शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

पाथेय:संघर्षरत साथियों के लिए

कविता जड़िया की यह रचना आप सबके लिए नये साल की हार्दिक शुभकामनाओं सहित-ब्लॉगर



साथी,
मैं जानती हूँ
तुममें कुव्वत है
तुम्हारा हुनर
मुक्तिबोध के मेहतर की तलाश की परिणति

सपने देखते हुए तुम
नहीं भूलते ज़मीं पर
बुलंदी से पाँव जमाना
दुआएँ माँगने के लिए
उठाते हुए फौलादी हाथ
उपेक्षित नहीं करते राह पड़े पत्थरों को
जानते हो उन्हें लाँघकर
बच निकलना
समकालीनों की तरह
जीवन की मूल आवश्यकताओं के त्रिकोण में
या सफलता के चालू उद्यमों में
नहीं बँधना चाहती तुम्हारी काया

मुझे मालूम है
शून्य से शुरू होकर
बनोगे तुम विशाल वृत्त
समेटोगे अपनी परिधि में दुनिया को
तुम्हारी आत्मा में समायी
महापुरुषों की सीखें
नहीं होने देंगी तुम्हें स्वपोषी या परजीवी
क़ीमतें तुम्हें नाप नहीं पाएँगी
सत्ताएँ तुम्हें क़ैद नहीं रख पाएँगी.

फिर भी मुझे डर है
तुम्हारे बदल जाने का नहीं
ज़माने के विमुख हो जाने का
कि रोक नहीं सकते तुम
स्वार्थी परिवर्तनों को

मिट्टी के क्षरण और अपरदन
पर्वतों के टूटकर चट्टान बनने
चट्टानों के बिखरकर कंकण होने को
रोक नहीं सका है संसार का महानतम शिल्पी भी

झुठलायी नहीं जा सकती
बहती धारा की शक्ति
छोटे पौधें हों या तने ठूँठ
हारना ही पड़ा है उन्हें
विपरीत धारा के प्रवाह से

इससे पहले कि चमकीले चाँद का खुरदुरापन
तुम्हें उदास कर दे
इससे पहले कि थककर तुम भी मानो
बचे रहने को ही इंसान का पहला तर्क
बाँधना चाहती हूँ मैं
तुम्हारी विजय यात्रा का पाथेय

साथी,
तुम भूलना मत
कूबड़ निकालकर कुरूप हुआ भोला ऊँट भी
जानता है भली-भाँति यह सच
कि ज़रूरी है-सँजो लेना
अपने भीतर जल रेतीले सफ़र में
मृगमरीचिका से बचने के लिए

मैं यही चाहूँगी
तुम थको,न रुको,न झुको,न टूटो कभी.

-कविता जड़िया

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कहानी का अपहरण संभव नहीं



हाईजैक की गई युवा कहानी इस शीर्षक से पाखी के पिछले अंक में एक बातचीत है.इस बातचीत में काशीनाथ सिंह,रोहिणी अग्रवाल,बलराज पांडेय,गोपेश्वर सिंह,राकेश बिहारी,प्रेम भारद्वाज और आशीष त्रिपाठी शामिल वार्ताकार हैं.नामवर सिंह की मौजूदगी में हुई इस पूरी बातचीत में न केवल उनकी राय अनुपस्थित है बल्कि कहानी की विवेचना की वह पद्धति भी ग़ायब है जिसे कहानी:नयी कहानी में उन्होंने विकसित करने का प्रयास किया था.

इस शिकायत के बारे में भी कहा जा सकता कि यहाँ नयी कहानी पर नहीं युवा कहानी पर बात हो रही है.हालांकि पूरी बातचीत में नयी कहानी की उपेक्षा नहीं की गई है.उसी को आधार मानकर निष्कर्ष निकाले गए हैं.यह युवा कहानी कैसी है इसके बारे में पूरी बातचीत का निष्कर्ष यह है कि इसे कुछ कहानीकारों ने हाईजैक कर लिया है.इसे सच मान लें तो एक नये क़िस्म की आधुनिक समस्या से परिचय होता है कि कहानी भी हाईजैक की जा सकती है.वह भी तब जब कहानीकार और संपादक के रूप में राजेन्द्र यादव,ज्ञानरंजन,संजीव,अखिलेश,स्वयं प्रकाश,प्रियंवद जैसे मील के पत्थर कहानी के विकास में अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह बखूबी कर रहे हैं.यदि इस संकट को सच मान लिया जाए तो फिर कहानी को बचाने की अपील भी वैसी ही होगी जैसा विमान अपहरण के बाद यात्रियों को बचाने संबंधी अटल बिहारी वाजपेयी के सामने लगायी गई गुहार थी.

दुर्भाग्य से पूरी बातचीत उन्हीं पर केन्द्रित है जिन्हें युवा कहानी का हाईजैकर कथाकार कहा गया है.रोहिणी अग्रवाल ने कुछ कहानियों के हवाले से सन्दर्भ सहित नतीजे निकालने का प्रयास भी किया तो पूरी बातचीत में उसे बढ़ाने की कोशिश नहीं की गई.बल्कि इस तरह के चालू,महत्वाकांक्षी खयालों को प्रश्रय दिया गया कि हाईजैकर कथाकारों का इस्तेमाल इन्सट्रूमेंट की तरह कथा परिदृस्य से उदय प्रकाश,अखिलेश जैसे महत्वपूर्ण कथाकारों को हटाने के लिए किया गया और इन हाईजैकर कथाकारों ने अपना इस्तेमाल होने दिया.एक भिन्न विधा के हवाले से इस दूर की कौड़ी लगनेवाली वाचालता को समझने की कोशिश करें तो बकौल उदय प्रकाश प्रगतिशील वसुधा द्वारा ज़ारी पिछले तीस वर्षों की कवियों की सूची में उनका नाम नहीं है.तो सवाल है उन्हें मुख्यधारा से हटाने की कोशिश कहा हो रही है?ये हाईजैकर कथाकार तो संयोग से उदय प्रकाश को अपना आदर्श ही मानते हैं.

मैं मानता हूँ कि युवा कहानी जिसे मैं कथाकार के अतिरिक्त विद्यार्थी की तरह भी देखता हूँ के अच्छे कहानीकारों की सूची लंबी है.उन कहानीकारों और कहानियों से किसी भी तरह इन तथाकथित हाईजैकर कथाकारों को भी नहीं अलग किया जा सकता.लेकिन जिसे काशीनाथ सिंह कहानीकारों का ग्लोबल होता देशज समूह कहते हैं उनकी चर्चा किसी बड़े मंच पर,धारावाहिकता में कहानी का न कोई हरकारा करता है,न सुरक्षाकर्मी करता है और न ही कहानी का कोई सुरक्षा अधिकारी.सिर्फ़ संन्दर्भ बन चुके ऐसे कहानीकार केवल तब याद आते हैं जब कथित हाईजैकर कथाकारों को कोई संदेश देना हो.सच तो यह है कि कहानी का रक्षा मंत्रालय ही निर्दोष नहीं रहा.यदि इस पर यक़ीन कर लें कि युवा कहानी हाईजैक हो गई है तो इसमें उसकी भूमिका पर भी सवाल उठेंगे ही.

पूरे प्रसंग में मैं एक उदाहरण से बात रखना चाहता हूँ.पिछले दिनों वसुधा के संपादक और आलोचक कमला प्रसाद ने एक बात कही थी(शायद जनसत्ता में) जिसका आशय था कि रवींद्र कालिया के द्वारा एक ग़ैर प्रतिबद्ध,लगभग व्यावसायिक कथाकार पीढ़ी तैयार हुई है,जिसने सरोकारों की बजाय सफलता को मुख्य मान लिया है.उनके इस कथन के आलोक में मुझे वसुधा का समकालीन कहानी विशेषांक याद आया जिसे जयनंदन संपादित कर रहे थे.जब वह अंक छपकर आया तो उसमें वही सब कथाकार थे जो रवींद्र कालिया के संपादन में अमूमन होते हैं.चाहे वह वागर्थ हो या नया ज्ञानोदय.

कई बार विश्लेषण की शक्ल में महज समर्थक टिप्पणी भी बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है.मसलन काशीनाथ सिंह के समर्थन में जिस साईकिल कहानी को यहाँ लगभग मनुष्य विरोधी ही मान लिया गया है उसी कहानी के बारे में यह भी जाँचने का अवकाश नहीं दिखता कि स्वयं काशीनाथ सिंह उस कहानी के बारे में क्या लिख चुके हैं.ये आलोचक कहानी आलोचना में भी सक्रिय नहीं हैं.तब इनकी स्थापना की वैधता क्या सिर्फ़ समर्थन की ही है?एक तरफ़ देवेंन्द्र की कहानी क्षमा करो हे वत्स को महत्वपूर्ण बताया जा रहा है.दूसरी तरफ़ चंदन पाण्डेय को हाईजैकर कहा जा रहा है इसी बीच मुझे याद आ रही है काशीनाथ सिंह की रेखाचित्र में धोखे की भूमिका कहानी की देवेन्द्र की कहानी क्षमा करो हे वत्स से ही तुलना.

मैं काशीनाथ सिंह पर बहुत भरोसा करता हूँ.वे मेरे प्रिय लेखक हैं.कोई अनुवाद निर्भर या पलटवार विवेचना उन्हें हिंदी में अवमूल्यित नहीं कर सकती.मैं जानता हूँ कि वे आधारहीन,ध्यानखींचू जुमलों पर यक़ीन भी नहीं करते.फिर भी चाहे इसे भी अनादर ही क्यों न समझ लिया जाए पर मैं कहना चाहता हूँ कि जैसे पूरी बातचीत में उनकी खीझ ही मुख्य है.उनके जैसे साहित्यकार का यह आरोप भी चंदन या कुणाल को ज़रूरत से ज्यादा बड़ा आँकना है.युवा कहानी में आज सबकी अपनी अपनी पसंद है और इस मिली जुली पसंद के चंदन और कुणाल भी कथाकार हैं.दोनों ने अच्छी कहानियाँ लिखी हैं.अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है.मैंने पढ़ने से पहले सोचा तक नहीं था कि पूरी बातचीत इन्हीं दोनों पर सिर्फ़ खारिज करने के लिए सिमट जाएगी.उस सोद्देश्य अपेक्षा पर भी हँसी आई जिसमें नामवर सिंह जी से आग्रह है कि वे चंदन पाण्डेय पर कुछ अवश्य कहें.

इस पूरी बातचीत में गीत चतुर्वेदी का कहीं नाम नहीं है.कैलास वनवासी,अरुण कुमार असफल का ज़िक्र नहीं है.रणेन्द्र,गौरीनाथ,भालचंन्द्र जोशी,मनीषा कुलश्रेष्ठ,राकेश मिश्र,दिनेश कर्नाटक,विपिन कुमार शर्मा का कोई स्मरण नहीं है.क्या ऐसा किसी उपेक्षा की भावना के तहत है?क्या वजह है कि विचारधारा की अपेक्षा के साथ कहानी पर बात शुरू होती है और सबसे ज्यादा उन्हीं पर केन्द्रित हो जाती है जिन्हें बाज़ारू कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है.महिला कथाकारों में भी क्या वजह है कि सुधा अरोड़ा, मधु कांकरिया और उर्मिला शिरीष तक बात आने ही नहीं पाती.

इतना ही नहीं मैं पूछना चाहता हूँ कि आपमें से कितने लोगों ने प्रभु जोशी की कहानी पितृ ऋण पढ़ी है.किसने कथाकार कैलास चन्द्र का नाम भी सुना है? जबकि कैलास चन्द्र सारिका की कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत होने से लेकर आज तक निरंतर लिख रहे हैं और हंस,पहल आदि पत्रिकाओं में छपते भी रहे हैं.जब कहानी के हाईजैकरों की चर्चा हो रही हो तब यह बताना और ज़रूरी हो जाता है कि कौन कौन गुमनाम रहकर भी कहानी को बचाए हुए हैं.

मैं तो यह भी जानना ही चाहता हूँ कि कहानी की सारी प्रतिबद्ध मांगों के बीच कब कब हरिशंकर परसाई या राहुल सांकृत्यायन जैसा कहानीकार होने की ज़रूरत बताई गई ?ये कहानीकार थे और माफ़ कीजिए लोग इन्हें आप सबकी मौजूदगी में ही भूलते जा रहे हैं.

इस पूरी बातचीत से मेरी अपेक्षा सिर्फ़ इतनी थी कि सार्थक कहानियों की बात होगी.इसी बहाने अच्छी कहानियों को अपनी डायरी में नोट किया जा सकेगा.पर यह कुछ नहीं मिला.वर्तनी की ग़लतियाँ भी ऐसी की हर वह कहानी जिसका ज़िक्र है या तो शीर्षक ही ग़लत है या अधूरा.मेरी मांग है कि ऐसे खतरों की ओर लोगों का ध्यान न मोड़ा जाए जो अगर हों भी तो नुकसान पहुँचाने ज्यादा समय नहीं टिकते.सबक सिखाने की भावना साहित्य को नुकसान ही पहुँचाती है.

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

नीरा राडिया के बारे में यह दलीलें हो तो इनके जवाब क्या होगें?

नीरा राडिया अपराधी हैं.हम निडर तथा निष्पक्ष होकर नीरा राडिया को अपराधी मानें.उनके सारे कर्मों पर एक ठोस पक्ष बना लें जिसमें लैंगिक निरपेक्षता भी अवश्य हो.यह थोड़ा जल्दी हो क्योंकि नीचे दी गई दलीलें शुरू हो जाने में देर नहीं.यदि किसी को आभासी देर दिख भी रही है तो उनके लिए एक जानी पहचानी चेतावनी कि देर सबेर ऐसी दलीलें आएंगी.वह तबका जो बहस को खेल समझता है और हर तरह के न्याय की मांग को तर्कों में उलझा देता है चुप नहीं बैठेगा.फिर जो लोग नीरा राडिया को बचाना चहेंगे वे क़तई मामूली नहीं हैं.सवाल उनकी साख और प्रतिष्ठा का भी है.

वे दलीले ऐसी हो सकती हैं.पुरुषों ने अब तक इतने कारनामें किए.राजनीति ही दुर्गंध है उनके हाथों.सारे विश्वयुद्ध उन्होंने किए.नरसंहारों और भ्रष्टाचारों का इतिहास उनका है.राजनीति की विकराल गाथा पुरुष वर्चस्व की ही राम कहानी है.एक औरत नीरा राडिया ने यदि वह सब किया जो अब तक पुरुष ही करते आ रहे थे.पुरुषों की ही दुनिया में संभव था वह सब तो उसे सज़ा ज़रूर मिलेगी क्योंकि वह स्त्री है.उसे लेकर यदि न्याय के पुजारी इतने सक्रिय हैं,तीव्र जाँचे,त्वरित छापे हैं तो इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि वह स्त्री है.उसने स्त्री होकर इतना सब किया इसे पुरुष वरचस्ववादी न्यायप्रिय समाज बर्दाश्त ही नहीं कर पा रहा.

यदि मीडिया में भी किसी स्त्री की जगह सिर्फ़ पुरुष की ही संदिग्ध भूमिका होती पूरे मामले में तो भी इतना बवाल नहीं मचता.आखिर यही सुनाई दे रहा है न बरखा..बरखा और बरखा..वीरों को तो जैसे भूल ही गए सब.भ्रष्ट पुरुष की तुलना में भ्रष्ट स्त्री को सज़ा अधिक आसान है.मान लीजिए अमेरिका जैसे देशों की तरह जहाँ राजनीतिक लॉबीईंग वैध है यदि भारत में भी इसे क़ानूनी मान्यता होती तो क्या नीरा राडिया एक मिसाल नहीं होती?एक स्त्री का विदेश की नौकरी छोड़कर अपने वतन आना और इतनी कमाई खड़ी करना गर्व की बात नहीं होती?जिस भारतीय स्त्री के जीवन में देहरी के भीतर से केवल प्राण पखेरू ही उड़ जाने के उदाहरण हों उसका अपनी विमान सेवा का मालिक होना तो युगांतरकारी ही माना जाता.

यह भारत का पिछड़ापन नहीं तो और क्या है जहाँ राजनीति संबंधी कारपोरेट दलाली के संबंध में कोई नीति ही नहीं है.नीरा राडिया ने ऐसा क्या किया है जो आनेवाले समय में भी अपराध माना जाएगा?सोचिए जिस दिन भारत का लोकतांत्रिक पूँजीवाद समग्र विकास या समाजवाद जैसी अड़चनों को पार कर सिर्फ़ विकास के मुकाम पर पहुँचेगा उस दिन नीरा राडिया जैसी लॉबीईस्ट ही तो सरकारे बनाएँगी.कोई उजबक बताए कि आज किस मंत्री के बनाए जाने में लॉबीइंग नहीं है.जिस तरह से नेता चुने जाते हैं,खरीद फरोख्त से गठबंधन करते हैं फिर सवाल पूछने तक के लिए घूस लेते हैं तो वह क्या बिना दलाली के संभव है.पहली बार यदि किसी स्त्री ने कार्पोरेट और अपराध को मिलाजुलाकर सरकार गठन का कोई अचूक नुस्खा निकाला है तो देशभर को क्यों तक़लीफ़ हो रही है.अरे बुड़बको कुछ तो शर्म करो.नीरा राडिया स्त्री है.सदियों की ग़ुलाम आबादी.ग़ुलाम की आज़ादी के पहले चरण में नैतिकता देखना सोची समझी साज़िश है.स्त्री जाग रही है.नीरा राडिया आनेवाले भारतीय लोकतांत्रिक युग की आहट है.वह दिन दूर नहीं जब लॉबीईंग को क़ानूनी मान्यता मिल जाएगी.तब देखना नीरा के नाम से विश्वविद्यालय होंगे.पत्रकारिता विश्वविद्यालयों में बरखा दत्त की वैसी ही मूर्तियाँ लगाई जाएँगी जैसी दलित नेत्रियों की लगती हैं.एक दलित स्त्री की सफलता को जैसे नोटों की माला कलंकित नहीं कर सकती वैसे ही नीरा की बेशुमार कमाई एक ग़ुलाम आधी आबादी का प्रतिशोध है.

यह मेरा वहम भी हो सकता है कि ऐसी दलीलें दी जाएँगी.पर यदि ऐसा हुआ तो हमारे जवाब क्या होंगे?

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

कठोर करुणा

पढ़ाने के अनुभव बड़े जीवंत होते हैं.कई बार बच्चों की बातें,जिज्ञासाएँ,तर्क गहरे सोचने पर मजबूर कर देते हैं.जो बातें बड़े बड़ों के मुख से ही सुनी जा सकती हैं.सुनी जाने के बाद भी प्रभावित नहीं कर पातीं लगभग वही बात जब कोई बच्चा अपनी ताजगी के साथ रखता है तो दिल-दिमाग़ जैसे एकबारगी आश्चर्य मिश्रित आनंद के साथ विनत हो जाते हैं.कहीं अंदर से एक मार्मिक स्वीकृति पैदा होती है.अपना तर्क-वितर्क में बेहद उलझा रहनेवाला सोच भी तुरंत मानने के लिए तैयार हो जाता है कि हाँ ऐसा क्यों नहीं हो सकता?मैंने अक्सर महसूस किया है कि बच्चे जब अपनी पूरी रौ में होते हैं तो सीखते नहीं बहुत सिखाते हैं.बच्चों से ही मैंने जाना कि महानता ज़रूर हँसमुख और शरारती होगी.कितना अच्छा हो यदि हम बच्चों के अनुयायी बनें.ऐसे बहुत से बचपन के दुर्लभ छड़ जिनसे मनुष्य का विवेक समृद्ध होता है,जिजीविषा बढ़ती है अध्यापक होने के नाते मेरी पूँजी हैं.धन्या एक ऐसी ही लड़की है.उसकी लगन की मेरे जानने में दूसरी मिसाल नहीं.हालांकि मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि उसमें मैंने कुछ विलक्षण नहीं देखा.वह इतनी साधारण है और नि:शक्त भी कि कोई उसे देखे तो जीवटता का कोई गूढ़ या संपन्न अर्थ खोजने की कभी ज़िंदगी में कोशिश ही न करे.

एस.धन्या उसका पूरा नाम है.वह इस साल दसवीं में पढ़ती है.उसकी मातृभाषा मलयालम है.दो साल पहले जब मैं तमिलनाडु के छोटे से क़स्बे तक्कोलम मे आया था तो वह आठवीं कक्षा में थी.स्टॉफ़ रूम में बैठे हुए या कक्षाओं के लिए निकलते समय गैलरी में उसे धीमी लगभग टटोलती चाल में आते जाते देखता था तो मन में सवाल कौंधता था कि इसका देखना कम है क्या?वह इतनी विनम्र और शांत रहती थी.इतना चुपचाप चलती थी कि उसकी इस कमी पर सोचना तक संभव नहीं था.जब संदेह होता तो कार्यक्रमों में उसकी सहभागिता देखकर यह शंका इतनी क्रूर लगती कि कभी पूछ ही नहीं पाया.पहली बार मुझे तब पता चला जब परीक्षा में उसके प्रश्नपत्र की एनलार्ज फोटोकॉपी होते देखी.पढ़ने के लिए वे इतने बड़े अक्षर थे कि मेरे मुह से निकल गया ओह!.. मेरा अंदेशा सही था... इतनी अक्षम है वह बच्ची!...

फिर अप्रैल में ही शुरू हुए अगले सत्र में वह नवमीं में मेरे क्लास में आई.मैंने देखा-उसके पास पढ़ने के लिए एक दूरबीन जैसी लेंस लगी पाईप होती.मैं जब हिस्से किताब से पढ़ता तो वह वही दूरबीन लगाकर देखती रहती.वह इतना झुककर लिखती-पढ़ती कि सामान्य आँखों को तब दिखना बंद हो जाए.पढ़ते या लिखते बिल्कुल थक गई है साफ़ दिखता.फिर भी उसके सारे काम चाहे वह क्लास वर्क,होमवर्क हो या असाइनमेंट,प्रोजेक्ट हों सब समय पर होते हैं.कभी सोच भी नहीं सकते कि वह सौंपे गए काम के लिए बहाना करेगी.नहीं हुआ तो एक ही उत्तर नहीं हो पाया सर.सॉरी!..अभी कर दूँगी.पर कोई झूठी कोशिश नहीं.वह पढ़ने में भी अच्छी है.अपनी धुन,समझदारी और मेहनत में वह इतनी परिपक्व है कि बच्चों जैसा कुछ कर ही नहीं पाती.उसे जो बनना है उसमें शायद उसे हर बात के लिए कई गुना समय और श्रम चाहिए.जैसे क्रूर नियति ने उसे बचपने के लिए अवकाश ही नहीं दिया.

यह भी मुझे बाद में पता चला कि पाँच विषय की दो-दो नोटबुक समय से कंप्लीट करना उसके वश का नहीं है.लिखने का काम वह खुद नहीं कर पाती है.घर में माँ या स्कूल में उसके साथ बैठनेवाली या कोई दूसरी लड़की उसके लिए यह करती है.हाँ परीक्षाओं में वही लिखती है.इसके लिए उसे थोड़ा ज्यादा समय चाहिए होता है जो विद्यालय से मिल जाता है.सुनने में यह आसान लगता है कि किसी दूसरे से लिखवा लो पर इसके लिए जिस सज्जनता की दरकार होती है वह मैंने धन्या में ही देखी.वह कितनी भली होगी कि जिसने भी लिखने की ज़िम्मेदारी ली उस लड़की के चेहरे में मैंने सचमुच का खेद देखा जब धन्या नोटबुक जमा करने में देरी कर गई.

वह अवसर मिलने पर अपने विचारों को इतनी ईमानदारी से रखती है कि पता चलता है कहने का सच्चा तरीक़ा कैसा होता है.एक बार वह लड़कियों के साथ होनेवाली ग़ैर बराबरी पर बोलते हुए भावुक हो गई थी.अपनी कमज़ोरियों से लड़कर रोज़ जीतना कैसा होता है मैंने उसी बच्ची में देखा.चेहरे में कोई शिक़ायत नहीं.पूरे व्यक्तित्व में कैसी भी उद्दंडता नहीं.प्रात:कालीन सभा में कॉपीयरिंग भी वह अच्छा करती है.लेकिन जिस बात के लिए मैं धन्या के बारे में तबसे ज्यादा शुभकामनाओं से भर गया हूँ वह अपनी ही ज्यादती का एक छोटा सा प्रसंग है.

उस दिन कक्षा में किसी बच्चे ने कुर्सी तोड़ दी थी.मैं जानना चाहता था कि वह कौन है पर कोई मुँह खोलने को तैयार नहीं था.सिर्फ़ इतना पता चल सका कि यह लंच ब्रेक में हुआ.उस वक़्त क्लास में सिर्फ़ तोड़नेवाला ही रहा होगा कुल मिलाकर बदमाश द्वारा मैनेज किया हुआ यही नतीज़ा निकल रहा था.तभी लड़कियों में से किसी ने बताया कि धन्या को मिलाकर हम तीन थीं कक्षा में पर हमने नहीं देखा.धन्या आगे बैठी थी सो मैंने उसी से पूछा-तुमने देखा किसने तोड़ी कुर्सी? वह कुछ बोलती कि साथ बैठी लड़की ने कहा कि सर,धन्या थोड़ी दूर का भी देख नहीं पाती.मैंने ज़ोर से पूछा क्या इतनी दूर का भी नहीं यानी जहाँ मैं था उस वक्त.वही लड़की बोली हाँ सर वह तो अभी आपको भी नहीं देख पा रही है.मेरे दूसरी तरफ़ घूमते ही धन्या ने उसे बताया था.मैंने पूछा धन्या क्या सचमुच?

वह खड़ी हो गई.उसकी आँख से आँसू बह चले थे.सर,मैं आपको नहीं देख पा रही मुझे आपकी जगह कोई सफ़ेद छाया दिख रही है बस...उस दिन मैंने सफ़ेद सर्ट पहन रखी थी.उसकी यह बात मुझे भीतर तक छू गई थी.पर जैसे क्रूरता आती है तो अपनी सीमा खुद तय करती है.मैने उससे कहा तुम किसी अच्छे अस्पताल में क्यों नहीं दिखाती अपनी आँख ? वह बोली सर,चेन्नई के शंकर नेत्रालय में दिखा चुकी हूँ.डॉक्टर ने कहा मेरी आँख के लिए कोई चश्मा नहीं बन सकता.मैं स्तब्ध रह गया था.यह क्या कह रही है...शंकर नेत्रालय से अच्छा अस्पताल तो भारत में दूसरा नहीं.इसका मतलब है मैं एक नि:शक्त बच्ची को अनजाने ही तक़लीफ़ दे रहा हूँ.जैसे मेरे हाथ पांव ढीले पड़ गए.बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई.टूटी हुई कुर्सी से शुरू होकर.मैंने सोचा.वह तब तक रोने लगी थी.मैंने उसे चुप कराया और बोला दुखी मत हो.कोई न कोई रास्ता निकलेगा.तुम चिंता मत करो,हिम्मत रखो भगवान सब ठीक करता है.तुम इतनी ईमानदार और मेहनती हो कि तुम्हारी कोई तक़लीफ़ हमेशा नहीं रहेगी.मैं जाने क्या क्या बोल रहा था और मेरा गला भर रहा था.मैंने देखा दो और लड़कियों की आँखें गीली हो गई हैं.कक्षा में सन्नाटा है.

मैंने महसूस किया अनजाने ही मुझसे अन्याय हो गया.मैं जैसे माफ़ी मागने के लिए बोल रहा था.तुम सबों को सही ग़लत का शऊर नहीं और एक यह लड़की है जो इतनी अक्षमता में भी सच्ची,मेहनती और नेक है.

उस दिन मुझे पहली बार अपनी कक्षा में रुलाई आ गई थी.अपनी वह कठोरता और उसके बाद की करुणा मैं भूल नहीं पाता.मेरी दिली कामना है इस बच्ची की आँख ठीक हो जाए.उसके पढ़ने लिखने तक हमारे देश की विकराल बेरोज़गारी थोड़ी कम ही हो जाए और उसे एक बहुत अच्छी नौकरी मिले...