किताबों की कई श्रेणी हैं। प्रत्येक श्रेणी की किताबों के अपने-अपने पैमाने होते हैं। मोटी धारणा किताबों के बारे में यह है कि किताब लेखक द्वारा लिखी जाती है। लेखक वह जिसके पास किताब लिखने का हुनर होता है। यदि वह अपने जीवन में लिखने के अलावा कोई अन्य काम नहीं करता तो एक दिन इस निशा-वासर अभ्यास से वह ऐसा इल्म ऐसी कारीगरी हासिल कर लेता है जिससे वह जैसी चाहे किताब लिख सकता है। उसकी किताबों में साधना और अभ्यास का तेज आ जाता है। यह तेज लोगों को बहुत प्रभावित करता है। अक्सर इसी साधना के ज़ोर से पाठक किताबों के यथार्थ को असल मानने को मजबूर हो जाते हैं। किताबों से पैदा होने वाली किताबों की दुनिया अंतहीन होती है। उसमें यदि एक बार प्रवेश हो जाये तो निकलना असंभव हो जाता है। सम्मोहन यह कि भ्रमण ही सरोकार बन जाता है। लेखक फर्नीचर बनाने वालों या इमारतें उठाने वालों की तरह माँग के नियमों, अधुनातन संसाधनों और पहले से तैयार नक्शों पर चलने लगते हैं। यदि ऐसी किताबों में कला, यथार्थ और विचार तीनों सध गये हों तो किताब रक्तबीज बन जाती है। उसकी एक-एक बात से नयी किताब पैदा होती है। उन किताबों की आलोचना, व्याख्या, विरोध से अकादमियाँ पैदा होती हैं, प्रकाशन संस्थान खड़े होते हैं, पुस्तकालयों की बेजान भुतही इमारतें तैयार होती हैं, सेनाएँ और सरकार बनती हैं। रक्तपात और नरसंहार होते हैं।
एक दिन ऐसी किताबों में डूबा हुआ गतिहीन पाठक संसार की असली पहचान ही खो देता है। वह सचमुच की दुनिया में अपनी पढ़ी किताबों का संसार न पाकर डर, असुरक्षा और अकेलेपन से भर जाता है। वह किताब से किताब और भाषा से भाषा के बीच चलने वाली दौड़ में इतना हाँफ़ जाता है, टीकाओं के इतने चक्कर लगाता है, व्याख्याओं की इतनी कसरतें करता है कि दुनिया में सही रास्ते चलने के मूलभूत दायित्व से भी हाथ जोड़ लेता है। वह किताबों की क़ब्र में लेटा दुनिया में नया देखने का ख्वाब देखता है। पुस्तकालय में घुसे हुए, किताबों से जूझते उसकी हालत उस बेचारे की सी हो जाती है जो पड़ोस में लगी आग देखकर बाल्टी में पानी भरकर दौड़ने की बजाय अपना कुँआ खोदना चाहता है। अक्सर वह अपना घर भी जलता हुआ देखकर घूरे में बैठकर छाती पीटता नज़र आता है। उसकी मनोदशा उस मद्यप की सी होती है जो बहुत पी लेने के बाद एक ही जगह पर पैर पटकता है और ज़ोर ज़ोर से रोता है कि इस बेरहम दुनिया की लंबी राह में मेरा घर नहीं आ रहा। कई बार वह किसी खंभे या पेड़ को भी जकड़कर पकड़ लेता है और गुहार लगाता है कि मैं आज़ाद होना चाहता हूँ। ग़ुलामों की इस दुनिया को जितनी जल्दी हो सके बदल देना चाहिए। इंसानों का शोषण रुक जाना चाहिए। वह अपनी मूर्ख ईमानदारी में यह समझने लगता है कि न्याय एक खैरात है और जिस दिन यह किताबों में बाँटी जायेगी दुनिया के सब लोगों को मिल जायेगी।
इन किताबों के लेखकों के समाज में ही एक और जमात होती है जिन्हें आलोचक और संपादक के बैज मिले होते हैं। इनका ओहदा समाज में लेखकों से भी बड़ा होता है। सारे कारीगर लेखक इन्हें सलाम ठोंकते हैं। उनके बस्ते ढोते हैं। उनकी बख्शीश पर पलते हैं। ये आलोचक और संपादक वास्तव में इन किताबों की कॉलोनियों के प्रापर्टी ब्रोकर होते हैं। अगर आपको कोई किताब पढ़नी हो उसे समझना हो तो इन्हें कमीशन चुकाना पड़ता है। इनके मारे आप कोई किताब अपनी मर्ज़ी से नहीं पढ़ सकते। ये इतने ताक़तवर होते हैं कि नाराज़ हो जायें तो किताब तो किताब लेखक को ही अगवा कर लेते हैं। अगर आपने किसी जिद या रौ में पढ़ ली किताब और उसके बारे में किसी से कुछ कह दिया तो ये आपके साथ वही सलूक करेंगे जो राजभाषाएँ बोलने वाले समाज में अपनी मातृभाषा में प्रार्थना करने वाले के साथ किया जाता है। ये अपने द्वारा बिना प्रमाणित किताबों को असभ्य और जंगली कहकर शहर से झुग्गी झोपड़ियों की तरह हटवा देते हैं। इनके व्याख्यानो के बुल्डोजर ग़रीब किताबों को ढहा देते हैं। इनके संपादकीय लेखों के ट्रक उन्हें नगर निगम के कचरा घर पहुँचा देते हैं। इनके पुरस्कारों की बंदूकें सच्ची किताबों को वैसे ही मार डालती हैं जैसे सरकारी पुलिस क्रांतिकारियों को। इतना ही नहीं यदि आप पर्यावरणीय वैभव से तंग आकर घर का कोई कमरा खाली करके कोई इंसान अपने आस-पास महसूसना चाहते हैं तो ये आपको ऐसा नहीं करने देंगे। इनका कमीशन बिना चुकाये न तो आप कुछ खरीद सकते हैं न बेंच सकते हैं न किसी को आश्रय दे सकते हैं। यदि आप किसी प्राचीन किताब की ध्वस्त कर दी गयी इमारत पर अपने पुरखों को याद कर अपना मन हल्का करना चाहते हैं तो ठीक उसी जगह जहाँ आपके पीड़ा या करुणा से बहे गरम आँसू गिरे होते हैं ये मसाले दार पान खाकर थूक देते हैं।
इसलिए ऐसी किसी किताब की बात छेड़ना बड़े जोखिम का काम है जो किसी लेखक ने न लिखी हो। लेकिन ऐसी किताबें हर समय में रहती हैं। वे हमारे आँसू पोंछ देती हैं। वे हमें रुला देती हैं। साथियों की याद हमारे दिलों में ज़िंदा रखती हैं। वे गीत की तरह आत्मा में उठती हैं हुंकार की तरह होठों में उमगती हैं। उनमें लिखा हुआ एक एक शब्द सच्चा, शुभ और दुआओं से भरा होता है। वे हमारी आँख को रोशनी देती हैं, दुख में भी हँसना, लड़ना और साथ रहना सिखाती हैं। वे न्याय माँगने की ज़िद को ज़िंदा रखती हैं। ऐसी किताबों के बारे में पुराने लोग कह गये हैं कि वे सदा इंसानों और इंसाफ़ पसंद लोगों के साथ-साथ चलती हैं। उन्हें टूटने नहीं देती। उनके हर शब्द पर यक़ीन किया जाता है। उन्हें सिरहाने रखकर सोया जाता है। रोज़ वैसा ही जीने की कोशिश की जाती है जैसा उन किताबों में लिखा होता है। इन किताबों के लेखक भाषा के व्यापारी संवेदना के लोक गायक होते हैं। एक विरासत सौंपने का काम करते हैं। इन किताबों के संपादक और प्रकाशक मिट्टी रूँधने का काम करते हैं। ज़माने की धूप, बारिश और धूल से चाक को बचाते हैं। उसमें अपने पसीने और जनता के सपनों का जल मिलाते हैं। ऐसी किताब लिखने वाले अपनी पीड़ा, अनुभवों और सपनों को केवल इसलिए साझा करते हैं कि साथियों को बल मिले। वे लड़ना और जीना नहीं छोड़ें।
ऐसी किताबें उस फकीर के गीत जैसी होती हैं जिसके बारे में एक क़िस्सा मशहूर है। एक बार तानसेन के साथ अकबर घूमने निकले। रास्ता बड़ा बीहड़ था। सुनसान। दूर-दूर तक इंसानों के चिन्ह नहीं। तानसेन और अकबर चल रहे थे कि तभी अकबर के कानों में एक गीत के सुर गूँजे। ये स्वर आत्मा की गहराइयों से निकले हुए और पवित्रता में डूबे हुए मानो ज़माने भर की पीर थे। अकबर अचंभे में। पूछा- तानसेन यह कौन गा रहा है? ऐसा संगीत तो मैंने आज तक नहीं सुना। तानसेन ने कहा- चलिए आपको उस महान गायक के दर्शन करवाता हूँ। अकबर और तानसेन नज़दीक पहुँचे तो देखा एक फटेहाल फ़कीर ऊँची चट्टान पर बैठा आसमान की ओर देखता मानो एक-एक तान अपनी सांसों की क़ीमत पर खीच रहा है। मानो वे संगीत के स्वर नहीं उसके प्राण ही हों जो अंतरिक्ष में गूँज रहे हैं। अकबर ने तानसेन से कहा यह कैसे हो सकता है तानसेन कि कोई तुमसे भी सुंदर गाता है। तानसेन ने कहा यह संभव है। कोई मुझसे भी बड़ा गायक है यही दिखलाने मैं आपको यहाँ लाया। अकबर ने पूछा वह तुमसे अच्छा कैसे गा लेता है। तानसेन ने उस फकीर के प्रति श्रद्धा से भरे हुए कहा बादशाह सलामत मैं अपने मालिक के लिए गाता हूँ वह अपने मालिक के लिए गाता है बस इतनी सी बात है। अकबर चुप रह गये। इस कहानी को यहाँ याद करने का मकसद केवल इतना कहना है कि ऐसी किताबें जिस मालिक के लिए लिखी जाती हैं वह जनता है।
‘यादों की रोशनी में’ एक ऐसी ही किताब है। यह कॉमरेड होमी दाजी के जीवन की ईमानदार दास्तान है। उनकी चिर संगिनी पेरीन होमी दाजी ने इसे लिपिबद्ध किया है। और कॉमरेड विनीत तिवारी ने इसे इस तरह संपादित किया है कि कोई किताबी इसे किताब के मानकों पर झुठलाने न पाये। एक तरह से होमी दाजी का जीवन, पेरीन दाजी का लिखना और विनीत तिवारी का संपादन तीनों एक ही हैं। एक ही राह के पड़ाव।
इस किताब के बारे में उपयुक्त कथन यही हो सकता है कि इसे पढ़ें, साथ रखें, और इसे बाँटा जाये। यह एक सच्चे जन नेता की याद है जो अपना पूरा जीवन जनता के लिये जिया। जिसने अपना पूरा परिवार समाज और देश को दिया। मगर ज़माने से अपने लिये उतना ही लिया जिसकी मात्रा कबीर बताते हैं- मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाये। यह ऐसी सच्ची किताब है जिसे पढ़ते हुए आँसू रोके नहीं रुकते। यह रोना किताब के अंत तक आते-आते दुनिया भर के वंचित शोषित लोगों के लिए रोने और अपने जीवन को दूसरों के लिए प्रस्तुत रहने की आकांक्षा में तब्दील हो जाता है। सो मेरी एक ही राय एक ही गुज़ारिश है इस किताब के बारे में कि इसे पढ़ें।
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