शुभम श्री को कविता 'पोएट्री मैनेजमेंट' पर मिले भारतभूषण अग्रवाल सम्मान के तत्काल बाद विवाद और संवाद की बाढ़ सी आ गयी थी। समर्थन और विरोध दोनों में लेखक आ जुटे। सम्मान के निर्णायक थे प्रसिद्ध और अद्वितीय कवि-कथाकार-फिल्मकार उदय प्रकाश। समकालीन हिंदी साहित्य में दखल रखने वाले अधिकांश लेखकों ने इस सम्मान के बहाने पुरष्कृत कविता और हिंदी कविता की गौरतलब प्रवृत्तियों पर अपनी राय देकर इसे एक अविस्मरणीय घटना बना दिया। इसी श्रंखला में यहाँ साभार प्रस्तुत है मशहूर मासिक पत्रिका 'कथादेश' में प्रकाशित ख्यात चित्रकार, कहानीकार और चिंतक प्रभु जोशी का दृष्टिसंपन्न लेख। उम्मीद है इस लेख से एक गंभीर बहस शुरू होगी। पहला पैराग्राफ़ प्रभु जोशी की ही एक फेसबुक टिप्पणी है- ब्लॉगर
पश्चिम में दशकों पूर्व एक काव्य-युक्ति, साहित्यिक फैशन की तरह चली थी कि एक कवि, अपनी तरफ जनाकर्षण के लिए 'परंपरागत पावित्र्य में द्रोह' का वितान रच कर, उसे आराजकता की सीमा के निकट जा कर संकट ग्रस्त करता। और इस तरह उसे प्रश्नांकित करता। मसलन, मसीह के शिश्न से वीर्यपात हो रहा है। या यीशु, स्ट्रेप्टीज नृत्य करते हुए, अपनी देह के एकमात्र वस्त्र को उतार देते है। कुलमिला कर अश्लीलता को अश्वशक्ति के साथ इस्तेमाल किया जाता। सलमान रुश्दी ने एकेश्वरवादी इस्लाम के साथ ऐसी ही पवित्र को संकटग्रस्त करने वाली , इसी फैशन की झोंक में जो किया, तो इस्लाम ने उसे अपने अस्तिव के विरुध्द एक चुनौती की तरह लिया और विश्व भर में उसको लेकर विवाद खड़ा कर दिया। फ़्रांस में व्यंगचित्रकार ने भी तो यही किया था। लेकिन हिन्दुत्व , एक देव् बहुल धर्म है, जिसमें , सूअर की शक्ल के भी देवता है और अप्रतिम सुन्दर कृष्ण भी। इसमें पवित्रता का पूज्य प्रतिमान रचने वाली पञ्च कन्याये है और वे विवाह पूर्व ही अपने कौमार्य को विसर्जित कर चुकी है। सरस्वती, विद्या और ज्ञान की देवी है और पिता बृह्मा से छली गयी हैं ।इस लिए ऐसे ढीले ढाले तैंतीस करोड़ बेव आबादी वाले , धर्म में अराजक हो कर , अश्लीलता के आश्रय से कुछ भी ध्वंस कर दे। फर्क नहीं पड़ता। फिर कवि के ऐसे काव्य-कृत्य, से असहमति व्यक्त करने वाले में एक डर, ये भी ठूंस ठूंस कर भर चुका है, कि ऐसे काव्य कृत्य की आलोचना से वह साहित्य के बाड़े से ही बाहर कर दिया जायेगा। दरअसल , वह प्राच्य के ज्ञान की एक पूर्वग्रह् युक्त समझ की भूल-भलैय्या में फंसा हुआ है, नतीजतंन ,, कविता की ऐसी निरर्थ फैशन को समकाल की महान कविता समझ रहा है। ये बहुत दिलचस्प बात है कि कविता के इतिहास में 'अतिशय संरक्षणवाद ' ने, बहुत सारी प्रतिभाओं हमेशा के लिए अपाहिज और वध्य बना दिया। गार्डनर ने ठीक इस प्रवृत्ति की ओर इशारा किया, अक्लमंद आलोचक कभी भी कवी के माथे पर छत्र लेकर नहीं चलता। और, और ये भी कि कवि के आरंभ के जीवन में , की गई उसकी भूरी भूरी प्रसंशाये, कुछ ही समय बाद उस के साथ बुरी तरह पेश आती हैं।
हिन्दी कविता के क्षितिज पर एक नवोदिता के ‘आकस्मिक’ उदय का हो-हल्ला, इस दुर्घटना के कारण हो गया कि उसकी एक कविता को ‘भारत-भूषण सम्मान’ दे दिया गया। कहना न होगा कि हिन्दी कविता के परिसर में, अधिकांश काव्य-नागरिकों की बिरादरी के बीच, यह पुरस्कार, एक प्रवेश-पत्र की ही अधिमान्यता रखने का, एक लंबे समय से भ्रम निर्मित करने की अपने सामर्थ्य को, सुरक्षित रखे हुए है। अर्थात्, इस पुरस्कार को प्राप्त करने के बाद, सहज ही, यह मिथ्या विश्वास निर्मित हो जाता है कि पुरस्कार ग्रहणकर्ता, कविता के उच्चासन पर, अब हमेशा के लिये विराजित हो जाएगा। और अभी तक के शेष-सर्जक, उसकी उपस्थिति की चमक के सामने निष्प्रभ हो जाएँगे। कदाचित् ,इसी वजह से ही हिन्दी-पट्टी के ‘काव्य-कुटुम्ब’ में, एक चतुर्दिक कोहराम-सा मचा हुआ है। कईयों ने, इस अप्रत्याशित घटना से दुखी हो कर, कविता के कपाल पर हाथ मार कर; मातम मनाया कि ऐसी कविता को पुरस्कार से विभूषित करना, यानि एक अनिष्ट का अविलम्ब आगमन है। कुछ ऐसे भी रहे जिन्हें ‘नए’ के ‘स्वागत’ में आतुरता दिखाना और ‘पुराने के दमन’ के लिए दहाड़ने में, उन्हें स्वयम् को ‘साहित्य के भविष्यदृष्टा के रूप में दिखाई देने’ की संतुष्टि मिलती है। वे आरती के लिए थालियों में कपूर लिए दिखने भी लगे हैं।
वैसे, यह एक दिलचस्प बात है कि हिन्दी के हलकों के हरकारे, हमेशा से ही दो विपरीत छोरों में छंटे और बंटे हुए रहे हैं। या तो वे, स्तुतियों की भाषा में भाव-विभोर हो जाते हैं या, फिर घृणा के घनघोर में घुसे मिलते हैं। कुल मिलाकर, वे विह्वलता के ही अधीन रहते हैं। मतलब कि कतिपय, भाव-विह्वल तो कतिपय, विचार-विह्वल। परन्तु मुझे खुशी हुई, उस पुरस्कृत कविता तथा उसकी दो एक अन्य कविताओं को पढ़ कर कि ‘मेक इन इंडिया’ के मोदी-मार्का आह्वान के समय में, हिन्दी में ‘कवितोत्पादन’ के लिए, अंतर्जाल पर दिखाई देती, पश्चिम की ही ‘मेकिंग ऑफ पोएट्री’ की पापुलिज्म वाली, मनोरंजक तकनीक का, अब विधिवत् प्रवेश हो गया है। यह एक मसखरी के रोचक ‘जुगाड़’ से, कविता के निर्माण की एक अबोध-सी जान पड़ती, शुभम् शुरुआत है। अतः इस पर इतना गगनभेदी तुमुलनाद किसलिए?
जैसा कि स्पष्ट है, पुरस्कृत कविता को, हमारे ‘समकाल के काव्य-विवके’ से भरे, हिन्दी-साहित्य में, नक्षत्र की तरह दमकते एक सर्जक ने चुना है तो निर्विवाद रूप से, उस कविता के भीतर, कुछ ऐसा अप्रतिम तत्व, अनिवार्यतः वहां उपस्थित होगा ही, जिसके चलते वह कविता चयनकर्ता को तमाम युवाओं की कविता के बीच, सर्वथा उत्कृष्ट लगी होगी। शायद, उसकी अलक्षित उत्कृष्टता ने, स्वयं के लिए, ‘कृति’ का दर्जा पाने की मांग, पुरस्कार के निर्णायक से, काफी पुरज़ोर ढंग से की होगी और वह, उसके काव्य-तत्व की विशिष्टता सामने, अन्ततः नतमस्तक होने को बाध्य हो गया हो। फिर, इस बात को पहचान लेना भी तो अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ‘युग-विशेष’ की प्रथम श्रेणी की प्रतिभा, कभी भी ‘सामान्य रुचि’ के अधीन रहकर, उसके ‘आनंदोत्सव’ का हिस्सा बनने के प्रस्ताव को, हमेंशा के ही खारिज करती आई है। अतः यह स्वतः स्पष्ट है कि इस, एक पुरस्कृत कविता ने, यह, एक लम्बी कालावधि से स्थगित काम तो आसानी से सम्पन्न कर ही दिया कि पिछले पचास-सौ वर्षों से, अभी तक लिखी चली जा रही कविता के ‘रूप’ और ‘स्वरूप’ के, विसर्जन की घड़ी आ चुकी है। यह सारी हलातोल, इस अभी तक की चली आ रही कविता-परंपरा के विसर्जन के संकेत को, पढ़ लेने की ही तो है। यों भी, भूमंडलीकरण के भम्भड़ में, किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति के लिए, अनिंद्य रहना, उसे काफी हद तक शर्मसार बना देता है। फिर जे॰एन॰यू में जन्मी इस काव्य-सत्ता की तो यह पहली प्रतिज्ञा बनती है कि यदि वह विवाद न खड़ा कर पाये तो, निस्संदेह उसमें स्पष्टतः ‘क्रिएटिव-थ्रिल’ का अभाव समझा जायेगा।
मुझे हिन्दी आलोचना की बिरादरी अमूमन, फ्रेंच लेखक मौलिये के उन नीम-हकीम चिकित्सकों की बरबस ही याद दिलाती है जो, रोग के यथोचित निदान में, अपनी ‘अल्पज्ञता’ की वजह से चूकती रहती है। क्योंकि, वह अधैर्य की शिकार है, नतीज़तन, देखते ही अविलम्ब उपचार में भिड़ जाती है। सो, उन्होनें लगे हाथ, उस कविता में एक काव्य-रुग्णता का निदान किया और अपने पुराने और बासी पड़ चुके नुसखों के सहारे, उसका उपचार करना शुरू कर दिया।
पिछले वर्षों में, युवा प्रजाति के बीच, महाकवि की ऊंचाई को प्राप्त कर चुके, पीयूष मिश्रा और इसी तरह के चित्रपटीय ‘अन्यों’ ने, अपनी ‘मौलिकता के मुरीदों’ की, एक बड़ी तादाद पैदा कर दी है, जिसके चलते कविता में, एक नए ‘बाँकपन’ की अपेक्षाएँ अत्यधिक बढ़ गई हैं। बहरहाल, इस पुरस्कृत कविता में भी ‘बाँकपन’ है, ‘बालपन’ नहीं। क्योंकि, कुछ लोग, पुरस्कृत कविता की रचयिता को ‘लड़की-लड़की’ कह कर, उसकी काव्य-चेष्टा को बार-बार ‘बालपन’ की तरह देखने की त्रुटि कर रहे हैं। जबकि, वह हिन्दी की उत्तर-आधुनिक कविता की ‘श्री’ युक्त शुभम् है। वह, श्री-हीन नहीं है, क्योंकि अब श्री-हीन होने का समय तो कभी का बिदा मांग कर चला गया है। अब तो पुराने को ‘श्री-हीन’ करने का समय है। फिर वह बालिग भी है, इसका प्रमाण उसके परिपक्व और गहन काव्यानुभवों से प्रमाणित भी होता हैं।
कहना न होगा कि मेरे समझ से, यह तह-ओ-बाल, इसलिए भी मार-तमाम मचा हुआ है कि अब हमारी आलोचना, साहित्य के भग्नावेश में, एक वृद्ध-स्वामिनी का जीवन जी रही है। वह लिखती तो है ही नहीं, बल्कि बोलने भी कम लगी है। क्योंकि, वह, अब अपने वर्चस्व के अन्तिम चरण में है। उसकी दशा-दुर्दशा, भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ़ की दावत’ की उस माँ की तरह हो गई है, जो घर के पिछले हिस्से के अंधेरे बंद कमरे में, अपनी जर्जर काया के साथ जी रही है।
मित्रो, हर्बर्ट मार्क्यूज ने कहा था,‘फॉर्म एक्सप्लोडस्’ अर्थात् कलाओं में, जितने भी परिवर्तनकारी ‘नवाचार’ ( पददवअंजपवदे) हुए हैं, वे सबसे पहले वहां, ‘फॉर्म’ के स्तर पर ही होते रहे हैं। हालाँकि, अब यह पूछा जाना, सचमुच ही निरर्थ होगा कि वे ‘पददवअंजपवद कितने असली-नकली रहे, याकि कितने अल्पायु-दीर्घायु रहे हैं।
़यह कविता, और उन अन्य कविताओं की गढन्त की भंगिमा, जिसको लेकर चतुर्दिक चर्चा और चिख-चिख चल रही है; वह मूलतः उनके ‘फॉर्म’ के स्तर पर ही हैं। यहाँ हमको, इस बात पर, खासतौर पर गौर करना होगा कि, जितने भी ‘नवाचार’, ‘कथ्य’ या ‘रूप’ के स्तर पर हुए, वे सबसे पहले ‘कला’ के क्षेत्र में घटित हुए, और इसके पश्चात् कुछ विलंब से साहित्य में प्रकट हुए। फिर चाहे, वह ‘मॉडर्निज्म’ हो या ‘पोस्ट- मॉडर्निज्म’, ये दोनों ही पहले मूलतः कला-जगत में ही नुमायाँ हुए हैं। साहित्य में तो में काफी देर बाद में। इसलिए, मुझे इस नये मिजाज की कविता पर बात करने के लिए कला के, पश्चिम के आंदोलनों की ओर कुछ-कुछ कूच करना पड़ेगा।
मैं कहने की अनुमति चाहूँगा कि कला के इतिहास में, जब भी ‘नवाचार’ का शंख फूंका गया, तो ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि उसने, अपने ‘समकाल’ के महानों का मस्तकाभिषेक किया हो। कलाओं में, ऐसा सौभाग्यशाली कालखण्ड कभी आया ही नहीं। उल्टे ‘नवाचार’ ने अपने आगमन के साथ ही, अपने समय के जीवित और मृत-महानों का, मान-मर्दन और शिरोच्छेदन ही किया। अँग्रेजी कविता में, ई॰ई॰ कमिंग्स की शरारतों को याद कर लीजिये। फ्रेंच कविता और कला में, नयों ने अपने ‘समकाल’ के महानों के वंश-वृक्ष के जड़ों में, तेल की तरह, अपने कविता-गिरोह के केवल तीन-चार रचनाकारों की सृजनात्मकता को छाछ की तरह उड़ेंला। अंग्रेजी में टी. एस. एलियट और फ्रेंच में, मलार्मे और पॉल वेलेरी ने भी ये ही कर्मकाण्ड किये क्योंकि ये तीनों ही ‘पोएट टर्न्ड क्रिटिक’ भी थे और उन्हें अपना रथ हांकना था। इसलिये कुछ अतिरिक्त निर्ममता के साथ वे पेश आये।
निर्विवाद रूप से सौन्दर्य, एक शाश्वत किस्म का ‘अभिव्यक्त औचित्य’ है और कला और साहित्य में, उसे उलटने के लिए, युग लगते हैं। लेकिन, दुर्भाग्यवश, उसे समय से पूर्व ही उलटने की चेष्टा की गई तो वह ‘उत्कृष्टता’ के सहारे से नहीं बल्कि ‘निकृष्ट’ युक्तियों के आश्रय से ही हुआ है। हम यहां अपनी बात, कला के क्षेत्र के सन्दर्भ को सामने रखकर करें तो अमूमन होता यही रहा कि एक अप्रत्याशित आकस्मिकता, अपनी ‘फूहड़ता’ के रूप में, सबसे अमोघ अस्त्र की तरह से सामने आती रही है। याद रखिए कि ‘फूहड़ता’, ज्ञान के ‘अभाव’ से भी आती है और ज्ञान के ‘आधिक्य’ से भी। अलबत्ता, ‘ज्ञान के आधिक्य’ से आने वाली ‘फूहड़ता’ सर्वाधिक घातक होती है। क्योंकि, ‘अभाव’ से आने वाली ‘फूहड़ता’, पूरी तरह वध्य होती है। उसका यथा-समय अवसान भी हो जाता है, लेकिन ‘ज्ञान के आधिक्य’ से आई ‘फूहड़ता’, अपनी ‘आत्म रक्षा के तमाम कवच-कुण्डलों’ के साथ जन्म लेती है। उसमें, बौद्धिक-धूर्तता की, एक बहुत ही परिष्कृत प्रविधि, अत्यन्त सूक्ष्म स्तर पर काम करती है। वह अपने आसपास, तर्क का ऐसा बारीक जाल बुनती है, जिस के भीतर से गरजता-गूँजता समुद्र तो गुजर जाता है, लेकिन उसको दंश मार कर खत्म करने वाले व्याल उलझ जाते हैं। कई बार तो, वह एक खामोश अराजकता के नैपथ्य में आती है। और कहने दीजिये कि वह एक मादा-श्वान की तरह आती है, जो अपने ही जन्मे को जीम जाती है, बहुत नृशंसता के साथ।
पश्चिम में, जब कला के ‘ज्ञानग्रस्त’ लोगों, जिनके पीछे एक बड़ी कूटनीति भी काम कर रही थी, ने तय किया कि प्रचलित कला-प्रवृत्ति को अपदस्थ करना है तो उन्होंने स्थापनाएं देना शुरू की कि हर ‘चित्रकृति’ अपनी दृष्य-भाषा से इनकार करती हुई, अपनी अन्तिम इच्छा में, अन्ततः शब्द हो जाना चाहती है- तो ‘कलागत‘ विजुअल’ सौन्दर्य को झाड़कर, ‘फूहड़ता’ को वरेण्य बनाया गया और कला में, ‘डिस्टार्शन’ के पक्ष में, तर्कों का ऐसा जाल बुना कि ‘विरूपता’ ने अपने लिए सम्मानजनक जगह और स्वीकृति हथिया ली। ‘क्लासिक और कैनन’ का द्वन्द्व ही निर्मूल होने लगा। जिसके पास भी, रंग और कैनवास खरीदने की पर्याप्त कुव्वत थी- वह भी कलाकार होने का जयघोष करने के योग्य हो गया। ध्यान रखिये कि हमेशा से ही ऐसा ‘उथलधडा‘ सिर्फ ‘अस्थिरता’ के युग में ही होता आया है। ‘अस्थिरता’ का युग ही ‘फैशन’ का जन्मदाता होता है। ‘अस्थिरता’ के युग में, ‘फैशन’ सामाजिक जीवन मे मौजूद सभी तरह के अनुशासनों की गर्दन पर सवार हो जाती है। ‘फैशन’, चाहे वह साहित्य की हो या कला की, वह ‘विचारहीनता’ के एक अवध्य से जान पडते, ‘धूर्त विचार’ का वर्चस्व बनाती है। और जल्दी ही ‘सर्वस्व’ को अपने अधीन कर लेती है। डेविड हॉकनी से लगाकर, उस कालखण्ड के सभी कथित आधुनिक कलाकार, ‘विरूपन’ और ‘फूहड़ता’ को, अपनी कृतियों के ज़रिये नहीं, बल्कि हार्वर्ड और येल विश्वविद्यालयों के कला-स्नातकों की, ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता’ के सहारे ही, कला की उस ‘सौन्दर्य-दृष्टि’ को ध्वस्त करने में लगे थे, क्योंकि, उसके सहारे से ही, सोवित-रूस की कला, शेष-संसार के चित्रकारों को अपने दायरे में, बडी तेजी से खींच कर लेती जा रही थी। अमेरिका की ‘शीतयुध्द-कालीन’ रणनीति के लिए, यह एक अत्यन्त चुनौतीपूर्ण काम था।
कहना चाहिये कि तब अमेरिकी कूटनीति के शिल्पकार ,तीसरी दुनिया के देशों में, कला का ‘लाक्षागृह’ खड़ा कर रहे थे और ‘वाम-चिंतन’ के लगभग ‘माचिस’ मानकर, उसे दूर भगाने में जुट गए थे। यह, विश्व में सांस्कृतिक स्तर पर भी लडाई का दौर था, जिसमें सारी साजिशें काफी कुछ गुप्त थीं। क्योंकि, संस्कृति, साहित्य और कला में, ‘विनष्टीकरण’ के लिये औपनिवेशिक शक्तियों की कूटनीतिक गाइडलाइन ये थी कि ‘ दीज़ आर टु बी किल्ड विथ काइण्डनेस’। उन्हें , शनैः शनैः और ममत्व से मारा जाये। यही कारण रहा आया कि वे प्रकट ही तब होती दिखतीं थी, जब वे सर्वग्रासी हो चुकती थीं। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे लोग, उस ध्वंस में सफल भी हो गये। क्योंकि, उसके पीछे रॉकफेलर फाउंण्डेशन के सी॰आय॰ए॰ द्वारा दिया गया वह धन था, जो अड़तीस देशों के कलाकारों को, उनके द्वारा कैनवास पर की गई किसी भी प्रकार की ‘फूहड़ता और मूर्खता’ को ‘अव्दितीय’ बताकर, अपने अधीन कर रहा था। उसी ने ‘कला’ और ‘साहित्य’ में वाम-विचार के प्रति बढ़ती आसक्ति को नष्ट करके, कथित ‘आधुनिकतावाद’ से नाथ दिया। यह, उनकी सफलता का प्रथम चरण था।
भारतीय-कला, में इस ‘फूहड़ता’ को, आजीवन अपनी कला की ‘आत्मा’ से चिपकाये रहने वाले कलाकार का सर्वोत्तम उदाहरण मिलता है, फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के रूप में, जो ‘फूहड़ता और विकृति’ को अपनी कला के, ‘कथ्य’ और ‘रूप’ में, ठूँस- ठूँस कर भरने में सफल रहे। उनका भारतीय-कला में सबसे बड़ा योगदान, अगर कोई है तो बस इतना ही है कि उन्होंने, भारत में, कला-आलोचक के ‘कूड़े’ को कूड़ा’ कह सकने के बौद्धिक-पुरुषार्थ का बधियाकरण कर दिया। क्योंकि, तब तक उनकी, लगभग ‘कलर्ड गारबेज’ की तरह दिखाई देती कृतियों के पीछे पूँजी आकर खड़ी हो गई थी। नतीज़तन, भारत के कथित कला बाजार में, इस रंगीन कूडे की कीमत करोडों में हो गयी थी।
यहाँ, मुझे यह याद दिलाना ज़रूरी लगता है कि जब अमृता शेरगिल, पश्चिम से लौटी थीं तो वह, यह कहती हुई आई थीं कि ‘पिकासो, पश्चिम तुम्हारा है, मेरा तो पूरब ही है।’ वह भारतीय-चित्रकला के इतिहास में, पहली सुविज्ञ कला-दृष्टि के साथ आई थी, जिसने अपनी देशज परंपरा के भीतर से ही ‘नवोन्मेष’ को आविष्कृत करते हुए, ‘आधुनिकता’ का, वह ‘रूप-स्वरूप’ गढ़ा, जिसके गुणसूत्र, अपनी जड़ों और पुरातन-परम्परा से अभिन्न रूप से नालबध्द थे। लेकिन, पश्चिम के दबाव और नेहरू के आधुनिक-भारत के रेडीमेड स्वप्न ने, जल्दी उस कला-चेष्टा को, विस्मृति के गर्भ में दफ़्न कर दिया। यही वह वजह रही है कि इस कृतघ्न राष्ट ने अमृता शेरगिल को एकदम से भुला ही दिया। कला-आलोचक, हर्बर्ट रीड, जब भारत आए थे तो उन्होंने गहरी वितृष्णा में, भर कर कहा था कि मुझे तो ये उम्मीद थी कि भारत अपनी हज़ारों वर्षों की संस्कृति, साहित्य और कला परम्परा के भीतर से, ‘अपनी ही तरह’ की कोई ‘आधुनिकता’ विकसित कर लेगा, लेकिन वह तो उल्टे, अपने ‘स्वत्व’ को विस्मृत करके, पश्चिम के उच्छिष्ट में ही अपना कला-आस्वाद ढूंढ रहा है।
बहरहाल, प्रसंगवश, यहाँ पर मैं फ्रांस के कुछ कलाकारों के द्वारा किए गए, एक रोचक स्वांग का उल्लेख करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूँ। उन कलाकारों ने पूरी तैयारी से, एक कैनवास को मेज पर रखा और उस के निकट एक गधे को खड़ा करके, उसकी पूँछ से रंगों में डूबे ब्रश को बांध दिया और फिर उसे चारों कोनों में घुमाया। नतीज़तन, तरह-तरह के आकारों के रंगीन चकत्ते कैनवास पर, सब दूर बन गए। इस पूरे कर्मकाण्ड के साक्षी के रूप में, उन्होंने कला-जगत के एक प्रतिष्ठित और वरिष्ठ कला-पारखी को, पहिले से ही नियुक्त कर लिया था ताकि वह कैनवास पर घटती प्रक्रिया को प्रमाणित कर सके। बाद इसके, उन्होंने इस कैनवास को, एक उत्कृष्ट फ्रेम में मढ़ कर, फ्रांस की चर्चित कला-दीर्घा में प्रदर्शनार्थ रख कर, कला-समीक्षा के क्षेत्र के तत्कालीन दिग्गजों को आमंत्रित करके, उनसे उस ‘कृति’ के मूल्यांकन का आग्रह किया गया। चि़त्रकृति का एक गूढ़ और जटिल शीर्षक भी दिया गया। कला-मर्मज्ञों ने कृति पर विभिन्न कोणों और आयामों पर, गहन मंथन करने के उपरान्त अपनी-अपनी सारगर्भित टिप्पणियाँ दीं। जो ध्यान देने योग्य हैं। एक ने लिखा- “यह चित्रकार की आत्मा के भीतर की छटपटाहट की, एक गहन रंगाभिव्यक्ति है, जिसमें उसने रेखांकनों को भी निरस्त कर दिया, क्योंकि रेखांकन बंधन है।“ दूसरे ने लिखा- ‘चितेरे ने गहन दार्शनिक चिंतन के सहारे, आकारों को अवसाद से, जिस तरह भरा है, वह कला के क्षेत्र में, नए अध्याय के आरंभ के संकेत देता है’। तीसरे ने लिखा- ‘यह मन की अव्यक्त पीड़ा का काव्यात्मक रूपांकन है’। और चौथे की टिप्पणी थी-‘एक विश्रंृखलित कालखण्ड को रूपांतरित करती हुई, यह अद्भुत रंग-दग्ध चित्रकृति है’।
कुल मिलाकर, कला-मर्मज्ञों की अभिव्यक्तियों ने लोगों में, कृति के रचयिता कलाकार से मिलने की अनियंत्रित उत्कंठा पैदा कर दी। तब कृतिकार को, सबके सामने प्रस्तुत किया गया, जिसकी पूँछ में विभिन्न रंगों से सनी तूलिकाएँ लटक रही थीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह प्रसंग, कला-मर्मज्ञों द्वारा अपनी विवेचना में किये गये, ‘निरर्थ शब्द-निवेश’ के खोखलेपन पर सर्वाधिक समर्थ कटाक्ष करने वाला सार्थक स्वांग सिद्ध हुआ।
मैं देख रहा हूँ कि शुभम्श्री की काव्य-चेष्टा पर, जिस तरह कुछ कवियों और हिन्दी आलोचना के काव्य-मर्मज्ञों की गहन दार्शनिक और समाजशास्त्रीय मुद्रा में किये गये विवेचन से भरी टिप्पणियां आई हैं, वे प्रकारान्तर से उस युवा कवि की कविताओं को, हिन्दी के काव्येतिहास के लिये युगांतरकारी सिद्ध करने में आकाश-पाताल एक करती जान पड़ती हैं। वे लोगए उसकी कविता की रक्षा मेंए इस तरह तैनात और सावधान हैं कि यदि प्रलय हो तो सारा साज्यि चाहे डूब जाय, पर इन कविताओं को पवित्र देवशिशु की तरह बचाना है।
दरअस्ल, दुर्भाग्यवश हो यह रहा है कि इस विदूषकीय समय में, ‘कवि या रचनाकार’ उतना डरा हुआ नहीं है, जितना कि कविता का मूल्यांकनकर्ता। क्योंकि, मूल्यांकनकर्ता मूलतः, डर इस बात से रहा है, कि कहीं इस कविता की आलोचना से, उसकी अभी तक की कविता सम्बन्धी समझ ही संदिग्ध न हो जाये, क्योंकि उसकी कविता का चयन, अंततः समकाल के साहित्य के सूर्यमुखी कवि कथाकार और पूर्व जे॰एन॰यू॰ प्रोफेसर ने किया है। उसके द्वारा ‘चयन’ का अर्थ ही, उस कविता की उत्कृष्टतम होने की एक निर्विवाद घोषणा है। अब फिर, हम उस पर क्या प्रकाश डालें केवल अक्षत-कुंकुम के सिवाय।
इसी क्रम में, मुझे कविता के क्षेत्र में की गई एक और प्रीतिकर युक्ति याद आ रही है। वह कला का ‘डाडाइज््म’ का दौर था। 1924 में फ्रेंच कवि लुई अरांगा ने, एक कालजयी कविता के लिख चुकने की घोषणा की और कहा कि वह उनकी युगांतरकारी कविता है। उसने रोमन-लिपि की वर्णमाला के अक्षरों को, काव्यपंक्ति के संयोजन में, जस-का-तस लिख दिया
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हमारे यहाँ, ‘पूर्वग्रह’ पत्रिका में, भोपाल के वरिष्ठ कवि श्री ध्रुव शुक्ल ने भी इसी तरह की ही प्रयोगशील कविता लिखी थी। उन्होंने, कविता के नाम पर, पूरी बारहखड़ी लिख दी थी। वे उसका एक रोचक नाटकीय पाठ भी कई मंचों पर करते रहें हैं। मैंने भारत-भवन में, एक काव्य-मर्मज्ञ से, इस कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा सुनी थी, जिसमें उन्होनें कविता को कालजयी बताते हुए कहा था कि ‘संसार की सारी कविता को समेटने वाली, यह एक कालजयी कविता है- जिसके बीच संसार के सभी ‘आदि’ से ‘अंत’ तक के अनुभव व्यक्त हो रहे हैं।’ यह एक अव्दितीय व अद्भुत कविता है। तब भोपाल स्कूल की स्थिति ऐसी विकट थी कि कविता या कलाकृति के बारे में मुँह खोलते ही हरेक से, ‘अद्भुत’ शब्द निकलता था और यदि इस शब्द की मनाही हो जाती तो वे लगभग गूँगे हो जाने की दुर्दम्य विवशता से घिर जाते। जबकि लुई अरागॉ की कविताएं तत्कालीन काव्यालोचना के खोखलेपन के प्रति कटाक्ष के लिये लिखी गई थी।
बहरहाल, यह हिन्दी की कविता के बाड़े में हक्की और बक्की कर देने वाली दूसरी साहित्यिक घटना है, जब कई ‘कवितज्ञ’ इन की कविताओं के बारे में, असहमति व्यक्त करने से भयभीत हैं। अतः अब ऐसे काव्य पुरुषों के बारे में, क्या कहा जाये? दरअस्ल, देखा जाये तो ये लोग, कविता के बारे में भी स्पष्ट नहीं हैं। यहाँ तक कि वे स्वयं की समझ के बारे में भी स्पष्ट नहीं हैं। मित्रो, यह बहुत लज्जास्पद स्थिति है कि पचपन करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के साहित्य के भाग्य और भविष्य के मानचित्र का निर्धारण, जैसे इस कविता से होने जा रहा है। और यदिद इन कविताओं का आलोचना से क्षति पहुंची साहित्य का इहुत बउ़ा अहित हो जायेगा।
हां, यह जरूर है कि इस सारे प्रपंच से, इन और इे तरह की कविताओं के यशस्वी होने के लिए, निस्संदेह पर्याप्त मात्रा में एक खुला ‘स्पेस’ मिलेगा और कवि इससे लगे हाथ ‘यंग सेलेब’ ही कहलाने लगे। यह भी हो सकता है कि, यह काव्य-प्रवृत्ति, कविता में एक नितान्त नए ‘सर्वोदय’ की महती संभावना के द्वार ही खोल दे। क्योंकि कविता में कुछ भी और किसी भी तरह की कोई भी बात या शब्द को मिला देने की युक्ति, एक सहज सरल जुगाड़ का ही पर्याय है। उत्त्र-आधुनिक आलोचक, इसे ‘पेस्टिश’ कहते हैं। कला में इीप पद दिनों नही हो रहा है कि कैनवास पर ‘अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौन्दर्य ना हो’ तो भी, उसके सामने चुरूट पीता हुआ, कला-समीक्षक कैनवास की तरफ, ऐसी नाटकीय दार्शनिक मुद्रा में देखता हुआ मिलेगा जैसे कि उसकी मुठभेड़, संसार की किसी जटिलतम-कलाभिव्यक्ति से मुठभेड़ हो गई है। फिर, हिन्दी के कवि कुनबे का यह भी तो सच है कि उसमें ‘नये’ के स्वागत के लिए एक विचित्र और असाध्य-सा अंधत्व पाया जा रहा है। ये लोग, नये की तरफ, लपक से इतने भरे हुए हैं कि वे अपना सब कुछ ‘पुराना’ फेंकने के लिए बेचैन हैं। अब ‘नये पैक में’ की विज्ञापन पंक्ति ही ðष्य में, भम्भड़ के भम्भड़ को खींच लेती है। और माल के क्रेताओं में धक्का-मुक्की होने लगती है। और, सही भी है, क्योंकि यह बता दिया गया है कि तुम ‘इतिहास बोध’ नहीं बल्कि ‘इतिहास के बोझ’ से लदे हो। निराला को ‘निबटाओ’, ‘फकीरी’ की गुहार लगाने वाले कवि को, इस हैप्पी-इकॉनोमिक्स वाले, उपभोक्ता युग में निकाल के बाहर फेंको।
मुझे लगता है, इस कथित कविता के प्रतिभाशास्त्र ने कदाचित् इसी तरह के आह्वान को सुन कर ही निराला की ‘वीणा-वादिनी’ कविता के बरअक्स, अपनी ‘वीणा‘वादिनी’ के रचने के लिये गहरी चुनौती अनुभव की और एक कालजयी कविता का सृजन किया होगा। उस बहुप्रशंसित कविता ने, वीणा-वादिनी के पावि़त्र्य पर, जिस कला-कौशल्य से पोता फेरा, वह ‘अमेजिंग’ और ‘अनमैच्ड’ भी रहा। तभी तो उसने, भूरि-भूरि प्रशंसा हासिल की है। हमें उसको पढने के बाद लगता है कि उक्त कवित के पास, सहसा काव्य-दृष्टि का कोई ऐसा मैग्निीफाइंग-ग्लास हाथ लग गया है कि पहली बार किसी कविता में वीणा-वादिनी की रोमयुक्त योनि का प्रत्यक्ष-दर्शन हुआ। मुझे तो महाकवि निराला, हो सकता है, ‘महाकवि’ का विशेषण ही सुपाच्य ना हो और इससे खट्टी डकारें उठने लगें--- से निवेदन करने का मन होता है कि उनसे कहूं कि उन्हें कम-ज-कम, इस तरह की ‘युगान्तकारी’ प्रतिभा का तो आभार प्रकट करना ही चाहिये कि उसने केवल आपकी ‘वीणावादिनी’ पर ही कविता लिखी, आप पर नहीं। उसमें ‘नवोन्मेष’है। आपकी ‘वीणावादिनी’ पर, कोई उन्होंने लम्पट दृष्टि नहीं डाली है। लम्पट तो वे होगें, जो इस ‘दृष्टि’ को प्रश्नांकित करेंगे। वह तो युवा कवि का एक बिन्दास ‘एक्सप्रेशन है। कुण्ठित और शुचितावादी लोग इसमें अभद्रता देखते हैं।
बहरहाल, एक ‘कथित’ नवोन्मेष मैंने भी देखा ,जब मुक्तिबोध को, इस नई काव्य-वृत्ति के, एक युवा कार्ड होल्डर कवि ने, ‘मुक्तिचोद’ के ध्वनि-साम्य से जोड़ने के बाद, बाकायदा दांत निपोरते हुए, अपने उस काव्य-चातुर्य पर, मेरी तरफ कॉम्प्लीमण्ट की उम्मीद से देखा भी।, जैसे ‘भैंचो’ को आमिर खान ने ‘रैंचो’ में बदला और ‘भोसडी’ जैसे अपशब्द का, ‘बोस.डी. के. में रूपांतरित किया गया। अपनी समझ से उसने ‘मुक्तिबोध’ के नाम में, ये भाषिक-नवोन्मेष किया। दुर्भाग्यवश, ऐसी प्रतिभाएं, इतने विलम्ब के पश्चात् जाकर कहीं अपने को ‘युगान्तरकारी’ कहलाने की मांग की स्थिति में आ पायीं हैं।
अतः, अब ये स्वीकार लीजिए कि यह कोई भारत-रुदन का समय नहीं है। मजे और मौज का है। ‘फन’ और ‘फक’ का दौर है। मनोरंजन, अब सभी अनुशासनों का अंतिम अभीष्ट है। उसने सब को अपने अधीन कर लिया है। इसी के चलते, हमारे समय और समाज के जटिल यथार्थ को, कच्चे माल की तरह उपयोग करते हुए, मसखरी का एक विराट कारोबार चल रहा है। हम अब शवयात्रा में भी, जब तक चिता, धूधू करके जलती है, वाट्स-एप्प के लतीफों से मनोरंजन का घूंट भरते रहते हैं। कह भी सकते हैं कि ‘मृत्यु-बोध के विरुद्ध, एक कारगर अस्त्र की तरह है, हँसी। रहो, हरदम हँसी के साथ। मनोरंजन चहु-दिस चाहिए। हँसो, हँसो और खूब हँसो। सब जगह हंसो आमतौर पर, और शवयात्रा में हंसो खासतौर पर।
मिसाल के तौर पर, जब लोकसभा के ग्यारह सांसद, कदाचार और भ्रष्टाचार के कारण संसद से निकाले जाते हैं, तो अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बनने वाली हेडलाईन से पाठकों के मन में कतई कोई सामाजिक-क्रोध नहीं पैदा होता, बल्कि उसके उलट उसे आनन्द आता है। हेडलाईन होती है- इलेवन आऊट। यह खेल और मनोरंजन का मिक्स है। जिसमें मीडिया का महा-मिक्सर, खेल राजनीति, सेक्स, अर्थशास्त्र और पोर्न, इन सबको मनोरंजन के मीठे घोल में मथ देता है। ‘विचार’ को मनोरंजनग्राही नहीं, ‘मनोरंजनग्रस्त’ बनाया जा चुका है, फिर अपनी कविता में हिन्दी का युवा-कवि इसको मिक्स क्यों ना करे? फिर, मसखरी के उद्योग में लगे, माहिर लोग, यश और धन बटोरते हुए ‘बावनगजा’ की ऊँचाई ग्रहण कर चुके हैं। न कहो, एक दिन, हरिशंकर परसाई और शरद जोशी से अधिक साहित्यिक ऊँचाइयों के दावेदार, राजू श्रीवास्तव और कपिल शर्मा हो जायें, क्योंकि ‘परसाई और शरद जोशी’ ‘सेक्स का ‘मैजिकल मिक्स’ माल तैयार करने से परहेज किया करते थे। अब ये अवश्यम्भावी है चूंकि, युवा पीढ़ी में, पोर्न-क्लिप्स का सांस्कृतिक आदान-प्रदान, एक दैनंदिन का चरण-बद्ध कार्यक्रम है। इसलिये, कविता में भी इसका ‘मैजिकल-मिक्स’ कविता और उसके युवा उपभोक्ता की प्राथमिक डिमाण्ड है। ये भारत में सेक्स के आगे सदियों से लटकते सांस्कृतिक संकोच के नैपथ्य को, चिन्दी-चिन्दी कर डालने वाले, उस कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम की देन है, जिसके चलते पिछले दशक में, भारतीय समाज में ऐसी टेलिजिनिक मांएं अवतरित हुईं, जो अपनी लाड़लियों के पर्स में, मुस्कान के साथ कण्डोम का पैकेट रखकर खुश हो उठती थीं। वे उन्हें सेक्स-स्टार्विंग दुरावस्था से बाहर लाने में लगीं थीं। इसलिये, अब कविता में सेक्स खुल तो रहा ही है, खिल और खेल भी रहा है।
बहरहाल, पुरस्कृत काव्य-शैली वाली कविता, सच को भी सेक्स और सनसनी में सांधती है और उसे दाँत निपोरकर कहने में ही अपनी सार्थकता खोजती है। दाँत पीसकर कहने से ‘आनंदवाद’ का क्षय होता है। फिर, धीरे-धीरे इस पीढ़ी में, ‘थ्री ईडियट’ और ‘देल्ही-बेल्ही’ के बाद तो अपशब्दों में आत्म निर्भर होने की होड़-सी लगी है। और गालियां भर्त्सना का काम करने के बजाय, वे योनि और शिश्न केन्द्रित होने से, आनंद के आयामों को अधिकाधिक विस्तृत करती हैं। अब अपशब्द, फिल्म में ‘यथार्थ’ की, एक अनिवार्य कलात्मक मांग है। मजेदार तथ्य यह है कि एक भी गाली का उपयोग किये बगैर, सत्यजीत रे, विश्व में फिल्म की दुनिया के महान् ‘यथार्थवादी’ फिल्मकार मान लिये गये और गब्बरसींग, बिना एक भी अपशब्द का उपयोग किये, अभी भी वह सबसे बड़ा फिल्मी खलनायक है। यहा। यह भी याद रखिये कि दैनंदिन पोर्न का दृष्यपाठ भी, पीढी को बिन्दास बनाने में इमदाद करता है। बहरहाल, इस सब को सुन कर सिर मत पीटिये, बल्कि ताली पीटिये, क्योंकि यह ताली पीटने का ही युग है। यह मुट्ठी बांध कर, गुस्से में आवाज उठाने का नहीं है, मुट्ठी मार कर ‘विसर्जन’ का सुख बटोरने का है। ‘हस्तमैथुन’ हिन्दी में, अकविता के दौर में, शब्द की तरह आ चुका है। बहुत सम्भव है कि नेट-पोएटी के युग में, अंग्रेजी की चालू कविताओं के सहारे, जिस तरह से ‘सैनेटी नैपकिन’ और ‘ब्रेस्ट-कैंसर’ वाली, हिन्दी में कविता आ गई, वैसे ही ‘हस्तमैथुन पर लिखी गई, अंग्रेजी की ढेरों कविताएं, हिन्दी में एक चमत्कार की तरह किसी नई कविता को जन्म दे दे। जिस तरह वहां का, नेट पर बिखरा रंगीन कूड़ा --कलर्ड गारबेज-- यहां कलाकार पैदा कर रहा है, ठीक वैसे ही, महानगरीय विश्व-वि़द्यालयों में नेट का टैश, कवि पैदा कर रहा है। वह ‘सामाजिक-क्रोध’ को, ‘सामूहिक-हास्य और मसखरी’ के सहारे विसर्जित करने में बहुत बिन्दास है। इस पूरे पुरस्कार प्रसंग की मजेदार, हकीकत तो यह है कि इस तरह की कविताओं का पहरेदार-आलोचक, अपनी एक भी पंक्ति की भी बखिया उधड जाये तो बौखला उठता है। तुरंत ही उसकी आलोचना, शब्द के ‘जेंडर’ को सार्थक करते हुए, स्त्रैण अदा में मुँह फुला लेती है। मसखरी को कविता में देख कर मुग्ध होने वाली आलोचना, अपने विरोध पर, क्रोधाग्नि में भपकने लगती है।
कुल मिलाकर, वस्तुस्थिति यह है कि, एक रुग्ण समय में, ‘समझ’ और ‘सोच’ भी, रुग्णता के अधीन रहते हुए, इतनी दुर्बल हो गई है कि उसकी घिग्घी बंध जाती है कि वह इन नई स्थापनाओं के समक्ष कैसे मुँह खोले? अगर, संयोग से आपको इस कविता पर बात करते हुए, दस आलोचक दिखाई देते हैं, तो वे आलोचना में ‘बहुल के जनतंत्र’ का कोई भास नहीं कराते। वे कोरस के कलाकार हैं। एक मुख्य-स्वर है, उसी में वे अपने अनुगमन का दिग्दर्शन करते हैं। वे दस अलग अलग सिर जरूर हैं लेकिन वे सब एक जैसा ही सोचते समझते और अपनी सहमतियाँ व्यक्त करते हैं। सिरों की संख्या दस होने से जनतंत्र की निर्मिति होती तो रावण, रामायण युग से जनतंत्र का विराट रूपक नहीं कहला रहा होता।
इसी वजह से, मैं इस कविता के चयन को लेकर, यह अनुमान गढ़ रहा हूँ और कामना भी करता हूँ कि यह शायद कभी गलत ही सिद्ध हो जाये। बहरहाल, अनुमान यह है कि उदय मेरा प्रिय मित्र और कवि कथाकार है, और उसमें विनोद का एक अतुल कौशल्य है। वह ‘विनोद’ का या ‘विरोध’ का सृजन करके, वह तुरंत स्वय हीं, उससे दूरी बना लेता और सारे दृश्य का दूर बैठ कर आनंद लेता है। मसलन, पुरस्कार लौटाया और दशहरा मनाने अपने गाँव चला गया और बाकी लोग थे कि जन्तर-मन्तर पर इकट्ठे हो कर, तह-ओ-बाल मचाते रहे। क्योंकि, कविता की चयन दृष्टि पर मचते बवाल के बाद, इस टिप्पणी के लिखे जाने तक भी उदय की कोई टिप्पणी मुझे कहीं छपी दिखाई नहीं दी, अब तक तो। बल्कि, कहना चाहिए कि उसका मौन ही सर्वथा पूर्ण टिप्पणी बन रहा है। बहुत संभव है, वह रक्षा-बंधन मनाने गाँव चला गया हो। हिन्दी कविता के अस्त-समय में उदय का यह बहुत अद्भुत (!) विनोद है, जिसके शुक्ल पक्ष का मुझे इंतजार है। उदय की इस निर्णय-दृष्टि को, मैं फ्रांस के उन चित्रकारों के व्यंग्य-विनोद से कम कतई नहीं मानता, जिन्होंने कला-मर्मज्ञों के मुखौटे उतार कर, उनके खोखलेपन का दिग्दर्शन करा दिया था। यह हिन्दी की काव्य-विवेचना के आपादमस्तक निर्वसन होने की घड़ी है। क्योंकि ये कवितायें उनके बोलते ही उनकी समझ के अंग-वस्त्रों को उतार देंगी।
दोस्तो, अगर इस तरह की कविता की कोई दार्शनिक मुद्रा में एक खोखला शब्द-निवेश करते हुए, रक्षा करने के जोश से आगे आता है तो वह अकूत मूढ़ता का मालिक है। यह विकृति या ‘फूहड़ता’ के पदार्पण के शुभ घड़ी है। आप तालियाँ बजाइये या गाल बजाइये। परंतु, यह नई काव्य-चेष्टा, पुरातन कविता की, आज के ‘युवा की भाषा के मीडियाई मुहावरे’ में कहूँ तो ‘बजाकर’ धर देगी। अब धूमिल की तरह, उसे व्याकरण की नाक पर रुमाल रख कर, ‘निष्ठा’ की तुक ‘विष्ठा’ से मिलाने में हिचकिचाहट कतई नहीं है। वह उस किस्म के मूढ-सांस्कृतिक संकोच से परे और काफी उंची उठ चुकी है।
बहरहाल, हमें इतनी जल्दी आशा नहीं छोड़नी चाहिए कि हो सकता है कि शीघ्र ही अगला कोई प्रतिभाग्रस्त कवि, अपने साहित्यिक-पुरुषार्थ के साथ, क्षितिज पर धूमकेतू की तरह प्रकट हो और गहरी सम्वेदना और ममत्व से भरी, सैनेट्री नैपकिन्स पर लिखी गई नेट-छाप कविता से, कुछ आगे कूच करते हुए, ‘विष्ठा’ पर ही कोई कालजयी कविता लेकर आ जाये और तब उसके पक्ष में हमारे समय और समाज की नब्ज पर हमेशा हाथ रख कर बैठे रहने वाले आलोचक-वृन्द प्रस्ताव करें--‘जब तक, विष्ठा एक सुंदर स्त्री की देह के भीतर थी, वह ‘स्त्री देह’ का ही सम्मान और सौन्दर्य प्राप्त किए हुए थी। लेकिन सहसा ऐसा क्यों है कि देह से बाहर आते ही, उसे इतनी घृण्य और जुगुप्सापूर्ण बताया जाने लगे? जबकि, वह भविष्य में अपना कायान्ंतरण करके, पौधे के प्राण तत्व को जैविक-शक्ति के रूप में, सुदृढ़ बनाने के अचूक गुणसूत्र रखती है। वह पृथ्वी पर हरियाली के रचने के स्वप्न के साथ देह से बहिष्कृत हुई है। और कहना न होगा कि केवल वह किसान-दृष्टि ही है, जो उसमें अन्तर्निहित शक्ति को चीन्ह पायी है। और उसे वह फसल के हित में सहेजती है।’ हो सकता है, हिन्दी के वे काव्य-पारखी, जो सैनेटरी नैपकिन की उपेक्षा से, उस ‘त्याज्य’के प्रति वत्सल-भाव से भर कर उस कविता पर मुग्ध रहे हैं, वे ही कुछ काव्य-नागरिक, मुझ पर थू-थू करें, या काशीनाथ के एक पात्र की तरह थूंकने ही लग जायें मुझ पर कि प्रभु जोशी कितनी विकृत और जुगुप्सा भरी बात कर रहा है- लेकिन, मित्रो, जब पश्चिम की कला के उच्छिष्ट पर ही हमारी कविता की सौन्दर्य-बुद्धि जीवित है तो यह बता दूँ कि कला की ‘इन्स्टालेशन विधा’ में जब कई-एक कलाकारों ने सेनेटरी नेपकिन्स को चित्र प्रदर्शनी में स्थापित किया और उसे कृति का सम्मान दिलाया तो कुछ कलाकारों ने उत्साह के साथ, अन्य ‘त्याज्य’ की तरफ भी अपना ध्यान केन्द्रित किया।
बहरहाल, एक इतालवी चित्रकार पिएरो मानजोनी ने अपनी ‘विष्ठा’ को ही टीन के कैन में भर कर अपनी एक चित्रप्रदर्शनी में, उसे ‘इन्स्टालेशन’ की विधा के अन्तर्गत प्रदर्शित किया और उसकी भी, चित्रकृतियों की तरह, उसने करोड़ों में कीमत लगाई। और कलावन्तों ने, उस ‘विष्ठा कृति’ की अत्यंत सराहना की। आखिरकार, उस चि़त्रकार ने, विष्ठा को कमोड से उठाकर कला-दीर्घा में, कला-रसिकों के बीच स्वीकार्य बनाने के लिये, कोई अजेय तर्क गढा तो होगा ही न। फिर हिन्दी की कविता में विष्ठा की चर्चा और उसके प्रवेश को वर्जित कैसे करेंगे...श्रीमान आप.....?
हिन्दी कविता को, इस पुरस्कार प्रसंग को, एक नये प्रस्थान बिन्दु की तरह स्वीकारने में नाक-भौंह नहीं सिकोड़ने की, अबौध्दिक किस्म की संकीर्णता कतई प्रकट नहीं करनी चाहिए। कविता भी तो मनुष्य देह की तरह है। उसमें सुंदर और विकृत, दोनों ही तो साहचर्य में रहते हैं। ‘विकृत’ का भी काव्योचित स्वीकार और सम्मान सीखिये। एडर्नो की तो एक पूरी पुस्तक ही है, ‘ इन प्रेज आफ अगलीनेस’। दरअसल, हिन्दी की युवा-कविता, शमशेर, नागार्जुन, और मुक्तिबोध की लद्धड़ भाषा को मरी हुई खाल की तरह फेंक कर एक नई ‘फ्रेश-लिंगुइस्ट आउटफिट्स’ में, समाज के समक्ष आ रही है। यदि आप स्वागत न करें तो भी उसका क्या बिगाड़ लेंगे? बोलिए, श्रीमान? दरअस्ल, अब कविता, आपके द्वारा लाद दिये गये, पुराने कपड़े बदल रही है, और अबकी बार वह आलोचकों की तरफ मुँह करके बदल रही है--कर लो क्या करते हो? वह परम्परागत ‘गोपन’ के गुंजलक से धडडाती, हुई वेग और आवेग से बाहर आकर, खुल रही है, खिल रही है- और खेल रही है। अब, वह तुम्हारी घिस चुकी, वेदना-संवेदना की परवाह नहीं करती है। वह क्रीडा पर उतर आई है। वह अपने ही तरह के गूगल की खोज से आविष्कृत मनोरंजन के खेल में मग्न है। आप, बीच में घुसकर, एक अभद्र और एक अवांछित रेफरी बनकर, उसकी व्यक्तिगत-स्वतंत्रता में व्यवधान बिलकुल मत डालिए। उसे उसके रोचक खेल को जारी रखने दीजिये। प्लीज, आप उसके खेल के लिए मैदान खाली करिए। क्योंकि आपका स्वामित्व समाप्त हो रहा है। लीज खत्म हो गई है.......
दोस्तो, यह कविता एक नई चतुराई से लैस है। जिसमें ‘बालमन’ के से भोलेपन का, धोखादेह उपयोग करके अश्लीलता को तत्सम शब्दों की पर्तों में, ऐसी युक्ति से लपेटती हैं, जैसे अरबी के पत्तों पर रसोईघर में बेसन लपेटा जाता है। यह मनोरंजनग्रस्त कविता का नया सुस्वादु व्यंजन है, जिसमें दृष्यभाषा वाली ‘यौनिकता’ के आस्वाद के लिए, चटनीफाइंग हिंग्लिश से मसाले की तरह ऐसी प्रविधि से भरा जा रहा है कि वह आपत्तियों को छीनने में कामयाब हो जाती है। उसमें ‘पवित्र में द्रोह’ का भी एक हिट फार्मूला है, जिसमें, एक लम्बे समय से चली आ रही आस्था को, प्रश्नांकित करते हुए, प्रवंचना में बदल कर, उसको भदेस में धकेलो फिर, सेक्स से मिक्स करो और अन्त में, मसखरी करो। ‘वीणावादिनी’ कविता कविता नहीं, एक ऐसा ही उत्पाद ही तो है। ऐसे बहुतेरे प्रतिभाग्रस्त युवा कथा-कहानी में भी बरामद होते जा रहे हैं।
चलिये, अब हम लोग समापन की ओर पहुँचे। मेरे अनुमान से स्वर्गीय भारत भूषण अग्रवाल की कविता परंपरा का यह बहुत विचित्र और विस्मयकारी पिण्डदान है। वे पवित्र-प्रेत की तरह, उपस्थित हो कर पूछने तो नहीं आयेंगे कि मेरी काव्य परंपरा क्या बना? और क्या यह पुरस्कार मेरी कविता परंपरा के संवर्धन और संरक्षण के संकल्प से स्थापित किया गया था? लेकिन, यह सच है कि शुभम श्री की कविताएं, भारतभूषण जी की आत्मा के लिए तो ‘मोक्षदा’ सिद्ध होंगी। ये, उनकी अन्त्येष्टि का सही कर्मकाण्ड है। शुभम् ही समूची कविता का कल्याण करेगी। अगले ‘भारतभूषण पुरस्कार’ देने के लिए, अश्लीलता की नई काव्य पैकेजिंग के साथ कोई नया नक्षत्र उभर कर आयेगा। प्रतीक्षा कीजिये... मैं तो उदयप्रकाश को, एक विजेता की तरह ही देखता हूँ, उसे किसी ने हिन्दी कविता की रेल के डब्बे से धक्का दे दिया था। उस धक्के के क्षोभ ने, उसे एक अवसर दिया कि वह जिस काव्य परम्परा की रेल में बैठ कर यात्रा करना चाहता था, उसके पहियों के नीचे उसने विस्फोट कर दिया। जय शुभम्। तुम हिन्दी के अंधेरे से भरे आकाश में, अटल नक्षत्र की तरह चमको। बहरहाल, मेरे लेख की यहीं होती है, इतिश्री।
प्रभु जोशी,
303, गुलमोहर-निकेतन, वसन्त-विहार,
इन्दौर, म. प्र. 452.010
मोबाइल-942534636 दूरभाष- 0731-2551716
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-09-2016) को "शुभम् करोति कल्याणम्" (चर्चा अंक-2453) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इसमें विष्ठा के दर्शन करें ये क्या था???!!!
जवाब देंहटाएंगगन गिल
बच्चे, तुम अपने घर जाओ
घर कहीं नहीं है?
तो वापस कोख़ में जाओ
मां की कोख नहीं है?
पिता के वीर्य में जाओ
पिता कहीं नहीं है?
तो मां के गर्भ में जाओ
गर्भ का अण्डा बंजर?
तो मुन्ना झर जाओ तुम
उसकी माहवारी में
जाती है जैसे उसकी
इच्छा संडास के नीचे
वैसे तुम भी जाओ
लड़की को मुक्त करो अब
बच्चे, तुम अपने घर जाओ
आप जिस विषय पर तार्किकता और विवेक की रोशनाई से लिख देते हैं वह लगभग उस मुद्.दे का उन्वान नहीं, उपसंहार होता है। जिस तरह का कोलाहल समर्थन सरपरस्ती एडवोकेसी निंदन अभिनिंदन का माहौल इस प्रसंग को लेकर रहा है, उससे हिंदी का दुख दारिद्रय, विषाद, मात्सर्य सब कुछ थिगड़े थिगड़े होकर झांकने लगा। हिंदी के मम्मट कविता के वैयाकरण आपस में बहुदलीय होकर भिडे पर अंतत: क्या हुआ। नुकसान कविता का हुआ। उस पूरी गंभीरता का हुआ जिसके लिए कविता जानी जाती है।
जवाब देंहटाएंइससे यह बात उभर कर सामने आई लाख अच्छी लिखी जा रही कविता में सब कुछ श्ाुभ नहीं है। जैसे केवल श्ाुभलाभ का बोर्ड टांग लेने से सब कुछ निरापद हो, यह आवश्यक नहीं है। एक अकेली कविता हालांकि कर ही क्या सकती है किन्तु असमय ढिलवाही कर टिकोरे तोड़ लेने का जो चलन कभी गांवों में देखा जाता रहा हे, सह सभ्य समाज में भी इतने भीतर तक पैठ गया है , यह पता न था। इस प्रकरण के बाद यह बात समझ में अाई कि अच्छी कविता को लेकर भी ईश्याएं होती हैं कि हाय मेरा इतने का इनाम लुट गया, लेकिन बेआवाज स्वीकृति कोलाहल भरे विलाप को अंतत: यह समझने पर बाध्य कर देती है कि जो हुआ उसे स्वीकार करो।
इस कविता को लेकर स्वीकार्यता में अभी तक बाधाएं हैं। जब पक्ष प्रतिपक्ष के सारे मुखौटै अपना बयान दे चुके हैं यह कविता अभी तक अंत:करण के किस अतल अवचेतन में जाकर जगह बना सकेगी इसमें संदेह है।
आप की इस विवेकी टिप्पणी ने कविता को लेकर जरा सी भी अगंभीरता से पेश आने वाली शक्तियों के साहस को स्खलित कर दिया है। यह इस कविता पर एक बड़ा दाग है जिसे छुड़ा पाना मुश्िकल है।
बहुत बहुत और बहुत ही सारगर्भित विश्लेषण . बस और क्या कहें . कविता पढ़ी और कहने के लिये शब्द ही कहीं खोगए . बस एक ही सवाल उठा कि क्या अब हिन्दी कविता का प्रतिनिधित्त्व ऐसी रचनाएं करेंगी ?या कराई जाएंगी ?
जवाब देंहटाएंहिन्दी के आज के आलोचकों की गति-मति को देखते हुए मुझे यह सर्वाधिक त्याज्य विधा लगती है, मानो चाटुकार, स्वार्थी और लोभी लोगों की स्वार्थसाधना के निमित्त ही हो। किन्तु कुछ विरले लोगों की उपस्थिति आश्वस्त करती है कि विधा अभी त्याज्य नहीं है। ऐसे लेख उन घटिया लोगों को गाली देने की शक्ति के लिए च्यवनप्राश का कार्य भी करते हैं। इस बलदायी अवलेह के लिए प्रभु दा' को धन्यवाद।
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