रविवार, 2 सितंबर 2012

पिता

सुनी जाती है एक दिन कमज़ोर आवाज़


थाम लिये जाते हैं दुर्बल हाथ

इंसानी विवशता

शक्ति की गुलाम नहीं रहती

बुरे से बुरे इलाक़े में

एक दिन स्त्री की गुहार पर दौड़ते हैं लोग

हर जगह से ठुकराये जाने वाले

सिर उठाकर जाते हैं एक दिन

सत्ता जब बुनती है जाल

गरीबों को मिटाने के लिए

तब असहायों के संकल्प चूर नहीं हो जाते

लड़ने, निडर और ईमानदार रहने के

यह आशावाद नहीं है

सौ में से एक को न्याय मिलना

युग में एक बार निर्बल का जीतना

देख-देखकर कौन आशावादी बचेगा?

यह प्यार है

पिता का

सबसे इसे बचाकर

वह अपनी नन्हीं बच्ची को

सौंप रहा है।



-शशिभूषण