मेरे प्यारे देश
भारत,
आज जबकि मैं वह हूँ,
जो होना चाहती थी, तो इसका सारा श्रेय मैं तुम्हें देना चाहूँगी। तुमने मेरी
साँसों को हवा दी, जीवन को अन्न-जल और विकास को वह सुंदर दुनिया, जिसमें सपनों के
विस्तार के लिए अनंत आकाश था और उन्हें साकार करने के लिए असीम धरा।
बढ़ती उम्र की समझ
के साथ मैंने जाना कि तुम अपनी एक ऐसी विशेषता के कारण अपने आत्महिंसक, आत्मपीड़क
पड़ोसी देशों से अलग और महान हुए, जो संविधान द्वारा तुम्हें दी गयी उद्देशिका है-
सम्पूर्ण संप्रभुता संपन्न लोकतंत्रात्मक संघ गणराज्य और पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक
समाजवादी। यह एक प्रतिज्ञा तुम्हारी उस पवित्र और उदात्त आत्मा का प्रतिबिंब है
जिसमें सबके लिए सबकुछ है। अपनी आदिम अवस्था से तुम अपने इसी धर्म का पालन करते आ
रहे हो। ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों और इतिहास को पढ़कर मैंने जाना कि तुम्हारी
धरती दुनिया के तमाम बाशिंदों को अपनी गोद में पालने, उन्हें संरक्षण व मुक्त आकाश
देने को सदा से आतुर रही है। वात्सल्य का ऐसा अनुपम भंडार धरती के किसी और टुकड़े
पर नहीं दिखता।
मैं सच्चे दिल से
यही प्रार्थना करती हूँ कि तुम्हारी वनस्पतियाँ सदा हरी रहें, तुम्हारी नदियाँ सदा
भरी रहें, तुम्हारे पशु-पक्षी, खेत-खलिहान, किसान-जवान और सभी इंसान सदा सलामत
रहें।
पर सच कहूँ- मन तब
उदास ज़रूर हो जाता है जब सत्ताओं की शतरंज में तुम्हें मोहरा बना देखती हूँ।
तुम्हारी हरी-भरी धरती की चटख रंगत जब चंद रंगों और तूलिकाओं में समेटने की कोशिश
की जाती हैं, तुम्हारी उदात्त आत्मा को जब तुम्हारे ही आत्मज और आत्मजाएँ खंडित
करने का प्रयास करते हैं, जब एक ओर तुम्हें माता का दर्ज़ा देकर पूजनीय बनाया जाता
है और दूसरी ओर सत्ताओं का लोभ, क्षुद्र स्वार्थों का अतिरेक तुम्हारे आत्म सम्मान
को तार-तार करते हैं, तब मेरी आँखों के सामने बार-बार अपने प्यारे भारत के आँगन
में युधिष्ठिर के जुएँ का खेल और द्रौपदी के चीर हरण का दृश्य अपनी पूरी नग्नता के
साथ जीवंत हो उठता है।
ऐसा नहीं है कि
तुम्हारे साथ यह सबकुछ मेरे ही जीवन काल में हो रहा है ! हाँ, मेरी पीड़ा नयी है,
तुम्हारा दुख सदियों पुराना है। यह दुख कुछ बुरा नष्ट न कर पाने के लिए उतना नहीं
है, जितना आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ अच्छा सहेज न पाने का, अपने बच्चों को सुंदर
और स्वस्थ वातावरण, स्वच्छ पर्यावरण, पवित्र और लोकमंगलकारी आचरण न दे पाने का है।
मेरे प्यारे देश भारत
! मैं कैसे मान लूँ कि
जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता, अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोज़गारी जैसी अनगिनत
समस्याओं की सौगात साथ लेकर आ रही राजनीति में दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी तुम्हारे
आत्मगौरव की रक्षक होगी, तुम्हारे प्रेम के विस्तार को समझ पाने की संवेदनशीलता
उसमें होगी ! वह मानव धर्म को सभी
धर्मों से ऊपर मान भी पायेगी या नहीं !!
प्यारे भारत ! मैने बहुत जादुई उम्मीदें
नहीं पाल रखी हैं तुमसे। बस एक दिन ऐसा आए, जब तुम्हारे सबसे कमज़ोर और अकेले
इंसान तक मदद के हाथ पहुँचे, एक रात वह शुरुआत हो, जब तुम्हारा सबसे ग़रीब इंसान
भूखा नहीं सोए- ऐसे दिनों और ऐसी रातों वाला प्यारा भारत बनते मैं तुम्हें देखना
चाहती हूँ।
तुम्हारी बेटी
कविता जड़िया
शिक्षिका, के वि
उज्जैन
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (27-05-2019) को "खुजली कान के पीछे की" (चर्चा अंक- 3348) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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