चंदन,
आपका विनम्र विरोध पत्र मैंने भी पढ़ा.यह विरोध पत्र तो है लेकिन माफ़ करें इसमें विनम्रता नहीं है.आपके सौजन्य से ही कहूँ तो मैं विनम्रता में यह नया नहीं देखना चाहता था.विनम्रता अपने मूल रूप में ही रचनात्मक होती है.आपने अपनी तुलना कुंभकर्ण से की है.लेकिन इसका ज़िक्र कहीं नहीं किया कि किस रावण ने आपको बड़ी कोशिश से जगा दिया.आपके पत्र में जो विरोध का साहस है मैं उसे सलाम करता हूँ.आपकी कहानियों का मैं प्रशंसक हूँ यह मुझे जाननेवाले जानते हैं.इसमें अब भी कोई फर्क नहीं आया है कि मेरी नज़र में आप हर अगली कहानी में नये होते हैं.मैं खुश होता हूँ आपको पढ़कर.इस पत्र में यदि आपने उस इंसानी मर्यादा को ध्यान में रखा होता जिसमें कहा जाता है कि गाली के बदले गाली उचित नहीं होती और सचमुच उस समूची युवा पीढ़ी की तरफ़ से बात रखी होती जिसके अपमान का आपको गहरा क्षोभ है तो मैं पूरी तरह आपके साथ होता.लेकिन यहाँ कुछ चुने हुए साथी युवा ही हैं तथा आप जैसे को तैसा की तर्ज़ पर उतर आए हैं.
बुजुर्गों ने युवाओं को विज्ञापनबाज़,क्रूर,हिंसक और मनुष्य विरोधी कहा(हालांकि इनमें से केवल विज्ञापनबाज़ को सीधे-सीधे कहा गया है,बाक़ी शब्द संदर्भों के साथ आए हैं)तो आपने उन्हें डाक्टर,गुरुवर,सर जी आदि बुलाते हुए तानाशाह,जमींदार,द्रोणाचार्य,साहित्य-साहित्य खेलने,चोरहथई करनेवाले,मोल जीवन और गोल भाषा के आदी आदि कहा.अब अगर आपकी उपमाओं को घटा दिया जाए जो बेशक बड़ी मौलिक और मारक हैं तो यह भारी शब्दावली ही आपके बेकाबू हो जाने का दस्तावेज है.बुरा न माने पूरे पत्र का तेवर ऐसा है जैसे वे बुजुर्ग लेखक जिनसे सीखते हुए आप बड़े हुए हैं,गली के लौंडे हों.आप उनकी ऐसी तैसी कर रहे हों.यहीं मेरी शिकायत है कि ऐसा नहीं होना था.कम से कम आपके द्वारा नहीं होना था.यह उचित नहीं.इससे नुकसान यह हुआ कि मुद्दे पीछे पड़ गए हैं मान-अपमान सामने आ गया है.प्रतिशोधी छवि उभर आई है आपकी.अच्छा होता प्रवृत्तियाँ उभरकर आतीं.बुजुर्गों की सीमाएँ संतुलित बहस का विषय बनतीं.वैचारिकता केंद्र में होती.
बुजुर्गों ने जो किया-कहा उसमें भी साहित्यिक विश्लेषण नहीं हैं महज कृतघ्नता की इंसानी शिकायते हैं.लहजा भी काट-छांट,तिरस्कार,उपेक्षावाला है शायद इसीलिए आपको इतना समर्थन भी मिल रहा है लोगों का.
मैं इसे बार बार कहता रहा हूँ कि हिंदी में संबंध और अनुशंसाएँ ही मुख्य रही हैं.एक भी बड़ा साहित्यकार बताना मुश्किल होगा जो सारी प्रतिभा के बावजूद संपादन या अध्यापन में बिना अनुशंसा के आया हो.इसीलिए जब कोई ऐसा शख्स जो बिना किसी बुजुर्ग सहारे के प्रकट होता है तो उसके स्वाभिमान को उद्दंडता की श्रेणी में रखा जाता है.यह एक प्रवृत्ति है.आप गिन लीजिए जिन युवाओं की तरफ़ से आप अपना संयम खो रहे हैं उनमें से किसी को आपके बचाव की ज़रूरत ही नहीं है.उनके सरों में बड़े समर्थ बुजुर्ग हाथ हैं.जिन युवाओं को यह नसीब नहीं है दुर्भाग्य से आप भी उनसे बहुत दूर हैं.वे आपको लद्धड़ लगते हैं.इसे नोट कर लीजिए कि युवा बुजुर्गों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी करते हैं.पर सीढ़ी से केवल चढ़ा जा सकता है वहां घर नहीं बनाया जा सकता.अक्सर बुजुर्ग खजूर के पेड़ की तरह होते हैं जिनपर चढ़ जाइए तो दुनिया तो देख लेते है पर आराम से बैठना और उतरना असंभव सा होता है.
बुजुर्गों को एक समय के बाद यही नागवार गुजरता है कि लौंडा हमारा इस्तेमाल कर ले गया.तब वे ऐसे ही गुस्से में आ जाते हैं.कोई राह नहीं सुझाते सिर्फ़ शिकायत करते हैं.खारिज करते हैं क्योंकि उन्हें यह भ्रम होता है कि जिस पुतले में जान फूँकी थी उसे मार भी सकते हैं.
इसलिए चंदन आप मुझे चाहे जितना बड़ा चाटुकार कह लीजिए मैं आपके विरोध की इज्ज़त करता हूँ लेकिन इस भर्त्सना में खोट देखता हूँ.काशीनाथ सिंह को मैं पढ़ता और पढ़ाता रहा हूँ.उसी क्लास में मैंने आपके बारे में भी बच्चों को बताया है.जिस क्लास में काशीनाथ सिंह की कोई कहानी पढ़ाई है.पर यह ज़िक्र करने में मुझे शरम आएगी कि आप काशीनाथ सिंह को अपनी कहानियाँ दुबारा नहीं पढ़ने की सलाह दे रहे हैं.मैं तो आपकी वह बात याद किए हूं जब आपने गहरी आवाज़ में कहा था-बनारस में काशीनाथ सिंह ईमानदार आदमी हैं.तो क्या अब आपको अपनी इस पुरानी बात पर अफसोस है?क्या केवल आप ही खुद को सुधारने का हक़ रखते है?
हजारी प्रसाद की आपको चिंता है.तो क्या आपने काशीनाथ सिंह का संस्मरण होलकर हाउस में द्विवेदी पढ़ा है?मैं समझता हूँ इस लेखक को आगे अब से ज्यादा पढ़ा जाएगा.वे केवल कहानीकार नहीं हैं.
मैं संजीव और ज्ञानरंजन से नहीं मिला हूँ.ज्ञान जी की कहानियाँ भी मुझे सिलेबस के अलावा कहीं और पढ़ने को नहीं मिल पाईं.वो मुझे खास पसंद भी नहीं है.फिर भी मैं उन्हें जितना जानता हूँ पहल,साक्षात्कारों आदि के माध्यम से वे युवाद्रोही नहीं कहे जा सकते.काफ़ी युवा हैं जो उन्हें अपना साथी मानते हैं.संजीव जी की कहानियाँ,उपन्यास मुझे पसंद हैं.सिर्फ़ एक बार की बात-चीत है पर कहने में संकोच नहीं वे काफ़ी सहज लगे मुझे.
विश्वनाथ जी कि जिस बात को उछाला है आपने उसके संबंध में उन्हीं का कहना है-लोग मुझे बड़ा भोजन भट्ट समझते हैं...पता नहीं आपने उन्हें कितना पढ़ा है.कहानीकार होने के नाते अगर नंगातलाई तक ही सीमित हैं तो फिर क्या कहूँ.फिर आप भी वही ठहरे जिसकी बिल्कुल सही शिकायत आप कर रहे हैं.मुझे चाहे जितना पिछड़ा समझें पर मैं उनमें से हूँ जिन्होंने उनकी किताबों के पैरे याद किए हैं.हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास तो हमारी डायरी जैसा रहा है.
अगर आपने कमला प्रसाद जी और रवींद्र कालिया जी को छोड़ दिया है तो क्या इसके मायने सोचने की आज़ादी भी देंगे आप?
निस्संदेह आपकी कहानियाँ सबसे बड़ा जवाब हैं.इस समय में जब लोग छुपकर विरोध करते हुए लाभ उठाते रहते हैं तब आपका यह पत्र भी ईमानदार उदाहरण जैसा है.लेकिन आपसे सचमुच विनम्रता की भी उम्मीद की जाए तो इसे अन्यथा न लें ..
आपका विनम्र विरोध पत्र मैंने भी पढ़ा.यह विरोध पत्र तो है लेकिन माफ़ करें इसमें विनम्रता नहीं है.आपके सौजन्य से ही कहूँ तो मैं विनम्रता में यह नया नहीं देखना चाहता था.विनम्रता अपने मूल रूप में ही रचनात्मक होती है.आपने अपनी तुलना कुंभकर्ण से की है.लेकिन इसका ज़िक्र कहीं नहीं किया कि किस रावण ने आपको बड़ी कोशिश से जगा दिया.आपके पत्र में जो विरोध का साहस है मैं उसे सलाम करता हूँ.आपकी कहानियों का मैं प्रशंसक हूँ यह मुझे जाननेवाले जानते हैं.इसमें अब भी कोई फर्क नहीं आया है कि मेरी नज़र में आप हर अगली कहानी में नये होते हैं.मैं खुश होता हूँ आपको पढ़कर.इस पत्र में यदि आपने उस इंसानी मर्यादा को ध्यान में रखा होता जिसमें कहा जाता है कि गाली के बदले गाली उचित नहीं होती और सचमुच उस समूची युवा पीढ़ी की तरफ़ से बात रखी होती जिसके अपमान का आपको गहरा क्षोभ है तो मैं पूरी तरह आपके साथ होता.लेकिन यहाँ कुछ चुने हुए साथी युवा ही हैं तथा आप जैसे को तैसा की तर्ज़ पर उतर आए हैं.
बुजुर्गों ने युवाओं को विज्ञापनबाज़,क्रूर,हिंसक और मनुष्य विरोधी कहा(हालांकि इनमें से केवल विज्ञापनबाज़ को सीधे-सीधे कहा गया है,बाक़ी शब्द संदर्भों के साथ आए हैं)तो आपने उन्हें डाक्टर,गुरुवर,सर जी आदि बुलाते हुए तानाशाह,जमींदार,द्रोणाचार्य,साहित्य-साहित्य खेलने,चोरहथई करनेवाले,मोल जीवन और गोल भाषा के आदी आदि कहा.अब अगर आपकी उपमाओं को घटा दिया जाए जो बेशक बड़ी मौलिक और मारक हैं तो यह भारी शब्दावली ही आपके बेकाबू हो जाने का दस्तावेज है.बुरा न माने पूरे पत्र का तेवर ऐसा है जैसे वे बुजुर्ग लेखक जिनसे सीखते हुए आप बड़े हुए हैं,गली के लौंडे हों.आप उनकी ऐसी तैसी कर रहे हों.यहीं मेरी शिकायत है कि ऐसा नहीं होना था.कम से कम आपके द्वारा नहीं होना था.यह उचित नहीं.इससे नुकसान यह हुआ कि मुद्दे पीछे पड़ गए हैं मान-अपमान सामने आ गया है.प्रतिशोधी छवि उभर आई है आपकी.अच्छा होता प्रवृत्तियाँ उभरकर आतीं.बुजुर्गों की सीमाएँ संतुलित बहस का विषय बनतीं.वैचारिकता केंद्र में होती.
बुजुर्गों ने जो किया-कहा उसमें भी साहित्यिक विश्लेषण नहीं हैं महज कृतघ्नता की इंसानी शिकायते हैं.लहजा भी काट-छांट,तिरस्कार,उपेक्षावाला है शायद इसीलिए आपको इतना समर्थन भी मिल रहा है लोगों का.
मैं इसे बार बार कहता रहा हूँ कि हिंदी में संबंध और अनुशंसाएँ ही मुख्य रही हैं.एक भी बड़ा साहित्यकार बताना मुश्किल होगा जो सारी प्रतिभा के बावजूद संपादन या अध्यापन में बिना अनुशंसा के आया हो.इसीलिए जब कोई ऐसा शख्स जो बिना किसी बुजुर्ग सहारे के प्रकट होता है तो उसके स्वाभिमान को उद्दंडता की श्रेणी में रखा जाता है.यह एक प्रवृत्ति है.आप गिन लीजिए जिन युवाओं की तरफ़ से आप अपना संयम खो रहे हैं उनमें से किसी को आपके बचाव की ज़रूरत ही नहीं है.उनके सरों में बड़े समर्थ बुजुर्ग हाथ हैं.जिन युवाओं को यह नसीब नहीं है दुर्भाग्य से आप भी उनसे बहुत दूर हैं.वे आपको लद्धड़ लगते हैं.इसे नोट कर लीजिए कि युवा बुजुर्गों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल भी करते हैं.पर सीढ़ी से केवल चढ़ा जा सकता है वहां घर नहीं बनाया जा सकता.अक्सर बुजुर्ग खजूर के पेड़ की तरह होते हैं जिनपर चढ़ जाइए तो दुनिया तो देख लेते है पर आराम से बैठना और उतरना असंभव सा होता है.
बुजुर्गों को एक समय के बाद यही नागवार गुजरता है कि लौंडा हमारा इस्तेमाल कर ले गया.तब वे ऐसे ही गुस्से में आ जाते हैं.कोई राह नहीं सुझाते सिर्फ़ शिकायत करते हैं.खारिज करते हैं क्योंकि उन्हें यह भ्रम होता है कि जिस पुतले में जान फूँकी थी उसे मार भी सकते हैं.
इसलिए चंदन आप मुझे चाहे जितना बड़ा चाटुकार कह लीजिए मैं आपके विरोध की इज्ज़त करता हूँ लेकिन इस भर्त्सना में खोट देखता हूँ.काशीनाथ सिंह को मैं पढ़ता और पढ़ाता रहा हूँ.उसी क्लास में मैंने आपके बारे में भी बच्चों को बताया है.जिस क्लास में काशीनाथ सिंह की कोई कहानी पढ़ाई है.पर यह ज़िक्र करने में मुझे शरम आएगी कि आप काशीनाथ सिंह को अपनी कहानियाँ दुबारा नहीं पढ़ने की सलाह दे रहे हैं.मैं तो आपकी वह बात याद किए हूं जब आपने गहरी आवाज़ में कहा था-बनारस में काशीनाथ सिंह ईमानदार आदमी हैं.तो क्या अब आपको अपनी इस पुरानी बात पर अफसोस है?क्या केवल आप ही खुद को सुधारने का हक़ रखते है?
हजारी प्रसाद की आपको चिंता है.तो क्या आपने काशीनाथ सिंह का संस्मरण होलकर हाउस में द्विवेदी पढ़ा है?मैं समझता हूँ इस लेखक को आगे अब से ज्यादा पढ़ा जाएगा.वे केवल कहानीकार नहीं हैं.
मैं संजीव और ज्ञानरंजन से नहीं मिला हूँ.ज्ञान जी की कहानियाँ भी मुझे सिलेबस के अलावा कहीं और पढ़ने को नहीं मिल पाईं.वो मुझे खास पसंद भी नहीं है.फिर भी मैं उन्हें जितना जानता हूँ पहल,साक्षात्कारों आदि के माध्यम से वे युवाद्रोही नहीं कहे जा सकते.काफ़ी युवा हैं जो उन्हें अपना साथी मानते हैं.संजीव जी की कहानियाँ,उपन्यास मुझे पसंद हैं.सिर्फ़ एक बार की बात-चीत है पर कहने में संकोच नहीं वे काफ़ी सहज लगे मुझे.
विश्वनाथ जी कि जिस बात को उछाला है आपने उसके संबंध में उन्हीं का कहना है-लोग मुझे बड़ा भोजन भट्ट समझते हैं...पता नहीं आपने उन्हें कितना पढ़ा है.कहानीकार होने के नाते अगर नंगातलाई तक ही सीमित हैं तो फिर क्या कहूँ.फिर आप भी वही ठहरे जिसकी बिल्कुल सही शिकायत आप कर रहे हैं.मुझे चाहे जितना पिछड़ा समझें पर मैं उनमें से हूँ जिन्होंने उनकी किताबों के पैरे याद किए हैं.हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास तो हमारी डायरी जैसा रहा है.
अगर आपने कमला प्रसाद जी और रवींद्र कालिया जी को छोड़ दिया है तो क्या इसके मायने सोचने की आज़ादी भी देंगे आप?
निस्संदेह आपकी कहानियाँ सबसे बड़ा जवाब हैं.इस समय में जब लोग छुपकर विरोध करते हुए लाभ उठाते रहते हैं तब आपका यह पत्र भी ईमानदार उदाहरण जैसा है.लेकिन आपसे सचमुच विनम्रता की भी उम्मीद की जाए तो इसे अन्यथा न लें ..