मित्रता का संसार बहुत बड़ा है। इसमें मित्रों की कई कोटियाँ शामिल हैं जो आवश्यकता एवं इच्छानुसार एक दूसरे को अतिक्रमित अथवा संक्रमित करती रहती हैं। इसका एक धुँधला-अपूर्ण एवं निरंतर गतिशील-परिवर्तनशील खाका मेरी दृष्टि में बन रहा है जिसे आपसे साझा करना चाहती हूँ। इसमें व्यक्तिगत तौर पर हर एक के अपने संशोधन हो सकते हैं। कृपया इस तस्वीर की धुंध हटाने के लिये अपने सुझावों की धूप डालें। मित्रों की कोटियाँ इस प्रकार हैं-
1- सहपाठी, सहकर्मी, सहधर्मी मित्र।
2- घरेलू मित्र, मोहल्ला मित्र, देशी-परदेशी मित्र।
3- साहित्यिक-व्यावसायिक, राजनीतिक-अराजनीतिक और नौकर-मालिक मित्र।
4- सोना मित्र, चाँदी मित्र, लोहा मित्र और मिश्र धातु मित्र।
5- बचपन-जवानी-बुढ़ापे के मित्र।
6- ज़रूरतें पूरी करने वाले, शौक़ पूरे करने वाले और समय काटने वाले मित्र।
7- सदाबहार मित्र और मौसमी मित्र।
8- परोपकारी, परजीवी और मृतोपजीवी मित्र।
9- नाम के, काम के, दाम के, जाम के, एक ही धाम के मित्र।
10- दूरदृष्टिदोषी, निकट दृष्टिदोषी, विघ्नसंतोषी मित्र।
11- शत्रु मित्र, मित्र शत्रु, मित्र के मित्र, शत्रु के शत्रु और शत्रु के मित्र, मित्र।
12- दूर से पास और पास से दूर मित्र।
13- पत्र मित्र, मोबाईल मित्र और नेट मित्र।
और इस तरह यह फेहरिश्त परिस्थितिजन्य कारणों से चाँद सी घटती-बढ़ती रह सकती है। जो केवल मित्र हैं, मित्र के सिवाय कुछ भी नहीं हो सकते उनसे मेरी विनती है कि उपरोक्त लिस्ट में न उलझें। उनके वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे मित्र होतें हैं और उन्हें तथा औरों को इसी से संतोष मिलता है। उलझन तो यह है कि ऊपर की कोटियों में से किस कोटि को मित्र मानें, किसी को मानें या किसी को भी न मानें। अकेले रहें या भीड़ में रहें। वसुधैव कुटुंबकम की भावना अपनायें या जायें कबीर के इस दोहे की शरण में
ऐसा कोऊ ना मिला, जासू कहूँ निसंक।
जासू हिरदय की कहूँ, सो फिरि मारै डंक।।
-कविता जड़िया
1- सहपाठी, सहकर्मी, सहधर्मी मित्र।
2- घरेलू मित्र, मोहल्ला मित्र, देशी-परदेशी मित्र।
3- साहित्यिक-व्यावसायिक, राजनीतिक-अराजनीतिक और नौकर-मालिक मित्र।
4- सोना मित्र, चाँदी मित्र, लोहा मित्र और मिश्र धातु मित्र।
5- बचपन-जवानी-बुढ़ापे के मित्र।
6- ज़रूरतें पूरी करने वाले, शौक़ पूरे करने वाले और समय काटने वाले मित्र।
7- सदाबहार मित्र और मौसमी मित्र।
8- परोपकारी, परजीवी और मृतोपजीवी मित्र।
9- नाम के, काम के, दाम के, जाम के, एक ही धाम के मित्र।
10- दूरदृष्टिदोषी, निकट दृष्टिदोषी, विघ्नसंतोषी मित्र।
11- शत्रु मित्र, मित्र शत्रु, मित्र के मित्र, शत्रु के शत्रु और शत्रु के मित्र, मित्र।
12- दूर से पास और पास से दूर मित्र।
13- पत्र मित्र, मोबाईल मित्र और नेट मित्र।
और इस तरह यह फेहरिश्त परिस्थितिजन्य कारणों से चाँद सी घटती-बढ़ती रह सकती है। जो केवल मित्र हैं, मित्र के सिवाय कुछ भी नहीं हो सकते उनसे मेरी विनती है कि उपरोक्त लिस्ट में न उलझें। उनके वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे मित्र होतें हैं और उन्हें तथा औरों को इसी से संतोष मिलता है। उलझन तो यह है कि ऊपर की कोटियों में से किस कोटि को मित्र मानें, किसी को मानें या किसी को भी न मानें। अकेले रहें या भीड़ में रहें। वसुधैव कुटुंबकम की भावना अपनायें या जायें कबीर के इस दोहे की शरण में
ऐसा कोऊ ना मिला, जासू कहूँ निसंक।
जासू हिरदय की कहूँ, सो फिरि मारै डंक।।
-कविता जड़िया
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