शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

दर्पण

तुम दर्पण हो
पारदर्शी निर्मल !
सबको भीतर समो लेने जितने विशाल
देखा है तुममें मैंने खुद को नि:संकोच
निहारा है अपने अभावों को घण्टों बेरोक
ये सोचे बिना कि दर्पण से निष्प्राण नहीं तुम
कि तुममें भी चलती हैं साँसें
मचलती हैं भावनाएँ
उमड़ती-घुमड़ती हैं संवेदनाएँ
कि सोचते होगे तुम भी कुछ मेरे बारे में
मानती हूँ मैं तुम्हें
सिर्फ़ एक दर्पण
तुम रहते भी तो हो तटस्थ-दर्पण से
दिखाते हो मेरा अक्स कमियों समेत
मैं पल-पल सजती-सँवरती हूँ तुम्हें देखकर
इतराती हूँ अपने सुधरे और निखरे रूप पर
और भूल जाती हूँ
कि दर्पण नहीं हो तुम
दर्पण से एकरूप हो भी कैसे सकते हो तुम
मैंने देखे हैं तुम्हारे कई रूप
मैंने पाया है तुममें
पिता सा वात्सल्य और स्नेह
गुरु सी उदारता
शिशु सा भोलापन
मैंने माना है तुम्हे अंतरंग धड़कनों-सा
इसी से महज दर्पण नहीं हो सकते तुम
मुझे मेरा मैं दिखाने वाला।

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