शनिवार, 10 दिसंबर 2016

कहि न जाई का कहिए

स्थान: अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा परिसर में स्थित कुलपति, उपन्यासकार विभूतिनारायण राय का आवास।
समय: रात के लगभग साढ़े नौ से दस बजे के मध्य।
अवसर: अज्ञेय आदि लेखकों के जन्म शताब्दी समारोह के अंतिम दिन कुलपति आवास में रात्रि भोज।
उपस्थित जन: हिंदी के लगभग सभी नए पुराने महत्वपूर्ण साहित्यकार।

सहसा युवा कहानीकार और उपन्यासकार कुणाल सिंह ने मुझे आवाज़ दी- शशिभूषण, इधर आओ।

मैं नज़दीक पहुंचा। चन्दन पाण्डेय, मनोज मनोज पाण्डेय, कैलास वनवासी सहित कई लोग थे। एक गोल घेरा था जो वरिष्ठों से अलग जान पड़ता था।

कुणाल सिंह- शशिभूषण, इससे मिलो ये है कहानीकार आशुतोष मिश्र। इसने एक कहानी लिखी है 'रामबहोरन की अनात्म कथा'। तदभव में छपी है।

मैं- सुना है मैंने कि इनकी कहानी आयी है।
कुणाल सिंह- तुम उसे पढ़ो।
मैं- ज़रूर पढूंगा।
कुणाल सिंह- मैं चाहता हूँ तुम पढ़ो और उसकी बुराई करो।
मैं- बुराई भी की जा सकती है। लेकिन पढ़ने और बुरी लगने के बाद ही। मैं ज़रूर पढूंगा।
कुणाल सिंह- मैं चाहता हूँ तुम कहानी के विरोध में लिखो। तुम कर सकते हो।

मैं आगे नहीं बोल पाया। समझ भी नहीं पाया कि कुणाल सिंह ने मुझसे यह क्यों कहा? 

बात केवल इतनी ही हुई थी कि मैं दिन के एक सत्र में आशुतोष मिश्र द्वारा सत्यनारायण पटेल की कहानी की भाषा में मालवी या देशज प्रयोग  के सम्बन्ध में की गयी एक प्रतिकूल टिप्पणी का विरोध कर चुका था।

शाम के झुटपुटे में धीरेंद्र अस्थाना की कहानी 'पिता' के पाठ के दौरान आशुतोष को सुनील कुमार 'सुमन' समझ लेने की गलती कर चुका था। जब पास जाकर उल्लास से मिला तब पता चला आप आशुतोष मिश्र हैं। मुझसे  जल्दी के कारण पहचानने में गलती हुई थी।

बहुत बाद में अनुभव में आया आशुतोष मिश्र की एक कहानी सत्यनारायण पटेल के यहाँ विचारार्थ आई हुई है। वे उससे काफ़ी असंतुष्ट हैं, फ़ोन पर बता भी देते हैं लेकिन वह कहानी पत्रिका 'पल प्रतिपल' में छपती है।

'पल प्रतिपल' का वह अंक कथा का समकाल बनता है। आशुतोष, ठीक-ठाक कहानीकार माने जाने लगते हैं। या कहिये वे शुरुआत से ही अच्छे कहानीकार थे। उनसे दूसरे शहर में भी भेंट होती है। वे बहुत अच्छे से मिलते हैं।

लेकिन कहानीकार और उप संपादक रहे कुणाल सिंह जिनके लेखन से किसी भी अच्छा लिखनेवाले युवा लेखक को ईर्ष्या हो जैसे अचानक आउट ऑफ़ रीच हो जाते हैं। पहले जेएनयू छोड़ते हैं फिर दिल्ली भी छोड़ देते हैं।

कुणाल सिंह की उपस्थिति से फेसबुक भी उदासीन रहने लगता है। अब उनकी वाल पर शशिभूषण द्विवेदी और उमाशंकर चौधरी आदि लेखक नहीं लड़ते। कुणाल सिंह कहाँ हैं, कैसे हैं कोई खबर नहीं आती।

मुझे, जिसकी कुणाल सिंह से गाढ़ी मैत्री नहीं रही उनकी याद आती है। मैंने इस युवा लेखक को पहली कहानी से अब तक की आखिरी कहानी तक पढ़ रखा है।

साहित्यकार और साहित्यिक रिश्ते भी कितने गुमसुम से होते हैं। कभी समझ में नहीं आते, कभी दिखाई नहीं पड़ते।

शशिभूषण

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