बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

यादों की रोशनी में




















किताबों की कई श्रेणी हैं। प्रत्येक श्रेणी की किताबों के अपने-अपने पैमाने होते हैं। मोटी धारणा किताबों के बारे में यह है कि किताब लेखक द्वारा लिखी जाती है। लेखक वह जिसके पास किताब लिखने का हुनर होता है। यदि वह अपने जीवन में लिखने के अलावा कोई अन्य काम नहीं करता तो एक दिन इस निशा-वासर अभ्यास से वह ऐसा इल्म ऐसी कारीगरी हासिल कर लेता है जिससे वह जैसी चाहे किताब लिख सकता है। उसकी किताबों में साधना और अभ्यास का तेज आ जाता है। यह तेज लोगों को बहुत प्रभावित करता है। अक्सर इसी साधना के ज़ोर से पाठक किताबों के यथार्थ को असल मानने को मजबूर हो जाते हैं। किताबों से पैदा होने वाली किताबों की दुनिया अंतहीन होती है। उसमें यदि एक बार प्रवेश हो जाये तो निकलना असंभव हो जाता है। सम्मोहन यह कि भ्रमण ही सरोकार बन जाता है। लेखक फर्नीचर बनाने वालों या इमारतें उठाने वालों की तरह माँग के नियमों, अधुनातन संसाधनों और पहले से तैयार नक्शों पर चलने लगते हैं। यदि ऐसी किताबों में कला, यथार्थ और विचार तीनों सध गये हों तो किताब रक्तबीज बन जाती है। उसकी एक-एक बात से नयी किताब पैदा होती है। उन किताबों की आलोचना, व्याख्या, विरोध से अकादमियाँ पैदा होती हैं, प्रकाशन संस्थान खड़े होते हैं, पुस्तकालयों की बेजान भुतही इमारतें तैयार होती हैं, सेनाएँ और सरकार बनती हैं। रक्तपात और नरसंहार होते हैं।

एक दिन ऐसी किताबों में डूबा हुआ गतिहीन पाठक संसार की असली पहचान ही खो देता है। वह सचमुच की दुनिया में अपनी पढ़ी किताबों का संसार न पाकर डर, असुरक्षा और अकेलेपन से भर जाता है। वह किताब से किताब और भाषा से भाषा के बीच चलने वाली दौड़ में इतना हाँफ़ जाता है, टीकाओं के इतने चक्कर लगाता है, व्याख्याओं की इतनी कसरतें करता है कि दुनिया में सही रास्ते चलने के मूलभूत दायित्व से भी हाथ जोड़ लेता है। वह किताबों की क़ब्र में लेटा दुनिया में नया देखने का ख्वाब देखता है। पुस्तकालय में घुसे हुए, किताबों से जूझते उसकी हालत उस बेचारे की सी हो जाती है जो पड़ोस में लगी आग देखकर बाल्टी में पानी भरकर दौड़ने की बजाय अपना कुँआ खोदना चाहता है। अक्सर वह अपना घर भी जलता हुआ देखकर घूरे में बैठकर छाती पीटता नज़र आता है। उसकी मनोदशा उस मद्यप की सी होती है जो बहुत पी लेने के बाद एक ही जगह पर पैर पटकता है और ज़ोर ज़ोर से रोता है कि इस बेरहम दुनिया की लंबी राह में मेरा घर नहीं आ रहा। कई बार वह किसी खंभे या पेड़ को भी जकड़कर पकड़ लेता है और गुहार लगाता है कि मैं आज़ाद होना चाहता हूँ। ग़ुलामों की इस दुनिया को जितनी जल्दी हो सके बदल देना चाहिए। इंसानों का शोषण रुक जाना चाहिए। वह अपनी मूर्ख ईमानदारी में यह समझने लगता है कि न्याय एक खैरात है और जिस दिन यह किताबों में बाँटी जायेगी दुनिया के सब लोगों को मिल जायेगी।

इन किताबों के लेखकों के समाज में ही एक और जमात होती है जिन्हें आलोचक और संपादक के बैज मिले होते हैं। इनका ओहदा समाज में लेखकों से भी बड़ा होता है। सारे कारीगर लेखक इन्हें सलाम ठोंकते हैं। उनके बस्ते ढोते हैं। उनकी बख्शीश पर पलते हैं। ये आलोचक और संपादक वास्तव में इन किताबों की कॉलोनियों के प्रापर्टी ब्रोकर होते हैं। अगर आपको कोई किताब पढ़नी हो उसे समझना हो तो इन्हें कमीशन चुकाना पड़ता है। इनके मारे आप कोई किताब अपनी मर्ज़ी से नहीं पढ़ सकते। ये इतने ताक़तवर होते हैं कि नाराज़ हो जायें तो किताब तो किताब लेखक को ही अगवा कर लेते हैं। अगर आपने किसी जिद या रौ में पढ़ ली किताब और उसके बारे में किसी से कुछ कह दिया तो ये आपके साथ वही सलूक करेंगे जो राजभाषाएँ बोलने वाले समाज में अपनी मातृभाषा में प्रार्थना करने वाले के साथ किया जाता है। ये अपने द्वारा बिना प्रमाणित किताबों को असभ्य और जंगली कहकर शहर से झुग्गी झोपड़ियों की तरह हटवा देते हैं। इनके व्याख्यानो के बुल्डोजर ग़रीब किताबों को ढहा देते हैं। इनके संपादकीय लेखों के ट्रक उन्हें नगर निगम के कचरा घर पहुँचा देते हैं। इनके पुरस्कारों की बंदूकें सच्ची किताबों को वैसे ही मार डालती हैं जैसे सरकारी पुलिस क्रांतिकारियों को। इतना ही नहीं यदि आप पर्यावरणीय वैभव से तंग आकर घर का कोई कमरा खाली करके कोई इंसान अपने आस-पास महसूसना चाहते हैं तो ये आपको ऐसा नहीं करने देंगे। इनका कमीशन बिना चुकाये न तो आप कुछ खरीद सकते हैं न बेंच सकते हैं न किसी को आश्रय दे सकते हैं। यदि आप किसी प्राचीन किताब की ध्वस्त कर दी गयी इमारत पर अपने पुरखों को याद कर अपना मन हल्का करना चाहते हैं तो ठीक उसी जगह जहाँ आपके पीड़ा या करुणा से बहे गरम आँसू गिरे होते हैं ये मसाले दार पान खाकर थूक देते हैं।

इसलिए ऐसी किसी किताब की बात छेड़ना बड़े जोखिम का काम है जो किसी लेखक ने न लिखी हो। लेकिन ऐसी किताबें हर समय में रहती हैं। वे हमारे आँसू पोंछ देती हैं। वे हमें रुला देती हैं। साथियों की याद हमारे दिलों में ज़िंदा रखती हैं। वे गीत की तरह आत्मा में उठती हैं हुंकार की तरह होठों में उमगती हैं। उनमें लिखा हुआ एक एक शब्द सच्चा, शुभ और दुआओं से भरा होता है। वे हमारी आँख को रोशनी देती हैं, दुख में भी हँसना, लड़ना और साथ रहना सिखाती हैं। वे न्याय माँगने की ज़िद को ज़िंदा रखती हैं। ऐसी किताबों के बारे में पुराने लोग कह गये हैं कि वे सदा इंसानों और इंसाफ़ पसंद लोगों के साथ-साथ चलती हैं। उन्हें टूटने नहीं देती। उनके हर शब्द पर यक़ीन किया जाता है। उन्हें सिरहाने रखकर सोया जाता है। रोज़ वैसा ही जीने की कोशिश की जाती है जैसा उन किताबों में लिखा होता है। इन किताबों के लेखक भाषा के व्यापारी संवेदना के लोक गायक होते हैं। एक विरासत सौंपने का काम करते हैं। इन किताबों के संपादक और प्रकाशक मिट्टी रूँधने का काम करते हैं। ज़माने की धूप, बारिश और धूल से चाक को बचाते हैं। उसमें अपने पसीने और जनता के सपनों का जल मिलाते हैं। ऐसी किताब लिखने वाले अपनी पीड़ा, अनुभवों और सपनों को केवल इसलिए साझा करते हैं कि साथियों को बल मिले। वे लड़ना और जीना नहीं छोड़ें।

ऐसी किताबें उस फकीर के गीत जैसी होती हैं जिसके बारे में एक क़िस्सा मशहूर है। एक बार तानसेन के साथ अकबर घूमने निकले। रास्ता बड़ा बीहड़ था। सुनसान। दूर-दूर तक इंसानों के चिन्ह नहीं। तानसेन और अकबर चल रहे थे कि तभी अकबर के कानों में एक गीत के सुर गूँजे। ये स्वर आत्मा की गहराइयों से निकले हुए और पवित्रता में डूबे हुए मानो ज़माने भर की पीर थे। अकबर अचंभे में। पूछा- तानसेन यह कौन गा रहा है? ऐसा संगीत तो मैंने आज तक नहीं सुना। तानसेन ने कहा- चलिए आपको उस महान गायक के दर्शन करवाता हूँ। अकबर और तानसेन नज़दीक पहुँचे तो देखा एक फटेहाल फ़कीर ऊँची चट्टान पर बैठा आसमान की ओर देखता मानो एक-एक तान अपनी सांसों की क़ीमत पर खीच रहा है। मानो वे संगीत के स्वर नहीं उसके प्राण ही हों जो अंतरिक्ष में गूँज रहे हैं। अकबर ने तानसेन से कहा यह कैसे हो सकता है तानसेन कि कोई तुमसे भी सुंदर गाता है। तानसेन ने कहा यह संभव है। कोई मुझसे भी बड़ा गायक है यही दिखलाने मैं आपको यहाँ लाया। अकबर ने पूछा वह तुमसे अच्छा कैसे गा लेता है। तानसेन ने उस फकीर के प्रति श्रद्धा से भरे हुए कहा बादशाह सलामत मैं अपने मालिक के लिए गाता हूँ वह अपने मालिक के लिए गाता है बस इतनी सी बात है। अकबर चुप रह गये। इस कहानी को यहाँ याद करने का मकसद केवल इतना कहना है कि ऐसी किताबें जिस मालिक के लिए लिखी जाती हैं वह जनता है।

‘यादों की रोशनी में’ एक ऐसी ही किताब है। यह कॉमरेड होमी दाजी के जीवन की ईमानदार दास्तान है। उनकी चिर संगिनी पेरीन होमी दाजी ने इसे लिपिबद्ध किया है। और कॉमरेड विनीत तिवारी ने इसे इस तरह संपादित किया है कि कोई किताबी इसे किताब के मानकों पर झुठलाने न पाये। एक तरह से होमी दाजी का जीवन, पेरीन दाजी का लिखना और विनीत तिवारी का संपादन तीनों एक ही हैं। एक ही राह के पड़ाव।

इस किताब के बारे में उपयुक्त कथन यही हो सकता है कि इसे पढ़ें, साथ रखें, और इसे बाँटा जाये। यह एक सच्चे जन नेता की याद है जो अपना पूरा जीवन जनता के लिये जिया। जिसने अपना पूरा परिवार समाज और देश को दिया। मगर ज़माने से अपने लिये उतना ही लिया जिसकी मात्रा कबीर बताते हैं- मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाये। यह ऐसी सच्ची किताब है जिसे पढ़ते हुए आँसू रोके नहीं रुकते। यह रोना किताब के अंत तक आते-आते दुनिया भर के वंचित शोषित लोगों के लिए रोने और अपने जीवन को दूसरों के लिए प्रस्तुत रहने की आकांक्षा में तब्दील हो जाता है। सो मेरी एक ही राय एक ही गुज़ारिश है इस किताब के बारे में कि इसे पढ़ें।

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

सबसे बेचारे

मन को टीके नहीं लगाये जाते
दो बूँद ज़िंदगी की
मन को कौन पिलाता है?
दुर्घटनाओं में भी
मन मारे जाते हैं
मुआवज़ा नहीं मिलता
मन का बीमा कौन कराता है?
तन अपंग हो तो जीवन कब रुकता है?
मगर मन कोढ़ी हो तो
पूरा पड़ोस गंधाता है।
जो तन से दुखियारे हैं
वो कम हारे हैं
पर जिनके मन में अँधियारे हैं
सबसे बेचारे हैं।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

बिटिया

दिवि के साथ तो कविता लिखने की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती। हर क़िस्म के भाषायी सृजन से बड़ा लगता है उसका साथ। उसके साथ हर पल सारी संवेदनाएँ जीती रहती हूँ। फिर भी आज जाने कैसे यह कविता लिखने से खुद को रोक नहीं पायी। -कविता जड़िया


बिटिया के संग रहते हुए
दुनिया से मुँह फेरे हूँ इन दिनों
बिटिया की गोल मुइयाँ में ही
दुनिया को ढूँढ़े हूँ इन दिनों

सबकी शिक़ायत, सबकी बग़ावत
झुठला रही हूँ आँखों को मूँदे
कोशिश यही ढरकने न पाएँ
बिटिया की आँखों से मोती की बूँदें

झरती रेत से मेरे समय को
है थामे उसी की नाज़ुक हथेली
कभी वो दिखे पुरखिन ज्ञाता
कभी बन जाए नन्ही पहेली

उसी की हँसी में हँसें मेरी खुशियाँ
हो उसके रुदन में कलेजा हलाल
उसी की दया से दिनचर्या नियमित
करे भौंहें टेढ़ी तो होवे बवाल

उसी की छुअन में हैं भोजन के षटरस
उसी की किलोलों में नौ रस समाए
तन से हो दूरी भले कुछ डगों की
मन ये ज़रा दूर भी रह न पाए

जो कुम्हलाए वो तो हो जीवन उदास
जो खिल जाए वो तो भगे हर बीमारी
जो टन्नाए वो तो भन्नाए माथा
हँसे वो तो संग-संग हँसे सृष्टि सारी

बिटिया की चुटिया में बँधी हुई है
मेरे भावी जीवन की हर कड़ी
बिटिया की निंदिया में खोई हुई है
जीवन के कष्टों की हर घड़ी

बिटिया की पोपली बोली में ही
समाया है जीवन का ज्ञान सारा
बिटिया के बेहतर पालन में ही
होना है इस जीवन का गुज़ारा।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

घोषणापत्र : मैं बुद्धिजीवी हूं, आप मेरे अनुयायी बनें

मोहल्ला लाइव में प्रकाशित यह व्यंग्य लेख कुछ सरल संशोधनों के साथ यहाँ आपसे साझा कर रहा हूँ। -शशिभूषण

मित्रो,
मैंने सब तरह के विचारों को ज़रूरत भर का समझ लिया। हर दिशा में मेरे संबंध बन गये। जहाँ मेरे संबंध नहीं हैं वे क्षेत्र भी मेरे नाम से किसी न किसी रूप में अवगत हैं। जहाँ मैं नहीं हूँ वहाँ मेरा डर है। मुझे लगता है किसी चली आती विचारधारा, समूह या संगठन के खूँटे से बँध जाना मेधा अवसर और आकाश का अपमान है। सीधे-सीधे लकीर पीटना है। सिंह, शायर और सपूत अपनी राह चलते हैं। मंच और सम्मान उसके होते हैं जो उन्हें जीतता है। मेरी रचनात्मकता की शुरुआत बड़ी सहज और योग्य मार्गीय रही। पहले मेरे संपादकीय पतों पर भेजे पत्र छपे, फिर मेरे किये अनुवाद पत्र-पत्रिकाओं में सराहे गये। कालांतर में मेरी रचनाएं भी छपी। इधर मैंने कंप्यूटर पर हिंदी टाइप करना और समाज में अंग्रेज़ी बोलना भी सीख लिया। एसएमएस, ईमेल आदि करना मुझे पहले ही आ गया था। पत्रकारिता और समीक्षा में भी मेरा खासा दखल है। मेरी वक्तृता ऐसी है जो शिक्षण और मीडियाकर्म को मिला दिये जाने से निर्मित होती है। कोरी साहित्यिक दुनिया से निकलकर मैंने फिल्म जगत में भी अपनी रिव्यू एबिलिटी से जगह बना ली है। मैं राजनीति में स्वतंत्र रूप से रहने की आवश्यकता इसलिए नहीं समझता क्योंकि ईश्वर की तरह राजनीति हर जगह होती है। कोई राजनीति नहीं सबसे सफल राजनीति होती है। इसे मैं समझता हूँ।

अब मुझे किसी से कुछ पूछने यानी मार्गदर्शन जैसा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। पैर छूने के नाम पर मैं एकदम लाल हो जाता हूं। इन सब बातों को स्पष्ट करने का मक़सद यह है कि मैं खुद को बुद्धिजीवी घोषित करना चाहता हूं। क्योंकि यह अपनी क्षमताओं के भी प्रकटीकरण का ऐसा समय है कि अगर आप न बतायें तो कोई आपको मूर्ख भी न माने। मैं इसी वक्त यह करना चाहता हूं क्योंकि इस संपन्न युग में अगर किसी का सार्टेज सबसे ज़्यादा है तो वह वक्त है। बाक़ी सारे अभाव साज़िशे हैं। ऐसा करके मेरी किसी बड़े अखबार, पीठ, परिषद, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में से कहीं नियुक्ति की दावेदारी अकाट्य हो जायेगी। यानी जीविका जो सबसे ज्यादा असुरक्षित रखती है मेरी मुट्टी में रहेगी। मैं आत्मविश्वास के साथ सोच सकूँगा नौकर भी हूँ मैं। कभी मौत, जिसका कोई ठिकाना नहीं होता, आ जाएगी तो मैं चेलों, प्रेमिकाओं और मधुमेह के बिना नहीं मरूंगा। मेरी कुछ और विशेषताएं भी हैं। मसलन मैं अब एक खास समूह, जिसके विचार नीचे लिखे हैं, के अनुसार सोचता हूं (इन विचारों का कविता की तरह लगना महज संयोग है। ये कुछ आत्मालाप तो कुछ मुखर कथन हैं। असल कविता से इनका कोई संबंध नहीं है।)

देखिए हमसे मत उलझिए
हम एक बात को कई तरह से बयान कर सकते हैं
एक बयान की जब जैसी ज़रूरत हो व्याख्या कर सकते हैं
हम कभी अच्छे रचनाकार को घटिया इंसान कहेंगे
कभी बहुत अच्छा इंसान कह कर घटिया रचनाकार कहेंगे
हम जो भी कहेंगे दमदार कहेंगे
बड़े-बड़ों की हवा निकाल देने के लिए कहेंगे
हम सिर्फ़ कहेंगे नहीं, सिद्ध भी करेंगे
हमारा कहना सिद्ध होगा
हम सिद्धि के रथ पर सवार चलेंगे
प्रसिद्धि का राज करेंगे
हम बातों को काम से तौलेंगे
कामों में भाषायी नुक्स निकालेंगे
हम जनाकांक्षा को भेड़चाल कह सकते हैं
आंदोलन को विचारहीन भीड़ बनाकर पेश कर सकते हैं
हम मुस्कुराते रह सकते हैं
आंखें अंगार रख सकते हैं
हम मौन रहेंगे
रंग में आ गये तो बहरा कर देंगे
हम किसी से नहीं डरते
हम श्रद्धा को चाटुकारिता कहेंगे
आदर को प्रशंसा की महत्वाकांक्षी योजना
श्रेष्ठ को भ्रष्ट बोलेंगे
हमारे पास यूं तो कोई तर्क नहीं है
पर हम आरोप लगा सकते हैं
ऊंचे को बौना दिखा सकते हैं
निंदा अभियान चला सकते हैं

मैं उपरोक्त विचारों तथा स्वीकृतियों के आलोक में खुद को बुद्धिजीवी घोषित करता हूं तथा अपना यह घोषणा पत्र बिंदुवार सार्वजनिक करता हूं। ध्यान दें कि यह घोषणा पत्र आवश्यकतानुसार परिवर्तनीय है।

1 – मैं आपसे विनम्रता और ईमानदारी की उम्मीद करता हूं। आपने किसी के प्रति श्रद्धा रखी या कोई सफलता पायी, तो मैं आपको चाटुकार कहूंगा।

2 – आप मेरे पक्ष में भले न बोलें पर मेरे योगदान पर अवश्य बोलें। याद रखें आपने मेरी आलोचना की, तो मैं आपको फासिस्ट कहूंगा।

3 – जातिवाद किसी क़ीमत पर मिटना चाहिए लेकिन यह कोशिश किसी ने ग़ैर दलित होते हुए की तो मैं उसे ब्राह्मणवादी कहूंगा।

4 – समाजवाद आना ही चाहिए लेकिन यह कोई दूसरा वामपंथी समूह लाना चाहेगा, तो मैं उसका बहिष्कार करूंगा। इस संबंध में कोई भी नैतिकता जो मुझसे सत्यापित नहीं होगी, उसे मैं रिजेक्ट कर दूंगा।

5 – मैं चाहता हूं दुनिया का हर शख्स मार्क्सवादी बने। लेकिन किसी ने ख़ुद को असल मार्क्सवादी कहा, तो मैं उसकी बाट लगा दूंगा।

6 – वर्तमान के सारे क्रांतिकारी बौने और भ्रष्ट हैं। मैं किसी को आदर्श कहने या सुधारने के चक्कर में नहीं पड़ूंगा। आराम से भविष्य का क्रांतिकारी बनूंगा।

7– मुझे कोई पुरस्का र नहीं चाहिए लेकिन मुझे मेरी योग्यता से ज़्यादा नहीं मिला, तो मैं पुरस्कारों को नंगा कर दूंगा।

8 – मैं जानता हूं अपनी ज़िंदगी जीते हुए मैं साहित्य में दलित, स्त्री, किसान, क्रांति, समाजवाद या लोकतंत्र जो भी लाऊं, अंतत: कहन की सफलता और शिल्प ही होंगे पर दूसरे गुट के साहित्यकारों ने ऐसा किया तो उन्हें कलावादी कहूंगा।

9- मैं प्रेम और स्वतंत्रता के प्रति सदैव प्रतिबद्ध रहूँगा। लेकिन औरों ने प्रेम में स्वतंत्रता चाही तो उन्हें लंपट कहूँगा।

10- मैं शैक्षिक सुधारों हेतु कभी हस्तक्षेप अथवा प्रयास नहीं करूँगा, शिक्षकों की एक नहीं सुनूँगा मगर परिवर्तन विरोधी समाज के लिए राजनीति और शिक्षा को बराबर ज़िम्मेदार ठहराऊँगा।

11 – मैं मतदान करने तक नहीं जाऊंगा पर राजनीति पर बोलूंगा तो ज्योति बसु और बाल ठाकरे को एक जैसी गाली दूंगा।

मेरे इस घोषणापत्र को पढ़ने के बाद अब आपका नैतिक दायित्व बनता है कि आप मेरे अनुयायी बनें। साझे प्रयासों से निर्मित होनेवाली एक सचमुच की स्वायत्त बौद्धिक दुनिया में आप आमंत्रित हैं। आपका स्वागत है।

-शशिभूषण

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

दर्पण

तुम दर्पण हो
पारदर्शी निर्मल !
सबको भीतर समो लेने जितने विशाल
देखा है तुममें मैंने खुद को नि:संकोच
निहारा है अपने अभावों को घण्टों बेरोक
ये सोचे बिना कि दर्पण से निष्प्राण नहीं तुम
कि तुममें भी चलती हैं साँसें
मचलती हैं भावनाएँ
उमड़ती-घुमड़ती हैं संवेदनाएँ
कि सोचते होगे तुम भी कुछ मेरे बारे में
मानती हूँ मैं तुम्हें
सिर्फ़ एक दर्पण
तुम रहते भी तो हो तटस्थ-दर्पण से
दिखाते हो मेरा अक्स कमियों समेत
मैं पल-पल सजती-सँवरती हूँ तुम्हें देखकर
इतराती हूँ अपने सुधरे और निखरे रूप पर
और भूल जाती हूँ
कि दर्पण नहीं हो तुम
दर्पण से एकरूप हो भी कैसे सकते हो तुम
मैंने देखे हैं तुम्हारे कई रूप
मैंने पाया है तुममें
पिता सा वात्सल्य और स्नेह
गुरु सी उदारता
शिशु सा भोलापन
मैंने माना है तुम्हे अंतरंग धड़कनों-सा
इसी से महज दर्पण नहीं हो सकते तुम
मुझे मेरा मैं दिखाने वाला।

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

हमारी तटस्थता की शिकार फिल्मों में ‘थैंक्स माँ’ भी है


कभी फिल्म देखना आवारगी हुआ करती थी। लोग पैसे बचाकर फिल्में देखते थे और बदनाम रहते थे। फिल्मी गाने गानेवाले नौजवानों को लड़कियाँ पसंद करती थीं लेकिन उनके साथ उठना-बैठना मंज़ूर नहीं करती थीं। आज जब किसी को सिर्फ़ शौक के लिए फिल्में देखने को भागते, लंबी लाइन में घंटे भर खिसकते देखता हूँ तो मन लगाव से भर जाता है। कोई बौद्धिकता नहीं, कोई दावा नहीं। फिल्में देखनी हैं कि देखे बिना नहीं रह सकते। अकेले देखने से सख्त गुरेज़। जो ज्ञान के लिए फिल्में देखें वे चूतिया।

हिंदी में शानदार फिल्मों की कमी नहीं। ऐसी दर्जनों फिल्में हैं जिनमें आंदोलित करने की क्षमता है। वे हमारे भीतर की जड़ताएँ तोड़ने में सक्षम हैं। जो चुपचाप अपना काम करती रहती हैं। तमाम भुलावों और भव्य विज्ञापनों को छोड़कर हम ऐसी फिल्मों की शरण में जाते हैं। वे हमें बिना शर्त अपनी गोंद ले लेती हैं। हम उनकी करुणा में भीग भीग जाते हैं। उनके क्रोध में जबड़े भींच लेते हैं। वे हमें हँसना-रोना-लड़ना-प्यार करना और अपना हक़ लेना सिखाती हैं। लेकिन देखने में यह आता है कि हमारा समाज ऐसी परिवर्तनकामी, सच्ची फिल्मों का साथ नहीं देता। जिनके ऊपर ऐसी फिल्मों को प्रकाश में लाने की सामर्थ्य और ज़िम्मेदारी है वे कृपण हो जाते हैं। ऐसी फिल्मों के अभिनेता स्टार नहीं कहलाते। इनके निर्देशक वाजिब पहचान नहीं पाते। जैसा कि जीवन में होता है लोग ईमानदारों को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं ये फिल्में भी हमारी तटस्थता की शिकार हो जाती हैं। जबकि होना यह चाहिए कि बिना किसी गुणा भाग के सहज फिल्मों को प्रश्रय मिले। उनके पक्ष में अच्छा माहौल बने। वे लोगों तक बार-बार पहुँचें।

ये बातें मैं एक खास फिल्म को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। फिल्म का नाम है थैंक्स माँ। आपमें से अधिकांश ने जो फिल्मों पर पढ़ने के आदी होंगे यह फिल्म ज़रूर देखी होगी। इरफान कमाल की यह पहली फिल्म मार्च 2010 के पहले सप्ताह में रिलीज़ हुई थी। यू/ए सर्टिफिकेट के साथ। हालांकि यह फिल्म शिशुओं पर है और मुख्य कलाकार भी बच्चे ही हैं इसमें। रघुवीर यादव, जो फिल्म की कहानी के केंद्र एक अस्पताल में गार्ड की यादगार भूमिका में हैं को छोड़ दिया जाये तो एक भी जाना-माना नाम बड़ी भूमिका में नहीं है इस फिल्म में।

फिल्म शुरू होती है रेलवे प्लेटफार्म के एक दृश्य से। एक बच्ची जिस पर से माँ-बाप की नज़र अभी-अभी हटी है पटरी की ओर बढ़ रही है। सीटी बजाती ट्रेन प्लेटफार्म में लगने ही वाली है। यात्रियों की भीड़ आ-जा रही है पर किसी को बच्ची की परवाह नहीं है। वह तेज़ी से घुटनों के बल ट्रेन की तरफ़ जा रही है। यह दृश्य पूरा होते-होते कलेजा मुह को आता है कि बच्ची पटरियों पर अब गिरेगी और ट्रेन आ जायेगी। नसीब की बात माँ की नज़र उस पर पड़ जाती है। वह बदहवास दौड़कर बच्ची को मौत के मुँह से खींच लेती है। स्क्रीन पर दो शब्द उभरते हैं थैंक्स माँ और फिल्म शुरू होती है।

फिल्म का नायक है दस-बारह साल का बच्चा मुन्सिपल्टी। उसके साथी हैं सोडा मास्टर, कटिंग, डेढ़ शाणा, और सुरसुरी। ये सब चोर हैं। मवाली हैं। प्लेटफार्म पर जेबें काटते हैं, सामान छीनकर भागते हैं। परस्पर दोस्तनुमा दुश्मन और दुश्मननुमा दोस्त हैं। मुन्सिपल्टी के नामकरण की कहानी यह है कि उसकी माँ उसे म्यूनिसिपैल्टी के अस्पताल में छोड़ गयी थी इसलिए वह मुन्सिपल्टी है। वह अक्सर उस अस्पताल में गार्ड के लिए शराब की रिश्वत लेकर इस उम्मीद में जाता है कि उसकी माँ उसे खोजते अस्पताल जब आयेगी तो गार्ड उसे माँ से मिला देगा। अपनी माँ से मिलना मुन्सिपल्टी का सबसे बड़ा सपना है। इसी सपने के साथ रोज़ी-रोटी के अधम प्रयास में एक दिन उसे पुलिस पकड़ ले जाती है। वह बाल सुधारगृह पहुँचा दिया जाता है। वहाँ उसका सामना एक अधिकारी से होता है जो उसे नहा धो लेने को साबुन देता है। उसके इरादे मुन्सिपल्टी भाँप लेता है। वह खुद को छुड़ाता हुआ वहाँ से भागता है। रात में मुन्सिपल्टी छत से कूदकर भागने की जुगत में है तो क्या देखता है कि एक कुत्ता है जो कपड़े में लिपटे शिशु को सूँघ रहा है और भौंक रहा है। एक टैक्सी में कोई औरत अभी अभी बैठकर जा रही है। मुन्सिपल्टी कुत्ते को भगाकर शिशु को सीने से चिपटा लेता है। टैक्सी नज़रों से ओझल हो जाती है।

सही मायने में फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होती है। मुन्सिपल्टी शिशु का नाम रखता है कृष्ण। वह उसकी माँ को खोज रहा है। वह उसे चर्च के अनाथालय में नहीं देना चाहता। हिजड़ों के यहाँ से भी भाग आता है। वह तय करता है कि शिशु की पहचान छिन जाये इससे अच्छा होगा जब तक माँ नहीं मिल जाती मैं ही देखभाल करूँ।

उसकी खोज के दौरान वेश्या आती है जिसने इस शिशु को खरीदकर छोड़ दिया था। क्योंकि यह लड़का था। बुढ़ापे में उसका दलाल हो सकता था।

एक दिन मुन्सिपल्टी अस्पताल प्रबंधन की चालाकी भेदकर और पादरी की मदद से कृष्ण की माँ को खोज लेता है। लेकिन जब वह कृष्ण की माँ से मिलता है तो उसकी माँ पर से श्रद्धा ही मिट जाती है। कृष्ण की माँ का गर्भ उसके पिता का था। इस कारण वह कृष्ण को स्वीकार नहीं सकती। हारा हुआ मुन्सिपल्टी जो बकौल पादरी चोर है और जीवन में पहली बार किसी की चीज़ लौटाना चाहता है बच्चे को बाहों में लिये सड़क में आता है तो एक कार अचानक दबाये गये ब्रेक के कारण उसके पास रुकती है। वह कार में बैठी हुई औरत को देखता है। अगले पल उसकी नज़र एक बड़े होर्डिंग पर लगे पोस्टर पर जाती है। दोनो एक ही हैं। वह चल देता है कि तभी छोटा बच्चा देखकर औरत मुन्सीपल्टी को रूपये देने के लिए हाथ बढ़ाती है। वह इंकार के साथ आगे बढ़ जाता है। मुन्सिपल्टी हारकर अनाथालय में जाता है और बच्चे के माँ-बाप के रूप में अपना नाम लिखने को कहता है।

वह फिल्म के आखिर में अस्पताल पहुँचता है। आज भी उसके हाथ में गार्ड के लिए शराब है। गार्ड कहता है तेरी माँ कभी नहीं आयेगी। मुन्सीपल्टी उठते हुए कहता है लेकिन मैं आता रहूँगा। वह धीरे धीरे चला जाता है। गार्ड शराब की बोतल पटक देता है। फिल्म के बिल्कुल आखीरी दृश्य में वही औरत कार से अस्पताल के परिसर में उतरती है जो मुन्सिपल्टी को रास्ते में मिली थी। जिससे पैसे लेने से उसने इंकार कर दिया था। जो उसकी माँ है।

यह संक्षेप में फिल्म की कहानी का ढाँचा है। फिल्म के दृश्य और संवाद जो कहानी बयान करते हैं उसे देखकर ही जाना जा सकता है। इस फिल्म के संवाद उस जीवन में ले जाते हैं हमें जिससे हम स्लम डॉग मिलेनियर या सलाम बांबे जैसी फिल्मों के माध्यम से परिचित होने का दावा कर सकते हैं।

थैंक्स माँ शिशुओं को फेंकने से लेकर उनके खरीद फरोख्त और हत्याओं तक की अनगिन दारुण गाथाओं को हमारे सामने उजागर कर देती है। यह फिल्म दिखाती है कि भारतीय समाज में शिशुओं के साथ हो रहे अन्याय की कितनी वजहें छुपी हैं और रोज़ पनपती रहती हैं। यदि इस कथा श्रंखला को देखें जिसमें एक स्त्री अस्पताल में अपने पिता से मिला जीवित शिशु छोड़कर आती है। उसे अस्पताल का पेशेवर चोर वेश्या को बेंच देता है। वेश्या उसे इसलिए नहीं पालना चाहती क्योंकि वह लड़का है। एक बारह साल का बच्चा जो खुद अनाथ और चोर है लेकिन उस बच्चे को माँ तक पहुँचाना और एक मुकम्मल पहचान के साथ बड़ा होता देखना चाहता है तो लिंग परीक्षण के पश्चात मारे जाने वाले कन्या भ्रूणों की त्रासदी घोर सामाजिक ताने-बाने की केवल एक पहलू दिखायी देगी। भारतीय समाज अपनी जिस संरचनागत हत्यारी प्रविधि में है उसे चंद सरकारी और एनजीओ संचालित जागरुकताएँ नहीं बदल पायेंगी।

थैंक्स माँ हमारे समय की एक ऐसी फिल्म है जो बड़े सिनेमाघरों में मँहगे पापकार्न और अँग्रेज़ी बोलते वेटरों के अनुरोध के साथ व्यापक पैमाने पर नहीं देखी जा सकी। यद्यपि इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रशंसा एवं सम्मान बटोरे। लेकिन यह भी फिल्म ही है और जब भी किसी सहृदय के द्वारा देखी जायेगी उसे झकझोरकर रख देगी।

मुझे यक़ीन है आपने ऊपर मेरा यह लिखा पढ़ चुकने के बाद सारी स्थितियों का आकलन कर ही लिया होगा। लेकिन सवाल यह नहीं है कि इस फिल्म पर मैंने कितने फिल्म संबंधी तकनीकि पहलुओं से विचार किया है। कलात्मक पैमानों पर इसे कसने में कितना सफल रहा हूँ। या यह फिल्म बाकी फिल्मों की तुलना में कितनी उत्कृष्ट है। साथियो, मुद्दा यह है कि यह फिल्म बड़े पैमाने पर क्यों नहीं देखी जा सकी। इसे यदि बच्चों को दिखाना हो तो किस तर्क से दिखाया जाये उन्हे किस तरह से तैयार किया जाये पहले कि वे सार सार को पकड़ सकें? क्योंकि इस फिल्म फलफमें गालियाँ हैं। बड़े तीखे हर क़िस्म के नग्न यथार्थ हैं लेकिन इन सबके बावजूद मैं समझता हूँ यह बूट पालिश या सन आफ इंडिया जैसी फिल्मों से बच्चों के लिये अधिक ज़रूरी है। ऐसी फिल्में जो जनमानस की समझ बढ़ाती हों उपेक्षा के साथ साथ अपेक्षित मानसिक दशा के अभाव की शिकार क्यों हो रही हैं?

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