रविवार, 5 सितंबर 2010

यह देश जिन बच्चों को पानी देता है केवल उनकी भी प्यास मिटाने में अक्षम क्यों हैं?

हमारे देश की अच्छी स्कूलों में बच्चे खुश नहीं हैं.मैं जब यह कह रहा हूँ तो जानबूझकर यह नहीं कहना चाहता कि बच्चे कचरा बीनते हैं,मजदूर हैं,कुपोषित हैं एक शब्द में कहना चाहें तो कह सकते हैं अनाथ हैं.जिस उम्र में उनकी हड्डियाँ मज़बूत होनी हैं उस उम्र में वे जूठन खा रहे हैं.जब उनके बस्तों में रंग बिरंगी ढेर किताबें होनी हैं इस शर्त के साथ कि बस्ता तब भी फूल सा हल्का होना है तब उनके अंगों से भरे हुए पालीथीन सुंदर कॉलोनियों की नालियों में सड़ रहे हैं.थाना,अदालत,समाज सिर्फ़ देख रहे हैं.

मैं आज उन बच्चों की बात कर रहा हूँ जो उस वर्ग से आते हैं जिनमें से चुने हुए कुछ बच्चे हमारे देश के राष्ट्रपति को साल के यादगार त्यौहार रक्षाबंधन में राखी बाँधते हैं.उन बच्चों को कितनी सुरक्षा मिलती है राष्ट्र से ये तो बच्चों की माँ का दिल ही जानता है.या फिर वे हरे भरे पेड़ जो सचमुच बढ़कर उन्हें चूम नहीं सकते.दौड़कर बचा नहीं सकते.

तो उन कॉलोनियों के बच्चे जिनका नाम इस देश में किसी दिन निठारी हो सकता है और उनके स्कूल जिनके विद्यार्थियों को कभी भी अमेरिका या जर्मनी की फेलोशिप मिल सकती है अपनी पढ़ाई की उम्र में खुश नहीं हैं.वे महसूस नहीं कर सकते कि यह हमारी ज़िंदगी की बेहतरीन उम्र है.

उनके चेहरों में झल्लाहट है,तनाव है,काम पूरा नहीं कर पाने का अपराधबोध है,कक्षा में अपमानित हो जाने का डर है.भागती हुई दिन भर की कक्षाएँ हैं,शाम रात की मंहगी पड़ती कोचिंग हैं,प्रोजेक्टस और असाइनमेंट्स की व्याकुल तैयारी है,दौड़ी चली आती परीक्षाओं का डर है,सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने की जबरदस्ती है कुल मिलाकर बेस्ट रहने के अनुशासन का दुख है जिसे बच्चे साफ़-साफ़ टेंशन कहते हैं.

क्योंकि दुख का शब्दकोश उन्हें मिला ही नहीं.वे खुशहाल घरों से आते हैं.मां-बाप के दुलारे हैं.उन्होंने घर में कभी मार नहीं खाई.नियमत: स्कूलों में पीटे नहीं जा सकते.वे बच्चे कैसे दुखी होंगे?उन्हें सिर्फ़ तनाव होता है.इसे सुनिए तो रहा नहीं जाता कि बच्चों को टेंशन है.तनाव जो सिर्फ़ खोखला करता है.आँसू तो ताक़त भी बख्शते हैं.पर अच्छी स्कूलों के बच्चों को रोने का अभ्यास नहीं है.वे उस दुनिया में अपनी उमर जी रहे हैं जहाँ तनाव ही दुख है.

अच्छी स्कूलों के बच्चे खुशहाल बचपन में नहीं हैं.उनके माँ बाप मानते हैं कि ऐसी बात नहीं.घर में कोई कमी नहीं.बच्चों से पूछता हूँ तो वे कहते हैं.वीक में एक दो दिन ही लगता है कि हमारी लाइफ़ बेस्ट है.बाक़ी दिन होमवर्क,क्लासवर्क पूरा करने का टेंशन.मंथली टेस्ट की चिंता.कितना भी करें काम पूरा नहीं हो पाता.क्लास में इन्सल्ट होने का डर हमेशा बना रहता है.यह किन्हीं एक दो बच्चों की असलियत नहीं प्यार से पूछ लीजिए तो कोई भी बच्चा बता देगा.

इसी बीच स्कूलों में सीसीई यानी सतत समावेशी मूल्यांकन दाखिल हुआ है.कारण यह बताया जा रहा है कि साल का एक निर्णायक इम्तहान बच्चों को आत्महत्या जैसे क़दम उठाने की ओर धकेल देता है.वे नर्वस होते हैं.सीखने से ज्यादा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं.इस सीसीई में क्या होना है?संक्षेप में कहें तो बच्चे का साल भर मूल्यांकन होना है.उनकी हर गतिविधि का मूल्यांकन करना है यहाँ तक कि उनके व्यवहार विचारशीलता,सक्रियता तक का हिसाब रखना है.वे प्रात: कालीन सभा में कुछ करते हैं या नहीं,खेलकूद सीसीए आदि में उनका भाग लेना कितना है आदि-आदि.इन्हीं आधारों पर उन्हें अंको की बजाय ग्रेड मिलने हैं.91 से 100 तक पानेवालों का एक ही ग्रेड A1 होगा.A1 पानेवाले एक दसरे का कम-ज्यादा होना नहीं जान सकेंगे. यानी प्रतियोगिता रुकेगी.स्वस्थ सीखना होगा.

पर बच्चों का कहना है ऐसे में हमारा बचपना छिन जाएगा.हमें बनावटी रहना पड़ेगा.पुराने लोगों ने अपने समय में मस्ती कर ली और हमें हर समय के आब्जरवेशन में रख दिया.हम चोर हैं क्या?कि शिक्षक हमें हर समय जाँचें.हम शरारतें कब करेंगे?दूसरे मेधावी बच्चों का कहना है.91 और 100 बराबर हो गए.91 पानेवाला समझेगा मैं 100 पानेवाले के बराबर हूँ इससे तो हंड्रेड नंबर लाने की खुशी ही खतम हो गई.

कुल मलाकर तमाम शैक्षिक प्रयोगों और सुविधाओं के बीच बच्चे संतुष्ट नहीं हैं.मैं सोचता हूँ जिनके लिए सबकुछ है वही बच्चे तनाव में हैं तो उनकी कौन सुनेगा जो जीवन भर नया कपड़ा नहीं पहन पाते.जो खुद भूखे रहकर स्कूल कैंटीन में अपने ही हमउम्र बच्चे को खाना परोसते हैं. अच्छी स्कूलों की बच्चियाँ तो बलात्कार के डर से लेकर प्रेम में पड़ जाने तक का दु:स्वप्न जीने को मजबूर हैं.मैं सचमुच यह बोल रहा होता तो मेरी ज़बान की कंपकपी आप महसूस कर सकते. यह सब कहते हुए मैं उन बच्चियों की भी चिंता से अवगत नहीं कराना चाहता जिन्हें न स्कूल है न घर.जिनके लिए गर्भ भी सुरक्षित नहीं है.जाने कब उच्च चिकित्सा का भेदी कैमरा पकड़ ले और धरती पर आ ही न पाएँ.


मैं यह लिखते हुए सिर्फ़ यह पूछना चाहता हूँ कि यह देश जिन बच्चों को पानी देता है केवल उनकी भी प्यास मिटाने में अक्षम क्यों हैं?

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