सोमवार, 30 अगस्त 2010

आना

यह दिन सृष्टि का पहला दिन था
रची जानी थी इतनी बड़ी दुनिया
और हमारे हाथों में कोई औज़ार न थे

हमने सागर में उतार दी थी अपनी नाव
हमारे पास एक पतवार तक नहीं थी

हमें रचना था समय पर
उसकी गति पर
हम नियंत्रण नहीं कर सकते थे

मेरे जीवन के रेगिस्तान में
एक नदी की तरह आई थीं तुम
और मेरी पूरी रेत को प्रेम में बदल दिया था.

-विमलेन्दु

सोमवार, 9 अगस्त 2010

साथी

कौन लड़ता है भीतर
लड़ना नहीं छोड़ता
जबकि ताक़तवर जीतते ही रहे हैं कमज़ोर सच्चे लोगों से
मिट जाओगे यह सच्चाई सुनाते हुए बुला लेता है
और हम भूखे प्यासे निहत्थे ही दौड़ पड़ते हैं
पुकार लड़ने का बल भरती है वंचित जीवन में
किसका अंतहीन इंतज़ार अमृत भरता है प्राणों में
शांत हो जाता है तब उसके काम लड़ते हैं अन्याय से
यह कौन है जो हारने और बैठने नहीं देता
सींचता रहता है अंत:करण में विद्रोह
खड़ा कर देता है समझौतों के खिलाफ़
हानि-लाभ कामनाओं से भरा हुआ
भूख-रोग ज़माने से डरा हुआ
वास्तव में यह मैं तो नहीं
फिर कौन मुझे चुनकर अपना लेता है?
अड़ने भिड़ने का दम भर देता है?
पूछता हूँ खुद से
कोई जवाब नहीं आता
आती है रंगों की याद
साथी हैं अपने
हरा और लाल.

रविवार, 8 अगस्त 2010

गीत चतुर्वेदी का कहानी-पाठ






प्रेमचन्द जयंती के उपलक्ष्य में प्रगतिशील लेखक संघ की इन्दौर इकाई द्वारा प्रसिद्ध युवा कहानीकार व कवि गीत चतुर्वेदी का कहानी पाठ आयोजित किया गया।

1 अगस्त 2010 को देवि अहिल्या केन्द्रीय पुस्तकालय में हुए इस कार्यक्रम में अभय नेमा ने आमंत्रितों का स्वागत करते हुए भोपाल से आये गीत चतुर्वेदी को समकालीन हिन्दी कहानी में एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति कहा। गीत चतुर्वेदी का परिचय देते हुए विनीत तिवारी ने गीत की कविता, अनुवाद और फिल्मों में रुचि को रेखांकित किया और कहा कि इन सब आयामों से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करते हुए गीत ने अपनी कहन की एक नई शैली को विकसित किया है। पेशे से पत्रकार गीत को कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ है और हाल में उनका एक कविता संग्रह”आलाप में गिरह” और कहानियों की दो किताबें “पिंक स्लिप डैडी” व “सावंत आंटी की लड़कियां” आयीं हैं।

गीत चतुर्वेदी ने अपनी चर्चित लम्बी कहानी “पिंक स्लिप डैडी” के चुनिन्दा अंशों का पाठ किया। ‘पिंक स्लिप डैडी’ आज के एक उच्च मध्यमवर्गीय जीवन की कहानी है जिसमें कहानी का प्रमुख पात्र सफलता पाने के लिये कई तरह के झूठ गढ़ता है और सबसे ज्यादा झूठ अपने आप से कहता है। ये कहानी वर्तमान कार्पोरेट जीवन शैली के सामाजिक साइड इफेक्ट्स को दर्शाती है और आडम्बरपूर्ण सर्वसुविधायुक्त जीवनशैली के अंधेरे कोनों पर रोचक ढंग से कटाक्ष करती हुई आगे बढ़ती है। बहुत सुन्दरता के साथ कहानी अपने कहन में कविता को साथ लेकर चलती है जिससे इसकी भाषा तरल और प्रवहमान बनी रह्ती है।

कहानी में गीत कहते हैं “मेरी जाग एक नियंत्रित नींद है।”.....“एक कामयाब नींद क्या होती है- उसमें प्रवेश करना या फिर सही-सलामत बाहर निकल आ जाना?”....वो सपने के बारे में कहते हैं कि “सपना चाहे कैसा भी हो, सच होने का बीज उसी में छुपा होता है।” वो प्रकाश को “डायल्यूटेड अन्धेरा” कहते हैं और “ज्यादा गाढ़े प्रकाश को अंधेरा”।.....“हम इस धरती का जल हैं। पानी की भी मांसपेशियां होती हैं और पानी को पानी से ही धोना चाहिये”।.....“माँ बनने के बाद हर महिला अपनी माँ का स्पर्श याद करती है”। कहानी का मुख्य किरदार कहता है कि “मैं प्रसन्न रहना चाहता हूँ मगर पाता हूँ ज्यादातर समय सिर्फ सन्न हूँ।”

करीब एक घंटे चले कहानी पाठ के बाद अपनी प्रतिक्रियाएं देते हुए उपस्थितों ने कहानी के साथ कविता के मेल और इस शिल्प को गीत की कहानियों का ख़ूबसूरत प्रयोग कहा। गीत की कहानियों के बहाने हिन्दी कहानी के भीतर दिख रहीं नयी प्रव्रत्तियों, इनके विकास व मौजूदा यथार्थ की जटिलताओं पर चर्चा हुई। रवीन्द्र व्यास ने कहा कि गीत जब एक यथार्थ को छूते हैं तो कई सारे यथार्थ फूट पड़ते हैं और इन्हीं सब यथार्थों को व्यक्त करने की कोशिश में वो तमाम तरह के कोटेशंस और कविताओं का प्रयोग करते हैं। इसीलिये इनकी कहानियों में बहुस्तरीयता और विभिन्न कला माध्यमों में आवाजाही दिखती है। आशुतोष दुबे ने कहा कि कहानी और कविता के इस मिलेजुले शिल्प में गीत के लेखन में अलग और बेहतर तरीके से नयापन मौजूद है और वो पाठक के साथ छूट लेने का साहस करते हैं। विनीत तिवारी ने कहा कि इस कहानी को सुनते हुए लगा कि हरिया हर्क्युलीज की हैरानी को आज के समय में एक अलग ट्रीट्मेंट के साथ लिखा गया हो। इस्मत चुगताई, मंटो, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, यशपाल, ज्ञानरंजन आदि ने भी पाठक के दवाब को चुनौती दी थी और कहानी की कला को आगे बढ़ाया था। गीत और आगे की उम्मीदें जगाते हैं। ये कहानी उच्च मध्य वर्ग की मौजूदा त्रासदी है जिसे गीत ने नये मुहावरे और नयी भाषा के साथ खूब पकड़ा है, लेकिन हिन्दी कहानी को अभी ऐसे किसी मुहावरे और भाषा का इंतज़ार है जो इस दौर में समाज के सबसे निचले सिरे पर मौजूद करोड़ों लोगों की कहानी को नये और असरदार तरह से कह सके। प्रदीप मिश्र ने कहा कि पहले के कई लेखकों और कहानीकारों से हटकर इन कहानियों में एक नयापन है और गीत की भाषा का ये सामर्थ्य है कि वो इस मैनेजमेंटी कोर्पोरेटी जंजाल को उधेड़ देती है। गीत की कहानी में झूठी व्यवस्था का सच्चा हिस्सा बन जाने से उपजी समस्याओं का सशक्त चित्रण है। अभय नेमा ने कहा कि गीत अपनी कहानी में किसी भी तरह के वाद का नाम ना लेते हुए भी पूंजीवाद और उसकी अमानवीयता व सामाजिक असर को सरल किंतु सशक्त तरीके से उजागर करती है। विपुल शुक्ल ने रचना प्रक्रिया के बारे में सवाल किया कि क्या रचनाकार पाठक को नजरंदाज कर अच्छे साहित्य का स्रजन कर सकता है और आप लिखते समय मुख्य तौर पर किन बातों का ध्यान रखते हैं। उत्पल बैनर्जी, किसलय पंचोली, जावेद आलम व चैतन्य त्रिवेदी ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

अंत में गीत ने कहा कि मेरे भीतर का रचनाकार विशेषत: दो बातों पर ध्यान देता है- कुछ वो पहलू होते हैं जो लेखक जानता है कि ज्यादातर लोगों तक पहुँचेंगे और लोगों का उनपर ध्यान जायेगा। और कुछ पहलू ऐसे होते हैं जिन पर लेखक चाहता है कि लोगों का ध्यान जाये। मेरी कोशिश पाठक को समझाने की नहीं होती, मैं पाठक को मशक्कत के लिए तैयार भी करता हूं और उकसाता भी हूं। मैं जो कह रहा हूं उसके पाठक अपने-अपने पाठ करेंगे, इसलिये मेरा ज़ोर इस पर रहता है कि मैं वो लिख पाऊं जो मैं लिखना चाहता हूं, ना कि वो जो पाठक चाहता है। जहां तक कविता, कहानी, और अन्य विधाओं के इस्तेमाल की बात है तो मुझे लगता है कि यथार्थ और समय की मुठभेड़ को व्यक्त करने मेँ अब सिर्फ गद्य काफी नहीं है इसलिये एक से अधिक विधाओं के भीतर उतरना और उनका संयोजन करना ज़रूरी है।

कार्यक्रम में एस. के. दुबे, साहब, जितेन्द्र चौहान, नवीन राँगियाल, सारिका श्रीवास्तव, क्रष्णकांत सिंह, निशिकांत चौहान, विभोर मिश्रा व रुचिता श्रीवास्तव की भी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति रही। संचालन किया अभय नेमा ने।


प्रस्तुति
विभोर मिश्रा
द्वारा श्री विपुल शुक्ला
39, प्रगति नगर, राजेन्द्र नगर,इन्दौर (म.प्र)
मोबाइल -8109787559

शनिवार, 7 अगस्त 2010

नहीं माफ़ करेंगे तो क्या करेंगे?

कहतें हैं कि पुराना ज़माना गुज़र चुका है फिर भी दोस्ती-दुश्मनी के पैमाने वही पुराने हैं.जो हर हाल में आपना साथ दे वह दोस्त.जो समय पड़ने पर कभी विरोध कर बैठे वह भी दुश्मन.कैकेयी और विभीषण कितने ही सही रहे हों लोक ने गालियाँ ही सम्हाली हैं इनके लिए.दोस्त मतलब कर्ण.वरना दुहाई देनेवाला कौन माई का लाल नहीं जानता कि कर्ण एक गलत लड़ाई लड़ता रहा मरते दम तक.दुश्मनों की लंबी फेहरिस्त है.एक ही उदाहरण काफ़ी होगा.कृष्ण के भाई बलराम भी पांडवों के सखा-गुरु थे आगे दुश्मन हुए.सो एक बात तो साफ़ है कि जो विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया के साथ हैं वे उनके दोस्त हैं.जो उनके खिलाफ़ हैं वे उनके दोस्त नहीं हैं...दोनों तरफ़ एक से बढ़कर एक तर्क और नाम हैं और हस्ताक्षर अभियान भी हैं.

मैं देख रहा हूँ कि जो जिसके साथ है उसके लिए लड़ रहा है.सभी लड़ रहे हैं.लड़नेवाले सुरक्षित हैं.जूते-पत्थर उसको पड़ रहे हैं जो नहीं लड़ रहा.केवल यहाँ-वहाँ रायनुमा विचार बघार रहा है कि महिलाओं के सम्मान में उठ खड़े हुए लोगों में अधिकांश ने अपनी पुरानी हार चुकी लड़ाइयाँ तथा दुश्मनियाँ ज़िंदा कर लीं है.या फिर यह अपराध ही एक खतरनाक प्रवृत्ति का उदाहरण है.अब सवाल उठता है कि लड़नेवाले वास्तव में किससे लड़ रहे हैं? जवाब है-दूसरों के समझौतों से.अपने-अपने समझौते ढांपकर.सब न्याय के पुजारी हो चुके हैं.दिलचस्प यह है कि न्याय को पहले ही बांट लिया गया था.सो सबको न्याय मिलता हुआ भी नज़र आ रहा है.

मेरे हिस्से का भी न्याय मिल ही जाता लेकिन मैं तो डरपोक हूँ.किसी की तरफ़ से नहीं लड़ पा रहा हूँ.साठ साल तक चलनेवाली सरकार की नौकरी बजाते हुए दूसरों की कुछ साल ही चलनेवाली नौकरी के खिलाफ़ लड़ना मुझे सही नहीं लग रहा.

मैं हिम्मत करके सिर्फ़ यह कहने को तैयार हूँ कि रवींद्र कालिया और वी एन राय ने गलती की है.लेकिन उन्हें माफ़ तक नहीं किया जा सकता यह संघर्ष भी बहुत भयानक होगा.

क्योंकि मुझे दोनों तरफ़ के लोगों में ऐसे चेहरे साफ़ दिख रहे हैं जिन्हें ऐसी ही कोई गलती करने का सिर्फ़ एक अवसर चाहिए.इस भयानक लगने को भी दोनों अभियुक्तों का समर्थन समझ लिया जाए तो मैं अपना ही सिर पीटूँगा.

मुझे इन दोनों पदों के लिए प्लेटो की राजा संबंधी प्रचीन मांग सही लगती है कि वह आए जिसका कोई सगा-संबंधी न हो.पर यह पहले नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा की ही टेक को चरितार्थ करता है .दोनों तरफ़ के आंदोलनकारी संयुक्त परिवारों के घोर समर्थक हैं.

इसलिए यह कह डालने की मजबूरी और तक़लीफ़ भी समझ लेनी चाहिए कि जान लेंगे मालिक?...माफ़ भी कर दीजिए भाई….अरे नहीं ही माफ़ करेंगे तो क्या कर लेंगे?....कुछ करने की सोचेंगे तो तय करना पड़ेगा अगली बार किसे वोट देंगे.इसमें भी झंझट.चिल्लाने लगेंगे हम साहित्य,पत्रकारिता करनेवाले कहाँ राजनीति के चक्कर में पड़ते हैं.तो क्या घर बैठे का आपका साहित्य,कमाऊ मीडिया ही समाज बदल लेगा बाबू?.....औरतों,दलितों को न्याय दिला देगा?....

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

असावधान भाषा की सांस्कृतिक ठेस


चर्चित उपन्यासकार और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति वी एन राय के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित विवादास्पद साक्षात्कार से हिंदी साहित्यिक समाज दो खेमों में बट गया है.एक चाहता है कि श्री राय को सज़ा मिले उनकी बर्खास्तगी हो दूसरे का मानना है कि उनके माफ़ी मांग लेने के बाद पूरे प्रकरण को खत्म समझा जाए.दोनों समूहों में एक दूसरे के स्टैंड को लेकर भी परस्पर आरोप-प्रत्यारोप ज़ारी हैं.ऐसे में यह विमर्श लगभग गायब ही है कि वी एन राय के उक्त बयान के पीछे कौन सी चली आती हुई खतरनाक समकालीन प्रवृत्ति है?इस प्रवृत्ति के शिकार लोगों के लिए क्या सचमुच क्षमा नहीं है की ऐसी ही ताक़तवर आवाज़ें उठती रही हैं या आलोकधन्वा की एक पुरानी बात कि सिर्फ़ मृत लोग ग़लतियाँ नहीं करते मनुष्य से गलती करने का अधिकार सदा के लिए छीन लेना भी एक तरह की तानाशाही है पर भी विचार किया जाना चाहिए?.मैं सोचता हूँ प्रसिद्ध लेखक-चित्रकार प्रभु जोशी का यह ज़रूरी लेख इस प्रसंग में समर्थन-विरोध से परे परिदृश्य को समझने के लिए विवेकपूर्ण सावधान पाठ के लिए आमंत्रित करता है. -ब्लॉगर

सुपरिचित कथाकार और सम्प्रति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूतिनारायण राय ने ज्ञानपीठ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय‘ में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में ‘समकालीन स्त्री विमर्श’ के केन्द्र में चल रही ‘वैचारिकी‘ पर बड़ी मारक टिप्पणी करते हुए यह कह डाला कि लेखिकाओं का एक ऐसा वर्ग है, जो अपने आपको बड़ा ‘छिनाल‘ साबित करने में लगा हुआ है। कदाचित् यह टिप्पणी उन्होंने कुछेक हिन्दी लेखिकाओं द्वारा लिखी गई आत्म कथात्मक पुस्तकों को ध्यान में रख कर ही की होगी। हालांकि इसको लेकर दो तीन दिनों से प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही मीडिया में बड़ा बवण्डर खड़ा हो गया है। लेकिन, हिन्दी भाषा-भाषी समाज में यह वक्तव्य अब चौंकाने वाला नहीं रह गया है। इस शब्दावलि से अब कोई अतिरिक्त ‘सांस्कृतिक-ठेस‘ नहीं लगना चाहिए। क्योंकि, ‘कल्चर-शॉक‘ का वह कालखण्ड लगभग अब गुजर चुका है।

उत्तर औपनिवेश समय ने हमारी भाषा के ’सांस्कृतिक स्वरूप’ को इतना निर्मम और अराजक होकर तोड़ा है कि ‘सम्पट‘ ही नहीं बैठ पा रही है कि कहां, कब क्या और कौन-सा शब्द बात को ‘हिट‘ बनाने की भूमिका में आ जायेगा। हमारे टेलिविजन चैनलों पर चलने वाले ’मनोरंजन के कारोबार’ में भाषा की ऐसी ही फूहड़ता की जी-जान से प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है। ‘भीड़ू‘, ‘भड़वे‘ और ‘कमीने‘ शब्द ‘नितान्त‘ ‘स्वागत योग्य‘ बन गये हैं। ‘इश्क-कमीने‘ शीर्षक से फिल्म चलती है और वह सबसे ज्यादा ’हिट’ सिद्ध होती है। संवादों में गालियां संवाद का कारगर हिस्सा बनकर शामिल हो रही हैं। इसलिए ‘छिनाल‘ या ‘छिनाले‘ शब्द से हिन्दी बोलने वालों के बीच तह-ओ-बाल मच जाये, यह अतार्किक जान पड़ता है। क्योंकि इस विस्मृति के दौर में ‘भाषा की भद्रता‘ को मसखरी में बदल जा रहा है, वहां ऐसे शब्दों को लेकर ‘बहस‘ हमें यह याद दिलाती है कि आखिर हम कितने दु-मुंहे और निर्लज्ज हैं कि एक ओर जहां हम ‘स्लैंग‘ के लिए हमारे जीवन में संस्थागत रूप से जगह बनाने का काम कर रहे हैं, तो फिर अचानक इस फूहड़ता पर आपत्तियां क्यों आती हैं ?

चौंकाता केवल यह है कि एक चर्चित, और गंभीर लेखक अपने वक्तव्य में ऐसी असावधानी का शिकार कैसे हो जाता है ? दरअस्ल, वह कहना यही चाहता था कि आज के लेखन में ‘हेट्रो सेक्चुअल्टी‘ (यौन-संबंधों की बहुलता) स्त्री के साहस का ’अलंकरण’ बन गया है। विवाहेत्तर संबंधों की विपुलता का बढ़-चढ़ कर बखान ‘स्त्री की स्वतंत्रता‘ का प्रमाणीकरण बनने लगा है। यौन संबंधों की बहुलता उसके लिए अपने देह के स्वामित्व को लौटाने का बहुप्रतीक्षित अधिकार बन गई है। हालांकि, इस पर अलग से गंभीरता से बात की जा सकती है। क्योंकि इन दिनों हिन्दी साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों में ‘एकनिष्ठता‘ को स्त्री का शोषण माना और बताया जाने लगा है। खासकर हिन्दी कथा साहित्य में यह हो गया है। कविता में भी है कि ’उत्तर आधुनिक बेटी’, अपनी मां को दूसरे प्रेमी के लिए कांच के सामने श्रृंगार करते देखती है तो प्रसन्नता से भर उठती है। उसे मां के एक ’अन्य पुरूष’ से होने वाले संबंध पर आपत्ति नहीं है। ऐसी कविता सामाजिक जीवन में एक ‘नई स्त्री की खोज‘ बन रही है तो दूसरी तरफ कथा साहित्य में ‘निष्ठा‘ एक घिसा हुआ शब्द हो चुका है। निष्ठा से बंधी स्त्री को ‘मॉरल फोबिया‘ से ग्रस्त स्त्री का दर्जा दे दिया जाता है। याद दिलाना चाहूंगा, हेट्रो सेक्चुअल्टी को शौर्य बनाने की युक्ति का सबसे बड़ा टेलिजेनिक प्रमाण था, कार्यक्रम ‘सच का सामना‘। जिसमें मूलतः ‘सेक्स‘ को लेकर सवाल किये जाते थे और जिसमें विवाहेत्तर यौन संबंधों की बहुलता का बखान कर दिया, वह पुरस्कार के प्राप्त करने का सबसे योग्य दावेदार बन जाता था। बहरहाल, इसी तरह के घसड़-फसड़ समय को जाक्स देरिदा ने कहा है, ‘टाइम फ्रैक्चर्ड एण्ड टाइम डिसज्वाइण्टेड‘। यानी चीजें ही नहीं, भाषा और समाज टूट कर कहीं से भी जुड़ गया है। भाषा से भूगोल को, भूगोल को भूखे से और भूखे का भगवान से भिड़ा दिया जाता है। इसे ही ‘पेश्टिच‘ कहते हैं। मसलन, अगरबत्ती के पैकेट पर अब अर्द्धनिवर्सन स्त्री, ‘देह के चरम आनंद‘ की चेहरे पर अभिव्यक्ति देती हुई बरामद हो जाती है। हो सकता है सिंदूर बेचने की दूकान का दरवाजा देह-व्यापार की इमारत में खुल जाये। पहले मंदिर जाने के बहाने से प्रेमी से मिला जाता था, लेकिन अब मंदिर प्रेम के लिए सर्वथा उपयुक्त और सु रक्षित जगह है। एक नया सांस्कृतिक घसड़-फसड़ चल रहा है, जिसमें बाजार एक ’महामिक्सर’ की तरह है, जो सबको फेंट कर ’एकमेक’ कर रहा है। अब शयनकक्ष का एकान्त चौराहे पर है। और बकौल गुलजार के बाजार घर में घुस गया है। समाज में एक नया ‘पारदर्शीपन‘ गढ़ा जा रहा है, जिसमें सब कुछ दिखायी दे रहा है और नई पीढ़ी उसकी तरफ अतृप्त प्यास के साथ दौड़ रही है और अधेड़ पीढ़ी ’सांस्कृतिक अवसाद’ में गूंगी हो गई है। उसकी घिग्घी बंध गयी है। और, शायद सबसे बड़ी घिग्घी ‘भाषा के भदेसपन पर बंधी हुई है। अंतरंग को ‘बहिरंग‘ बनाती भाषा के चलते ही, लम्पट-मुहावरे अभिव्यक्ति का आधार बन रहे हैं। और इस पर सबसे ज्यादा सांस्कृतिक ठेस हमारी उस भद्र मध्यमवर्गीय चेतना को लग रही है, जो कभी-कभी मीडिया अपने हित में जागृत कर लेता है। अगर मोबाइल पर युवाओं के बीच की बात को लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया जाये तो हम जान सकते हैं कि भाषा खुद अपने कपड़े बदल रही है। उसे कुछ ‘ज्ञान के अत्यधिक मारे लोग‘ भाषा की ‘फ्रेश लिग्विंस्टिक लाइफ‘ कह रहे हैं। लेकिन, संबंधों को लम्पट भाषा के मुहावरे में व्यक्त किया जा रहा है।

दरअस्ल, विभूतिनारायण राय अपनी अभिव्यक्ति में असावधान भाषा के कारण, भर्त्सना के भागीदार हो गये हैं। क्योंकि, वे निष्ठाहीनता को लम्पटई की शब्दावली के सहारे आक्रामक बनाने का मंसूबा रख रहे थे। शायद, वे साहित्य के भीतर फूहड़ता के प्रतिष्ठानीकरण के विरूद्ध कुछ ‘हिट‘ मुहावरे में कुछ कहना चाहते थे। मगर, वे खुद ही गिर पड़े। एक लेखक को, जो वाणी का पुजारी होता है, वही वाणी की वजह से वध्य बन गया। याद रखना चाहिए कि बड़े युद्धों के आरंभ और अंत हथियारों से नहीं, वाणी से ही होते हैं। एक लेखक को शब्द की सामर्थ्य को पहचानना चाहिए। ‘सूअर‘ के बजाये ‘वराह‘ के प्रयोग से शब्द मिथकीय दार्शनिकता में चला जाता है। भाषा की यही तो सांस्कृतिकता है। इसे फलांगे तो औंधे मुंह आप और आपका व्यक्तित्व दोनों ही एक साथ गिरेंगे और लहूलुहान हो जायेंगे। जख्म पर मरहम पट्टी लगाने वालों के बजाय नमक लगाने वालों की तादाद ज्यादा बड़ी होगी।

प्रभु जोशी
4, संवाद नगर
इन्दौर

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

प्यार नहीं देश बनाना

केवल तुम हो जो मुझे प्यार करती हो
कोई और मुझे चाहती है मैं नहीं जानता
तुम्हे प्यार करते हुए मैं पूरी औरत जात को प्यार करता हूँ
अच्छी तरह जानता हूँ
ऐसा नहीं कर पाऊँ
तो मेरी ज़िंदगी का अधूरापन
अलग-अलग स्त्रियाँ नहीं भर पाएँगी
अनुमान लगा लेता हूँ
कई स्त्रियाँ चाहें तब भी स्त्री ही प्यार करती होगी

मेरे भीतर आशीष उमड़ आते हैं
लड़कियाँ अपने प्रेमियों को टूटकर चाहें
उन्हें भटकाए नहीं प्यार की तक़लीफ़
जब तुम्हें प्यार करता हूँ तो सोचता हूँ
मुझे याद न आएँ फ़िल्में,कहानियाँ और लोक कथाएँ
जो पकी फसल जैसी होती हैं
बुलंद कुओं के सुनसान जगत जैसी
जहाँ पहुँच जाना
कामनाओं के अपराधबोध से भर देता है

मैं तुम्हें अपने जैसा प्रेम कर पाऊँ
चाहे यह कितना ही अनगढ़ क्यों न लगे
दूसरों के जैसा प्रेम करना चाहनेवालों से मुझे सहानुभूति होती है
यह भी क्या होना
मेरे घर आए प्यार
और मैं कोई लोकप्रिय अतीत दुहराने लगूँ
जबकि प्रेम में संभव होता है यह
हम आकाश में जिएँ धरती के कोमल वैभव के साथ

सभ्यता के इस मोड़ पर
जहाँ हर चीज़ का विज्ञापन है
हर शै को प्रचार की आज़ादी है
मुश्किल होता है अपने जैसा प्यार करना
मैं चाहता हूँ तुम्हें प्यार करने के पहले
किताबें गल जाएँ
गीत उड़ जाएँ
आदतें अपेक्षाओं के साथ कहीं चली जाएँ
स्मृतियों से भरे रहकर तुम्हें प्यार करना
वैसा ही होता है
जैसे बहुत पुरानी बुनियाद पर
बार-बार देश बनाना.