केवल तुम हो जो मुझे प्यार करती हो
कोई और मुझे चाहती है मैं नहीं जानता
तुम्हे प्यार करते हुए मैं पूरी औरत जात को प्यार करता हूँ
अच्छी तरह जानता हूँ
ऐसा नहीं कर पाऊँ
तो मेरी ज़िंदगी का अधूरापन
अलग-अलग स्त्रियाँ नहीं भर पाएँगी
अनुमान लगा लेता हूँ
कई स्त्रियाँ चाहें तब भी स्त्री ही प्यार करती होगी
मेरे भीतर आशीष उमड़ आते हैं
लड़कियाँ अपने प्रेमियों को टूटकर चाहें
उन्हें भटकाए नहीं प्यार की तक़लीफ़
जब तुम्हें प्यार करता हूँ तो सोचता हूँ
मुझे याद न आएँ फ़िल्में,कहानियाँ और लोक कथाएँ
जो पकी फसल जैसी होती हैं
बुलंद कुओं के सुनसान जगत जैसी
जहाँ पहुँच जाना
कामनाओं के अपराधबोध से भर देता है
मैं तुम्हें अपने जैसा प्रेम कर पाऊँ
चाहे यह कितना ही अनगढ़ क्यों न लगे
दूसरों के जैसा प्रेम करना चाहनेवालों से मुझे सहानुभूति होती है
यह भी क्या होना
मेरे घर आए प्यार
और मैं कोई लोकप्रिय अतीत दुहराने लगूँ
जबकि प्रेम में संभव होता है यह
हम आकाश में जिएँ धरती के कोमल वैभव के साथ
सभ्यता के इस मोड़ पर
जहाँ हर चीज़ का विज्ञापन है
हर शै को प्रचार की आज़ादी है
मुश्किल होता है अपने जैसा प्यार करना
मैं चाहता हूँ तुम्हें प्यार करने के पहले
किताबें गल जाएँ
गीत उड़ जाएँ
आदतें अपेक्षाओं के साथ कहीं चली जाएँ
स्मृतियों से भरे रहकर तुम्हें प्यार करना
वैसा ही होता है
जैसे बहुत पुरानी बुनियाद पर
बार-बार देश बनाना.
ओह ! निःशद हूँ !!!!!!!
जवाब देंहटाएंशशिभूषण भाई, बड़ी अच्छी कविता आपने पढ़ने को दी. बधाई. बड़े दिनों बाद कोई कविता इतनी पसंद आई.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और ज़रूरी प्रेम कविता है ये शशि भाई ! बद्रीनारायण की कविता प्रेमपत्र याद आ गई.
जवाब देंहटाएंLovely poem. welcome back Shahsi
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