जुमला एक आगत शब्द है। साहित्यिकों या अरबी और उर्दू से वास्ता रखनेवालों को इसका मर्म समझाना 'पीना' सिखाने के बराबर है।
90 के दशक के बाद की हिंदी में गति रखनेवालों को इसका हिंदी पर्याय एक बार बताया या याद दिलाया जा सकता है। यदि वे खूब पढ़े लिखें हों तो भी उन्हें एक बार जुमला का हिंदी पर्याय देख लेना चाहिए।
जुमला के लिए हिंदी में शब्द है वाक्य। वाक्य का मतलब आप जानते ही हैं-कथन। बात। इस विद्यालयी परिभाषा में भी वही बात है 'वाक्य सार्थक शब्दों का ऐसा समूह है जिसका कोई अर्थ निकलता हो।'
अब यह आरंभिक जिज्ञासाओं से उपजा सवाल वाजिब ही है कि जुमले का पर्याय वाक्य ही है तो क्या हुआ?
इसका जवाब थोड़ा घुमाकर दिया जा सकता है कि इस समय का साहित्य राजनीति से ग्रस्त है और राजनीति साहित्य से ग्रस्त है। यानी साहित्य में अक्सर वैसी ही राजनीति परिलक्षित हो रही है जैसे राजनीति में साहित्य और भाषा सम्मान।
कुल मिलाकर यह कहना है कि 'प्रति व्यक्ति 15 लाख' जिसे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने आखिर परेशान होकर चुनावी जुमला कह दिया वह चुनावी जुमला है ही नहीं। चुनावी, नारा हो सकता है। वादा चला ही आया है।
लेकिन भाषा में भी अमित शाह से उम्मीद? न भई न। खुदा करे वे अपनी राजनीति तक ही सीमित रहें!
'प्रति व्यक्ति 15 लाख' चुनावी वादा था और अब तक वादा ही है। लेकिन क्या किया जाये साहित्य में छुपी हुई ऊचाइयां छूने के अभिलाषी पत्रकार मजबूर ही ऐसा कर देते हैं।
साहित्य में जुमले उछालने की वैसी होड़ नहीं है जैसी असफल आलोचना में किसी की बात को जुमला कह देने की। यह अति राजनीतिक होने का परिणाम है।
ब्यूरोक्रेसी में जुमलेबाजी एक भीषण आरोप है। अक्सर मातहतों को ख़त्म करने के लिए अधिकारियों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। क्योंकि इसके बाद ऐसे अभियोग लगाये जा सकते हैं कि कर्मचारी अकुशल, अक्षम और जानबूझकर कुछ न करनेवाला साबित है।
समकालीन साहित्य में मैंने जुमले के स्थान पर वाक्य का प्रयोग करते हुए व्यंग्य करने का एक शानदार उदाहरण कथाकार राकेश मिश्रा में देखा।
राकेश ने एक लेखिका का अतिरिक्त ज़िक्र आ जाने पर कहा- वह वाक्य लिखती हैं। एक के बाद दूसरा वाक्य। फिर तीसरा वाक्य। वह अच्छे वाक्य लिखती जाती हैं। उन्होंने कहानी कब लिखी? भई कहानी लिखो न ।
मुझे लगता है राकेश ने जुमले का इस्तेमाल जानबूझकर नहीं किया होगा। वे राजनीति की अच्छी समझ रखनेवाले कहानीकार हैं। वे जानते हैं लेखिकाएं आमतौर पर राजनीतिक नहीं हैं।
साहित्यिक अक्षमता के सन्दर्भ में पूरे भाषायी उद्यम को जुमलेबाजी कहते मैंने पहली बार कहानीकार चन्दन पांडेय को सुना। यह भाजपा सरकार बनने से पहले की बात होगी। तब जुमला ऐसा प्रचलित नहीं था कि सार्वजानिक हेठी का सबब बन जाये।
आखिर में यह कि बहुत से शब्दों की तरह जुमला भी हिंदी में अक्सर गलत सन्दर्भों में प्रयोग किया जा रहा है।
जुमले में ओढ़ाकर वाक्य को न पीटें। मसखरी करना तो पीटने से भी बुरा है।
शशिभूषण
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