पढ़ाने के अनुभव बड़े जीवंत होते हैं.कई बार बच्चों की बातें,जिज्ञासाएँ,तर्क गहरे सोचने पर मजबूर कर देते हैं.जो बातें बड़े बड़ों के मुख से ही सुनी जा सकती हैं.सुनी जाने के बाद भी प्रभावित नहीं कर पातीं लगभग वही बात जब कोई बच्चा अपनी ताजगी के साथ रखता है तो दिल-दिमाग़ जैसे एकबारगी आश्चर्य मिश्रित आनंद के साथ विनत हो जाते हैं.कहीं अंदर से एक मार्मिक स्वीकृति पैदा होती है.अपना तर्क-वितर्क में बेहद उलझा रहनेवाला सोच भी तुरंत मानने के लिए तैयार हो जाता है कि हाँ ऐसा क्यों नहीं हो सकता?मैंने अक्सर महसूस किया है कि बच्चे जब अपनी पूरी रौ में होते हैं तो सीखते नहीं बहुत सिखाते हैं.बच्चों से ही मैंने जाना कि महानता ज़रूर हँसमुख और शरारती होगी.कितना अच्छा हो यदि हम बच्चों के अनुयायी बनें.ऐसे बहुत से बचपन के दुर्लभ छड़ जिनसे मनुष्य का विवेक समृद्ध होता है,जिजीविषा बढ़ती है अध्यापक होने के नाते मेरी पूँजी हैं.धन्या एक ऐसी ही लड़की है.उसकी लगन की मेरे जानने में दूसरी मिसाल नहीं.हालांकि मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि उसमें मैंने कुछ विलक्षण नहीं देखा.वह इतनी साधारण है और नि:शक्त भी कि कोई उसे देखे तो जीवटता का कोई गूढ़ या संपन्न अर्थ खोजने की कभी ज़िंदगी में कोशिश ही न करे.
एस.धन्या उसका पूरा नाम है.वह इस साल दसवीं में पढ़ती है.उसकी मातृभाषा मलयालम है.दो साल पहले जब मैं तमिलनाडु के छोटे से क़स्बे तक्कोलम मे आया था तो वह आठवीं कक्षा में थी.स्टॉफ़ रूम में बैठे हुए या कक्षाओं के लिए निकलते समय गैलरी में उसे धीमी लगभग टटोलती चाल में आते जाते देखता था तो मन में सवाल कौंधता था कि इसका देखना कम है क्या?वह इतनी विनम्र और शांत रहती थी.इतना चुपचाप चलती थी कि उसकी इस कमी पर सोचना तक संभव नहीं था.जब संदेह होता तो कार्यक्रमों में उसकी सहभागिता देखकर यह शंका इतनी क्रूर लगती कि कभी पूछ ही नहीं पाया.पहली बार मुझे तब पता चला जब परीक्षा में उसके प्रश्नपत्र की एनलार्ज फोटोकॉपी होते देखी.पढ़ने के लिए वे इतने बड़े अक्षर थे कि मेरे मुह से निकल गया ओह!.. मेरा अंदेशा सही था... इतनी अक्षम है वह बच्ची!...
फिर अप्रैल में ही शुरू हुए अगले सत्र में वह नवमीं में मेरे क्लास में आई.मैंने देखा-उसके पास पढ़ने के लिए एक दूरबीन जैसी लेंस लगी पाईप होती.मैं जब हिस्से किताब से पढ़ता तो वह वही दूरबीन लगाकर देखती रहती.वह इतना झुककर लिखती-पढ़ती कि सामान्य आँखों को तब दिखना बंद हो जाए.पढ़ते या लिखते बिल्कुल थक गई है साफ़ दिखता.फिर भी उसके सारे काम चाहे वह क्लास वर्क,होमवर्क हो या असाइनमेंट,प्रोजेक्ट हों सब समय पर होते हैं.कभी सोच भी नहीं सकते कि वह सौंपे गए काम के लिए बहाना करेगी.नहीं हुआ तो एक ही उत्तर नहीं हो पाया सर.सॉरी!..अभी कर दूँगी.पर कोई झूठी कोशिश नहीं.वह पढ़ने में भी अच्छी है.अपनी धुन,समझदारी और मेहनत में वह इतनी परिपक्व है कि बच्चों जैसा कुछ कर ही नहीं पाती.उसे जो बनना है उसमें शायद उसे हर बात के लिए कई गुना समय और श्रम चाहिए.जैसे क्रूर नियति ने उसे बचपने के लिए अवकाश ही नहीं दिया.
यह भी मुझे बाद में पता चला कि पाँच विषय की दो-दो नोटबुक समय से कंप्लीट करना उसके वश का नहीं है.लिखने का काम वह खुद नहीं कर पाती है.घर में माँ या स्कूल में उसके साथ बैठनेवाली या कोई दूसरी लड़की उसके लिए यह करती है.हाँ परीक्षाओं में वही लिखती है.इसके लिए उसे थोड़ा ज्यादा समय चाहिए होता है जो विद्यालय से मिल जाता है.सुनने में यह आसान लगता है कि किसी दूसरे से लिखवा लो पर इसके लिए जिस सज्जनता की दरकार होती है वह मैंने धन्या में ही देखी.वह कितनी भली होगी कि जिसने भी लिखने की ज़िम्मेदारी ली उस लड़की के चेहरे में मैंने सचमुच का खेद देखा जब धन्या नोटबुक जमा करने में देरी कर गई.
वह अवसर मिलने पर अपने विचारों को इतनी ईमानदारी से रखती है कि पता चलता है कहने का सच्चा तरीक़ा कैसा होता है.एक बार वह लड़कियों के साथ होनेवाली ग़ैर बराबरी पर बोलते हुए भावुक हो गई थी.अपनी कमज़ोरियों से लड़कर रोज़ जीतना कैसा होता है मैंने उसी बच्ची में देखा.चेहरे में कोई शिक़ायत नहीं.पूरे व्यक्तित्व में कैसी भी उद्दंडता नहीं.प्रात:कालीन सभा में कॉपीयरिंग भी वह अच्छा करती है.लेकिन जिस बात के लिए मैं धन्या के बारे में तबसे ज्यादा शुभकामनाओं से भर गया हूँ वह अपनी ही ज्यादती का एक छोटा सा प्रसंग है.
उस दिन कक्षा में किसी बच्चे ने कुर्सी तोड़ दी थी.मैं जानना चाहता था कि वह कौन है पर कोई मुँह खोलने को तैयार नहीं था.सिर्फ़ इतना पता चल सका कि यह लंच ब्रेक में हुआ.उस वक़्त क्लास में सिर्फ़ तोड़नेवाला ही रहा होगा कुल मिलाकर बदमाश द्वारा मैनेज किया हुआ यही नतीज़ा निकल रहा था.तभी लड़कियों में से किसी ने बताया कि धन्या को मिलाकर हम तीन थीं कक्षा में पर हमने नहीं देखा.धन्या आगे बैठी थी सो मैंने उसी से पूछा-तुमने देखा किसने तोड़ी कुर्सी? वह कुछ बोलती कि साथ बैठी लड़की ने कहा कि सर,धन्या थोड़ी दूर का भी देख नहीं पाती.मैंने ज़ोर से पूछा क्या इतनी दूर का भी नहीं यानी जहाँ मैं था उस वक्त.वही लड़की बोली हाँ सर वह तो अभी आपको भी नहीं देख पा रही है.मेरे दूसरी तरफ़ घूमते ही धन्या ने उसे बताया था.मैंने पूछा धन्या क्या सचमुच?
वह खड़ी हो गई.उसकी आँख से आँसू बह चले थे.सर,मैं आपको नहीं देख पा रही मुझे आपकी जगह कोई सफ़ेद छाया दिख रही है बस...उस दिन मैंने सफ़ेद सर्ट पहन रखी थी.उसकी यह बात मुझे भीतर तक छू गई थी.पर जैसे क्रूरता आती है तो अपनी सीमा खुद तय करती है.मैने उससे कहा तुम किसी अच्छे अस्पताल में क्यों नहीं दिखाती अपनी आँख ? वह बोली सर,चेन्नई के शंकर नेत्रालय में दिखा चुकी हूँ.डॉक्टर ने कहा मेरी आँख के लिए कोई चश्मा नहीं बन सकता.मैं स्तब्ध रह गया था.यह क्या कह रही है...शंकर नेत्रालय से अच्छा अस्पताल तो भारत में दूसरा नहीं.इसका मतलब है मैं एक नि:शक्त बच्ची को अनजाने ही तक़लीफ़ दे रहा हूँ.जैसे मेरे हाथ पांव ढीले पड़ गए.बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई.टूटी हुई कुर्सी से शुरू होकर.मैंने सोचा.वह तब तक रोने लगी थी.मैंने उसे चुप कराया और बोला दुखी मत हो.कोई न कोई रास्ता निकलेगा.तुम चिंता मत करो,हिम्मत रखो भगवान सब ठीक करता है.तुम इतनी ईमानदार और मेहनती हो कि तुम्हारी कोई तक़लीफ़ हमेशा नहीं रहेगी.मैं जाने क्या क्या बोल रहा था और मेरा गला भर रहा था.मैंने देखा दो और लड़कियों की आँखें गीली हो गई हैं.कक्षा में सन्नाटा है.
मैंने महसूस किया अनजाने ही मुझसे अन्याय हो गया.मैं जैसे माफ़ी मागने के लिए बोल रहा था.तुम सबों को सही ग़लत का शऊर नहीं और एक यह लड़की है जो इतनी अक्षमता में भी सच्ची,मेहनती और नेक है.
उस दिन मुझे पहली बार अपनी कक्षा में रुलाई आ गई थी.अपनी वह कठोरता और उसके बाद की करुणा मैं भूल नहीं पाता.मेरी दिली कामना है इस बच्ची की आँख ठीक हो जाए.उसके पढ़ने लिखने तक हमारे देश की विकराल बेरोज़गारी थोड़ी कम ही हो जाए और उसे एक बहुत अच्छी नौकरी मिले...
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