प्रिय शशिभूषण,
जब तुमने ध्यान दिलाया तो मैंने, युवा कथाकार मनोज पाण्डे की वह पोस्ट पढ़ी. पढ़ कर, मुझे ऐसा कुछ भी अप्रत्याशित और अवमानना या आपत्तिजनक नहीं लगा. क्योंकि, ऐसा अमूमन होता ही है कि हम कई बार अपने प्रिय रचनाकार को, उसके रचनात्मक और बौध्दिक शौर्य का कमतर आकलन की त्रुटिवश ऐसा कर लेते है, गालिबन वह मिटटी के किसी कच्चे पात्र की तरह है. और डरने लगते है कि कहीं वह, असहमति के ऐसे मामूली धक्के से दरक ना जाएँ.
ऐसी चिंताएं, कदाचित, अपने आकलन की उतावली पर, नियंत्रण कर पाने की असफलता के कारण उत्पन्न होती हैं. और वे अपने प्रिय कलाकार या लेखक को, यह सब बताने की अनियंत्रित होने वाली उत्कंठा में, उससे व्यक्त असहमत को भ्रमवश शत्रु की तरह ही चीन्ह लेते हैं.
कहना न होगा कि यह बहुत सहज है और एक कारण ये भी है कि भाई मनोज पाण्डे को, शायद इस बात का पता नहीं है कि उदय मेरा प्रिय मित्र और प्रिय कथाकार भी है, और इस मित्रता ने, तीन दशक से ऊपर का कालखंड पूरा कर लिया है मैं उदय की कहानियों का आरम्भ से ही पाठक और प्रशंसक रहा हूँ. मैं जब आखिरी कहानी लिख रहा था, तब उदय की पहली कहानी सारिका में [ मौसाजी ] छप रही थी. इसके पश्चात् सन १९७७ से मैंने कोई कहानी ही नहीं लिखी. और ‘हंस’ और ‘ज्ञानोदय’ में, मेरी जो एक–दो कहानी छपी दिखाई दी, वे भी पूर्व प्रकाशित कहानियां थी, मैंने सम्पादक महोदय को कहा भी था इस बात का उल्लेख, कहानी के अंत में कर दे. लेकिन उन्होंने कहा कि १९७७ की छपी कहानी को किसने पढ़ा होगा, इसे हम बिना इस उल्लेख के ही छापेंगे.
बहरहाल, मेरी साहित्य के संसार की नागरिकता और उसके इतिहास में रत्ती भर उल्लेख की आकांक्षा नहीं है, दुर्भाग्यवश , मेरी असहमति को साहित्यिक ईर्ष्या की तरह पढ़ा जा रहा है, और कहा जा रहा है कि मैं इसलिए उदय को लक्ष्य कर रहा हूँ. हाँ, ये बात मेरे मन में किंचित क्षोभ ज़रूर पैदा कर सकती है.
उदय अजेय है, और वह वध्य नहीं है, वह अपनी आत्मा में अस्सी से अधिक घाव लिए हुए है और हरदम हंसता ही मिलता है. बहरहाल, मेरी असहमति को देख कर , भाई मनोज पांडे की चिंता, एक तरह से उदय के बौध्दिक पुरुषार्थ को कम कर के आँकना है . पता नहीं, यह मनोज का उदय के प्रति अधिक स्नेह है या की उदय की विचार की समर सिध्दि पर संदेह. हाँ, एक बात ज़रूर है, वह यह कि भाई, मनोज की टिप्पणी से सिर्फ उन लोगों में उत्साह का संचार हो सकता है, जो ‘अच्छा निबटा दिया' वाली विचारणा में टुच्ची तुष्टि पाते है. हो सकता है, ऐसे लोग भाई मनोज की टिप्पणी को तुरंत अपनी वाल पर शेयर कर लेंगे.
याद रखिये, ऑडेन और एलियट में विचार के स्तर पर, गहरी असहमतियाँ थी, बावजूद इसके वे एक दूसरे के गहरे मित्र थे. एलियट ऑडेन से अक्सर कहा करते थे, तुम्हारे भाषिक पुरुषार्थ के समक्ष मैं, स्वयं को दुर्बल मानता हूँ, क्योंकि , तुम्हारे पास दुहरी शब्दावलि है, लेकिन यह थोड़ा क्षोभपूर्ण तथ्य है कि हिंदी में किसी उत्कृष्ट लेखक को, कई बार उसके निकटस्थ लोग, ऐसी सूचनाएं देते बरामद होते है, जो नितांत अवांछनीय होती है, ज्ञानरंजन, कमलेश्वर, या अशोक वाजपेयी के शत्रुओं की आबादी में अभिवृध्दि इसी तरह की चूकों से ही हुई है.
अत: कुल मिलाकर, भाई शशिभूषण तुम्हे यही कहना चाह रहा हूँ, कथाकार भाई मनोज पांडे में युवतर होने से जो स्वभावगत सहज उतावली है, उसी के कारण ऐसी टिप्पणी हो गयी है. मुझे इस बात से कोई, क्षोभ नहीं .
उम्मीद है, मैं अंशत: अपनी बात तुम तक पहुंचा सका हूँ.
-प्रभु जोशी
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