दंगल शानदार फ़िल्म है। इसमें बेटियों जैसी बेटियां हैं बाप जैसा बाप। गांव जैसा गांव है और घरनी जैसी पत्नी। प्रेम, अनुशासन, सपने और खेल भावना के निश्छल रूप से रची है फ़िल्म।
लेकिन फ़िल्म की सफलता केवल इसी में नहीं है। फ़िल्म की जान है, वहां है जहां पहलवान जैसा पहलवान है और गुरु जैसा गुरु।
आज अगर हिंदी के अप्रतिम कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ज़िंदा होते तो उनका सीना चौड़ा हो जाता। रेणु ने 'पहलवान की ढोलक' जैसी कहानी लिखी है। आमिर ने भारत की बहुत प्रिय कुश्ती में जीवनी फूंकने की कोशिश की है।
बेटी का बाप अगर बेटी के लिए अपना सब दांव पर लगा दे, बेटी पिता की शाबासी को तरसे। जब वह क्षण आये जिसके लिए कुश्ती जीना ही शुरू हुआ था तो बेटी गोल्ड मेडल पिता के हाथों पहनना चाहे इससे बड़ी कहानी क्या होगी?
इससे बड़ा कहानी का, खेल का, फ़िल्म का साधारणी करण क्या होगा?
दंगल में एक मिनट भी भरती का नहीं है। गानों और रोमांस में वक्त ख़र्च नहीं हुआ है। फ़िल्म कुश्ती या रेसलिंग में ही रची बसी है। खेल, रिश्ते और खेल नीतियां फ़िल्म में अपनी बारीकियों से उभरे हैं।
मां, पिता, गीता, बबिता, चचेरा भाई, गांववाले, चिकनवाला, कोच, मेडल, हार-जीत, अपनत्व सब रिश्ते बड़े हाड़ मांस के बने लगते हैं। यह खेल पर बनी राष्ट्रीय महत्व की फ़िल्म है जिसमें बेटियों का, बहनों का, मां का, गांव की छोटी बच्चियों का मान और मन दोनों दीखता है।
मुझे लगता है फ़िल्म की वह भी एक बड़ी सफलता है जब फ़िल्म में राष्ट्रगान बजता है। कमरे में बंद कर दिया गया पिता जान जाता है जीत गयी बेटी, बेटी जीत गयी है। वह खड़ा हो जाता है।
मैंने देखा पूरा सिनेमा हॉल खड़ा हो गया है। सचमुच। पूरी गंभीरता के साथ। शुरुआत से पहले राष्ट्रगान में सब खड़े न हुए थे। जो खड़े हुए थे उनमें मसखरी भी दिख रही थी।
लेकिन फ़िल्म के राष्ट्रगान ने मानो अपना वही असर दिखाया जिसकी कल्पना राष्ट्रगान को लेकर कभी सच्चे लोगों ने की होगी या आज भी करते होंगे।
फ़िल्म की बाक़ी खूबियां अधिकारी लोग बताएँगे। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ। चाहे जैसे मन के साथ फ़िल्म देखने चले जाइए। जब लौटेंगे आपके पास एक बड़ा दिल होगा। तारीफ़ से अधिक आत्मबल और धन्यवाद।
धन्यवाद आमिर आपने सच्चे मन से बड़ी लगन, बड़े शोध से, बड़े सपने के साथ फ़िल्म बनाई है।
शशिभूषण
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