आज का भारतीय मीडिया पूंजी आधारित उस दक्षिणपंथी राजनीति की रीढ़ है जिसका उभार पूरी दुनिया में देखा जा रहा है। यह राजनीति, धन-बल एवं अपने समर्थक मीडिया के साथ मिलकर सवाल, संदेह, आलोचना और आम जन का हित सर्वोपरि रखने वाली पत्रकारिता को ख़त्म करती चल रही है।
माफ़ कीजिये, यह मीडिया तोड़-मरोड़ और शब्दों का मनचाहा अर्थ निकालने के लिए ही है। लेकिन यह तोड़-मरोड़, मुद्दों को भटकाना, अपने एजेंडे को केंद्र में रखना, केवल इतना ही नहीं है। यह शासन करने और दमन कर पाने की एक सक्षम व सफल राजनीति है। वर्ना अला पार्टी के भ्रष्टाचार, फलां पार्टी के अत्याचार में फ़र्क़ ही क्या और कितना है? उनके समर्थक, पोषक तो एक ही हैं। कमाल देखिये कि वही सेठ बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र में सब दलों के पालक हैं। कब किसे कितना पालना है वह तय कर लेते हैं।
मीडिया का भाषायी खेल और राजनीतिक बिसात वह कार्पोरेट जाल है जिसके लोकतंत्र में पहले से फंसी जनता को और जकड़ लिया गया है। मज़ेदार यह है कि भारतीय मीडिया कर्मी ही नारे गढ़ता है और वही उन्हें जुमला भी साबित करता है। इसे देशज अंदाज़ में कहते हैं अपने पाले तीतर, मुर्गे लड़ाने का खेल, राज और उसी हिंसा का आनंद।
यह केवल भाषा की सरमायेदारी नहीं , शब्दों की ऐयारी नहीं, करुणा की रोज़ की हत्या नहीं सत्ता का गुप्त ढंग का खुला अभियान तथा हथियार है। चन्दन पांडे की एक अच्छी कहानी याद आती है जिसका शीर्षक अब याद नहीं। वह कहानी बताती है कि भाषा अपनी संवेदना में कितने कार्पोरेट महत्व की होती है। किसी सफल कंपनी के लिए कवि कितने काम का होता है।
जिसे आज 24 घंटे सातों दिन का मीडिया कहते हैं वह देशी विदेशी पूंजी निवेश की आत्मनिर्भर खेती है। आशा की बात नहीं मज़ेदार बात यह है कि इसे चौथा खंभा आदि कहनेवाले देर से ही सही अब सच कह रहे हैं। क्योंकि अब विश्लेषण के रोज़गार में भी घोर मंदी और भारी छंटनी जो शुरू हो गयी है। खतरनाक यही है कि पहरेदार भी चोरों की ही चाकरी करे।
इसलिए नए रिपब्लिक में खत्तम के फिनिश्ड अंग्रेजी अनुवाद पर चौंकिए मत। यह जी, आज तक, ओल्ड या न्यू इण्डिया टीवी की भी स्ट्रेटजी है। मुझे तो कम समझने मीडिया जगत का न होने के बावजूद यह कहने में भी संकोच नहीं कि यह भारतीय मीडिया संस्थानों की ही स्ट्रेटजी और प्रोडक्शन है। वे उन्हीं के द्वारा खोले गए अपने ही मालिकों के हितों के लिए हैं।
इसके पीछे एक निजी अनुभव भी है। अपने बचपन के कुछ अजीज़ मित्र जो आज सफल पत्रकार एंकर हैं वे अपनी पढाई के दौरान ऐसा ही कुछ सीखने पर ज़ोर दे रहे थे। कमाल की बात यह कि वे बचपन से ही मामूली बात को मुद्दा जिसे साधारण लोग बात का बतंगण कहते हैं, भावना को तीर साबित कर पाने में सक्षम थे। वे पर्यवेक्षण और अर्थ अन्वेषण के लगभग बैडमिंटन प्लेयर थे। बड़ी खेल भावना से सदाचरण को धूर्तता, अतिथि सत्कार को पीआर और नेट्वर्किंग से नत्थी कर निंदा कर लेते थे। कही हुई बात के आधार पर ही नहीं फ़ोन रिकॉर्डिंग आदि के आधार पर तब बवाल काट लेते थे जब स्टिंग हो या केजरीवाल की सेटिंग थ्योरी दूर दूर तक कहीं न थे।
वे तभी कहते थे पत्रकारिता सरोकार नहीं शुरू से लेकर अंत तक बिजनेस है। यह हमारे लिए अधिक से अधिक प्रोफेशन हो सकती है। मीडिया केवल और केवल बिजनेस ही है। हमने किसी आश्रम में एडमिशन नहीं लिया है सेमेस्टरवाइज मोटी फीस भरी है। आखिरी सेमेस्टर के साथ कहीं न कहीं लगना है। यहाँ निःशुल्क या सेवा जैसा कुछ भी नहीं है। यह बात अलग है कि वे तब साहित्य और विचार में मूल्य एवं सेवा के हामी थे। वे ज़ोर देकर कहते पैसे के लिए साहित्य? न, कभी मत सोचना! अफ़सोस, वे अपने बारे में तब शायद ही जानते थे कि प्रोफेशनल होते होते कमर्शियल हो जायेंगे। मीडिया बिजनेस के साथ-साथ राष्ट्रवाद का आंदोलन हो जायेगा। धार्मिक पत्रकारिता सबसे अच्छा पैकेज हो जायेगा। वे अपने गांव की मिट्टी भी गूगल में देखेंगे। वनस्पतियां गूगल पिक्चर में देखकर लिख पाएंगे। बारिश अपने ही टीवी या अख़बार की खबर से जानेंगे। इसमें उनकी ख़ास गलती भी नहीं। यह उन्हीं के आका लोगों का राज था जिसने शुरुआत से पहले निजीकरण के साथ हर क़िस्म का रोज़गार ख़त्म करना शुरू किया। बेहतर प्रतिभा के लिए बेहतरीन जॉब का सपनीला संसार निर्मित किया। बेरोज़गार मरता, क्या न करता!!!
तो सवाल यह नहीं है कि रिपब्लिक मीडिया में खत्तम की क्या अंग्रेज़ी हो रही है? चिंता यह भी बराबर की करनी है कि अंग्रेज़ी की कौन-कौन सी, कहाँ- कहाँ हिंदी हो रही है? क्योंकि अब कह लीजिये या कहिये पहले से ही मीडिया में अनुवाद और पूंजी ही पत्रकारिता है। आज के किसी भी सफल पत्रकार के कंधे पर यम के दो दूत नहीं बैठते अनुवाद एवं कंप्यूटर देव विराजते हैं। अंत में वही मिलकर पत्रकार को यमलोक नहीं गूगल लोक में छोटे मोटे कुछ पेज दे देते हैं।
यह अनायास नहीं है कि अब ज़रा सा विपक्ष नहीं है। जितना है वह बजरिए मीडिया हास्यास्पद है। मीडिया तोड़-मरोड़ का लोकतांत्रिक सत्ता उद्योग है। भिन्न मत शत्रुता हैं। असहमति का प्रकटीकरण युद्ध की मुनादी। विचार और साहित्य को निगलकर मीडिया झूठ और अफवाह की लुगदी बनाता जा रहा है। पहले नेता कह सकते थे- उदास हूँ। अब मीडिया पूछता है- नेताजी की उदासी का क्या मतलब है? यह प्रवृत्ति नागरिक ही नहीं बड़े साफ़ सुथरे इन्सानी रिश्ते तक घुस आयी है। यदि आप पुरुष हैं, पत्नी की मौजूदगी में घर में रोटी के लिए आटा सान रहे हैं तो पत्रकार पूछ सकती हैं- आटा आप आज ही गूँथ रहे हैं कि हमेशा गूँथते हैं? मीडिया ने घर में बाज़ार घुसने की घोषणा की थी। बाज़ार में ठगे जाकर बेहाल नागरिकों ने जाना दरअसल मीडिया घुसा था। बडा ज़रूरी सवाल है कि पूंजीवाद के सिपाही, सेनापति मीडिया से जनता, सवाल और विपक्ष को कौन बचाने आएगा? उत्तर न भी मालुम चले तब भी कम से कम पूछा तो अवश्य जाना चाहिये।
इसलिए मेरा तो मानना है जब तक यह मीडिया है न नया कुछ बन सकता है और न बुरे का कुछ बिगड़ सकता है। केवल सफल पत्रकार नेताओं, पूंजीपतियों की ऐश चलती रह सकती है और जनता की हद से हद आँख भी फूट सकती है। तवक्को तो उठ ही चुकी है। आप पूछ सकते हैं इस मीडिया को ठीक कौन करेगा तो मोटा जवाब यही है कि आम इंसान का राज!
-शशिभूषण