शनिवार, 24 दिसंबर 2016

केवल परिचय ही नहीं काम भी होना चाहिए

रोहिणी अग्रवाल, हिंदी कथा साहित्य की महत्वपूर्ण विपुल समीक्षक हैं। न केवल कहानियों पर बल्कि उपन्यासों पर भी किताबें लिखीं। लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में लंबे लंबे लेख छपते आ रहे हैं।

अब ठीक से याद नहीं 2005-06 के किसी महीने में अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय हिंदी की एक पीएचडी के लिए मौखिकी लेने आती हैं। हिंदी विभाग में हमारी उनसे भेंट और लंबी बातचीत होती है। कविताएं भी सुनी सुनाई जाती हैं।

रोहिणी जी एक अत्यंत चौकाने वाली बात बताती हैं कि मेरा नाम जाने कैसी शरारत में कुछ लोगों द्वारा राजेंद्र यादव की घाघरा पलटन में जोड़ दिया गया है। सच यह है कि मैं राजेंद्र यादव से अब तक एक बार भी नहीं मिली हूँ। फोन पर बात हुई। मैं लेख भेज देती हूँ और वे हंस में प्रमुखता से प्रकाशित होते हैं।

इसके बाद वे ख़ुद आश्चर्य व्यक्त करती हैं कि दिनेश जी(कवि दिनेश कुशवाह) आपके हिंदी विभाग में आलोचना की किताब पर इतनी अद्यतन जानकारी रखने वाले विद्यार्थी हैं। स्मरण रहे रोहिणी जी की उपन्यास पर किताब साल डेढ़ साल पहले ही आई थी।

लगभग छह-सात महीने बाद कथादेश में मेरी एक कविता 'क्रांति के सिपाही की जेब में प्रेम कविता' छपती है। एक दिन शाम को रोहिणी जी का फ़ोन आता है। वे बधाई देती हैं और वैसी ही उम्दा बात करती हैं जैसी बातें स्त्री विमर्श से सम्बन्ध रखनेवाले किसी अच्छे आलोचक को करनी चाहिए। मैं उनका आभार मानता हूँ और जितना खुश हुआ जा सकता है ख़ुश हो जाता हूँ।

इसके कई साल बाद जब मैं पाता हूँ कि रोहिणी जी भी फेसबुक पर आ चुकी हैं उन्हें तत्काल मित्रता निवेदन भेजता हूँ। पिछले अप्रैल में मेरी उनसे भोपाल में वनमाली स्मृति सम्मान के कार्यक्रम में भेंट होती है। दोपहर में चाय के दौरान उनसे आत्मीय नमस्कार होता है और कहानीकार राकेश मिश्रा, मनोज पांडेय और आलोचक राहुल सिंह के साथ अच्छी सी बात भी होती है।

इन सबके बावजूद इतने साल बाद भी फेसबुक पर मित्रता निवेदन पेंडिंग है। मैं सोचता हूँ एक इनबॉक्स करना चाहिए। लेकिन लगता है अनुरोध के लिए भी अनुरोध ठीक नहीं। किसी आलोचक को याददाश्त पर जोर डालने के लिए कहना कदाचित धृष्टता होगी। मैं इनबॉक्स नहीं करता।

समीक्षक रोहिणी अग्रवाल के विषय में सोचता हूं तो एक बात, ज़रा भिन्न प्रसंग और याद आ जाता है। वनमाली स्मृति सम्मान समारोह में ही आलोचक विजय बहादुर सिंह जी मिलते हैं। वे संतोष चौबे जी, प्रभु जोशी जी और स्वयं प्रकाश जी के साथ खड़े हैं। मैं अपनी सभी पुरानी पहचान समेटकर दोनों हाथ जोड़कर उनसे नमस्कार करता हूँ। विजय बहादुर जी नमस्कार का जवाब देने की बजाय अपने दाएं हाथ को प्रतिज्ञा की मुद्रा में तानकर तर्जनी सीधी कर लगभग सबको सुनाकर कहते हैं मैं इन्हें नहीं जानता।

मैं सन्न रह जाता हूँ। मेरी समझ में नहीं आता अभिवादन का यह कैसा जवाब था। उनके द्वारा जिनसे कई बार मिलना हो चुका है और जिनकी तीमारदारी जैसे कामों में भी लगना पड़ा था। क्या क्या संभव है! ऐसे ही किसी क्षण में बुजुर्गों के लिए स्थायी अरुचि उत्पन्न होती होंगी। खैर

कुल मिलाकर बाक़ायदा स्टेटस लिखकर कहना यह चाहता हूँ कि हमारे आलोचक बुरे नहीं हैं लेकिन उनकी याददाश्त बड़ी सेलेक्टिव है। जिन्हें भी यह भ्रम है कि हिंदी में उच्च शिक्षा ग्रहण करने से साहित्यिक प्रतिष्ठा वृद्धि में कोई बड़ा सहयोग मिलता है वे अपनी राय दुरुस्त कर लें। हर बात की एक सीमा होती ही है। हर आदर चाटुकारिता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। किसी को भी भाव न देने की बेलगाम प्रवृत्ति खुद्दारी या ईमानदारी ही नहीं होते।

कभी कभी अपयश की ही तरह यश भी संक्रामक होता हैं। अपरिभाषित ढंग से बढ़ता जाता है। केवल परिचय ही काफ़ी नहीं। अपना काम भी याद दिलाने लायक होना चाहिए।

शशिभूषण

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