शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

धरती ने घूम लिया आषाढ़


बेटी को मां पालती आयी
पिता बेटी को बढ़ता देखता आया
बेटी का साथ पिता के नसीब में नहीं था
पिता को बेटी के साथ खिलखिलाना था
मगर वह मौके पर फफक पड़ता आया

पिता के हाथों बेटियां बड़ी हो रही हैं
मां से हजारों मील दूर पढ़ रही हैं
बेटियों का दिल मां जितना बड़ा है
कंधे पिता जितने मज़बूत

अब बेटियां
पिता के साथ चलती हैं
जड़ें गहरी हो रहीं
फलों में भर रहा स्वाद


-शशिभूषण

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (04-07-2015) को "सङ्गीतसाहित्यकलाविहीना : साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीना : " (चर्चा अंक- 2026) " (चर्चा अंक- 2026) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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