गुरुवार, 29 सितंबर 2016

अवेटिंग फॉर द फायनल असाल्ट

दरअसल, ‘भाषा और तर्कों का नाकाफीपन’ बौद्धिक रूप से दुर्बल व्यक्ति को, अपशब्दों के आश्रय के लिए विवश कर देता है। ऐसे में वह एक ‘विचार’ नहीं लगभग ‘अपशिष्ट से साम्य खोजती भाषा’ में अपने अंदर के ‘तमस’ को व्यक्त करने लगता है। भाई भालचन्द्र जोशी की टिप्पणी, भाषा और दृष्टि को इससे भिन्न कहना काफी मुश्किल जान पड़ता है। बावजूद इसके, मुझे उनकी टिप्पणी का उत्तर देने की नैतिक-बाध्यता है। मगर, वह बाध्यता ठीक ऐसी है, जैसी की किसी ‘पैथोलोजिस्ट’ की होती है कि उसे विवश होकर मल-मूत्र को खंगालना पड़ता है, क्योंकि रोग के निदान के लिए यह अनिवार्य है। यह टिप्पणी उसी ‘पैथोलोजिकल-डिटर्मिनिज़्म’ की तरह ही ली जानी चाहिए -प्रभु जोशी

यह जानना, हमें पर्याप्त विस्मय और उत्तेजना से भरता है कि पिछली चार शताब्दियों में, ‘कला और साहित्य’ की दुनिया में, जितने तीव्र और सघन विवाद फ्रांस में हुए हैं, वैसी ‘वैचारिक-उपलब्धि’ का दावा करने में, कम से कम अन्य कोई देश या समाज तो सर्वथा निष्फल सिद्ध होकर ही रहेगा । क्योंकि वहां के ‘बौद्धिक-समाज’ में, एक बहुत सूक्ष्मतम ‘अर्थ-भेद’ को भी स्थापित करने के लिए, वे इतिहास को ‘कालपात्र’ की तरह उलटने पर उतारू रहते हैं और पूर्वजों को तो गवाही के लिए हमेशा ही आहूत करते ही हैं, लेकिन ‘अजन्मे’ का भी अभिषेक कर डालते हैं। कला, साहित्य और जीवन में, मानदंडों की सर्वग्रासी होती जाने वाली न्यूनता पर, दिल खोल कर, आंसू बहाते हैं और दार्शनिक-चिंता में, तीखे तर्कों और आक्षेपों की भूल-भुलैया में सर्वस्व को नाथ लेने में भी कोई संकोच नहीं करते। वहां, किसी के छद्म का उद्घाटन और किसी को अपदस्थ करने का हाहाकार, हरदम ही मचा ही रहता है।

उनके इस तह-ओ-बाल की तुलना, फ्रेंच भाषा के ही एक सबसे मनोरंजक उपक्रम से की जा सकती है, जिसे ‘क्राइम पेसोनेल’ कहा जाता है। इसमें, प्रज्वलित-प्रतिशोध की लपट में झुलसती एक स्त्री, अपनी अनियंत्रित बौखलाहट से, पूरे नाट्य का वितान रचती है, जो पेट में दर्द उठा देने वाले हास्य का सृजन करती है। पूरे समय, वह अपनी प्रतिशोध-बुद्धि की गढ़न्त से, अटपटे कथोपकथनों के जरिए, ‘अतार्किकता की तार्किकता’ का, एक मनोरंजक ढांचा खड़ा करती रहती है।

प्रस्तुत कथा, जो कि हर जगह एक ‘स्थान’ और ‘समय-सापेक्ष’ परिवर्तन से, प्रत्येक प्रस्तुति को, नवोन्मेषी बनाती रहती है। कुल मिलाकर, वह कथा यों है कि एक स्त्री, अपने प्रेमी द्वारा, इस ‘सत्य’ को उजागर कर दिए जाने से भयभीत हो उठती है कि अभी तक, जो ‘गर्भ’ धारण किए हुए, वह घूमती रही है, वह तो उसके फलां प्रेमी का है।

इस ‘सच’ को निर्मूल सिद्ध करने के लिए, वह निहायत ही ऊल-जलूल तर्कों का जखीरा जुटाती है। मसलन, वह फैसला लेती है कि अब वह प्रमाण के रूप में सबको यह बता देगी कि ‘इस आदमी के पांव में, छः अंगुलियां हैं तथा उसका दायां पांव तिरछा है कि वह छींकते समय नाक पर हाथ रखना नहीं जानता और उसकी गर्दन के पीछे तो काला मस्सा है।’ कहने का कुल जमा मकसद यह कि वह, निरर्थक और असंबद्ध तर्कों की, एक रोचक श्रृंखला रखती है, केवल यह बात सिद्ध करने के लिए कि उसके पेट में जो गर्भ है, वह उसके उस फलां प्रेमी का नहीं है। वह प्रचारित करती है कि उस व्यक्ति में मुझे तो क्या, किसी भी स्त्री को ‘गर्भवती’ बना देने का सामर्थ्य ही नहीं है। 

अंत में, हताश होकर, वह आखिरी संकल्प लेती है कि यह मसला, इस तरह से तो कतई नहीं निपटाया जा सकेगा। ‘शी हेज टू वर्क आउट द फाइनल असाल्ट’। अतः वह, तय करती है कि अपने प्रेमी के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके लोहे की एक संदूक में भरकर, उस सन्दूक को किसी देहाती रेलवे-स्टेशन के लिए बुक कर देगी।

बहरहाल, पिछले दिनों, हर महीने इंदौर के कुछ दसेक मित्रों के बीच होने वाली एक छोटी-सी अनौपचारिक बैठक में, मेरे द्वारा, एक बड़े भाई की तरह भाई भालचंद्र जोशी को नेक सलाह दी गई, कि वे अपनी मिथ्या-प्रसिध्दि का मोह आखिर छोड़ दें और दूसरों का पैरासाइट की तरह इस्तेमाल बन्द करके, कुछ अपने जैसा लिखें। बहरहाल, उस नेक सलाह के आॅडियो के ‘ट्रांसक्राइब्ड-वर्जन’ के जवाब में, जिस बौखलाहट से भरी भाई भालचन्द्र की टिप्पणी प्रकाश में आई है, उसको पढ़कर सहसा मुझे यही ‘नाट्य-कथा’ याद हो आई। क्योंकि, वे अनियंत्रित क्रोध की धधक में अपना समूचा धैर्य खोकर, बदहवासी में भरे हुए, लगभग ‘उसी बेचैन स्त्री’ का सौ-फीसद प्रतिरूप रचते हैं, जो कि अपने ‘गर्भ के रहस्य’ से पर्दा उठ जाने पर, बेतरह आकुल-व्याकुल हो उठती है और उलूल-जलूल बातें करने लगती है। भाई भालचन्द्र के तमाम तर्क और बातेें, ठीक उस ‘क्राइम-पेसोनेल’ की स्त्री की तमाम बातों की तरह ही की बेतुकी और हास्यास्पद भी हैं। लेकिन, वे इन्हीें के सहारे, बैठक में उजागर हुई, इस बात को कि ‘मैं ही इतने वर्षों से उनकी कहानियां लिखता आ रहा था, वे येन केन प्रकारेण, बस ‘संदेहग्रस्त’ कर देने में लगे हुए हैं। 

कहना ना होगा कि ये मेरी गर्दन के पीछे, ‘उस स्त्री’ की तरह ही ‘काला मस्सा’ ढूंढ कर बताने में लगे हुए हैं। हालांकि, उनकी उस टिप्पणी का उत्तर देते हुए, मुझे प्रसिद्ध व्यंग्यकार मार्क ट्वेन की सलाह का पूरी तरह स्मरण है। उन्होंने कहा था--‘डोण्ट रेसल विथ देम’ क्योंकि वे लड़ाई में वराह-विधि का अभ्यस्त इस्तेमाल करेंगे और वह ‘कीचड़ से ऊपर की श्रेणी की गंदगी’ में ले जाकर आप को पटक देंगे और फिर बदला लेने के लिए भिड़ेंगे। इसके साथ मार्क ट्वेन का, ये कथन भी याद है कि ‘आॅनलुकर्स मे नाॅट बी एबल टू टेल द डिफरेंस’।‘ सही है, तमाशबीनों की, इसमें कतई रूचि नहीं होती कि कौन सच्चा है और कौन झूठा। वे मात्र आनन्द लेने के लिये ही होते हैं।

लेकिन, मैं यह पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि भाई भालचंद्र जोशी की उक्त टिप्पणी का उत्तर देना, मैं अपने तईं तो कतई जरूरी नहीं मानता, बल्कि उन चन्द तमाशबीनों के लिए उसका उत्तर देना जरूरी मानता हूँ, जो इस बात के लिए सदा से ही बहु-प्रतीक्षित रहते आ रहे हैं कि कोई तो हो ऐसा, जो प्रभु जोशी की तरफ पत्थर उछाले, या भंभोड़ कर कस के दांत गड़ा दे, ताकि वे फारिग हो जाएं। एकदम निश्चिन्त हो जाएं कि अब ‘नीड नाॅट टू बार्क’। क्योंकि यह काम किसी और ने अपने मत्थे ले लिया है। संयोग से उन्हें दृश्य में, भाई भालचंद्र दिखाई दे गए हैं।

अब यहां थोड़ा गौर से देखिये, भाई भालचंद्र जोशी, प्रस्तुत टिप्पणी में, अपने खून में प्रतिशोध की ठाठें मारती प्रतिज्ञा के साथ, भाषा को धारदार खंजर बनाते हुए, बार-बार दो ‘विशेषणों’ के जरिए मुझ पर,‘खच्चदनी’ से वार करते हैं और कुछ देर के उपरान्त, वे स्वयं ही संदेहग्रस्त होकर, यह अनुभव करने लगते हैं कि कदाचित् वे अपने ‘शत्रु’ पर, अपेक्षित-वेग के साथ, ‘अस्त्र’ घोंपने में निष्फल हो गए हैं---नतीजतन, वे पैंतरा बदल-बदल कर लपकते हैं और फिर-फिर मुझ पर, ‘बूढ़ा’ और ‘चुका हुआ लेखक’ जैसे विशेषणों को, कटार की मानिन्द भांजते हैं। निश्चय ही, भाषा में तेजी से हिंस्रतर होता जाने वाला, उनका यह कोप, एक विचित्र परिहास पैदा करता है। और इसके साथ ही, वे अपने इस प्रयास से, लेखकीय-गरिमा को फूहड़ता में घसीटने के दुर्निवार दारिद्रय का ठोस प्रमाण भी बनाते चलते हैं। 

अब यहां, पर फिर से ध्यान देने की जरूरत है कि भाषा और तर्कों के ‘नाकाफीपन से ग्रस्त’ भाई भालचन्द्र जोशी, मेरे लिए ‘बूढ़ा’ विशेषण का बार-बार प्रयोग, इस आशय या अर्थ को अभिव्यंजित करने के लिए करते हैं, जैसे मनुष्य का एक लंबे और संघर्षपूर्ण जीवन को जीना, सर्वथा एक अनधिकृत चेष्टा है और इसी के कारण ही, यह व्यक्ति ‘बूढ़े’ होने के रूप में दंडित हुआ है। यह एक कथित ‘ज्ञानग्रस्त’ व्यक्ति के भाषा और सोच का एक अमानवीय प्रमाण है। जबकि वे स्वयं भी, एक सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। वे भी वरिष्ठ-नागरिक हैं और केवल बालों को काले-रंग से रंग लेने के कारण, स्वयं की युवा में गणना करना, एक निरा भ्रम होगा। 

बहरहाल, कुल मिलाकर वस्तुतः तथ्य यही है कि मैंने उस, ‘आत्मीय मित्रों की एक छोटी-सी अनौपचारिक मासिक बैठक’ में, उन्हें यही कहा था कि ‘ये विगत तीस वर्षों से, मेरे साहचर्य में हैं और मैं ही अब तक उनकी तमाम कहानियों का ‘पुनर्लेखन’ करता आ रहा हूं।’ मित्रो, भाई भालचन्द्र के लिये मेरा ‘पुनर्लेखन’, राजेंद्र यादव या किसी भी संपादक का फौरी तौर पर किया गया काम नहीं है, अमूमन जिसमें कहानी को लेकर, कुछ छोटा-मोटा सुझाव दे दिया जाता है या सम्पादक स्वयं ही किंचित् हेर-फेर कर देता है। बल्कि मेरा काम, पांच पन्नों की कहानी को पन्द्रह या पच्चीस पन्नों की बनाकर लौटाने का रहा है और यह बात, वे तमाम लोग जानते हैं, जिनकी कहानियों या लेखों का मैंने ‘पुनर्लेखन’ किया है।

‘नई दुनिया’ के संपादकीय-पृष्ठों के दायित्व सम्भालने के पांच वर्षों के दौरान, मैंने यह काम बहुत ही संलग्नता के साथ इसलिये किया, क्योंकि मेरा गणेशशंकर विद्यार्थी के इस कथन में यकीन था कि एक संपादक का काम, केवल पत्र-पत्रिका का संचालन करना भर नहीं है बल्कि ‘लेखक पैदा करना’ भी है। कहना ना होगा कि उस दौरान मैंने ‘पत्र संपादक के नाम’ लिखने वाले कई लोगों को, लेखक की तरह प्रतिष्ठित भी किया। मैं अक्सर ही उनकी एक छोटी-प्रतिक्रिया को, एक स्वतंत्र लेख का रूप देकर छापा करता था। 

स्मरण रहे कि उपर्युक्त बैठक में, क्योंकि भाई भालचंद्र जोशी स्वयं उपस्थित थे तो मैंने खासतौर पर, उनसे यह इसरार किया था कि ‘यदि वे मेरे इस कथन में, कि ‘मैंने ही इतने वर्षों तक उनकी कहानियां लिखी हैं’ अगर इसमें कुछ भी ‘असत्य’ हो तो चूंकि वे खुद अभी यहीं मौजूद हैं, मेरी बात का लगे हाथ, खंडन करें या प्रतिरोध करें, क्योंकि ये एक गंभीर वक्तव्य है।’ लेकिन वह चुप ही बने रहे और अब एक माह के पश्चात् उन्होंने, काफी स्नायुतोड़ परिश्रम के साथ, झूठ का पर्याप्त गाढ़ा लेप लगा-लगा कर, ‘मां कसम बदला लूंगा’ की-सी, एक मानीखेज किस्म की लचर-पटकथा, अपनी मूल-वृति के अनुकूल ही अत्यंत ‘अभद्र भाषा में आपादमस्तक डूबकर’, लगभग एक आग्नेय-अस्त्र की अमोघता के साथ मेरी तरफ छोड़ी है। बेशक ही उसमें, मनोरंजन की तृषा से भरी हिंदी साहित्य की कथा-बिरादरी के लिए, एक लंबी अवधि तक चटखारे का पुख्ता प्रबंध तो है ही। हो सकता है, इसे लिये कुछ लोग, उनकी पीठ ठोंक दें और कुछ उनके सीने पर तमगे ही लटका दें। 

हालांकि, इस प्रकरण में सबसे पहला प्रश्न सभी के मन में यही उठता है कि आख़िरकार, मैंने इनकी कहानियां लिखना ही शुरू क्यों की? तो इसका उत्तर में आगे दूंगा। पहले, उनकी टिप्पणी की नीयत का पाठ।

दरअसल, उल्लिखित टिप्पणी में, भाई भालचंद्र ने कई-कई, निरर्थक युक्तियों से, लगभग भंडाफोड़ के शिल्प में, मेरे कथन को उलटने की बहुतेरी असफल कोशिशें की हैं, जो ‘सत्य को विरूपित करने की कुटिल कोशिशों’ का उत्तम उदाहरण ही कही जायेगीं। बहरहाल, वे तमाम कोशिशें, मुझे एक शब्द की याद दिलाती हैं, जो लेटिन का है-- ‘एडहोमिनम’। इसका अर्थ होता है कि जब व्यक्ति ‘तथ्य और तर्क’ के सहारे लड़ने में, असमर्थ होता है तो वह अपने ज़ख्मी अहम् के साथ, ‘विचार’ नहीं, ‘व्यक्ति’ से ही भिड़ने लगता है। भिड़कर, वह नितान्त अनर्गल और जुगुप्सापूर्ण युक्तियों से, उसके ’चरित्र-हनन’ पर उतारू हो जाता है। यह पूरी टिप्पणी, अपने ही अन्ध क्रोध के आगे पराजित होने जाने वाले,दुर्बल-बुध्दि के व्यक्ति की, असंदिग्ध ‘तुच्छता’ का, अपूर्व उदाहरण है, जिसमें ‘चरित्र-हनन’ की कुचेष्टा में, टिप्पणीकार द्वारा, निहायत ही मनगढ़ंत और हास्यास्पद प्रसंगों का अंबार लगाया गया है, जिसका ‘मेरे द्वारा,उनकी कहानियों का पुनर्लेखन किया गया’, इस सचाई के खण्डन से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह एक तर्क-अनाथ व्यक्ति के सोच का विचित्र दारिद्र्य है। 

मित्रो, हकीकतन मैं ऐसी निकृष्ट पैंतरेबाजी को, अपने अन्तःकरण से कतई और कोई तवज्जो देना नहीं चाहता था । लेकिन यदि कोई व्यक्ति अपनी ‘तुच्छता’ में ऐसी युक्तियों से, ‘चरित्र’ को लांछित करने लगता है तो वह ‘लांछन’ ही उससे अपना उत्तर मांगने लगता है। नतीजतन, ऐसे में, मेरे लिये यह, एक ‘नैतिक-विवशता’ बन जाती है कि मैं उनका यथोचित उत्तर दूं। क्योंकि अपनी टिप्पणी में, इतने सारे नाम लेने के पीछे, इनकी मंशा केवल ये ही है कि ‘वे सबको बता दें कि प्रभु जोशी, इन सब के बारे में भी ऐसी ‘डींगे’ हांकते रहे हैं कि ये इनका ‘लिखा हुआ’ भी ठीक करते रहे हैं और आप सब लोग भी देख लीजिये कि ये तो ऐसी ही बातें करने के सदा से आदी हैं। अतः ‘इनके द्वारा, मेरे बारे में जो भी कहा गया है, वो ‘झूठ’ है।

मसलन, भाई भालचंद्र ने, उक्त टिप्पणी में, मुझसे निकटता रखने वाले कई सारे नाम गिनाए हैं, जिनमें सर्वश्री कवि लीलाधर मंडलोई, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रकाश कांत, वीणा सिन्हा, लक्ष्मेन्द्र चोपड़ा, ईश्वरी रावल, हरिनारायण, ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया, उदयप्रकाश, आदि आदि। हालांकि इनके मुताबिक अभी भी कुछ लोगों के नाम, उल्लेख से, बचे रह गये हैं। बहरहाल, उन नामों को मैं, ही बाद में प्रकट करूंगा। 

ये नामोल्लेख, मेरे इस कथन को कि ‘मैं ही अभी तक इनकी कहानियां लिखता आ रहा था’ को ‘असत्य सिद्ध करने के लिए’ नहीं, बल्कि धूर्तता की एक आजमाई हुई, प्रवीण-प्रविधि है, जो उन्होंने कदाचित् खरगोन के कांग्रेसी नेता तथा मध्य-प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री सुभाष यादव के दरबार में, वर्षों तक दरबारी-चाकर की तरह अपनी सेवाएं देते हुए, हृदयंगम कर ली थी, कि कैसे तमाम लोगों का नामोल्लेख करके, उसे सब लोगों का शत्रु बना दिया जाए। वे सब लोग अब मेरे असंदिग्ध रूप से घोर-शत्रु बन जायेगें और इनकी खोखली-प्रतिष्ठा के ‘लाक्षागृह के मुफत के पहरेदार’ बन कर, तुरन्त इनकी पीठ के पीछे खड़े हो जायेंगें और इनका ’जै-जैकारा’ करते हुए, मुझ पर ‘येलगार’ के साथ आक्रमण कर देंगे। 

कहने की जरूरत नहीं कि यह भाई भालचंद्र जोशी की ‘छोटी-बुद्धि’ का बड़ा दिलचस्प अनुमान है। क्योंकि ये मानते हैं कि जैसे कि ये सारे उल्लखित लोग, इतनी संकीर्ण बुद्धि के व्यक्ति हैं कि मालवी में कहूं कि उनकी ‘लगा-लूतरी’ बातों से, वे अपना विवेक खो कर, इनके ‘लड़ाका’ बन जाएंगे। वे इतनी दुर्बल स्मृति वाले लोग हैं कि वे इनके चरित्र की इस ‘खासियत’ को भूल जायेगें, कि ये ‘स्वार्थ केन्द्रित व्यक्ति’ किसी के साथ तीस सालों तक घर में, सगे-छोटे भाई की हैसियत से उठते-बैठते, खाते-पीते रहने के बाद, आस्तीन के केंचुल से बाहर आकर, डंस सकता है। 

बहरहाल, मैं एक गहरे संकोच के में हूं कि मुझे यह सब मजबूरन स्पष्ट करना पड़ रहा है, चूंकि, इन्होेंने मेरे चरित्र-हनन का कुत्सित कर्मकाण्ड किया है।

बमुश्किल केवल ढाई कहानियां ही पढ़ी हैं, इन्होंने मेरी

भाई भालचन्द्र जोशी ने आरम्भ में ही अपनी यह उद्घोषणा की है कि इन्होंने अपने जीवन में बमुश्किल केवल ढाई कहानियां ही पढ़ीं हैं। यह अतिरेक मे जाकर, ‘नकार’ की एक निहायत ही हास्यास्पद तकनीक है। दरअसल, सन् 1973 से 1977 तक मेरी लगभग साठ कहानियां छपीं, जो केवल तीन पत्रिकाओं में ही थीं--‘धर्मयुग’, ‘सारिका’ और ‘साप्ताहिक-हिन्दुस्तान’। मात्र दो कहानियां दूसरी पत्रिकाओं में छपीं। वे हैं, ‘पहल’ और ‘रविवार’। दरअसल, भाई भालचन्द्र मुझसे मेरे एक मित्र, जो मेरे बहनोई भी हैं, श्री मोहन कानूनगो के परिचय का संदर्भ देकर मिले थे और पूरे समय यह बताते रहे थे कि उन्होंने मेरी ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ में छपीं हुई, सभी कहानियां ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ी हैं और धन्य अनुभव करते हैं कि मैंने उनसे मिलने का समय दिया। बहरहाल, बहुत थोड़े ही समय में, इन्होंने मेरे घर में, छोटे-भाई की-सी, ऐसी जगह ले ली, जैसे इनके स्कूल के रजिस्टर में वल्दियत की जगह, मेरे पिता का ही नाम हो।

बहरहाल, मैं भाई भालचन्द्र जोशी से, खासतौर पर इसलिये जानना चाहता हूं कि मेरीे, वे ‘ढाई’ कहानियां, कौन सी थीं, जिनको पढ़कर, आखिरकार तीस वर्षों तक एक ‘प्रतिभाग्रस्त’ लेखक, मेरे पीछे किसी ‘लगुवे-भगवे’ के गणवेष में घूमता रहा ? जबकि ना तो मेरे पास पैसा था, ना ही इनको उपकृत करने के लिये कोई बड़ा पद ? ये ना ही मेरे पास के रिश्ते दार थे, ना दूर के। हकीकत ये थी कि इनको मुझसे अपनी पांच पन्ने की कहानी को दस पन्नों की करवाना होता था। इससे बड़ा झूठ भला क्या हो सकता है कि जिसने मेरा लिखा-अधलिखा सब पढ़ा हो, वह एक दिन यह कहे कि उसने बमुश्किल केवल ढाई कहानियां ही पढ़ी हैं। वस्तुतः, ये एक छोटे भाई के मुखौटे में, केवल स्वार्थसिध्दि के लिये मेरा भक्तिगीत गाने में लगे रहे। और, भातृ-भक्ति का पट्टा उतारते ही भौं-भौं के शिल्प में, मुझे गरियाती और गुर्राती भाषा से दंश लगाना चाहते हैं। ये आस्तीन के केंचुल से बाहर निकल आये हैं। संस्कृत में जिस सर्प और श्वान-युति का, जो उल्लेख मिलता है, उसके चरितार्थ का इनमें प्रत्यक्षीकरण देखकर मुझे बड़ा गहरा सदमा लगा है। 

अपनी कहानी से तुलना की धमकी--चूहे के विजुअल के पीछे सिंह की दहाड़ की 

दरअसल, भाई भालचन्द्र ने, अभी तक जितने तर्क दिये, वे उस स्त्री के तर्कों की तरह ही असम्बध्द ही थे, जिनका ‘इस सत्य के खण्डन से कोई रिश्ता नहीं था कि मैं ही इनकी कहानियों का पुनर्लेखन करता रहा हूं।’ वस्तुतः भालचन्द्र ने, ना केवल मेरी सारा छपा हुआ पढ़ा है बल्कि कहूं कि मेरा आधा-अधूरा लिखा हुआ भी पूरा पढ़ा है। मेरे सारे वैचारिक लेख भी पढ़े हैं। यहां तक कि अमेरिका में पढ़ रहे बेटे को लिखे गये, तमाम खत भी पढ़े हैं। सन् 1990 में लिखे गये उपन्यास ‘बहुब्रीहि’ के दो-सौ पृष्ठ भी, जिसके साठ पृष्ठ तो ‘ इण्डिया टुडे की वार्षिकी’ में छपे थे। ‘कविता पर पेपर-वेट’ नामक मेरे अप्रकाशित उपन्यास के पन्द्रह अध्याय भी। 

इन्होंने फिल्मी अदा में, अपनी उस टिप्पणी में एक डाॅयलाग भी लिखा कि मैं इनकी एक भी कहानी की भाषा से तुलना कर के बता दूं तो ये मेरे सारे अपराधों को माफ कर देगें। तो मेरा निवेदन है कि‘ हे यीशू-प्रभु......इस पापी को तुम्हारा क्षमादान नहीं चाहिये,....क्योंकि ‘पुनर्लेखन’ का पाप तो मैंने किया ही है। बहरहाल, ये तालीकूट किस्म के डाॅयलाग बोलना छोड़ दो, भाई। मेरी कहानी की भाषा, जब पात्र दर्जी हो तो वह सुई-कतरनी हो जाती है, कुम्हार हो तो मेरी भाषा का गोत्र ही मिट्टी हो जाता है और जब पात्र किसान हो तो उसमें फसलों की फरावानी फूलने लगती है। वह पात्र के सोचने के संम्भव मुहाविरे में, सम्वेदना की सचाई और नवीनता को नाथ लेती है। मैं ‘शिल्प-वैभिन्य’ के लिये बहुत सावधान रहता हूं। मेरीे बाईस वर्ष की उम्र में ‘धर्मयुग’ में छपी पहली कहानी, ‘एक चुप्पी क्राॅस पर’ को पढ़कर, भाई रमेश उपाध्याय ने कहा था, ‘भाषा में इतनी कारीगरी और कला को लेकर हम क्या करेगें...? यह कला का आभिजात्य तुमको आसमान में चढ़ा जरूर देगा, लेकिन ये प्रशंसाएँ बांस है।’ और ‘धर्मयुग’ में अगले ही महीने में, मेरी दूसरी कहानी ठेठ गांव की थी। भाई भालचन्द्र जोशी मैंने तुम्हारी कहानियों के ‘पुनर्लेखन’ में, ‘भाषा से भाषा में पैदा होने वाले अनुभवों’ का खेल किया, जो मेरी कई कहानियों और अप्रकाशित उपन्यास, ‘कविता पर पेपर-वेट’ में है, जिसके दो-सौ पुष्ठ तुमने पढ़े हैं। तुम अपनी सिर्फ किसी एक ही कहानी की तुलना की धमकी दे रहे हो तो मेरा निवेदन है कि कृपया मेरी कहानी ‘किरिच’ और इनकी कहानी ‘किला-समय’ को ही पढ़ लीजियेे। मेरी कहानी सन् 1977 की है। कोई चाहें तो दोनों कहानियों की फोटोकाॅपी मुझ से मांग लें और पढ़े तो वह मुतमईन हो जायेगें कि ‘किला-समय’ का तिलिस्म क्या है..? दोनों कहानियों को पढ़कर लगेगा, एक ही व्यक्ति ने, दो नाम से कहानी लिख दी है, सिर्फ उसमें सरनेम काॅमन है। भाई भालचन्द्र, तुम साहित्य के पैरासाइट का जीवन जी रहे हो। अमरबेल हो, जिसकी हरियाली का स्रोत उसके पीछे खड़े पेड़ में होता हैै। तुम्हारी छवि ऐसी है, जैसे टेलिविजन के ‘विजन-मिक्सर’ वाले ने, चूहे के चेहरे के पीछे, सिंह की दहाड़ डब कर दी हो।

कवि लीलाधर मण्डलोई प्रसंग-- डिस्टार्शन आफ ट्रुथ

भाई भालचंद्र जोशी ने, उक्त टिप्पणी में, मेरे ‘चरित्र के कपट’ को उजागर करने की नीयत से लिखा कि मैंने श्री लीलाधर मंडलोई की डायरी ‘दाना-पानी’ की भूमिका, पहले तो लीलाधर मंडलोई के नाम से खुद लिख दी और भूमिका लिखने के बाद, अब मैं यह ‘कमीनापन’ भी कर रहा हूं कि भालचन्द्र जोशी को चुप-चाप, ये भेद बता रहा हूं- कि भूमिका, लीलाधर मंडलोई ने नहीं लिखी है, बल्कि मैंने ही लिखी है। भाई भालचन्द ने, यह ‘विस्फोटक-सत्य’, कुछ इस तरह बांछें खिलने की उम्मीद में रखा कि इसके बाद, मेरी और लीलाधर मंडलोई की अभी तक चली आ रही मैत्री, मलबे में बदल जाएगी। क्योंकि उन्होंने मेरी पोल-पट्टी खोल दी है। 

मित्रो, इस पहले प्रसंग से ही भाई भालचंद्र जोशी की ‘कुटिल बाबुई बुद्धि’ की ‘गढ़न्त’ को समझने में पर्याप्त मदद मिलती है। क्योंकि ऐसे सनसनीखेज भंडाफोड़ करने वाले चतुर व्यक्ति को कम-ज-कम, एक बार तो लीलाधर मंडलोई की उस डायरी को खोल कर देख लेना चाहिए था कि उसमें जो भूमिका छपी है, वह लीलाधर मंडलोई के नाम से नहीं बल्कि मेरे ही नाम से छपी है। बताइए, जो टिप्पणी, किताब में मेरे ही नाम से छपी है, और यदि मैं इनको बता रहा हूं कि वो टिप्प्णी मैंने लिखी है.... तो भला इसमें, मैं कौनसा कपट कर रहा हूँ...? उस टिप्पणी को, भाई भालचन्द्र कवि मण्डलोई के नाम से बता कर ‘सत्य के विरूपण’ की शुद्ध धूर्तता कर रहे हैं। 

इसका मतलब ये कि इस भले आदमी नेे, लीलाधर मण्डलोई की डायरी को पढ़ने की बात को छोड़ ही दीजिये, उस किताब का मुंह तक नहीं देखा है। हां, इस प्रसंग में, अश्लीलता में ‘आपादमस्तक डूबी बुद्धि’ ने, एक लुच्ची भाषा में, एक पंक्ति भी जोड़ी है। यह पंक्ति, इनकी ही दफतरों वाली बाबुई-चुगली का साहित्यकीकरण है--‘फाॅर योअर इन्फाॅरमेशन, सर वे तो ये तक कह रहे थे।’ बहरहाल, लुच्चे मुहाविरे में, अश्लील भाषा का मिश्रण, इन्हीं की प्रतिभा की मौलिकता है।

हालांकि, श्री मण्डलोई प्रसंग में भालचन्द्र जोशी ने आगे यह भी जोड़ा है कि ‘मैंने भाई मण्डलोई को डायरी के बारे मे कुछ फिलौसफिकल बनाने की सलाह दी।’ बाद इसके भालचन्द्र ने अपने ‘झूठ की मारक क्षमता’ को यहां जाकर, स्थगित कर लिया। जबकि इन्होंने ज्ञान चतुर्वेदी के सन्दर्भ में लिखते हुए, अपने ‘झूठ के वितान को तान कर’, वहां तक लिये गये कि मैं भोपाल जाकर उपन्यास लाया और फिर मैंने उसका पुनर्लेखन किया। ज्ञान चतुर्वेदी के सन्दर्भ में, ‘झूठ में गुणनफल’ कर देने से कोई भय नहीं था। क्योंकि उन्हें, ज्ञान चतुर्वेर्दी से क्या लेना? लेकिन लीलाधर मडण्लोई के प्रसंग में, ‘झूठ को महाझूठ’ बना कर रखने के नफे-नुकसान को भालचन्द्र बखूबी जानते हैं। वहां झूठ का ‘किफायत’ से इस्तेमाल जरूरी है। वहां इतना ही झूठ बोला जाये , जो केवल मण्डलोई को, प्रभु जोशी का शत्रु भर बना दे। इससे आगे कूच करने में ‘झूठ की कला’, खुद पर बूमरेंग हो जायेगी। धूर्त-बुध्दि ऐसे गणित में प्रावीण्यता रखती है।

लेखिका वीणा सिन्हा प्रसंग--‘ सचाई के साथ फ्लर्ट। रामस्वरूप कर्ता, फलस्वरूप बदनाम

इन्होंने सुपरिचित लेखिका वीणा सिन्हा के संदर्भ में एक उल्लेख किया। वह यह कि मैंने इनको ये बताया कि ‘वीणा सिन्हा के अंग्रेजी उपन्यास को, मैंने इतना बदल दिया कि वह मूल से पृथक और उम्दा हो गया। मित्रो, सच्चाई के साथ फ्लर्ट करने की इनकी चतुराई यह कि आप देखिये कि उसमें, भाई भालचन्द्र जोशी, ‘झूठ का महा-मिक्स कैसे करते हैं। यह इनके झूठ का दूसरा उदाहरण है। निश्चय ही वीणा सिन्हा की उस अंग्रेजी कृति को, मूल से अधिक परिष्कृत कर दिया। लेकिन यह कार्य मैंनेे मुंबई के अंग्रेजी कवि एड्रिन खरे से करवाया था। वीणा सिन्हा ने बाकायदा उन्हें इस काम के लिये निश्चित पारिश्रमिक पर अनुबंधित किया था। लेकिन, इन्होंने उस प्रसंग में अपनी प्रस्तुति से किया है, फ्र्लटिंग विथ ट्रथ। यह ‘रामस्वरूप’ के काम को, ‘फलस्वरूप’ से जोड़ दो।

चित्रकार का प्रसंग-- मेरी डींग में इनकी हींग का छौंक 

मुझ में, साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि चित्रकारी के क्षेत्र में भी ऐसी ही ‘डींगे हांकने’ की प्रवृत्ति है, यह बात बताने में भाई भालचन्द्र जोशी ने उंचे दर्जे की चालाकी की है कि ‘जैसे कि मैंने तो ये गप्प मार दी थी, इनके सामने कि मैंने एक चित्रकार की एक पूरी एक्झीबिशन की ही पेण्टिंग्स भी बनाई हैं। इन्होंने, ये बात कुछ ऐसे अन्दाज में रखी जैसे यह कोई सौ-फीसद झूठ है। ताकि इनके बारे में, ‘मेरे द्वारा इनकी कहानी लिखवाने वाली जो बात उजागर हो गयी है’, उसको भी ये सौ-फीसद झूठ सिध्द कर सकें। दरअसल, ये सिध्द करना चाहते हैं कि जैसे प्रभु जोशी की तो आदत, एक लत जैसी है कि वह साहित्य ही नहीं कला के क्षेत्र में भी ऐसी गप्पें मारते रहते हैं। 

बहरहाल, इन्होंने, जिस चित्रकार के नाम उल्लेख किया, उनकी ‘आईफैक्स कला-दीर्घा, नई दिल्ली और जहांगीर आर्ट गैलरी, मुंबई की कला-प्रदर्शनी के तीन बाय चार फीट के सारे तेलरंग चित्र, मैंने ही बनाये थे और कैनवास पर उन्होंने सिर्फ अपने हस्ताक्षर भर किए थे, जैसे भाई भालचंद्र जोशी मेरे द्वारा कहानी लिख कर देने के बाद, शान से अपना नाम लिख दिया करते थे। अतः जब मेरे द्वारा उनके एक नहीं, दो एक्झीविशन की पेंटिंग बनाने वाली बात दो-सौ फीसद सही है तो इनकी कहानी के ‘पुनर्लेखन’ वाली बात, सौ-फीसद तो सही तो यूं ही सिध्द हो गई है। 

आईफेक्स कला दीर्घा, नई दिल्ली की उस प्रदर्शनी के लिए आमंत्रण कार्ड, स्वर्गीय कथाकार शानी के नाम से मैंने छपवाये थे और उसका उद्घाटन स्वर्गीय अज्ञेय जी से करवाया गया था। जहांगीर आर्ट कला-दीर्घा मुम्बई के लिए मैंने डाॅ. धर्मवीर भारती और मनमोहन सरल जी से सहायता ली थी। उनकी पेण्टिंग बनाने का काम, मैंने इसलिए किया था कि वह ‘मेरे घर में मेरे बड़े भाई की तरह’ आये थे। वे मेरे मामा के लड़के थे। और ये बात मैंने अपने जीवन में इसके पहले कभी उजागर ही नहीं की। पहली बार ‘भाई भालचन्द्र ही अपने को सही सिध्द करने की झोंक में’ इसे उजागर कर रहे हैं, जो कि मैंने इनसे मात्र अंतरंगता के चलते कभी कही होगी। क्योंकि, मेरे घर में, भालचन्द्र मेरे सगे छोटे भाई बन कर आये थे तो मैंने जिस तरह बड़े भाई के लिये पेण्टिंग बनायी, उसी तरह छोटे भाई के लिये उसकी सारी कहानियां लिखीं। मेरी डींग में, इन्होंने अपनी हींग का गजब का छौंक लगाया।

प्राथमिक स्कूल के बच्चे सरीखी घटिया पेंटिंग करने वाला, घटिया पेंटर

यह ध्यान देने योग्य पैंतरा है कि उक्त टिप्पणी में, मेरे कहानीकार की बोटी-बोटी करते-करते, अचानक इन्होंने मेरे चित्रकार को अपने कसाईखाने के ठीहे पर कैसे और क्यों ले लिया ? और फिर एक जबरदस्त गंडासा वार किया--‘ये प्राथमिक स्कूल के बच्चों सरीखी पेण्टिंग करने वाला पेण्टर। मित्रो, कितनी दिलचस्प बात है कि मौलिकता का इनके पास, ऐसा और इतना भारी अकाल है कि मेरी कला को खारिज करने लिए, इनके पास ‘धार’ भी ‘उधार की’ है। क्योंकि, यह ‘बीज-वाक्य’ भी भाई भालचन्द्र जोशी के कहे मुताबिक भारत-भवन के किसी कलाकार के कथन सेे उठाया है। भाई, विचारों की ‘नकबजनी’ कब तक करोगे..? उधार के फूटे कुल्हड़ से मेरी कला की प्रतिष्ठा का पानी कैसे उलीच फेंकोगे ? निवेदन यह है कि मुझे और मेरी कला को गाली देने या खारिज करने के लिए तो ‘मौलिकता’ के साथ सामने आओ। तुम्हारी ‘कला-प्रज्ञा’ के गर्भ में, किन्ही अनाम भारत-भवनीय चित्रकार का ‘बीज-वाक्य’ ही अभी तक फलता-फूलता आ रहा है। वह, उनका ही गर्भ ढो रही है। तुम्हारा अपना कला-विवेक कहां है ? वह है भी कि नहीं..?

प्रतिशोध का मनोविज्ञान-- नैपथ्य उठता है

दरअसल, इसकी पृष्ठभूमि में, मित्रो, प्रतिशोध का ही वैसा ही धधकता मनोविज्ञान काम कर रहा है, उसे मुझे विवश होकर उजागर करना पड़ रहा है। चूंकि अब उसके आगे पड़े नैपथ्य का उठाना भी जरूरी है। ‘पर्दे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ’ की गुजारिश का वक्त अब चला गया है। दरअसल, भाई भालचंद्र चाहते थे कि वह मेरी ही तरह, कहानीकार के साथ-साथ, एक कलाकार भी घोषित हो जायें। इन्हें छाती पर तरह-तरह के तमगे लटकाने की बहुत विकट इच्छा रही है। मुफत का यश और मुफत का धन, इनकी दाढ़ में लगा खून है। फिर इन्हें यह पता तो था ही कि मैंने एक नहीं, कई चित्रकारों के लिए पेंटिंग की है और पेण्टिंग का ‘कमीशंड’ काम, मैं अपने नाम से तो करता ही नहीं हूं। वह दूसरे नाम से ही करता हूं। नतीजतन, इन्होंने मेरे आगे प्रस्ताव रखा कि मैं इनके लिये दस-बीस पेण्टिंग बना दूं। इसके साथ ही यह कहा--‘आप अपने कुछ रिजेक्टेड कैनवास और स्केचेस ही मुझे दे दो।’ लेकिन मैंने इस सब से साफ मना करते हुए कहा कि मैं तुम्हारी कहानियां लिखता हूं, यही काफी है। अब मैं तुम्हारी पेण्टिंग भी बनाऊं, यह मैं नहीं करूंगा। लेकिन एक काम करो, मुझसे एक दर्जन कोरे कैनवास ले जाओ और उस पर रंगों से, अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा कुछ भी कर के ले लाना, मैं उससे एक उत्कृष्ट चित्रकृति में बदलने की सामर्थ्य रखता हूं और इन्हें मैंने तत्काल बारह कोरे कैनवास निकाल कर दे दिये। पता नहीं, उन कैनवासों का क्या हुआ, यह तो भाई भालचन्द्र ही जानें। सोचिये, कितनी दयनीय स्थिति थी, मेरे छोटे भाई भालचंद्र जोशी की। आज जिसे चित्रकार की तरह खारिज करने के लिये निहायत ही उथले उपकरणों का इस्तेमाल कर रहें है, वे एक दिन उसी व्यक्ति के आगे स्वयं कोे महान् चित्रकार बनाने का प्रस्ताव गिड़गिड़ाते हुए रख रहे थे। दरअसल, ये मेरे सहारे कला और साहित्य में, ‘बावनगजा’ की ऊंचाई हासिल करना चाहते थे, लेकिन इन्हें दिगम्बर होना स्वीकार नहीं था। बहरहाल, मित्रों की उक्त छोटी-सी बैठक में, मेरे द्वारा ‘इनकी कहानियां लिखते रहने की बात उजागर कर देने से’ इन्हे यहीं बोध हो रहा है कि यह सबके सामने ‘दिगंबर’ हो गए हैं। उसी का प्रतिशोध, मेरी चित्रकला के खिलाफ निकल रहा है। 

मैं लेखन छोड़कर, धन और यश कमाने पेण्टिंग की दुनिया में गया-- किया मेरा भण्डाफोड़

इन्होंने टिप्पणी में, मेरा भण्डाफोड़ करते हुए लिखा--‘लेखन छोड़कर, मैं अपार धन और यश की तलाश में, पेंटिंग की दुनिया में चला गया। मित्रो, मैं आपको बता दूं कि मैं बचपन से ही पेंटिंग करता आया हूं और हायर सेकेंडरी से लेकर, एम.एस सी. तक की अपनी पूरी पढ़ाई और छोटे भाइयों की शिक्षा-दीक्षा और पेट पालन, मैंने पोर्टेट और पेंटिंग्स बना-बनाकर, उन्हें इंदौर में बेचकर किया और इंदौर में कुछ समय तक फिल्मों के होर्डिंग वाले के यहां पर भी काम किया। अतः, मैं लेखन छोड़कर पेंटिंग में नहीं गया बल्कि पेंटिंग करने के साथ ही साथ लेखन भी शुरू कर दिया। बहरहाल, मैं बी.एस सी. कर रहा था, तभी मेरी चित्रकृतियां आस्ट्रेलिया की लिंसिस्टन और हर्बर्ट गैलरी की ‘द्विवार्षिकी’ में प्रदर्शित हो चुकी थी और मेरी इस उपलब्धि पर, मेरे विश्वविद्यालय के कुलपति डाॅक्टर शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ ने देवास महाविद्यालय के वार्षिक समारोह में कहा था--‘मुझे गर्व है कि मेरे विश्वविद्यालय के छात्र की उपलब्धि, अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज को छू रही है और वह पूरे विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को ऊंचा उठाया है। मैं उसकी प्रतिभा को नमन करता हूं।’ बाद में मेरी चित्र-कृतियों को देखकर, आदरणीय बालकवि बैरागी जी, जो उस समय सूचना-प्रसारण मंत्री थे ने, मुझे मध्य-प्रदेश सरकार के टूरिज्म डिपार्टमेन्ट में, खजुराहो के लिये, आर्टिस्ट-कम-फिलाॅसफर की नौकरी दिलवाई थी। और जब मैं भाई प्रकाश कान्त के सम्पर्क में आया, तब कहीं जा कर, मैंने कहानियां लिखना शुरू कीं। और फिर जब ‘धर्मयुग’ में मेरी कहीं भी प्रकाशित होने वाली पहली कहानी प्रकाशित की गई तो उसमें इस बात का खासकर उल्लेख था कि तेईस साल के इस लेखक के चित्र अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में शामिल हो चुके हैं।

बहरहाल, भाई भालचन्द्र अपनी उधार की बुद्धि से, मेरी कला को खारिज करने की हास्यास्पद कोशिश, भारत-भवन के अनाम चित्रकार की पंक्ति उद्धृत करके कर रहे हैं। जबकि, उसी भारत-भवन की द्वैवार्षिकी का शीर्ष सम्मान, मुझे देश के दो बड़े कलाकार, स्वर्गीय भवेश सान्याल और श्री जैराम पटेल की जूरी ने दिया था। हालांकि, इसके पूर्व मुझे कैलिफोर्निया की ‘गैलरी-फोर‘ का ‘थाॅमस मोरान अवार्ड’ मिल चुका था। और अभी तक मैं मुंबई की ‘जहांगीर आर्ट गैलरी’ सहित अन्य गैलरियों में, अपनी एक दर्जन से अधिक एकल प्रदर्शनियां कर चुका हूं। मेरे चित्रों पर एकाग्र ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘फ्री-प्रेस जर्नल’ आदि अखबारों के पूरे और आधे पृष्ठों के फीचर्स छप चुके हैं। ख्यात कला-पारखी श्री प्रीतीश नंदी ने, ‘इंडिपेंडेंट’ और ‘इलस्ट्रेटेड वीकली आॅफ इंडिया’ में एडिटर्स-च्वाइस में विस्तृत टिप्पणियां छापी। कवि और कला-मर्मज्ञ प्रीतीश नंदी का तो यह कथन है--‘प्रभु जोशी इज़ अ किंग आॅफ वाटर कलर इन इंडिया’। पिछले वर्ष ही मैं अमेरिका की ‘वाॅटर कलर सोसायटी’ के तुर्की में हुई द्विवार्षिकी में आमंत्रित था और उसके कैटलाॅग का, मैं फीचर्ड आर्टिस्ट हूं। 

हालांकि, मैं चित्रकला में अपनी उपलब्धियों का कोई विवरण देना नहीं चाहता, यह आत्मप्रशंसा लगेगी। लेकिन मैं, सिर्फ यह बताना चाहता हूं कि इनकी तमाम कहानियों का ‘पुनर्लेखन मैंने किया है’, इस सचाई के सामने आ जाने से, उपजे प्रतिशोध के क्रोध में, विक्षिप्त हुई कोई बुद्धि, किसी के कृतित्व और उपलब्धियों को एक सिरे से खारिज करने के लिए, ऐसे अंधत्व के प्रदर्शन पर उतर आती है जो उसके कला-ज्ञान की विपन्नता को प्रमाणित करता है।

मैत्री का संस्मरण-- और कुबुध्दि का कुत्सित-पाठ

यह प्रकरण बताया है, इन्होंने रीवा के एक डाॅक्टर लेखक का। जिसके बारे में मैंने बताया कि उन्होंने मेरी कहानी चुरा ली। दरअसल, वह प्रकरण हैं। मेरे अनन्य बड़े भाई और मित्र डाॅक्टर अंजनी चैहान का, और उनके बारे में ज्ञान चतुर्वेदी का कहना है कि वे उनसे भी ज्यादा प्रतिभाशाली हैं। लेकिन, बस एक झक में उन्होंने व्यंग्य लिखना बंद कर दिया। भाई भालचन्द्र जोशी नहीं जानते कि हमारे अंजनी’दा कहानियां चुराते नहीं, सीधे डाका डालते हैं। मैं तब आकाशवाणी रीवा में नियुक्त था। एक दिन मैंने ब्राॅडकास्ट के दौरान, रेडियो सुनते हुए, सहसा पाया कि जो कहानी, इस समय रेडियो से पढ़ी जा रही है, वह तो मेरी कहानी है। मैं अचंभित था, तभी फोन की घंटी बजी। उधर अंजनी चैहान थे। बोले--‘ छोटू महाराज, आज पैसे की जरूरत थी। तुम्हारी एक कहानी निकाल कर आकाशवाणी में पढ़ डाली है।’ देखिये, भाई भालचन्द्र की धूर्त-बुध्दि, मेरे द्वारा अपने अन्तरंग मित्रों की शरारतों’ के इनको सुना दिये गये संस्मरणों का, कैसा कुत्सित-पाठ करती है। इसका ये नमूना है। शायद इन्होंने, ज्ञान चतुर्वेदी द्वारा अंजनी चैहान पर लिखा गया संस्मरण नहीं पढ़ा है। और मेरे तथा अंजनी’दा के बीच के ऐसे कई संस्मरण, ज्ञान चतुर्वेदी की कलम से अभी आने वाले हैं। 

आकाशवाणी में काम करने वाले साउथ के युवक की कथा

इन्होने, अपनी टिप्पणी में, मेरे द्वारा बताये गये एक किस्से का ऐसा उल्लेख है, जैसे वह मेरे द्वारा लगाई गई कोई कोरी गप्प है। यह बात है, आकाशवाणी में काम करने वाले, केरल के एक युवक की। जो आकाशवाणी में टाइपिस्ट था। भाई भालचन्द्र की कहानियों के पुनर्लेखन करते हुए, कभी प्रसंगवश मैंने उसका, जिक्र इनसे कर दिया होगा। क्योंकि मेरे घर में इन्होंनेें छोटे-भाई का, ऐसा मुखौटा लगा लिया था कि मैं इनसे अपने बहुत से सुख-दुःख भी, सहज होकर, शेअर करने लगा था। वह युवक था, टी.के. देवसिया। उसने एक बार अपनी दो ऐसी ही दो कहानियों के ड्राफ्ट्स बताये, जो ठीक ऐसे ही थे जैसे कि भाई भालचंद्र जोशी, मेरे पास अपनी कहानी के ड्राफ्ट्स ले कर खरगोन से चले आते थे। मुझे लगा कि कहानियां काफी छोटी हैं और साधारण ढंग से साधारण सी भाषा में लिखी गई हैं। लेकिन, मैंने पाया कि उनमें ‘संवेदना की सच्चाई’ से बढ़कर, तो ‘संवेदना की नवीनता’ है। मैंने उसकी उन दोनों कहानियों का ‘पुनर्लेखन’ किया और उन्हें ‘नई दुनिया’ अखबार में प्रकाशित करवाया। और कहा--‘अब तुम इनको, मलयालम में, उल्था लो। और जब वे मलयालम में उल्था लेने के बाद वहां की एक साहित्यिक पत्रिका में छपीं, और संयोग से मलयालम और अंग्रेजी के चर्चित लेखक, ओ. व्ही. विजयन‘जी ने पढ़ी तो उन्होंने, टी.के. देवसिया को अंग्रेजी में एक पत्र लिखा और कहा--‘तुम्हारी, इस कहानी ने, तुम्हें एक गहरी शिल्प-दक्षता से परिपूर्ण युवा लेखक की तरह मुझे प्रभावित किया है। तुम निरंतर कहानी लेखन करोगे तो मुझे उम्मीद है कि एक दिन तुम मलयालम के बहुत बड़े कथाकार की तरह जाने जाओगे।’ बाद में, वे जब मुंबई से दिल्ली जा रहे थे तो उन्होंने टी.के. देवसिया को इंदौर एयरपोर्ट पर आकर मिलने को कहा और वह मिला भी था। 

दरअसल, टी.के.देवसिया, एक बहुत विनम्र और शालीन और मनुष्यता से भरा हुआ, गरीब वर्ग से आया युवक था। मैंने उसे अपने ही साथ किराए के मकान में एक अलग कमरा दे कर दो साल तक रखा और अपने छोटे भाई के साथ उसे भी अंग्रेजी मेे, एम.ए. करवाया। एम.ए. के दूसरे वर्ष में मैंने उससे कहा--‘तुम आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दो।’ उसे मैंने भाई श्रवण गर्ग, जो उस समय, ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के संपादक थे, से कहकर अंग्रेजी-अखबार में रिपोर्टर बनवाया और बाद में श्री श्रवण गर्ग के ‘भास्कर’ में जाने के पश्चात्, उसने ही ‘फ्री प्रेस जर्नल’ का स्वतंत्र संपादकीय विभाग का दायित्व सम्भाला। फिर वह ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में चला गया। आज वह, ‘गल्फ-टाइम्स’ टाइम्स’ का केरल का, ब्यूरो-चीफ है। बहरहाल, टी.के.देवसिया के मन में, मेरे प्रति आज भी गहरा स्नेह और सम्मान है। हालांकि, उसने कुछ और कहानियां भी लिखीं। लेकिन, उसे पत्रकारिता में अपना भविष्य ज्यादा सुन्दर दिखाई दिया। लेकिन उसकी मनुष्यता पर भालचंद्र जोशी जैसे लोग, जो छोटे भाई का मुखौटा लगाकर, अपनी केवल स्वार्थ सिध्दि ही करते हैं, यूं ही वार के फेंके जा सकते हैं। 

स्वर्गीय नईम-प्रसंग--धूर्तता की भालचन्द्रीय-प्रस्तुति

भाई भालचन्द्र जोशी ने, मेरे सन्दर्भ से, स्वर्गीय नईम‘जी से सम्बन्धित, दो प्रसंगों का उल्लेख किया है, जो कभी इनसे मैंने शेयर किये होंगे। एक आकाशवाणी से सम्बन्धित है और दूसरा है जितेन्द्र भाटिया से। मित्रो, यह बहुत सहज है कि हम, जिन्हें पितृवत् सम्मान देते हैं और यदि वे कहीं अपने किसी स्वभावगत कमजोरी के कारण से, हमारी उनसे रही आयी अपेक्षाओं के उलट व्यवहार कर बैठें तो नैसर्गिक रूप से हमें एक धक्का लगेगा ही। कदाचित्, उस पीड़ा को ही मैंने कभी इनसे शेयर किया होगा। भाई तेजिन्दर भी स्व.नईम साहब को बहुत सम्मान दिया करते थे। भाई तेजिन्दर ने मेरे साथ ठीक मेरी ही तरह की पीड़ा में भरकर, स्व.नईमजी का एक प्रसंग शेयर किया था, जो स्व.नईम जी से, उनकी अपेक्षाओं के दरकने का था। लेकिन उसे, यदि मैं आज ‘भालचन्द्रीय-शैली’ में लिख कर सार्वजनिक कर दूं, तो निष्चय ही मेरे ‘कृत्य’ पर, भाई तेजिन्दर को यह पूरा हक होगा कि वे मुझेे, लेखक नहीं बल्कि एक निहायत ही घटिया आदमी की तरह सार्वजनिक रूप से ज़लील करें। बहरहाल, अब ये आपको तय करना है कि भाई भालचन्द्र द्वारा स्व. नईम जी के प्रसंग के उद्घाटन से आप, उनका कैसा सम्मान करते हैं।

ज्ञान चतुर्वेदी प्रसंग--‘बण्डू-बाबू का फार्मूला-फोर्टी फोर

भाई भालचन्द्र को करीबी लोग, ‘बण्डू’ कह के बुलाते हैं। तो इन, ‘बण्डू बाबू’ ने अपनी उसी अचूक कुटिल-युक्ति का वही फार्मूला फोर्टी-फोर आजमाया है कि मैंने ज्ञान चतुर्वेदी के बारे में भी इनको ये रहस्य बता दिया कि ज्ञान चतुर्वेदी के दोनों उपन्यास ‘नरक-या़त्रा’ और ‘बारामासी’ के चर्चित होने का कारण यही है कि मैंने ही उनका पुनर्लेखन किया। ज्ञानू के उपन्यास में एक डाॅक्टर का चरित्र है, डाॅक्टर पेनेसिलीन, जो हर बीमारी में एक ही उपचार करता है, बस पेनेेसिलीन ठोंक दो। इन्होंने, अपने दिमाग की ताकत फिर उसी तरह झोंक दी, इस उम्मीद में कि ‘ले अब स्साले, तेरे खास दोस्त ज्ञान चतुर्वेदी को भी मैंने तेरा दुशमन बना दिया, यह लिख कर कि तूने कहा है कि उसके दो उपन्यासों का मैंने पुनर्लेखन किया है। लो, वो हो गया, तेरा शत्रु।

भाई भालचन्द्र, तुम सभी के दिमाग को, अपने दिमाग की तरह क्यों मान रहे हो? तुम्हारे दिमाग और ज्ञान चतुर्वेदी के दिमाग में वो ही अन्तर है, जो आदमी और अमीबा के दिमाग में है। अमीबा, आदमी को ‘अमीबियोसिस’ कर देता है। ज्ञान चतुर्वेदी, सभी सब्जैक्ट में गोल्ड-मैडलिस्ट डाॅक्टर है। और इसलिए बखूबी जानता है कि ‘अमीबियोसिस’ का इलाज क्या है, और अमीबा की उपस्थिति की पड़ताल ‘मल-परीक्षण’ से होती है। 

हां, इन्होंने अपने उस फार्मूले को ‘फोर्टीफाइड’ करने के लिये, उसमें एक और तत्व मिलाया कि मैंने ज्ञान चतुर्वेदी को ‘कृतघ्न’ भी कहा। पता नहीं, भाई भालचन्द्र, तुममें, अपने सद्गुणों को दूसरो में देखने की ऐसी खसलत क्यों है? तुम मुझे तो छोड़ दो, पर ज्ञान चतुर्वेदी के साठ सालों के जीवन में आने वाला एक, भी ऐसा आदमी नहीं मिलेगा, जो उसे ‘कृतघ्न’ कह सके। हां, मुझे इन्दौर के तुम्हारे समधी और वरिष्ठ कवि ने बताया कि तुम ज्ञान चतुर्वेदी को, अपने सामने एक घटिया लेखक मानते हो। ऐसे में तो अब, यह बहस ही नहीं रह गई है कि कुण्ठा का जन्म पहिले हुआ कि तुम्हारा। बल्कि तुम तो कदाचित् कुण्ठा का कवच पहने ही जन्में हो, मेरे भाई। तुममें हमेंशा ही यह कुण्ठा रही कि ‘तीस वर्षों की प्रभु ‘भातृभक्ति’ करते रहने के बाद भी, मेरे यहां तुम्हारी जगह, ज्ञान चतुर्वेदी, जीवन सिंह ठाकुर और प्रकाश कान्त, और अंजनी चैहान के बाद क्यों है ? 

‘अब भाई भालचन्द्र, ‘तुम्हारी यह बात कि मैंने तुमको ये भेद बताया कि मैंने ही ज्ञान चतुर्वेदी के दो व्यंग्य-उपन्यासों का भी ‘पुनर्लेखन’ किया है-- तो मैं यह बता दूं कि हिन्दी में, ज्ञान चतुर्वेदी पिछले पचास वर्षों में एक ही पैदा हुआ है और निकट भविष्य में दूसरे ज्ञान चतुर्वेदी के पैदा होने की अभी दूर-दूर तक कोई सम्भावना भी नहीं है। यदि मैं ज्ञान चतुर्वेदी के दो कालजयी उपन्यासों की ‘व्यंग्य की भाषा की पुनर्रचना’, ज्ञान से अधिक करके, उनका ‘पुनर्लेखन’ सकता हूं तो फिर अभी तक मैं खुद ही दूसरा ज्ञान चतुर्वेदी बन चुका होता। 

बहरहाल, ज्ञान चतुर्वेदी का भी नाम अपनी फेहरिस्त में जोड़ना, केवल पंचतंत्र की कथा वाली तुम्हारी ‘श्रृगाल-बुध्दि’ की युक्ति है। भाई भालचन्द्र तुम्हारा वश चलता तो तुम, ज्ञान चतुर्वेदी ही नहीं, बल्कि हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी ,श्रीलाल शुक्ल, निर्मल वर्मा, अज्ञेय जैनेन्द्र और प्रेमचन्द का नाम भी उस सूची में जोड़ देते-- इनकी टिप्पणी में जिन लेखकों के नाम प्रकट करना रह गये थे, और मैंने आगे चलकर, बताने का वादा किया था--वे यही हैं---और ये कहते--‘बताव, प्रभु जोशी तो कह रहा था कि मैंने परसाई से लेकर प्रेमचन्द की भी कहानियों और उपन्यासों का ‘पुनर्लेखन’ किया है।’ 

कहना न होगा कि भाई भालचन्द, तुम्हारा फार्मूला फोर्टी-फोर, एक नकली पटाखा है। बहरहाल, ये याद रख लो कि ज्ञान चतुर्वेदी को अगर ईश्वर भी आकर कह दे कि तुम्हारे बारे में प्रभु जोशी ने ‘ऐसा-ऐसा’ कहा तो वो ईश्वर को कहेगा, भैया जरा तू रूक, ये बात मुझे पहले, प्रभु जोशी से ‘कन्फर्म’ कर लेने दे।’ जो मेरे दोस्त हैं, इतने ही गहरे यकीन के हैं। जिसने दोस्ती और मेरेे छोटे भाई होने का मुखौटा लगा रखा था, उसका मुखौटा उतर चुका है।

कामयाबी के कीर्तिमानों की कथा- इन्हीें की जुबानी

मित्रो, इनके कीर्तिमानों की कथा का, आपके सामने खुलासा करते हुए, मैं खुद को एक गहरे ग्लानि-बोध से घिरा अनुभव कर रहा हूं। लेकिन, ये मेरी अनिवार्य विवशता है, जो ठीक उस पैथालाॅजिस्ट की तरह की है, जो रोग के कारण का ठीक से पता लग जाये, इसलिये वह ‘मल-मूत्र’ को खंगालने की बाध्यता को स्वीकारने को विवश हो जाता है। रूग्णता के निदान के लिए यह जरूरी भी तो है। फिर सैम्पल तो सामने है।

भाई भालचन्द्र जोशी में, दुनियादारी का ज्ञान बांटने की विलक्षण प्रतिभा है। यह स्वयं ही मुझ ‘चुके हुए लेखक’ को ज्ञान बांटते थे और कहते--‘दादा, आपके पास पैसा नहीं है। इसलिए आपकी कोई कद्र नहीं करता। पैसा सब कुछ नहीं है, पर बहुत कुछ होता है।’ बहरहाल, ये सर्वस्व को, इसी से ‘मैन्युप्लेट’ करते हैं। इनके पास ‘मैन्युप्लेशन’ की, एक बड़ी सफल इंजीनियरिंग है, जिसके हूनर से ये कई-कई ‘असाध्य’ को भी साध्य बना लेते हैं। उन्होंने उसकी शक्ति के आगे, सब को झुका दिया। इनके ही शब्दों में इनके कुछ कीर्तिमानों का बखान--‘ मसलन, इन्होंने ‘मंहगी विदेशी शराब की दो बोतल से ही रवीन्द्र कालिया को अपने ‘पालवा’ कहानी संग्रह छापने के लिये तैयार कर लिया। इनके नपने के उपकरण से कालिया जी का कद तो बोतल से उपर नहीं है। ‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द यादव तो बकौल इनके सामने हमेशा ही हाथ फैला कर कहते थे--‘लाओ, क्या लाये हो..?’ और कहानी मांगने के साथ ही ‘हंस’ के आर्थिक-संकट की बात करते हुए म.प्र. से विज्ञापन के जुटाने की बात करते थे और ये अन्त में उनको कैश ही दे दे दिया करते थे। इनके कहे अनुसार तो ‘कथादेश’ के सम्पादक भाई हरिनारायण केे म.प्र. में आने पर, इन्हें ही उनको शहर-दर-शहर ले जाना पड़ता है। अगर ये ना होते तो ‘भाई हरिनायण’ और ‘कथादेश’ दोनों ही सड़क पर ही आ जाते, पुरूषोत्तम अग्रवाल वाला मकान खाली करने के बाद। बताते तो ऐसा हैं, जैसे भाई हरिनारायण को इन्होंने ही धन दिया हो। कमला प्रसाद जी तो ‘वसुधा’ को ‘पहल’ की टक्कर की पत्रिका बनाने के लिये हमेंशा ही धन जुटाने के लिये कहते थे और ये तुरन्त उनको कैश मे बन्दोबस्त कर दिया करते थे, क्योंकि इनके कथनानुसार कमला प्रसाद जी में एक छुपा हुआ ब्राहमणत्व था, और वे इनको इसीलिये बहुत प्यार किया करते थे। इनकी मान लें तो ज्ञानरंजन तो बिलकुल शुरू से कहा ही करते हैं--‘भालचन्द्र ये पत्रिका मेरी नहीं, तुम्हारी ही है। तुमको ही तो इसको चलाना है।’ इसलिये ‘पहल’ को आर्थिक सहायता देते हुए इनको बरसों हो गये हैं। ये घोषणा करते रहे हैं कि ‘बागेश्वरी’ तो बस मिला हुआ है, बस घर नहीं लाया हूं। लेकिन ‘पहल-सम्मान’ के लिये इन्तजार करना होगा, लेकिन ये तय है कि राजेश जोशी के बाद, ‘पहल-सम्मान’ पाने वाले वे दूसरे जोशी होंगें।’ बहरहाल, इनकी बखानी हुई कीर्ति-कथायें बहुत लम्बी हैं। हो सकता है कि इनके पास, इन सबके सगे छोटे-भाई होने और दिखने के अलग-अलग मोहक मुखौटे निष्चित ही होगें, जिसके पीछे ये अपने स्वार्थी चेहरे को, उन सबसे पूरी सफलता के साथ छुपा लेने में, कामयाब हो जाते होंगे। 

इस सबसे पता चलता है कि ये ‘कैश’ की ताकत से कैसे ‘इनकैश’ करते हैं। मैन्युप्लेशन में महारत हासिल है, इनको। हालांकि, ये हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा मैन्युप्लेटर कवि कुमार अम्बुज को बताते हैं। पता नहीं किसी को भी अपने से अधिक श्रेष्ठ न स्वीकारने वाले आदमी ने कुमार अम्बुज को अपने से ऊपर कैसे मान लिया...? 

अपनी हीनग्रंथि का विक्टिम बनाया, अपनी ही मासूम बेटी को

मित्रो, इनके भीतर अंग्रेजी की वही हीनग्रंथि है, जो अक्सर ही पुराने गठिया-रोग की टीस की तरह, बार-बार उठती रहती है। उस ग्रन्थि के चलते भालचन्द्र जोशी यह चाहते थे कि वे हिंदी की लेखक बिरादरी के बीच, ये हो-हल्ला मचवा दें कि उनकी बेटी, अंग्रेजी की एक महान् चाइल्ड ‘प्रोडेजी’ है। मैंने इन्हें समझाया --हालांकि यह लिखते होते तो कहते ‘उसने मुझे हड़काया -- ‘देखो भालचन्द्र, ऐसे झूठ में, अपनी मासूम बच्ची को क्यों धकेल रहे हो ? फिर ये कविताएं तो ढंग से, ‘बाल-कविताएं’ भी नहीं लग रही हैं।’ 

लेकिन ये ख्याति के लाक्षागृह की ‘इंजीनियरिंग’ तो मैन्युप्लेशन’ के हुनर से करते ही हैं बल्कि इस ‘मैन्युप्लेशन’ से, अपनी अगली पीढ़ी को भी लाभान्वित करने का काम भी करते हैं। बहरहाल, अपनी बेटी ‘एनी’ की कुछ बहुत ही कच्ची-सी कविताएं लाकर इन्होंने मुझे दीं और कहा कि मैं इन्हें अंग्रेजी में ‘ट्रांसलेट’ कर दूं। मैंने अनुवाद करने से साफ इनकार कर दिया। तब पता नहीं, अपने अचूक हुनर से, इन्होंने किसको ‘मैन्युप्लेट’ करके, किससे अपनी बेटी के लिये हिन्दी में बाल-कविताएं लिखवायीं। परन्तु बाद में ये पता चला कि अहमदाबाद, इसरो के पूर्व वैज्ञानिक डाॅक्टर प्रभाकर शर्मा, जो कि कवि श्री कृष्णकांत निलोसे जी और इनके भी समधी हैं, से इन्होनें उन हिन्दी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद करवाया और फिर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए, जहां, ‘कथादेश’ के संपादक भाई हरिनारायण की मदद से, बेटी के नाम, ‘हिन्दी से अनुदित अंग्रेजी कविता’ की वह किताब छपवाई। बाद इसके, इन्होंने इंदौर के सभी स्थानीय-समाचार पत्रों के कुछ पत्रकारों को, ‘कैश और कांइड’ में, उपकृत करके ऐसी प्रशंसा छपवाई कि जैसे भारतीय अंग्रेजी कविता में, उनकी बेटी ने चमत्कृत कर डालने वाला महा-विस्फोट कर दिया है। इन्होंने ये भी जुगाड़ जमाया कि उसके नाम पर पुरस्कार की कोई घोषणा भी हो जाये। और किताब सरकारी खरीद में बिक भी जाये। यह पैरासाइट की तरह जीने की लत को वंशानुगत बनाने की कामना का विचित्र उदाहरण है। जबकि, वे अंग्रेजी की मूल-कविताएं नहीं, हिन्दी से अंगे्रजी में अनुदित कविताएं थीं। यह है, अगली पीढ़ी को मुफत के यश की लत का हस्तान्तरण तो है ही, बल्कि एक मासूम बच्ची के माथे पर जीवनभर के लिये झूठ की एक गठरी लाद दी।

अपने ही हाथों अपना अभिषेक

आत्मप्रशंसा की लत के ये जीर्ण रोगी हैं। जब मैंने इनकी कहानियों का ‘पुनर्लेखन’ करके, इनका पहला कहानी-संग्रह छपवाया तो इन्होने कहा कि मैं उस संग्रह की एक ‘धांसू’ समीक्षा लिख दूं। तब मेरे मना कर देने पर इन्होंने स्वर्गीय कमलाप्रसाद जी से कहकर, ‘वसुधा’ पत्रिका में अपने द्वारा ही लिखी समीक्षा, भाई जीवन सिंह ठाकुर के नाम से छपवाई। कथाकार जीवन सिंह ठाकुर देख कर चौन्क गए कि मैंने तो कभी इन पर कुछ लिखा नहीं और मेरे नाम से ऐसी समीक्षा छपी है। मैंने जीवन सिंह ठाकुर को समझाया कि चूंकि मैं लिखना नहीं चाहता था, इसलिए भालचन्द्र ने खुद ही लिखी और आप के नाम से छपवा दी। इसे अन्यथा ना लें।

साहित्य का खड़गसिंह-प्रसंग-- अर्थात् ‘अब ये माल, मेरा हुआ रे,...सुबीरे..!’

मुझे इनकी प्रतिभा के चौर्य-कर्म का एक प्रसंग, भोपाल में डाॅ. ज्ञान चतुर्वेदी ने बताया-- ‘ कहानीकार पंकज सुबीर ने, तुम्हारे उस भालचन्द्र जोशी को सहज भाव से, अपनी एक लिखी जा रही रचना की ‘कथा स्थिति’ और उसके ‘आसपास के सारे सूत्र और प्रसंग’ विस्तार से बता दिये। कुछ ही दिनों बाद इन्होंने कथाकार पंकज सुबीर को फोन करके बताया, वे इस विषय पर एक लंबी कहानी लिख चुके हैं और वह कहानी ‘कथादेश’ में छप रही है। अतः उस थीम पर तुम मत लिखना, वरना मेरी कहानी के बाद तुम्हारी कहानी भी, इसी विषय पर आएगी तो व्यर्थ में, तुम्हारी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाएगी।’ पंकज सुबीर भालचंद्र जोशी की यह बात सुनकर सन्न रह गये। फिर उत्तर दिया--‘ भालचंद्र भाई, आप अपनी वह कहानी ‘कथादेश’ को छापने दीजिए। मैं इस कथानक पर, अपना उपन्यास लिख कर पूरा कर चुका हूं और वह छप रहा है।’ यह इनकी छुपी प्रतिभा का एक नया ‘प्राकट्य’ मिला कि किसी के कहानी के प्लाट को कैसे हड़प कर कह दें कि--‘आज से तो अब, ये तो मेरा हुआ रे... सुबीरे......!’ ये साहित्य में ‘खड़गसिंहावतार’ लेने की कोशिश है।

मुफ्त का ‘धन और यश’

इन्होंने अपनी तरफ से मेरे ‘चरित्र-हनन’ के लिए काफी कमरतोड़ मेहनत की है। और उन सबकी हकीकत बताने लगा तो यहां एक इनके ‘बालचंद्र से पूनमचंद्र’ हो जाने की पटकथा बन जाएगी। हालांकि, इन्होंने दूरदर्शन की ‘इंडियन क्लासिक्स श्रृंखला’ की पटकथा लिखने का तो पूरा प्रसंग गोल ही कर दिया। क्योंकि वह पटकथा इन्होंने लिखी नहीं सिर्फ उस पटकथा को बिना लिखे ही टेलिफिल्म-लेखन की ख्याति और पैसा पा लिया। इन्हें मुफ्त का ‘धन और यश’ अर्जित करने की कुटैव पर्याप्त पुरानी है। इनके भीतर, मुफत के चित्रकार और मुुफत के मीडिया-रायटर कहलाने की कुटैव है।

सुई चुभो कर, हाथी की हत्या की तकनीक

प्रस्तुत टिप्पणी में उन्होंने मेरे ‘चरित्र के द्वैत’ का पर्दाफाश करने के लिये, एक निहायत ही बोदा और हास्यास्पद प्रसंग लिखा है, जिसमें मैं इनके सामने बहुत दयनीय होकर, गिड़गिड़ाया--‘ भालचन्द्र, तुम मेरे मंदिर में जाने का जिक्र किसी से मत कर देना, वरना माकर्सवादी लोग, मेरी खाल खींच देंगे।’ मेरी मसखरी के लिए, यह मनगढ़ंत-प्रसंग, निश्चय ही इन्होंने किसी घटिया अखबारी व्यंग्य से, ‘चौर्य-कला’ से ही उठाया होगा। ना कहो, यह इनके ही जीवन का कोई प्रसंग होगा। तो भाई, तुम अपनी ही ‘बीट’ मेरे माथे पर क्यों कर रहे हो ?

मैं आरंभ से ही चित्रकला में, राधा-कृष्ण, राम-सीता और ‘अखिल भारतीय कालिदास-चित्रकला प्रदर्शनी’ में भाग लेने के लिए, शिव तथा पार्वती के प्रसंग पर केन्द्रित चित्र बनाता आ रहा हूं। मेरे घर की बैठक में, यथार्थवादी-शैली में, तेलरंग से कैनवास पर की गई, चार बाय तीन फीट की ‘वीणावादिनी’ की चित्रकृति, सन् 1980 से, दीवार पर टंगी है। इसके अतिक्ति, जो व्यक्ति धर्म, विज्ञान और उनके अन्तर-सम्बन्धों तथा ‘भारतीय-मूर्ति शास्त्र’ पर, पचीसों लेख लिख चुका हो। जिसने सन् छिहत्तर में अर्नाल्ड टाॅयनबी पढ़ लिया हो, ऐसा व्यक्ति मंदिर में चले जाने पर, इनसे गिड़गिड़ा कर, इस भेद को, प्रकट ना करने के लिए, इनसे ‘अनुनय विनय’ करेगा..? और फिर ये ‘ज्ञान बांट कर’, उसे समझा देंगे कि--‘ईश्वर तो हमारे जीवन की प्राणवायु है।’ आह, कितनी सृृृृजनात्मक, मौलिक और अद्वितीय कल्पना है, इनकी।

भाई मेरे, एक अध्ययनशील-व्यक्ति की, ‘बौध्दिक चरित्र-हत्या’ का, तुम्हारा यह उद्यम, ठीक ऐसा ही है, जैसे आप हाथी की हत्या के लिए, पिन चुभो कर, उसे पंक्चर कर दोगे। मेरे ‘चरित्र-हनन’ की युक्ति में, कहीं तो अपनी मौलिकता का प्रदर्शन कर, मेरे भाई ! वरना लोग तेरी प्रतिभा पर मुस्कुराएंगे। अब क्या, अपनी चरित्र-हत्या के लिए, मुझे खुद ही भीष्म की तरह युक्तियां बताना पड़ेगी ? मेरी समझ की ‘रसरी’ पिछले तीस बरस से, तुम्हारे ‘सिल’ पर ‘आवत-जात’ रही और अभी तक उस पर कोई निशान ही नहीं पड़ा कि तुम कहीं तो अपना कामनसेंन्स तो लगाते दिखो ! तुम्हारी धुर-विपन्नता देखकर लगता है, तुमने निहायत ही सामान्य-सी बुद्धिमत्ता से भी अपने हाथ झाड़ लिए हैं ?

और अन्त में--प्रार्थना नहीं, निवेदन कि मैंने इनकी कहानियां क्यों लिखीं

कदाचित् भाई भालचन्द्र में, ‘भातृ-भक्ति-प्रदर्शन’ की ऐसी कला थी कि मुझे बहुत बैचेनी होने लगती थी कि मैं इस प्यारे भाई की किस-किस तरह से मदद करू।..? उन दिनों ये झाबुआ में नियुक्त थे और वहां के आदिवासी बहुल इलाके में रहते हुए, अत्यधिक ‘ताड़ी’ पीने और आदिवासियों के बीच ‘स्वच्छंद जीवन’ जीने से, इन्हें उससे जुड़ा रहने वाला ‘हेपेटाइटिस’ भी भेंट में मिल गया था और वह लिवर के ‘सिरोसिस’ में बदल गया। तब मैंने लगभग आठ महीने तक, इन्दौर के चोईथराम अस्पताल में, डाॅक्टरों से अपने उच्चस्तरीय संपर्कों के चलते, सर्वश्रेष्ठ उपचार उपलब्ध करवाया। और इन्होंने बताया कि इनके बड़े भाई ने इस बीच, इनका मकान भी हड़पकर बेच दिया। तब लगा कि कोई बड़ा भाई भला इतना दुष्ट भी हो सकता है कि वह अपने छोेटे भाई को मरणासन्न देखकर, इतना बड़ा धोखा कर ले। इस घटना ने मेरे भीतर के बड़े भाई वाले स्नेह को चौगुना कर दिया। और मैं इनकी हर तरह की मदद के लिये खुद को झोंक दिया। बाद में पता चला कि बड़े भाई की मकान हड़पने की बात महा झूठ थी। इनके लिये कैंसर के उपचार वाले इण्टरफेराॅन इन्जैक्शन के सैम्पल अपने डाॅक्टर मित्रों से जुटाता। अस्पताल जाता तो ये कातर होकर कहते--‘दादा, क्या मैं एक लेखक की पहचान बनाये बगैर ही मर जाऊंगा...?’ मैं सुनकर सहसा सिहर उठता था। 

अस्पताल में ये कहते--‘दादा मरने के पहले मेरा कहानी संग्रह छपवा दीजिए।’ तब मुझे लगा कि शायद इससे इस लीवर के कैंसर से ग्रस्त युवक में जिजीविषा जाग जाए और यह ठीक हो जाये। मैंने इनकी तमाम पुरानी कहानियों का तो पुनर्लेखन किया ही, नई कहानियां भी लिखीं। फिर मैंने, उपन्यासकार श्री वीरेंद्र जैन, नई दिल्ली से कह कर, इनका कहानी-संग्रह छपवाया। उनकी इच्छा थी, कथाकार ज्ञानरंजन, इनके संग्रह का ब्लर्ब लिखें। जब ज्ञानरंजन जी ने, संग्रह का ब्लर्ब लिख कर भेजा तो ये सदमें में आ गए-- ‘बताओ यार दादा, कितना बोगस-सा लिख दिया। अगर, मैंने इसे ब्लर्ब की तरह छपा लिया तो मेरा संग्रह ही पिट जाएगा। मैंने कहा-- ‘ज्ञानरंजन, हिन्दी कहानी का बड़ा नाम है। तुम उनकी टिप्पणी अन्दर छाप लो।’ 

हालांकि, इन्होंने मेरे नाम से एक टिप्पणी भाई ‘ज्ञारंजनजी के लिये जोड़ी है कि ज्ञानरंजन दो ढाई कहानियों के लेखक हैं।’ दरअसल, ज्ञानरंजन के कथा-अवदान का यह मूल्यांकन, इन्हीं की आकलन-बुध्दि की ही उपज है। इन्होंने मेरी सारी कहानियां खोज-खोज कर पढ़ी हैं। लेकिन इन्होंने मेरे लिखे के बारे में कहा--‘ मैंने इस चुके हुए बूढ़े लेखक की मुष्किल से बस ‘दो-ढाई’ कहानी ही पढी है। तो मित्रो, भाई भालचन्द्र का किसी के भी आकलन में, ‘ढैया’ ही चलता है। ये इस ‘भैया का ढैया’ है। शायद कोई ज्योतिष का जानकार ही बता सकेगा कि इनको किस ग्रह-उपग्रह का ढैया चल रहा है। ये, जो ब्याज का धंधा करते हैं, उसमें भी ये ‘ढाई’ का ही आंकड़ा चलाते हैं।

मुझ पर, इनका आखिरी अग्निबाण

मित्रो, यह बात खासतौर पर ध्यान देने की जरूरत है कि टिप्पणी को अंत में लाकर सारे मसले को ‘अर्थ’ से नाथ देना, यह इन की लड़ाई का अंतिम यानी कि ‘आखिरी-अग्निबाण’ है, जिसको चलाने के बाद, बाबू भालचन्द्र ‘निश्चिंतता की लम्बी सांस लेंगे’ कि चलो, अब तमाम लोग, यह ‘सचाई’ कि ‘प्रभु जोशी ही मेरी कहानियां लिखते रहे थे’ एक झटके में भस्म हो जाएगी। क्योंकि, बाद इसके, लोग यह निष्कर्ष निकाल लेंगे कि ‘अरे, भइया, यह तो सारा मसला आपस में रुपयों के लेन-देन का है’। 

बहरहाल, मालवी में कहावत है--‘भैया मेरे, तू बाप बता, वरना श्राद्ध कर’। मैं कहना चाहता हूं कि ‘शब्द- शब्द’ का हिसाब रखने वाले भालचन्द्र जोशी के पास, ‘पाई-पाई’ का हिसाब तो होगा ही। फिर, भाई भालचन्द्र तो कागजी प्रमाण को मुंह पर मारने के लिए रखते हैं। मसलन, अंग्रेजी के ज्ञान के लिए विश्वविद्यालय की डिग्री है। ‘पटकथा-लेखन’ के प्रमाण के लिए दूरदर्शन का कान्ट्रैक्ट है। इसलिए ये हिसाब के कागज-पत्तर’ मेरे मुंह पर मार दें। अन्यथा यह किस्सा, ‘सबों को अपने पक्ष में कर लेने’ के लिये चला गया, सिर्फ केवल तुरूप का एक पत्ता है, इस से ज्यादा कुछ नहीं। 

इसके साथ ही इन्हें यह सब भी बताना चाहिए कि एक मामूली से डिप्लोमाधारी इंजीनियर के पास, इतना पैसा ‘कैश’ में कहां से आता है कि ये इतने खुले हाथ से लाखों रूपये प्रभु जोशी, ‘हंस’, ‘कथादेश’, और ‘पहल’ आदि पत्रिकाओं को देते फिरते हैं। और सब्जी-भाजी की तरह हीरों का हार खरीद लेते हैं। और ब्याज का धंधा भी चलाते हैं। कवि कृष्णकान्त निलोसे को भी, इन्होंने हीरे के हार को दिखा कर, अपनी क्रय-सामर्थ्य का प्रदर्शन कर नीचा दिखाने की कोशिश की थी। इनके पास, कई शहरों की महंगी रिहायशी इलाकों में फ्लैट और प्लाट खरीद रखे हैं। पिछले ही दिनों, इन्होंने इंदौर के नवलक्खा, संवादनगर क्षेत्र का, श्री अश्विन जोशी के नाम से खरीदा गया फ्लैट बेचा है। नौकरी की आय से अधिक संपदा अर्जित करने का यह चमत्कार है। और यह इनका ही नहीं है। क्योंकि, हर दूसरे-तीसरे दिन, मध्यप्रदेश के अखबारों में खबरें छपती-रहती हैं, कि तृतीय और चतुर्थ-श्रेणी के कर्मचारियों तक के यहां छापों में, करोड़ों के प्लाट और मकानों के दस्तावेज बरामद हुए। फिर ये तो उस विभाग के इंजीनियर रहे, जिसे कुदाल लेकर सोने खोदने वाला विभाग कहा जाता है। फिर भाई भालचन्द्र तो मध्य प्रदेश सरकार के उप-मुख्यमंत्री के ‘मुंहलगे’ रहे। 

अंत में, मैं कहना चाहता हूं कि निहायत ही अभद्र और अशालीन भाषा में मेरे ‘चरित्र-हनन’ के लिए लिखी गई, टिप्पणी का मेरी ओर से यह प्रथम और अंतिम उत्तर है। वैसे तो इन ‘विश्व-साहित्य के गहन-अध्येता के दावेदार’ ने, छोटी-छोटी कई और भी बातें लिखीं हैं, जिन्हें हमारी मालवी बोली में, ‘हगनी-मूतनी’ बातें कहते हैं, उनमें भालचन्द्र जोशी ने काफी विचरण किया है। कदाचित् उनको अपनी बौध्दिकता के पौष्टिक-तत्व ऐसी ही बातों से प्राप्त होते होंगे। उनकी ऐसी ‘हगनी-मुतनी’ बातों के उत्तर देने की जरूरत भी नहीं है। लेकिन इनकी टिप्पणी पढ़कर, संदेह होने लगता है कि इनके ‘ब्रेन’ और ‘बड़ी आंत’ के बीच, कहीं कोई ‘म्यूच्युअल’-ट्रांसफर तो नहीं हो गया है..? क्योंकि इसके बाद, ये जो भी अभिव्यक्त करेगें या लिखेंगे, वह निर्विवाद रूप से कीचड़ से ऊपर की गंदगी का ही प्रमाण देने वाला होगा। वैसे चिम्पांजी की बौखलाहट की स्थिति के बारे में, यह एक प्रामाणिक अध्ययन है कि वह, जब स्वयं को विपक्षी के समक्ष असहाय पाता है तो वह विपक्षी पर, अपनी विष्ठा ले-लेकर फेंकने लगता है। 

कथा-समीक्षकों के द्वारा बताया जाता है कि ‘भालचन्द्र जोशी बहुत जटिल ‘मनस-तत्व’ के व्यक्ति हैं’।अतः इन्हें और इनके व्यक्तित्व की ‘माइक्रो’ और ‘मैक्रो’ लेविल की परख न तो ‘माइक्रोस्कोप’ से की जा सकती है और ना ही, टेलिस्कोप से। बल्कि ‘सिग्माॅयडोस्कोप’ से ही हो सकती है। बहुत मुमकिन है, बाद इस टिप्पणी के छपने के, ये ‘कैश’ देकर, किराये का कोई ऐसा आदमी ढूंढें, जो ‘क्राइम-पेसोनेल’ की स्त्री की ‘प्रतिशोध की योजना’ की तरह, मेरी बोटी-बोटी काट कर, लोहे के संदूक में भरकर, किसी देहाती-स्टेशन नहीं, बल्कि निमाड़ के जंगलों में फिकवा दें। और आजकल तो फेसबुक की वाल में, एक ऐसा वाश-बेसिन फिट है, जहां हत्यारे हाथ धो-कर, निःशक और निर्द्वंद्व हो कर, शोक-सभा में खड़ा हो सकता है। नाऊ, राइट नाऊ, आय‘म अवेटिंग हिज फायनल असाल्ट..।

प्रभु जोशी,
303, गुलमोहर-निकेतन, वसन्त-विहार, इन्दौर, म.प्र. 
पिन- 452010 मोबाइल-9425346 356

रविवार, 4 सितंबर 2016

जुमला यानी वाक्य

जुमला एक आगत शब्द है। साहित्यिकों या अरबी और उर्दू से वास्ता रखनेवालों को इसका मर्म समझाना 'पीना' सिखाने के बराबर है।

90 के दशक के बाद की हिंदी में गति रखनेवालों को इसका हिंदी पर्याय एक बार बताया या याद दिलाया जा सकता है। यदि वे खूब पढ़े लिखें हों तो भी उन्हें एक बार जुमला का हिंदी पर्याय देख लेना चाहिए।


जुमला के लिए हिंदी में शब्द है वाक्य। वाक्य का मतलब आप जानते ही हैं-कथन। बात। इस विद्यालयी परिभाषा में भी वही बात है 'वाक्य सार्थक शब्दों का ऐसा समूह है जिसका कोई अर्थ निकलता हो।'

अब यह आरंभिक जिज्ञासाओं से उपजा सवाल वाजिब ही है कि जुमले का पर्याय वाक्य ही है तो क्या हुआ?

इसका जवाब थोड़ा घुमाकर दिया जा सकता है कि इस समय का साहित्य राजनीति से ग्रस्त है और राजनीति साहित्य से ग्रस्त है। यानी साहित्य में अक्सर वैसी ही राजनीति परिलक्षित हो रही है जैसे राजनीति में साहित्य और भाषा सम्मान।

कुल मिलाकर यह कहना है कि 'प्रति व्यक्ति 15 लाख' जिसे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने आखिर परेशान होकर चुनावी जुमला कह दिया वह चुनावी जुमला है ही नहीं। चुनावी, नारा हो सकता है। वादा चला ही आया है।

लेकिन भाषा में भी अमित शाह से उम्मीद? न भई न। खुदा करे वे अपनी राजनीति तक ही सीमित रहें!

'प्रति व्यक्ति 15 लाख' चुनावी वादा था और अब तक वादा ही है। लेकिन क्या किया जाये साहित्य में छुपी हुई ऊचाइयां छूने के अभिलाषी पत्रकार मजबूर ही ऐसा कर देते हैं।

साहित्य में जुमले उछालने की वैसी होड़ नहीं है जैसी असफल आलोचना में किसी की बात को जुमला कह देने की। यह अति राजनीतिक होने का परिणाम है।

ब्यूरोक्रेसी में जुमलेबाजी एक भीषण आरोप है। अक्सर मातहतों को ख़त्म करने के लिए अधिकारियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि इसके बाद ऐसे अभियोग लगाये जा सकते हैं कि कर्मचारी अकुशल, अक्षम और जानबूझकर कुछ न करनेवाला साबित है।

समकालीन साहित्य में मैंने जुमले के स्थान पर वाक्य का प्रयोग करते हुए व्यंग्य करने का एक शानदार उदाहरण कथाकार राकेश मिश्रा में देखा।

राकेश ने एक लेखिका का अतिरिक्त ज़िक्र आ जाने पर कहा- वह वाक्य लिखती हैं। एक के बाद दूसरा वाक्य। फिर तीसरा वाक्य। वह अच्छे वाक्य लिखती जाती हैं। उन्होंने कहानी कब लिखी? भई कहानी लिखो न ।

मुझे लगता है राकेश ने जुमले का इस्तेमाल जानबूझकर नहीं किया होगा। वे राजनीति की अच्छी समझ रखनेवाले कहानीकार हैं। वे जानते हैं लेखिकाएं आमतौर पर राजनीतिक नहीं हैं।

साहित्यिक अक्षमता के सन्दर्भ में पूरे भाषायी उद्यम को जुमलेबाजी कहते मैंने पहली बार कहानीकार चन्दन पांडेय को सुना। यह भाजपा सरकार बनने से पहले की बात होगी। तब जुमला ऐसा प्रचलित नहीं था कि सार्वजानिक हेठी का सबब बन जाये।

आखिर में यह कि बहुत से शब्दों की तरह जुमला भी हिंदी में अक्सर गलत सन्दर्भों में प्रयोग किया जा रहा है।

जुमले में ओढ़ाकर वाक्य को न पीटें। मसखरी करना तो पीटने से भी बुरा है।

शशिभूषण