कहतें हैं कि पुराना ज़माना गुज़र चुका है फिर भी दोस्ती-दुश्मनी के पैमाने वही पुराने हैं.जो हर हाल में आपना साथ दे वह दोस्त.जो समय पड़ने पर कभी विरोध कर बैठे वह भी दुश्मन.कैकेयी और विभीषण कितने ही सही रहे हों लोक ने गालियाँ ही सम्हाली हैं इनके लिए.दोस्त मतलब कर्ण.वरना दुहाई देनेवाला कौन माई का लाल नहीं जानता कि कर्ण एक गलत लड़ाई लड़ता रहा मरते दम तक.दुश्मनों की लंबी फेहरिस्त है.एक ही उदाहरण काफ़ी होगा.कृष्ण के भाई बलराम भी पांडवों के सखा-गुरु थे आगे दुश्मन हुए.सो एक बात तो साफ़ है कि जो विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया के साथ हैं वे उनके दोस्त हैं.जो उनके खिलाफ़ हैं वे उनके दोस्त नहीं हैं...दोनों तरफ़ एक से बढ़कर एक तर्क और नाम हैं और हस्ताक्षर अभियान भी हैं.
मैं देख रहा हूँ कि जो जिसके साथ है उसके लिए लड़ रहा है.सभी लड़ रहे हैं.लड़नेवाले सुरक्षित हैं.जूते-पत्थर उसको पड़ रहे हैं जो नहीं लड़ रहा.केवल यहाँ-वहाँ रायनुमा विचार बघार रहा है कि महिलाओं के सम्मान में उठ खड़े हुए लोगों में अधिकांश ने अपनी पुरानी हार चुकी लड़ाइयाँ तथा दुश्मनियाँ ज़िंदा कर लीं है.या फिर यह अपराध ही एक खतरनाक प्रवृत्ति का उदाहरण है.अब सवाल उठता है कि लड़नेवाले वास्तव में किससे लड़ रहे हैं? जवाब है-दूसरों के समझौतों से.अपने-अपने समझौते ढांपकर.सब न्याय के पुजारी हो चुके हैं.दिलचस्प यह है कि न्याय को पहले ही बांट लिया गया था.सो सबको न्याय मिलता हुआ भी नज़र आ रहा है.
मेरे हिस्से का भी न्याय मिल ही जाता लेकिन मैं तो डरपोक हूँ.किसी की तरफ़ से नहीं लड़ पा रहा हूँ.साठ साल तक चलनेवाली सरकार की नौकरी बजाते हुए दूसरों की कुछ साल ही चलनेवाली नौकरी के खिलाफ़ लड़ना मुझे सही नहीं लग रहा.
मैं हिम्मत करके सिर्फ़ यह कहने को तैयार हूँ कि रवींद्र कालिया और वी एन राय ने गलती की है.लेकिन उन्हें माफ़ तक नहीं किया जा सकता यह संघर्ष भी बहुत भयानक होगा.
क्योंकि मुझे दोनों तरफ़ के लोगों में ऐसे चेहरे साफ़ दिख रहे हैं जिन्हें ऐसी ही कोई गलती करने का सिर्फ़ एक अवसर चाहिए.इस भयानक लगने को भी दोनों अभियुक्तों का समर्थन समझ लिया जाए तो मैं अपना ही सिर पीटूँगा.
मुझे इन दोनों पदों के लिए प्लेटो की राजा संबंधी प्रचीन मांग सही लगती है कि वह आए जिसका कोई सगा-संबंधी न हो.पर यह पहले नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा की ही टेक को चरितार्थ करता है .दोनों तरफ़ के आंदोलनकारी संयुक्त परिवारों के घोर समर्थक हैं.
मैं देख रहा हूँ कि जो जिसके साथ है उसके लिए लड़ रहा है.सभी लड़ रहे हैं.लड़नेवाले सुरक्षित हैं.जूते-पत्थर उसको पड़ रहे हैं जो नहीं लड़ रहा.केवल यहाँ-वहाँ रायनुमा विचार बघार रहा है कि महिलाओं के सम्मान में उठ खड़े हुए लोगों में अधिकांश ने अपनी पुरानी हार चुकी लड़ाइयाँ तथा दुश्मनियाँ ज़िंदा कर लीं है.या फिर यह अपराध ही एक खतरनाक प्रवृत्ति का उदाहरण है.अब सवाल उठता है कि लड़नेवाले वास्तव में किससे लड़ रहे हैं? जवाब है-दूसरों के समझौतों से.अपने-अपने समझौते ढांपकर.सब न्याय के पुजारी हो चुके हैं.दिलचस्प यह है कि न्याय को पहले ही बांट लिया गया था.सो सबको न्याय मिलता हुआ भी नज़र आ रहा है.
मेरे हिस्से का भी न्याय मिल ही जाता लेकिन मैं तो डरपोक हूँ.किसी की तरफ़ से नहीं लड़ पा रहा हूँ.साठ साल तक चलनेवाली सरकार की नौकरी बजाते हुए दूसरों की कुछ साल ही चलनेवाली नौकरी के खिलाफ़ लड़ना मुझे सही नहीं लग रहा.
मैं हिम्मत करके सिर्फ़ यह कहने को तैयार हूँ कि रवींद्र कालिया और वी एन राय ने गलती की है.लेकिन उन्हें माफ़ तक नहीं किया जा सकता यह संघर्ष भी बहुत भयानक होगा.
क्योंकि मुझे दोनों तरफ़ के लोगों में ऐसे चेहरे साफ़ दिख रहे हैं जिन्हें ऐसी ही कोई गलती करने का सिर्फ़ एक अवसर चाहिए.इस भयानक लगने को भी दोनों अभियुक्तों का समर्थन समझ लिया जाए तो मैं अपना ही सिर पीटूँगा.
मुझे इन दोनों पदों के लिए प्लेटो की राजा संबंधी प्रचीन मांग सही लगती है कि वह आए जिसका कोई सगा-संबंधी न हो.पर यह पहले नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा की ही टेक को चरितार्थ करता है .दोनों तरफ़ के आंदोलनकारी संयुक्त परिवारों के घोर समर्थक हैं.
इसलिए यह कह डालने की मजबूरी और तक़लीफ़ भी समझ लेनी चाहिए कि जान लेंगे मालिक?...माफ़ भी कर दीजिए भाई….अरे नहीं ही माफ़ करेंगे तो क्या कर लेंगे?....कुछ करने की सोचेंगे तो तय करना पड़ेगा अगली बार किसे वोट देंगे.इसमें भी झंझट.चिल्लाने लगेंगे हम साहित्य,पत्रकारिता करनेवाले कहाँ राजनीति के चक्कर में पड़ते हैं.तो क्या घर बैठे का आपका साहित्य,कमाऊ मीडिया ही समाज बदल लेगा बाबू?.....औरतों,दलितों को न्याय दिला देगा?....
सर जी,मैंने आपका ब्लाग पढ़ा.आपने नहीं माफ़ करेंगे तो क्या करेंगे इस मुद्दे पर जो बात कही है वह मेरी नज़रों में तो आपके समर्थन में है.लेकिन जिस प्रकार आपने कहा कि ऐसे लोगों को फिर ग़लती करने का मौका चाहिए तो इस बात पर मेरा सोचना अलग है.ऐसे लोगों को मानसिक रूप से सज़ा मिलनी चाहिए क्योंकि ऐसे लोग भाषा को एक ग़लत मोड़ पर ले जा रहे हैं.उन्हें यह हक़ है कि वे अपनी बात रख सकते हैं मगर यह हक़ तो किसी ने नहीं दिया कि वे भाषा का दुरुपयोग करें.जैसा कि आपको पता है कि युधिष्ठिर जो ऐसे स्थान पर बैठे थे जिससे उन्हें सत्य का राजा माना जाता था मगर एक झूठ के कारण उनका रथ जो हमेशा हवा में रहता था वो धरती पर आ गया था तो यह दर्शाता है कि ग़लती और पाप की सज़ा तो ज़रूर मिलती है.वी एन राय एक कुलपति और एक आईपीएस हैं तो उनको यह शोभा नहीं देता.मेरे हिसाब से जो ज्यादा ही कह रहे हैं कि उन्हें कुलपति पद से हटाया जाए वो भी बताएँ कि क्या अपना चिट्ठा-परचा देखा है?मगर सर जी मैं आपसे यह कहना चाहूँगा कि माफ़ी हर गलती या गुनाह का समाधान भी नहीं होती.
जवाब देंहटाएं-प्रवीण कौशिक
तक्कोलम