकिन उन्होंने कहा कि १९७७ की छपी कहानी को किसने पढ़ा होगा, इसे हम बिना इस उल्लेख के ही छापेंगे.

बहरहाल, मेरी साहित्य के संसार की नागरिकता और उसके इतिहास में रत्ती भर उल्लेख की आकांक्षा नहीं है, दुर्भाग्यवश , मेरी असहमति को साहित्यिक ईर्ष्या की तरह पढ़ा जा रहा है, और कहा जा रहा है कि मैं इसलिए उदय को लक्ष्य कर रहा हूँ. हाँ, ये बात मेरे मन में किंचित क्षोभ ज़रूर पैदा कर सकती है.

उदय अजेय है, और वह वध्य नहीं है, वह अपनी आत्मा में अस्सी से अधिक घाव लिए हुए है और हरदम हंसता ही मिलता है. बहरहाल, मेरी असहमति को देख कर , भाई मनोज पांडे की चिंता, एक तरह से उदय के बौध्दिक पुरुषार्थ को कम कर के आँकना है . पता नहीं, यह मनोज का उदय के प्रति अधिक स्नेह है या की उदय की विचार की समर सिध्दि पर संदेह. हाँ, एक बात ज़रूर है, वह यह कि भाई, मनोज की टिप्पणी से सिर्फ उन लोगों में उत्साह का संचार हो सकता है, जो ‘अच्छा निबटा दिया' वाली विचारणा में टुच्ची तुष्टि पाते है. हो सकता है, ऐसे लोग भाई मनोज की टिप्पणी को तुरंत अपनी वाल पर शेयर कर लेंगे.

याद रखिये, ऑडेन और एलियट में विचार के स्तर पर, गहरी असहमतियाँ थी, बावजूद इसके वे एक दूसरे के गहरे मित्र थे. एलियट ऑडेन से अक्सर कहा करते थे, तुम्हारे भाषिक पुरुषार्थ के समक्ष मैं, स्वयं को दुर्बल मानता हूँ, क्योंकि , तुम्हारे पास दुहरी शब्दावलि है, लेकिन यह थोड़ा क्षोभपूर्ण तथ्य है कि हिंदी में किसी उत्कृष्ट लेखक को, कई बार उसके निकटस्थ लोग, ऐसी सूचनाएं देते बरामद होते है, जो नितांत अवांछनीय होती है, ज्ञानरंजन, कमलेश्वर, या अशोक वाजपेयी के शत्रुओं की आबादी में अभिवृध्दि इसी तरह की चूकों से ही हुई है.

अत: कुल मिलाकर, भाई शशिभूषण तुम्हे यही कहना चाह रहा हूँ, कथाकार भाई मनोज पांडे में युवतर होने से जो स्वभावगत सहज उतावली है, उसी के कारण ऐसी टिप्पणी हो गयी है. मुझे इस बात से कोई, क्षोभ नहीं .

उम्मीद है, मैं अंशत: अपनी बात तुम तक पहुंचा सका हूँ.

-प्रभु जोशी

पोएट्री मैनेजमेंट की पुरस्कारलब्धि

शुभम श्री की कविताएं मैंने इधर उधर पढ़ी थीं। ताज़ा बया का अप्रैल-जून 2016 अंक जो विश्वविद्यालय परिसर पर केंद्रित है में भी इनकी दो कविता प्रकाशित हैं।

जब पोएट्री मैनेजमेंट कविता को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार की घोषणा हुई तो मुझे किंचित ख़ुशी हुई कि थोड़े भिन्न आस्वाद की कविताएं लक्षित हुई हैं। यह उम्मीद बंधी कि इस फॉर्म में भी कविता लिखी जा सकती है। कविताओं में निहित व्यंग्य नयेपन का भी आभास देता है।

जब यहाँ वहाँ विवाद शुरू हुआ, फेसबुक, ब्लॉग पर मत मतान्तर प्रकाशित हुए तो मेरी यह राय दृढ हुई कि शुभम बहाना हैं उदय प्रकाश पर निशाना है। कारण चाहे जो हों उदय प्रकाश को औसत साबित करने के अवसर की तलाश जारी रहती है।

लेकिन जब उदय प्रकाश जी का आधिकारिक वक्तव्य जनपथ ब्लॉग पर देखा तो मैं स्तब्ध था। यह किसी युवा कवयित्री में संभावना देखकर उसे सम्मानित करना नहीं था बल्कि अपनी पसंद और निर्णय के सम्बन्ध में आलोचकों और कदाचित निंदकों की बोलती बंद कर देने की आकांक्षा से भरकर कलम तोड़ देना था। यह निर्णायक रहते आलोचकीय युक्ति से समकालीन युवा कविता की दिशा मोड़ देने की असरदार कोशिश है।

इस वक्तव्य से मुझ जैसे अपेक्षाकृत खुश और उत्साहित पाठक को भी झिझोडे जाने का अनुभव हुआ। स्थापनाएं चुनोउती देती सी लगी। महसूस हुआ अब कविताओं को ऐसे ही नयेपन के मानकों पर कसे जाने का वक़्त शुरू होता है।

इसलिए मैंने पुनर्विचार किया और कुछ बातें नोट की।

1.  उदय प्रकाश जी अपनी तरह लिखने और सोचनेवालों को विशेष तरज़ीह देते हैं। वे औरों के विपरीत इस बात से आशीर्वादी हो जाते हैं कि उनका अनुकरण हो रहा है। ध्यान से देखें तो शुभम श्री की कई कविताएं उदय प्रकाश के संग्रहों में दर्ज कविताओं सी हैं। एक दो उन्होंने यहाँ शेयर भी कीं।

2.  इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है कि शिल्पी सिंह की कहानी क्वालिटी लाइफ़ उदय जी को पसंद है और संयोग देखिये की यह उनकी कहानी छतरियां से काफ़ी मिलती जुलती है।

3.  अपने जैसी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाने से त्रस्त लोग बहुधा अवसर मिलने पर अपने जैसी जमात पैदा करते हैं।

4.  शुभम श्री की कविताओं का कहन किंचित नया है। लेकिन ऐसे व्यंग्यपूर्ण कहन के नयेपन के साथ आनेवाली वे पहली नहीं हैं। वे कोई परंपरा बना पाएंगी यह कहना भी बहुत जल्दबाज़ी होगी।

5.  एक हज़ार साल से अधिक कालावधि में विन्यस्त हिंदी कविता ऐसे उत्तेजनों से भी संचालित होती रही। यह कविता की ही ताक़त थी कि हरिवंश राय बच्चन मधुशाला के लिये अब नहीं जाने जाते। कविता में नग्न यथार्थवादियों और मनोविश्लेषण वादियों तथा सूचनापरक आश्वस्तियों के सर्जकों को कोई कोट नहीं करता।

6.  दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सबकुछ तय कर देने वाले गिनती के कुछ लोग हैं। उदयप्रकाश जैसे फैसलों से विचलित और हतप्रभ होते रहे हैं आज उनका फैसला उससे बड़ी सनसनी है। यानी हर क़िस्म का साहित्यिक फैसला एक सी परिणति में है।

7.  अब कुछ दिनों तक शायद शुभम श्री की तरह कविताएं लिखी जाएँ। यह और इनकी अन्य कवितायेँ हिंग्लिश से भरपूर है। इसमें अनुवाद की भी सम्भावना है। हिंदी का परम्परागत पाठक भले इसे हृदयंगम न कर पाए, कोई भी दो वाक्य तक न उद्धरित कर पाए लेकिन वे बैठकें गुलज़ार रहेंगी जो शहडोल के किसी किसान को डोनाल्ड ट्रंप के किसी बयान से प्रभावित कर लेना चाहती हैं।

8.  उम्मीद शुभम से भी है ही और यदि उदय जी से कोई नाराज़गी या असहमति भी हो तो उसका साहित्यिक महत्त्व भी है क्योंकि अब उदय जी कई अर्थों में प्रस्थान बिंदु हैं। लेकिन इस निर्णय के पक्ष में आयी उनकी दलील मेयार बदल देने की कामना से भरी है इसमें दो मत नहीं।

9.  अभी बहुत सी कविताएं लिखी जानी हैं। साहित्य में सर्वश्रेष्ठ होने का दावा मुझे निरर्थक लगता रहा है।

10.  सम्मान की बधाई ही होनी चाहिए।

-शशिभूषण (फेसबुक वाल, 11 अगस्त 2016)

Comments

Shashi Bhooshan प्रभु जोशी जी ने अपनी एक पोस्ट में दुरुस्त कहा है। मैं भी अपने एक दो साथियों की कविताओं का श्रोता रहा हूँ जो कहन में व्यंग्य, वाचालता, अपशब्द और यौनिकता का मेल रचते रहे हैं। कुछ कविताएं याद भी हैं। लेकिन उन्हें साहित्यिक श्रेष्ठताओं से इतर ही सुनने गुनने को बाध्य रहा हूँ।

आशंका तो है लेकिन मैं आश्वस्त हूँ कि ताज़ा पुरस्कार, पुरस्कार की तरह ही दर्ज रहेगा। यह कविता की श्रीहीन धारा नहीं निर्मित कर पायेगा। यह रही उनकी पोस्ट-

“कल मुझे भारत भूषण सम्मान से विभूषित नवोदिता शुभम श्री की कविताएं, युवा कथाकार शशिभूषण के सौजन्य से पढ़ने को मिली।

उनको पढ़ने के बाद मुझे अपने कॉलेज के एक साथी छात्र की याद हो आई और मैं अफ़सोस से भर गया।

वह तो, पुरस्कृत कविता के प्रकाश में आने के 40 साल पहिले पैदा हो गया।

मुझे साथ ही ख़ुशी हुई, उसके हिन्दू होने पर। क्योंकि उसकी मृत्यु हो चुकी है। और हिन्दू होने के कारण उसका दाह संस्कार कर दिया गया।

अगर वह मुसलमान होता तो कब्र से उसकी लाश को उखाड़ कर, अगले वर्ष का, भारत भूषण अवार्ड दे दिया जाता।

वह कविता सुनाता रहता था। अपनी चुनी हुई मित्रमंडली में।
उसकी भाषा, निर्दोष बालपन के धोखादेह भोलेपन से भरी होती थी।

वह अश्लीलता को तत्सम शब्दों की परतों अरबी के पत्तों पर, लपेटे जाने वाले बेसन की तरह लपेटता, फिर अंग्रेजी के स्लैग के शब्दों को बीच बीच में मसाले की तरह बुरक देता।

उसकी कुछ कविताओं के शीर्षक थे- 'लंडन प्रवास और गुलाबी चूड़ी।' 'शिश्न की साज-संभाल।' उन दिनों, परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत LOOP उपकरण आया ही आया था।

सैनेटरी नैपकिन की पीड़ा और प्रश्न से जुडी कविता तो पुरस्कृत प्रतिभा ने अब लिखी लेकिन उसने LOOP के प्रति सहानुभूति से एक कविता लिखी थी।

लूप बन जाऊंगा, पर शर्त ये है, मगर...
एक कविता थी, 'राजनीति की छिनाल'

उसमे SEX और राजनीति की पैरोडी बनाने की अद्भुत प्रतिभा थी। उसने, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रानंदन पंत की कविताओं की कई पैरोडी तैयार की थीं।

चलिये, आप सब उस प्रतिभा के अकाल अवसान पर मेरे साथ दो मिनिट का मौन रखें।“
-प्रभु जोशी

Awesh Tiwari सहमत हूँ।शुभश्री के बहाने खुद को पुरस्कृत कर गए उदय प्रकाश

Shashi Bhooshan केंद्र में आ जाना उनकी सामर्थ्य या प्रकृति ही हैं।

Sandip Naik सही कहा भाई, कविता पर बात होने के बजाय व्यक्ति पर सब केंद्रित हो गया जोकि दुखद है।

Kailash Mandlekar ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सा दयार है ।

Sneha Chauhan Baba · उफ़ ये मैनेजमेंट,वाकई ये काल हिस्टोरिकल होने वाला है।

Ramesh Verma Verma आज का अबूझा यक्ष प्रश्न ?

हिंदी कविता के ढहते परंपरागत मठ



शुभम श्री की कविताओं के बहाने हिंदी कविता के मौजूदा वितान पर जो बहस, चर्चा, रसरंजन और प्रतिवाद देखने को मिल रहे हैं वे कई स्तरों पर व्यक्तिगत रूचि-अरुचि से भले संचालित हों उनमें हिंदी समाज के वृहत्तर समाजशास्त्र की कड़ियाँ है।

ठीक एक दशक पहले हिंदी कहानियों के समंदर में ऐसी ही लहरों का हिलोर उठा था जब मरहूम रविंद्र कालिया के संपादन में वागर्थ के नवलेखन अंक पर नवलेखकों की कहानियों और हिंदी कहानी की परंपरा, भाषा, बदलते तेवर, मिज़ाज़ यानी कथ्य और शिल्प के पर्यावरण के रेखांकन पर तीखी गोलबंदी हुई थी। नवलेखन अंक के कई कहानीकार अब हिंदी आलोचकीय मर्सिया या चर्चा, कुचर्चा से परे अब स्वीकार्य या हिंदी जगत से बेदख़ल कर दिए क़िस्सागो बन गए हैं। दस साल पहले हिंदी में अपने जीवन, समाज, मनुष्यता और मनुष्य मन की आतंरिक परतों की कहानियां कहने बताने वाले लेखकों की रचनाओं को ‘कस्टमाइज़’ करने के लिए जो लकीरें खींची जा रही थी, उनके वास्तविक अकार-प्रकार की पड़ताल हमारा विषय नहीं है। बेहतर होगा कि इसपे हिंदी साहित्य का कोई ज़हीन विद्यार्थी पीएचडी करे। क्या मालूम किसी ने किया भी हो। हमारा मक़सद उस बहस के बहाने परिष्कृत हिंदी साहित्य पढ़ने-लिखने वाले लोगों के एक बेहद छोटे लेकिन अहम समुदाय के बीच बहस में लीक से हटकर लिखने के ख़तरों और करोड़ों हिंदी जन-जीवन (भौगोलिक लिहाज़ से उत्तर भारत की 55 करोड़ से ज़्यादा की आबादी) के साथ हिंदी लेखकों के रिश्ते की पड़ताल करना भी नहीं है। हम उस बहस की, इतिहास के मौजूदा चरण में, व्यापक परिणति पर भी चर्चा नहीं करना चाहते। नवलेखन अंक के इर्द-गिर्द हुई बहसों को याद करने का एक उद्देश्य उस बहस की एक कड़ी का मात्र उल्लेख है। शायद 2009-10 के दौरान नवलेखकों के एक उदीयमान सितारे ने अपनी बुज़ुर्ग पीढ़ी पर एक दिलचस्प आरोप लगाया था। उन्होंने एक सीनियर कहानीकार के बारे में एक क़िस्से से ही अपना बयान दिया। क़िस्सा मुख़्तसर-सा ये था कि दो दोस्त होते हैं। एक ग़रीब और एक अपेक्षाकृत धनी। धनी दोस्त अपनी एक फटी, मुड़ी-तुड़ी कमीज़ निर्धन को पहनने को देता है। घर जाकर वो उस मटमैली कमीज़ को धो-पोछ कर चमका देता है। कहीं से प्रेस वग़ैरह भी कर लेता है और वही कमीज़ पहनकर अपने उस धनी दोस्त से मिलने आता है। अब जिसने फटी-पुरानी कमीज़ दयानतदारी में अपने साथी को दी थी, उसे लालच हो उठता है कि अब वो कमीज़ उसे किसी तरह वापस मिल जाए।

हमारे तब के चर्चित नवलेखक और अब एक प्यारे क़िस्सागो ने उन बुज़ुर्ग कहानीकार को व्यक्तिगत तौर पर भरपूर इज़्ज़त बख़्शते हुए उनकी नवलेखकों के प्रति संरक्षणवादी ठसक को बख़्श देने का कोई इरादा नहीं जताया। बस ज़िक्र के लिए ज़िक्र कि उस वक़्त इन बहसों का प्लेटफॉर्म हिंदी की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाएं थीं। कथित सोशल-अन-सोशल मीडिया अभी पैदा नहीं हुआ था, जिसने अब हिंदी समाज के किसी बने-बनाए नतीजे पर पहुंचने के बावलेपन के राष्ट्रीय चरित्र और लक्षण को सनक की हद तक पहुंचा दिया है।

ये वाक़िया शुभम श्री की कविताओं के, एक पुरस्कार के बहाने, व्यापक पाठक वर्ग के सामने आने को लेकर हो रही गोलबंदी के आलोक में अहम है।

फेसबुक पर जो मत-मतान्तर आये हैं अब तक उनमें एक वर्ग इतना अचूक शुद्धतावादी बन बैठा है जितना कि कोई नीम-हकीम दावा करता है। भला हो भी क्यूँ न? ये जो इलहाम हो गया कि निर्णायक उदय प्रकाश थे। उदय से कुछेक ज़रूरी असहमतियों के बावजूद ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि मेरी नज़र में वे हिंदी राजपथ के निर्माण से बेदख़ल कर दिए कारीगर हैं। इसे वे कई बार कह चुके हैं कि वे भाषा के आदिवासी हैं। उनकी इस जागरूक आत्म-चेतना पर आक्रामक सवाल उछालने के लिए मेरे पास कोई तथ्य नहीं है। उनकी कहानियों, कविताओं, सुगठित गद्य को पढ़ कर मुझे हर हमेशा यह अहसास हुआ कि भविष्य के सच्चे उत्तराधिकारियों को जब जब अपनी तकलीफ़ों को शब्द देने की ज़रुरत होगी, वे ख़ुद को उदय की रचनाओं के क़रीब पाएंगे। 2010 में, गोरखपुर में, उनके मंचीय पथ-विचलन को अगर हम एक मात्र कसौटी बनाने की छिछोरी ज़िद न मानें तो उदय पर खुन्नस खाने वाले लोग अकारण ही अपनी ऊर्जा ग़लत जगह लगाते हैं। शुभम श्री की कविता के बहाने जो लोग “हिंदी के परंपरागत” पाठक के द्वारा “हॄदयंगम” न कर पाने की बेचारगी बज़ाहिर कर रहे हैं और शायद किसी फलित ज्योतिष के हवाले उन महफिलों के गुलज़ार रहने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं जो “शहडोल के किसानों” को डोनाल्ड ट्रंप के किसी बयानों से “प्रभावित करने” की जुगत में लगे हैं या कि उदय पर “अपनी जैसी कविताओं/कहानियों को पसंद/प्रोत्साहित/पुरस्कृत करने” से आगाह कर रहे हैं वे इंसानी समाज की हर बड़ी लड़ाई को एक टुच्ची, दलदली राह पर धकेलने की हिमाक़त कर रहे हैं।

ये अपने ही बयानों को दुबारा पढ़ने, जांचने-परखने या उन्हीं के शब्दों में “पुनर्विचार” करने और अपने अंतर्विरोधों को रेखांकित करने की निजी तक़लीफ़ उठाने से गुरेज़ करेंगे।

इनके लिए दीपक रूहानी का एक शे’र ही काफ़ी और मौजूं है:
कुछ लोग बदहवास हुए आँधियों में इस तरह
जो पेड़ खोखले थे उन्ही से लिपट गए।

अब रही बात शुभम श्री की कविताओं की।

शुभम श्री की कई कविताएं हाशिया नामक ब्लॉग पे पिछले 3-4 सालों से हैं। जिन्होंने भाभूअ पुरस्कार ये बाद शुभम श्री की कविताओं को पढ़ा है, वे ज़रा और ठहर लें। तसल्ली से शुभम की सारी कविताएं पढ़ लें। कविता के असर से उबर आएं। फिर जितनी चाहे आलोचना करें।

हिंदी कविता और छुटभैये लीकों पर चलने वाले हिंदी गुटों के परंपरागत मठ टूट रहे हैं। इसलिए इसके मठाधीशों की आखेटक दृष्टि से की जा रही आलोचनाओं को गंभीरता से लेना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी।
-अनिल मिश्र ( फेसबुक वाल, 11 अगस्त 2016) 

Comments

Prakash Upreti सही एकदम ...

Bhawna Masiwal कविता पढ़ी नहीं है अब तक..मगर आप की पोस्ट के बाद पढने का विचार बन गया है|

Reyazul Haque Anil ko likhte dekh kar maza aa gaya. Aur likha bhi ġazab hai. Hashiya par le rahe hain.

Som Prabh अनिल, सोशल साइट पर यह भाषा मौजूद नहीं है। इस प्रसंग में तो ज्यादातर लिखने की दुनिया से जुड़े लोगों के पास भी नहीं ही दिखा। इसे होना चाहिए था। होता तो हम सब कहीं बेहतर ढंग से अपनी -अपनी बात कर रहे होते।यह बहुत संपन्न करने वाला है।
मैं इसे दूसरी तरफ ले जाना चाहूंगा। मुझे नहीं लगता कि हिंदी के किसी भी लेखक, कवि को ऐसी खुली पाठकीय टिप्पणियों से गुजरना पड़ा होगा। ज्यादा से ज्यादा उसे सिर्फ लेखकीय बिरादरी में जांचा गया होगा। अपने -अपने क्लबों में स्वीकृत हुए लेखकों ने इतनी खुली, भयहीन, अराजक, उपहास करती, स्पष्ट और बहुत सी अन्य किस्म की टिप्पणियों का सामना शायद ही किया है। इसलिए कई वरिष्ठों को दिक्कत भी हो रही है। वे सही तरीके से प्रतिक्रिया नहीं कर पा रहे हैं, अनावश्यक आक्रामकता भी दिख रही है।असद जैदी ने तो सारेे असहमत लोगों को एक ही खांचे में रखते हुए इसे 'साहित्य में भगवे का प्रवेश' बता दिया। कुछ ने इसे मर्दवादी, कुंठितों का विरोध कहा है। यह दिखाता है कि हिंदी के लेखक को सिर्फ क्लबों में संवाद करने की आदत है, और वे पहली बार अपने पाठक को भी इतनी संख्या में प्रतिक्रिया करते देख रहे हैं। हिंदी समाज की स्वीकृति जैसे मिथ को यह ढहा रहा है क्योंकि ऐसी किसी चीज का अस्तित्व फिलहाल नहीं है।सहमतों की दमघोंटू दुनिया बनाने की जगह, ऐसी तीखी प्रतिक्रियाओं से हिंदी के लेखक को खुद को संपन्न करना चाहिए। भले ही उनका साहित्यिक मूल्य अधिक न हो, लेकिन यह लेखक की किसी किस्म की हेकड़ी को दुरुस्त करना है।

Shashi Bhooshan अनिल जी,
आप जिन बातों को छोड़ आगे बढ़ गए उनमें से कई महत्वपूर्ण मुद्दे थे पर कोई बात नहीं

आपने जिस किस्से का ज़िक्र किया वह कहानीकार चन्दन पांडेय का काशीनाथ सिंह पर किस्सा था। अपने मूल रूप में वह मुल्ला नसीरुद्दीन का किस्सा है। प्रसंग था युवा लेखकों को मनुष्य विरोधी कहा जाना। इनमें ज्ञान जी भी थे जो चन्दन को पहल में छापते रहे।

उनमें से कई युवा लेखक ऐसे भी हैं जो रवींद्र कालिया को सख्त नापसंद करते थे लेकिन यदि किसी युवा लेखक को कालिया जी के नाम से सम्मान मिल जाये तो उसे ज़ोरदार बधाई देते हैं।

मैं रवींद्र कालिया को संपादक के रूप में साहित्य के बड़े हितैशी के रूप में जानता हूँ। उन्होंने किसी निर्णय से बहुत बड़े और दूरगामी साहित्य हित का काम किया।

यद्यपि तब भी बहुत से लोग चुप थे जो उसी समूह के थे।

मैं उदय प्रकाश जी का सम्मान अपने विवेक के आधार पर करता आ रहा हूँ। इसमें कोई कमी अब तक तो नहीं आई है।

हाशिया का नियमित पाठक हूँ। रियाजुल जी का मुरीद। पोस्ट शेयर भी करते रहने से नहीं चूकता।

यदि हिंदी समाज भाषा में कोई इंसानी लड़ाई लड़ रहा है तो मैं उसके साथ हूँ और यदि अभी नहीं समझ पा रहा तो आगे भी कोशिश करूँगा।

यदि आज कविता बहुत समझी और स्वीकार की जा रही है तो आपसे गुज़ारिश है कि आप अपनी इस गवाही पर कायम रहना। आपको कभी भी बुलाया जा सकता है।

शुभम श्री को मिला सम्मान कविता के लिये उसके रचनाकार को मिला सम्मान है इसलिये मैं इसकी इज़्ज़त करना चाहता हूँ।

लेकिन जो निर्णायक का दावा है वह आलोचना से परे नहीं है। आगे भी शायद न रहे। यदि उदय जी अपने निर्णय के साथ होंगे तो उनपर बात भी होगी ही।

यह एक बड़ी प्रवृत्ति है कि हम अंततः अपने जैसे लोगों के साथ जा खड़े होते हैं। लेकिन विविधता और बहुलता कदम कदम पर हमारी परीक्षा लेती हैं।

आप जिसे लड़ाई कह रहे हैं वह खुद को साबित करना भी होती है।

Anil Mishra शशि, 
आपने जो मुद्दे छेड़े थे मैंने सायास उन्हें छोड़ा। वजह स्पष्ट थी। एक, समस्याओं को चीन्हने के क्रम में आपकी बातें मुझे रेशनल लगीं, लेकिन जो प्रिस्क्रिप्शन आप लिख रहे थे वो प्रभु जोशी की अनायास गंभीर मुद्रा में छिछली बातों का दोहराव भर था। 

हमारे सामने कोई आदर्श नहीं है। कोई आदर्श हमारे सीनियर्स ने छोड़ा भी नहीं है। हमें उनकी गलतियों से सीखना होगा। क्रिटिकल हो कर एक्जामिन करना होगा। उनके बहाव में छलांग मारना हवा में लाठी भांजना ही होगा। नवलेखन अंक के वक़्त ऐसी गलतियां कइयों ने की है। 

दूसरा: समाज, भाषा, तरीक़े, मठों के झीने आवरण सब तार तार हुए हैं, हो रहे हैं। अभिव्यक्ति के इतने नए रूप निखर रहे हैं कि कल्पना करना मुश्किल है। इसके फ़ायदे नुक़सान की बात मैं छोड़ रहा हूँ। मैं सिर्फ़ ये कहना चाहता हूँ कि इनसे परिचय बनाना, इनकी संगत करना पुराने माध्यमों के रचनाकारों के लिए ज़रा असहज करने वाला है। जिसकी ओर सोम इशारा कर रहे हैं कि इतनी खुली, अराजक, भयहीन, उपहास करती टिप्पणियों का सामना शायद ही किया हो। इस परिप्रेक्ष्य में, शुभम की कविताएं नायाब है। लेकिन, खुन्नस निकालने को उन्हें वाग्जाल में फांसना मुझे कविता की संवेदना से खिलवाड़ लगता है।

आपने कहानीकारों और मुल्ला नासीर के प्रसंग का नाम लिया। मुझे नाम गिनाने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं है। हिन्दी के कई युवा तुर्क नाम गिना के आतंकित करते रहते हैं। समझने वाले समझ जाते, जो न समझते तब की बहसों को पलटते तो अपनी नज़र से उन्हें जांचते परखते। नाम गिना के क्या साबित करना चाहते हैं? 
बघेली में एक कहावत है: केखर केखर लेई नाव/कथरी ओढ़े सगला गाँव।
सब्बा ख़ैर।

Shashi Bhooshan हम एक दूसरे को बेहतर समझते हैं।
बघेली के ही एक कवि अमोल बटोही की कविता है

"का कही का न कही
कही त संघ नाश न कही त बुद्धि नाश.."

मैं पुनः देखता हूं कि प्रिस्क्रिप्शन में मैंने कौन कौन सी दवा लिख दी हैं। आप लोग सीधा मारते है गच्च और फिर शांत। अब असर होगा तो प्रतिक्रिया भी होगी।

प्रभु जोशी का अपना अंदाज़ है। मैं उनसे टकरा सकूँ ऐसा अध्ययन नहीं है अभी मेरा। हाँ उनसे असहमत होता रहता हूँ।

उदय प्रकाश और प्रभु जोशी हिंदी के दो बड़े ध्रुव हैं यदि आप मानते हों कि हिंदी के ग्लोब में कई ध्रुव हैं।

मैं नाम ले लिया करता हूँ। नाम हो तो उसे लिया जाना चाहिए। हालाँकि आपकी बात दुरुस्त है कि नाम लेने से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता।

Shashi Bhooshan समकालीन युवा कविता का सबसे प्रतिष्ठित और बहुचर्चितभारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार इस बार युवा कवयित्री शुभमश्री, (जन्‍म 1991) की कविता 'पोएट्री मैनेजमेंट' को देने का निर्णय लिया गया है।

यह कविता नयी दिल्‍ली से प्रकाशित होने वली अनियतकालिक पत्रिका 'जलसा-4' में प्रकाशित हुई है।

बहुत कम उम्र और बहुत कम समय में शुभमश्री ने आज की कविता में अपनी बिल्‍कुल अलग पहचान बनाई है। कविता की चली आती प्रचलित भाषिक संरचनाओं, बनावटों, विन्‍यासों को ही किसी खेल की तरह उलटने-पलटने का निजी काम उन्‍होंने नहीं किया है बल्कि समाज, परिवार, राजनीति, अकादेमिकता आदि के बारे में बनी-बनाई रूढ़ और सर्वमान्‍य हो चुकी बौद्धिक अवधारणाओं के जंगल को अपनी बेलौस कविताओं की अचंभित कर देने वाली 'भाषा की भूल-भुलइया' में तहस-नहस कर डाला है। हमारे आज के समय में शुभमश्री एक असंदिग्‍ध प्रामाणिक विद्रोही (rebel) कवि हैं। सिर्फ पच्‍चीस वर्ष की आयु में इस दशक के पिछले कुछ वर्षों में उनके पास ऐसी अनगिनत कविताएं हैं, जिन्‍होंने राजनीति, मीडिया, संस्‍कृति में लगातार पुष्‍ट की जा रहीं तथा हमारी चेतना में संस्‍कारों की तरह बस चुकी धारणाओं, मान्‍यताओं, विचारों को किसी काग़ज़ी नीबू की तरह निचोड़ कर अनुत्‍तरित सवालों से भर देती हें। औश्र ऐसा वे कविता के भाषिक पाठ में प्रत्‍यक्ष दिखाई देने वाली किसी गंभीर बौद्धिक मुद्रा या भंगिमा के साथ नहीं करतीं, बल्कि वे इसे बच्‍चों के किसी सहज कौतुक भरे खेल के द्वारा इस तरह हासिल करती हैं कि हम हतप्रभ रह जाते हैं। इतना ही नहीं वे अब तक लिखी जा रही कविताओं के बारे में बनाये जाते मिथकों, धारणाओं और भांति-भांति के आलोचनात्‍मक प्रतिमानों द्वारा प्रतिष्ठित की जाती अवधारणाओं को भी इस तरह मासूम व्‍यंजनाओं, कूटोक्तियों से छिन्‍न-भिन्‍न कर देती हैं कि हमें आज के कई कवि और आलोचक जोकर या विदूषक लगने लगते हैं। उनकी एक कविता 'कविताएं चंद नंबरों की मोहताज हैं' की इन पंक्तियों के ज़रिए इसे समझा जा सकता है:

'भावुक होना शर्म की बात है आजकल और कविताओं को दिल से पढ़ना बेवकूफ़ी / शायद हमारा बचपना है या नादानी / कि साहित्‍य हमें जिंदगी लगता है और लिखे हुए शब्‍द सांस / कितना बड़ा मज़ाक है कि परीक्षाओं की तमाम औपचारिकताओं के बावजूद / हमें साहित्‍य साहित्‍य ही लगता है प्रश्‍नपत्र नहीं / खूबसूरती का हमारे आसपास बुना ये यूटोपिया टूटता भी तो नहीं... नागार्जुन-धूमिल-सर्वश्‍वर-रघुवीर सिर्फ आठ ंनबर के सवाल हैं।'

अपने भाषिक पाठ में बच्‍चों का खेल दिखाई देतीं शुभमश्री की कविताएं गहरी अंतर्दृष्टि और कलात्‍मक-मानवीय प्रतिबद्धता तथा निष्‍ठा से भरी मार्मिक डिस्‍टोपिया की बेचैन और प्रश्‍नाकुल कर देने वाली अप्रतिम कविताएं हैं।

शुभमश्री ने किसी कर्मकांड या रिचुअल की तरह रूढ़, खोखली, उकताहटों से भरी पिछले कुछ दशकों की हिंदी कविता के भविष्‍य के लिए नयी खिड़कियां ही नहीं खोली हैं बल्कि उसे जड़-मूल से बदल डाला है। जब कविता लिखना एक 'फालतू' का 'बोगस काम' या खाते-पीते चर्चित पेशेवरों के लिए 'पार्ट टाइम' का 'बेधंधे का धंधा' बन चुकीं थीं, शुभमश्री ने उसे फिर से अर्थसंपन्‍न कर दिया है।

उनकी कविताएं हमारे समय की कविता के भूगोल में एक बहुप्रतीक्षित दुर्लभ आविष्‍कार की तरह अब हमेशा के लिए हैं।
उदय प्रकाश

Anil Mishra मैं नहीं मानता कि हिंदी का कोई ग्लोब है। ग्लोब का अपना ग्लोब है। और अगर हो भी तो मुझे इसके कथित ध्रुवों (मुक्तिबोध के शब्दों में मठ) के बंटवारे से कोई लेना देना नहीं है। 

मुझे इस भाषा से बेदख़ल कर दिए गए लोगों, भाषा की नफ़ासत से मरहूम कर दिए गए उबड़-खाबड़ प्रदेश की तलाश में दिलचस्पी है। जहां शुभम श्री की कविताएं मेरी मदद करती हैं। ऐसी कविताओं पर बिला वजह लांक्षन लगाने वाले लोगों को मैं नीची नज़र से देखता हूँ, चाहे उनका अध्ययन भले ही बहुत हो। मैं उनके अध्ययन से दहशत में क्यूं आऊं?? और ये बात उसे भाभूअ पुरस्कार मिलने से पहले की भी कविताओं में लागू होती है।

मैंने उदय का वक्तव्य पढ़ा है। मुझे उनके वक्तव्य में वही निश्छलता दिखती है जैसे कि जब हम बच्चे थे तो लाल मखमली बीर-बहूटी को चींटों से बचाने के लिए उसे अपनी हथेलियों से ढांके रहते थे और जैसे जैसे वो अपनी राह बनाती जाती थी हम बच्चे हथेलियां खोलते जाते थे।

Shashi Bhooshan यह अच्छा है कि आप 'भाषा से बेदखल आदिवासी' का उदय प्रकाशीय मुहावरा मानते हैं लेकिन किसी ग्लोब को नहीं मानते। हालाँकि उदय जी भूगोल में ही नए अविष्कार की वजनी बात कह रहे हैं। कुल मिलाकर यह देखने और दिखने की ही बात है। मेरे हिसाब से नीयत में खोट नहीं देखना चाहिए। फिर कहता हूँ शुभम की कविताएं मुझे भी अच्छी लगीं। और यह भी देख रहा हूँ कि वैसी कविताएं लिखी जा रही हैं और लिखी जाती रही हैं।

Anil Mishra आप फिर ग़लत समझ रहे हैं। मैंने कहा है हिन्दी के ग्लोब को नहीं मानता, चूंकि तकनीकी तौर पे ग्लोबल होने के बावजूद हिंदी अपने लोकल का सार्वभौमीकरण नहीं कर सकी है। 

"भाषा से बेदखल आदिवासी का उदय प्रकाशीय मुहावरा" सिर्फ़ मान्यता की बात नहीं, (जबकि मैंने बेदख़ल कर दिए गए लोगों की बात की है। इसमें आदिवासी, दलित, महिलाएं, अल्पसंख्यक और अन्य कई दबाए सताए कुचले गए लोग और समूह शामिल हैं) यह हमारे जन-जीवन का अकाट्य सत्य है।

मैं ये नहीं मानता कि कविता को परखने की पहली कसौटी ये घोषणा हो कि कविता मुझे अच्छी लगती है कि नहीं।

रविंद्र नाथ टैगोर 1920-30 में ही ऐसी साहित्यिक आलोचना को उथली कह चुके है। हम तो उनसे तकरीबन 100 साल आगे का जीवन देख रहे हैं।

Shashi Bhooshan मैं समझने की कोशिश करता हूँ कि क्यों ग़लत समझ रहा हूँ।

लेकिन आपको यह समझने की कोशिश करनी है कि मैंने प्रभु जोशी के बहाने अपना नितान्त अपना मत रखने की कोशिश की थी।

मेरा मंतव्य भी था कि राय अपनी ही रहे।

मुझे यह अच्छा लगता है कि सदा आर पार की बजाय संतुलित बात से कुछ सीखा जाये।

इसीलिए मूल पोस्ट में आपने गौर किया होगा कि मैंने सम्मान के साथ होने की बात कही है।

इससे पहले भी मैंने सम्मान के समर्थन में बात कही। मैंने उदय जी को संबोधित एक स्वतन्त्र पोस्ट भी लिखी।

हुआ यह होगा कि मेरी वास्तविक आकृति परछाई लगी होगी।

इसके बावजूद मैं आपके चर्चा करने को अच्छा मान रहा हूँ। आपने टैग किया तो मैंने उसे तुरंत अपनी वाल पर पब्लिश का ऑप्शन चुना।

Shashi Bhooshan ये दो कविताएं भी देखें

शिवलिंग 1

औरतें जिन्हें
रखा जाता है
परदे में
आती हैं तुम्हारे सामने
उठाती हैं घूँघट
करती हैं पूजा
तन, मन, धन से
नवाती हैं शीश
डालती हैं तुम पर
दूध, पानी, फूल , पत्तियां
लेती हैं उसे पदार्थ को हाथ
छूती हैं ओठों से
पीती हैं
बताओ शिव कैसा लगता है तुम्हें
जब होती है
शिव लिंग पूजा

शिव लिंग 2

स्त्री
नहीं करती बर्दाश्त
कि दूसरी स्त्री
छू ले उसके पति को
करे स्पर्श उसके
अंगों का
संतान प्राप्ति
के लिये
लगाये उसके
जिस्म पर
चन्दन हल्दी
भिगो दे
पानी दूध से
कहो पार्वती
कैसे तुम
सहती हो
पर स्त्री स्पर्श
अपने पति लिंग पर

- आरती रानी प्रजापति
जेएनयू
बया, अप्रैल जून 2016

Shashi Bhooshan अनिल जी मैं नीचे लिखी कविता के बारे में आपकी राय चाहता हूँ। कवि का नाम जाने देते हैं।

साध्वी

छुट्टी लेकर दफ्तर का
छूटा काम किया है
मैंने भी अफसर का
नाम किया है

बच्चे का दूध छुड़ाकर
बीवी को प्यार किया है
तुमने भी
किसी की प्रेमिका को
शर्मसार किया है

देव धरम को लात मार
बाबाओं को नमन किया है
पढ़ लिख योग कर शिक्षा का
काम तमाम किया है

लिख लेना 
याद नहीं रहता
बोल दिया है
जब चाहे मिलना
ओढ़नी डाली
सलवार खोल लिया है

मेरा नाम लेना
मैंने तुम्हारा नाम लिया है
अपनी गांड मरवाकर
सबने बाप का
नाम किया है

मनोज पांडेय शुभम श्री की कविताओं के बहाने पिछले तीन चार दिनों से न जाने कितनी बहसें संपन्न हो रही हैं। यह बेहद खुशी की बात होती और इससे हिंदी समाज की जीवंतता को सलाम करने का मन होता अगर उनमें सचमुच बहस करने जैसा कुछ होता। मैंने सोचा था कि अब इस मसले पर कोई पोस्ट या कमेंट नहीं करूँगा बल्कि फोन आदि पर हो रही बातचीत में भी इन कविताओं पर कोई बहस करने से बचूँगा। पर कल आई प्रभु जोशी की पोस्ट ने मुझे एक गहरी शर्म और लानत से भर दिया। सोशल मीडिया पर चल रही इस बहस में धूमिल का जिक्र कई बार आया है। धूमिल की ही एक पंक्ति उधार लेकर कहूँ, जिसमें वह कहते हैं कि ‘कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है’ तो कह सकता हूँ कि लोग बहस करते हुए कम से कम भाषा में तो आदमी होने की तमीज भूल ही गए हैं। प्रभु जोशी की यह टिप्पणी असल में शुभम के बहाने उदय प्रकाश को निपटाने की कोशिश है पर यह कोशिश इतनी फूहड़ है कि इसने ‘प्रभु’ के ही तमाम आवरणों को हटा दिया है और भीतर से उनका बजबजाता हुआ लंपटपन बाहर निकल आया है। शुभम श्री को इस बात के लिए भी बधाई कि उनकी कविताओं ने बहुतेरे ‘प्रगतिशीलों’ और ‘आधुनिकों’ को अपनी खोल से बाहर निकलने के लिए विवश कर दिया है। वे अपनी सारी गलाजत के साथ बाहर निकल आए हैं और गंध फैला रहे हैं। इस मामले शुभम श्री की कविताएँ वह काम कर रही हैं जिसके लिए कभी मुक्तिबोध ने अपनी कविता ‘मैं तुम लोगों से दूर हूँ’ में लिखा था कि... ‘जो है उससे बेहतर चाहिए ...पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।’

मनोज पांडेय उदय प्रकाश पर हमला करना एक कई सालों से चल रहा हिट फैशन है। निश्चित रूप से इसमें उनकी अराजक हरकतों का भी काफी कुछ योगदान है पर मुख्य रूप से इनमें वे ही शामिल हैं जो उनकी विस्फोटक प्रतिभा और साहित्य के प्रति समर्पण के आगे खुद को कुंठित महसूस करते रहे हैं। कई बार उनसे अनावश्यक रूप से लड़ते झगड़ते उदय प्रकाश अपना बहुत सारा समय नष्ट भी करते हैं जो वे लिखने में लगाते तो क्या बात होती। पर पहले अनुज लुगुन और इस बार शुभम श्री के नाम को प्रस्तावित कर उन्होंने निराश नहीं होने दिया है। जबकि इसी बीच कई ऐसे कवियों को यह पुरस्कार दिया गया जिनके पास कविता जैसा कुछ भी नहीं था। वे पुरस्कार के बाद से कहाँ गायब हैं यह भी कोई नहीं पूछने वाला। मैं तो कई सालों से यह देखता आया हूँ कि पुरस्कारों को लेकर कोई हल्ला ही तब होता है जबकि वह गलती से किसी जेनुइन व्यक्ति को मिल जाता है। वीरेन डंगवाल जैसे प्यारे कवि को साहित्य अकादेमी मिली तो बहुत हल्ला हुआ पर गोविंद मिश्र या कि रामदरश मिश्र जैसों को जब यह पेंशन की तरह दी गई तो कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। 
दरअसल हिंदी साहित्य एक भयानक शुद्धतावाद से ग्रस्त है। खासकर कविता को लेकर कुछ लोगों के मन में दो तरह की धारणाएँ हैं। एक वे हैं जो कविता को गाय की तरह पवित्र मानते हैं और जो भी उनसे भिन्न राय रखता है उस पर गौरक्षकों की तरह टूट पड़ते हैं। दूसरे वे जिन्हें लगता है कि कविता को बाघ की तरह होना चाहिए और सर्वहारा के दुश्मनों को फाड़ खाना चाहिए और वे बाघ बचाने की मुहिम में जुटे रहते हैं। इन गौरक्षकों और बाघ के प्लास्टिक के नाखून लगाए घूमने वालों के पास इतना साहस भी नहीं है कि वे अपने हवाले से कोई बात करें। वे अक्सर पाठक नाम के किसी अमूर्त जीव के हवाले से कुछ इस तरह से बात करते हैं जैसे कि वे उसे अपनी जेब में रखकर घूमते हैं। सब कुछ इसी जेबी पाठक के नाम पर, अपने नाम पर कुछ भी नहीं। सारी लंपटई, सारी राजनीति, सारा मर्दाना गलीजपन, सारा जातिवाद सब कुछ इसी पाठक के नाम पर। पाठक न हुआ इनका वोटबैंक हो गया।

मनोज पांडेय शुभम श्री की कविताएँ मुझे पसंद है क्योंकि वह इस समय के बारे में मेरी समझ में, मेरे तर्कों में बहुत कुछ नया जोड़ती है और अपने समाज को समझने में मेरी मदद करती हैं। यही नहीं वह मुझे कई बार आईना भी दिखाती हैं कि यह है तुम्हारी असली शकल। अब तुम मुँह छुपाओ अपना या लड़ो इससे यह तुम्हारा काम। जहाँ तक पुरस्कृत कविता का सवाल है तो वह मुझे कई वजहों से पसंद है। यह हिंदी कविता के पर्यावरण पर बिल्कुल अलग तरीके से नजर डालती है। बहुतेरे लोग जो पूँजीवाद और साम्राज्यवाद पर झूठमूठ की कविता लिखकर कविता का सेंसेक्स चढ़ाते गिराते रहे हैं उन्हें निश्चित तौर पर इस कविता के आईने में अपनी फूहड़ शक्ल दिखाई दे रही होगी। बहुत सारे लोगों को लगता है कि यह कविता हिंदी और कविता का उपहास करती है। रघुवीर सहाय जब हिंदी को किसी दुहाजू की नई बीवी बता रहे थे जो घर का माल मैके पहुँचाते हुए खाती, मुटाती और गंधाती जा रही थी तो क्या वह हिंदी का मजाक बना रहे थे? या जिनको ‘पोएट्री मैनेजमेंट’ से दिक्कत है उनकी निराला के ‘कैपीटलिस्ट’ पर क्या राय है? क्या ‘कविता प्रबंधन’ से वह बात बन सकती थी जो ‘पोएट्री मैनेजमेंट’ से बन रही है... जहाँ शीर्षक से ही कविता में एक वक्र पैदा हो जाता है जो पूरे परिदृश्य को सिर के बल खड़ा कर देता है। अब खाते, मुटाते गंधाते लोगों को सिर के बल खड़े होने पर तकलीफ तो होगी ही। यह पूरी कविता एक अजूबी कल्पना है जो जड़ता की जंग लगे कल्पनाहीन लोगों को परेशान करेगी ही। यह अपनी व्याप्ति में हिंदी समाज में कविता की स्थिति, कविता और बाजार की सत्ता संरचना का जैसा जबर्दस्त विखंडन प्रस्तुत करती है वह बहुतेरों के लिए कल्पनातीत है और समझ से परे भी। तो वे यही कर सकते हैं कि पाठक के नाम पर कवि और कविता का मजाक बनाएँ और कपड़े के भीतर झाँककर सब कुछ देख लेनेवाली अपनी लंपट कल्पनाशीलता से पुरस्कार के मैनेज होने की बात करें। जाहिर की शुभम के स्त्री होने ने और उनकी कविता के शीर्षक ने इस काम में उनकी मदद ही कर दी है।

मनोज पांडेय इसके बावजूद यह कविता पढ़ते हुए आखिरी पंक्तियों तक पहुँचते हुए मैं उदास हो जाता हूँ जब कविता विखंडन छोड़ यथार्थ की जमीन पर उतर आती है। पाँच छह साल से प्रूफ पढ़ने की नौकरी करते हुए रोजी कमाता मैं एक अंदाजा लगाता हूँ कि यह विखंडन कितनी उदासी और अपनी भाषा और कविता के प्रति कितने गहरे सरोकारों से पैदा हुआ होगा। दिक्कत यह है कि व्यंग्य को अक्सर हँसी के करीब समझ लिया जाता है जबकि उसका सबसे नजदीकी रिश्ता एक बेचैन उदासी से बनता है। किसको फुर्सत है कि वह बैठकर जरा आराम से कविता की आँखों में झाँके। और अगर फुर्सत निकल आए तो भी सब कुछ को एक फूहड़ हँसी में बदल देने की हत्यारी जल्दबाजी में किसी के पास रचना की आँखों में झाँकने की ताब कहाँ।

Krishna Mohan बहुत ख़ूब मनोज पांडेय। मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि आपको अपने विचारशील गद्य को और अधिक गंभीरता से लेना चाहिए।

मनोज पांडेय शुक्रिया सर

Anil Mishra आपने मामले को समझने में मदद की है। शुक्रिया।

Shashi Bhooshan यह बतौर एक सूचना ही है कि प्रभु जोशी जी ने इस प्रसंग पर 15 से 20 पेज का लेख लिखा है। 

संभव है यह वैसा ही लेख साबित हो जैसे अनामिका और पवन करण की कविता प्रसंग पर उनका लेख 'कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं' साबित हुआ।

यदि प्रभु जोशी, उदय प्रकाश को निपटाने की चाहते हों तो मुझे पसंद नहीं। लेकिन यदि वे उनकी स्थापनाओं को खारिज़ करते है या मान्यता देते हैं तो दोनों ही मेरे पढ़ने के आनंद होंगे। 
मनोज की प्रभु जोशी के सम्बन्ध में बातों को छोड़कर मैं उनकी शेष बातों से अपनी सहमति व्यक्त करता हूँ।
Prabhu Joshi जी यह चर्चा भी आपके सामने है। 
कदाचित मैं अपनी बात कह चुका हूँ।

Nil Nishu जवाब मिलेगा। करारा जवाब मिलेगा।।

Dinesh Joshi Poetry Management`is a col age of satirical comments, Her other poems are memory friendly & long lived.

Shashi Bhooshan प्रिय शशिभूषण,
जब तुमने ध्यान दिलाया तो मैंने, युवा कथाकार मनोज पण्डे की वह पोस्ट पढ़ी. पढ़ कर, मुझे ऐसा कुछ भी अप्रत्याशित और अवमानना या आपत्तिजनक नहीं लगा. क्योंकि, ऐसा अमूमन होता ही है कि हम कई बार अपने प्रिय रचनाकार को, उसके रचनात्मक और बौध्दिक शौर्य का कमतर आकलन की त्रुटिवश ऐसा कर लेते है, गालिबन वह मिटटी के किसी कच्चे पात्र की तरह है. और डरने लगते है कि कहीं वह, असहमति के ऐसे मामूली धक्के से दरक ना जाएँ.

ऐसी चिंताएं, कदाचित, अपने आकलन की उतावली पर, नियंत्रण कर पाने की असफलता के कारण उत्पन्न होती हैं. और वे अपने प्रिय कलाकार या लेखक को, यह सब बताने की अनियंत्रित होने वाली उत्कंठा में, उससे व्यक्त असहमत को भ्रमवश शत्रु की तरह ही चीन्ह लेते हैं.

कहना न होगा कि यह बहुत सहज है और एक कारण ये भी है कि भाई मनोज पाण्डे को, शायद इस बात का पता नहीं है कि उदय मेरा प्रिय मित्र और प्रिय कथाकार भी है, और इस मित्रता ने, तीन दशक से ऊपर का कालखंड पूरा कर लिया है मैं उदय की कहानियों का आरम्भ से ही पाठक और प्रशंसक रहा हूँ. मैं जब आखिरी कहानी लिख रहा था, तब उदय की पहली कहानी सारिका में [ मौसाजी ] छप रही थी. इसके पश्चात् सन १९७७ से मैंने कोई कहानी ही नहीं लिखी. और ‘हंस’ और ‘ज्ञानोदय’ में, मेरी जो एक–दो कहानी छपी दिखाई दी, वे भी पूर्व प्रकाशित कहानियां थी, मैंने सम्पादक महोदय को कहा भी था इस बात का उल्लेख, कहानी के अंत में कर दे. लेकिन उन्होंने कहा कि १९७७ की छपी कहानी को किसने पढ़ा होगा, इसे हम बिना इस उल्लेख के ही छापेंगे. 

बहरहाल, मेरी साहित्य के संसार की नागरिकता और उसके इतिहास में रत्ती भर उल्लेख की आकांक्षा नहीं है, दुर्भाग्यवश , मेरी असहमति को साहित्यिक ईर्ष्या की तरह पढ़ा जा रहा है, और कहा जा रहा है कि मैं इसलिए उदय को लक्ष्य कर रहा हूँ. हाँ, ये बात मेरे मन में किंचित क्षोभ ज़रूर पैदा कर सकती है.

उदय अजेय है, और वह वध्य नहीं है, वह अपनी आत्मा में अस्सी से अधिक घाव लिए हुए है और हरदम हंसता ही मिलता है. बहरहाल, मेरी असहमति को देख कर , भाई मनोज पांडे की चिंता, एक तरह से उदय के बौध्दिक पुरुषार्थ को कम कर के आँकना है . पता नहीं, यह मनोज का उदय के प्रति अधिक स्नेह है या की उदय की विचार की समर सिध्दि पर संदेह. हाँ, एक बात ज़रूर है, वह यह कि भाई, मनोज की टिप्पणी से सिर्फ उन लोगों में उत्साह का संचार हो सकता है, जो ‘अच्छा निबटा दिया' वाली विचारणा में टुच्ची तुष्टि पाते है. हो सकता है, ऐसे लोग भाई मनोज की टिप्पणी को तुरंत अपनी वाल पर शेयर कर लेंगे. 

याद रखिये, ऑडेन और एलियट में विचार के स्तर पर, गहरी असहमतियाँ थी, बावजूद इसके वे एक दूसरे के गहरे मित्र थे. एलियट ऑडेन से अक्सर कहा करते थे, तुम्हारे भाषिक पुरुषार्थ के समक्ष मैं, स्वयं को दुर्बल मानता हूँ, क्योंकि , तुम्हारे पास दुहरी शब्दावलि है, लेकिन यह थोड़ा क्षोभपूर्ण तथ्य है कि हिंदी में किसी उत्कृष्ट लेखक को, कई बार उसके निकटस्थ लोग, ऐसी सूचनाएं देते बरामद होते है, जो नितांत अवांछनीय होती है, ज्ञानरंजन, कमलेश्वर, या अशोक वाजपेयी के शत्रुओं की आबादी में अभिवृध्दि इसी तरह की चूकों से ही हुई है.

अत: कुल मिलाकर, भाई शशिभूषण तुम्हे यही कहना चाह रहा हूँ, कथाकार भाई मनोज पांडे में युवतर होने से जो स्वभावगत सहज उतावली है, उसी के कारण ऐसी टिप्पणी हो गयी है. मुझे इस बात से कोई, क्षोभ नहीं . उम्मीद है, मैं अंशत: अपनी बात तुम तक पहुंचा सका हूँ.
-प्रभु जोशी



रविवार, 7 अगस्त 2016

उत्सव भी मनाएँ और चुनौतियाँ भी पहचानें : प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष


प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के अस्सी वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ ग्वालियर इकाई द्वारा प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष पर केन्द्रित आयोजन किया गया। यह आयोजन 17 जुलाई 2016 को स्वास्थ्य प्रबंधन एवं संचार संस्थान सिटी सेंटर ग्वालियर में हुआ। आयोजन के आरम्भ में उज्जैन से आए युवा कहानीकार शशिभूषण ने अपने विचार अस्सी वर्ष की हिंदी कहानी पर केन्द्रित करते हुए कहा, हिंदी कहानी खडी बोली की हिंदी कहानी है और आज की तारीख में एक सौ सोलह वर्ष की है। एक सौ सोलह वर्ष की कहानी में हमें यह देखना जरूरी है कि किन कहानियों में प्रगतिशील तत्व हैं, किन कहानियों ने आन्दोलन पैदा किए, किन आन्दोलनों ने कहानियां पैदा कीं, किन कहानियों ने विमर्श पैदा किए। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए सज्जाद जहीर साहब ने जब प्रेमचंद से कहा तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया, जिसके पीछे यह सोच था कि वह कहानियों के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से समाजवाद के लिए बदलाव लाएंगे। निश्चित ही कहानी बदलाव के लिए सबसे अचूक, सबसे मारक और लगभग अंतिम बात होती है। आप गीत गा सकते हैं, गुनगुना सकते हैं, लेकिन अंत में हर चीज की कहानी होती है। प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’ कहानी आज ईमानदारी और बेइमानी की कहानी नहीं रह गयी है, यह वैयक्तिक ईमानदारी के कार्पोरेट के सामने पराजित होने की कहानी बन जाती है। इसी प्रकार काशीनाथ सिंह की ‘सदी का सबसे बड़ा आदमी’, विद्यासागर नौटियाल की ‘माटीवाली’ और अन्य कहानीकारों में मुद्राराक्षस, संजीव, शिवमूर्ति, पुन्नी सिंह, राकेश मिश्र और चंदन पाण्डेय की कहानियां समाज को आगे ले जाने के लिए, प्रगतिशील मूल्यों के प्रति कोई कोताही नही बरततीं। आज झूठ को सच बताने का पूरा अभियान चल रहा है। झूठ ही सच है। सच्ची कहानियां कहने वाले को कभी पुरस्कृत नहीं किया जाता,बल्कि दंडित किया जाता है।

दूसरे वक्ता के रूप में ग्वालियर के कथाकार राजेन्द्र लहरिया ने विचार व्यक्त करते हुए कहा, बहुत महत्त्वपूर्ण और बडा विषय है प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष। अस्सी वर्ष का दायरा इसलिए कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना को ही अस्सी वर्ष हुए हैं लेकिन हमें इन अस्सी वर्ष पर बात करने के लिए थोड़े पीछे की ओर जाना होगा। प्रेमचंद को शामिल किए बिना प्रगतिशील लेखन की बात करना अधूरी बात करना होगा। प्रेमचंद की बात कर यह समझ में आता है कि जो लेखन छद्म क्रांतिकारिता को लेकर लिखा जाता है वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहता। प्रगतिशील लेखन की यह विशेषता है कि वह उस यथार्थ से पाठक को परिचित कराता है जो हमें साधारण आंखों से दिखाई नहीं देता। और शोषण और अन्याय के स्रोत कहां हैं इसका ज्ञान कराता है। वह बीमारी का पता बताता है जिससे आप उसके खिलाफ खडे़ हो सकें। ऐसी रचनाओं में भीष्म साहनी का ‘तमस’, प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’, मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ हैं। यह रचनाएं प्रगतिशील एप्रोच की रचनाएं हैं। ये रचनाएं चेतना विकसित करती हैं। बेचेनी पैदा करती हैं। मनुष्य के भीतर का मनुष्य जब जिस रचना में प्रकट होता है तो वह रचना प्रगतिशील रचना होती है।
अलीगढ़ से आए प्रो. वेदप्रकाश ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि प्रेमचंद और निराला ने प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले हिंदी में प्रगतिशील लेखन को आधार प्रदान किया। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल ,त्रिलोचन और मुक्तिबोध ने हिंदी में प्रगतिशील कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं सौन्दर्य की नई परिभाषाएं गढ़ती हैं। लोगों का सौन्दर्य के प्रति नजरिया बदलती हैं। अमरकांत की ‘हत्यारे’ कहानी के हत्यारे चैरासी के दंगों में नजर आए, गुजरात के दंगों में नजर आए और आज भी नजर आते हैं। प्रगतिशील कविता ने शिल्प को भी बदला है। लोक में जितने ढंग से बात कही जा सकती थी वह सब प्रगतिशील लेखन में है। आज राजनीतिक पाखंड, साम्प्रदायिकता और जातिवाद का विरोध जरूरी है। प्रगतिशीलता लेखक के आचरण में भी होना चाहिए।

अंत में मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विनीत तिवारी ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि प्रगतिशील लेखन केवल मानवतावादी लेखन नहीं होता वह पक्षधर लेखन होता है। इसलिए वह समाज के प्रभु वर्ग की मान्यताओं को ठेस पहुंचाता है। बनी बनाई मान्यताओं को जहां वह गलत समझेगा, चोट पहुंचायगा। इसलिए वह सबके सुभीते का लेखन नहीं होता। प्रगतिशील लेखन उदार लेखन होता है। वह खुले दिल से किसी भी आरोप या स्थापना को अपने ऊपर झेलेगा, उसे तौलेगा, वैज्ञानिक कसौटी पर परखेगा, ऐतिहासिक कसौटी पर परखेगा और उसके बाद कहेगा यह हमारी समझ है। आज का प्रगतिशील लेखन चार्वाक से लेकर जातक कथाओं तक, दुनिया के किसी भी कोने में छिपे प्रगतिशील लेखक को प्रतिष्ठा देने का काम करता हें जिनको हमारे समाज की बुराइयों ने कूड़े में डाल दिया था। स्त्रियों ने लेखन किया, दलितों ने लेखन किया, उन्हें उस दौर की बुराइयों ने उभरने नहीं दिया। प्रगतिशील लेखन उन्हें ढूंढ़कर प्रतिष्ठा देने का काम करता है।

प्रगतिशील लेखन के अस्सी वर्ष के मायने हैं कि प्रेमचंद के अस्सी वर्ष पहले कहे वाक्य ‘हमें हुस्न का मेयार बदलना है’ वाक्य को विस्तार देना। सौन्दर्य के प्रतिमान बदलने का काम प्रेमचंद ने सौंपा था। और हम प्रगतिशील लेखक अस्सी वर्ष से लड़ते-लड़ते, हमले झेलते, अपने साथियों का क़त्ल देखते हुए भी और ख़ुद तमाम किस्म के ख़तरे झेलते हुए भी हुस्न का मेयार यानी सौंदर्य के प्रतिमान बदलने की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मुस्तैदी से तैनात रहे हैं। यह वाक्य ही हमारे लिए मशाल है। यह उस वाक्य के अस्सी वर्ष पूरे होने का उत्सव मनाने का अवसर है और अपने औजारों पर फिर धार देने का अवसर है। प्रगतिशील लेखन की पहली शर्त है कि हम चुनौतियों की पहचान करें और फिर उनका सामना करें। साहित्य में इस संकट को हमें पहचानना होगा। हमारे प्रगतिशील मूल्य जो हमने स्थापित किए थे उन्हें बचाए रखना है। एक पुनरूत्थानवाद इस देश में फिर से हावी हो रहा है। लोगों के सामने गलत इतिहास परोसा जा रहा है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम को एक बताया जा रहा है। राष्ट्र का दायरा संकीर्ण से संकीर्ण किया जा रहा है। कश्मीर, आरक्षण, गैर आरक्षण यानि आपस में लडाने के जितने भी तरीके हो सकते हैं, वह सब इस समय इस्तेमाल किये जा रहे हैं। दक्षिणपंथ उफान पर है। ऐसा लगता है कि झूठ गढ़ने की सारी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता दक्षिण पंथ के पास पहुंच गयी हो। नकली कहानियां गढी जा रही हैं जिससे लोग सच से दूर ही भटकते रहें। झूठ की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है। प्रगतिशील लेखक को समाज के उन लोगों से जमीनी स्तर पर जुड़ना होगा जो शोषण व दमन के शिकार हैं। पहले के लेखक की यह विशेषता होती थी कि वह पहले बहुत पढ़ता था, जगह जगह घूमता था, फिर लिखता था। आज उन अनुभवों को बहुतेरे लेखक सिर्फ़ मोबाइल और इंटरनेट से जानने की कोषिष करके रचना कर रहे हैं। तकनीक की अपनी उपयोगिता है लेकिन अनुभव का कोई विकल्प नहीं हो सकता। अस्सी वर्ष इन लेखकों को याद करने और उनको सम्मान देने का भी वर्ष है।

अस्सी वर्ष पहले जिनसे हमारा साहित्यकार लड रहा था वह था साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, अंग्रेजी सत्ता और देश के भीतर समानान्तर चल रही बुराइयां। आजादी के बाद राज्य बदला है। कितना बदला है, इसमें मतभेद हैं। आज़ादी के बाद जो राज्य बना, उसे अनेक साहित्यकारों ने जनपक्षीय माना और आज़ाद देश के नये राज्य के साथ सहयोग की भावना के साथ उन्होंने रचनाकर्म किया। आज जो राज्य हमारे सामने है, उसे भी क्या हम जनपक्षीय राज्य मान सकते हैं? बेशक ये राज्य उदारीकरण के पिछले पच्चीस वर्षों की देन और नतीजा है लेकिन हाल के उदाहरण तो बहुत ही खराब हैं। इस नये राज्य का चरित्र क्या है? ये किस दिशा में ले जा रहा है? क्या वो भूमि सुधार कर रहा है? या वो किसानों को आत्महत्या करने के लिए छोड़ रहा है? क्या वह जनता के हक़ में कार्पोरेट की नाक में नकेल डाल रहा है? क्या उससे भी हमें वैसे ही लड़ना है जैसे हम अंग्रेजों से लडे थे, या हमें राष्ट्र निर्माण में इसी राज्य के साथ कंधे से कंधा मिलाना है। अब आदिवासियों को आदिवासियों से लडाया जा रहा है। पत्रकारों को जेलों में डाला जा रहा है। मीडिया को कंट्रोल किया जा रहा है। जनांदोलनों को कुचला जा रहा है। ये राज्य क्या वही राज्य है जो हमने 1947 में खड़ा किया था। क्या ये राज्य आज फासीवादी राज्य के रूप में तब्दील हो चुका है? आज प्रगतिशील लेखन के सामने ये चुनौती है कि वो इस राज्य के साथ अपना क्या रिश्ता बनाता है, उसे तय करना होगा। अगर ये राज्य जनविरोधी है तो लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को प्रतिपक्ष बनना ही होगा। पिछले वर्षों में ये ज़िम्मेदारी हमने निभाई भी है और आगे भी निभाएँगे। ये सवाल इक्का-दुक्का लेखकों के या किसी एक लेखक संगठन मात्र के व्यक्तिगत सवाल नहीं हैं बल्कि इनका हल सांगठनिक, सामूहिक और एकताबद्ध प्रयासों से ही निकलेगा और उस प्रक्रिया में हमारे पुरखे लेखक हमें सही रास्ता दिखाएँगे।

इस अवसर पर भिंड के कथाकार ए. असफल के उपन्यास ‘कठघरे’ का विमोचन भी किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ गीतकार व कवि कॉमरेड डॉ जगदीश सलिल ने की। संचालन इकाई के अध्यक्ष भगवान सिंह निरंजन ने किया। इस अवसर पर दतिया इकाई के साथी श्री के. बी. एल. पाण्डेय, नीरज जैन ,मुरैना से सामाजिक कार्यकता नीला हार्डीकर, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. प्रकाश दीक्षित, महेश कटारे, पवन करण, एवं शहर के प्रबुद्धजन बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

प्रस्तुति: भगवान सिंह निरंजन, अध्यक्ष प्रलेसं, ग्वालियर