शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

पाथेय:संघर्षरत साथियों के लिए

कविता जड़िया की यह रचना आप सबके लिए नये साल की हार्दिक शुभकामनाओं सहित-ब्लॉगर



साथी,
मैं जानती हूँ
तुममें कुव्वत है
तुम्हारा हुनर
मुक्तिबोध के मेहतर की तलाश की परिणति

सपने देखते हुए तुम
नहीं भूलते ज़मीं पर
बुलंदी से पाँव जमाना
दुआएँ माँगने के लिए
उठाते हुए फौलादी हाथ
उपेक्षित नहीं करते राह पड़े पत्थरों को
जानते हो उन्हें लाँघकर
बच निकलना
समकालीनों की तरह
जीवन की मूल आवश्यकताओं के त्रिकोण में
या सफलता के चालू उद्यमों में
नहीं बँधना चाहती तुम्हारी काया

मुझे मालूम है
शून्य से शुरू होकर
बनोगे तुम विशाल वृत्त
समेटोगे अपनी परिधि में दुनिया को
तुम्हारी आत्मा में समायी
महापुरुषों की सीखें
नहीं होने देंगी तुम्हें स्वपोषी या परजीवी
क़ीमतें तुम्हें नाप नहीं पाएँगी
सत्ताएँ तुम्हें क़ैद नहीं रख पाएँगी.

फिर भी मुझे डर है
तुम्हारे बदल जाने का नहीं
ज़माने के विमुख हो जाने का
कि रोक नहीं सकते तुम
स्वार्थी परिवर्तनों को

मिट्टी के क्षरण और अपरदन
पर्वतों के टूटकर चट्टान बनने
चट्टानों के बिखरकर कंकण होने को
रोक नहीं सका है संसार का महानतम शिल्पी भी

झुठलायी नहीं जा सकती
बहती धारा की शक्ति
छोटे पौधें हों या तने ठूँठ
हारना ही पड़ा है उन्हें
विपरीत धारा के प्रवाह से

इससे पहले कि चमकीले चाँद का खुरदुरापन
तुम्हें उदास कर दे
इससे पहले कि थककर तुम भी मानो
बचे रहने को ही इंसान का पहला तर्क
बाँधना चाहती हूँ मैं
तुम्हारी विजय यात्रा का पाथेय

साथी,
तुम भूलना मत
कूबड़ निकालकर कुरूप हुआ भोला ऊँट भी
जानता है भली-भाँति यह सच
कि ज़रूरी है-सँजो लेना
अपने भीतर जल रेतीले सफ़र में
मृगमरीचिका से बचने के लिए

मैं यही चाहूँगी
तुम थको,न रुको,न झुको,न टूटो कभी.

-कविता जड़िया

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