कक्षा 4 से भाषण देना शुरू हुआ। छठवीं कक्षा तक आते-आते यह डिबेट के जूनून में बदल गया। हराया भाषण में भी जा सकता था। हराया भी। लेकिन जीत हार के लिए डिबेट सबसे उपयुक्त था। डिबेट में जीत लेने का आनंद अधिक आता। विषय मिलता तो पहला अनुमान यही लगाया जाता विषय के किस तरफ़ बोलनेवाले कम होंगे? यानी कौन सा पक्ष कठिन ठहरेगा? किसमें बोलकर खुद को साबित करने का अधिक अवसर होगा?
जब एक चरण जीत जाते तो अगले चरण के लिए पक्ष बदल भी लिया जाता। अब दूसरा पक्ष बोलकर देखते हैं। कई बार ऐसा भी होता कि पार्टनर से समझौता होता ठीक है तुम्हें पक्ष पसंद है तो हम विपक्ष में बोल लेंगे। मकसद केवल बोलना और जीतना होता था। कभी लगा ही नहीं कि बोलने से अधिक किसी पक्ष से बंधना भी ज़रूरी होता है। जीतने की बधाई इतनी महत्वपूर्ण हो चुकी थीं कि हारने के लिए सही पक्ष चुनना ठीक नहीं लगा। कोई गुरु भी नहीं मिला जो बताता जिसे खुद सही मानते हो उस पर जीतकर दिखाओ। बोलना इतना अच्छा लगता था जीतने का नशा ऐसा होता कि पार्टनर को विपक्ष की तैयारी कराकर खुद पक्ष में बोल आते। कभी इसके उलट भी कर डालते। इस अभ्यास का एक फ़ायदा यह हुआ कि विपरीत तर्क भी सोचने की आदत लग गयी। कोई भी तर्क आये तो यह भी मन में आता है विरोधी क्या कह सकता है? तब क्या कहेंगे?
यह बहुत बाद में हुआ और कह सकते हैं कि ठीक से अब तक नहीं हो पाया है सिर्फ़ कोशिश जारी है कि बोलने से अधिक, जीतने से ज्यादा सही तर्क के साथ रहा जाये। उस बात का हाथ पकड़ लिया जाये जो आगे जाकर आत्मबल बढ़ाएगी।
कुल मिलाकर कहना यह है कि इधर जो लोग महज़ खुद को साबित करने के लिए दंगल के विरोध में दूर की कौड़ी ला रहे हैं उन्हें दो चार बातें मैं भी सुझा सकता हूँ। लेकिन खुद दंगल के पक्ष में इसलिये हूँ कि यह फ़िल्म बहुत नेक उद्देश्य के साथ लोगों से साधारणीकृत होती है। होगी यदि पूर्वाग्रह छोड़कर देखी जाये। उड़ता पंजाब भी इसीलिए पसंद आई थी कि यदि लोग देखेंगे तो सबक ले सकते हैं।
इस फ़िल्म की कहानी में भी औपन्यासिकता है। कहानी और औपन्यासिक कहानी नितान्त भिन्न होती हैं। कुछ सरल रेखीय कहानियों के खिलाड़ी इसमें जिन झोल की चर्चा कर रहे हैं, किसी चरित्र के बचाव को जैसा प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पेश कर रहे हैं उनके सारे जवाब इसी कहानी में कमोबेश दे दिए गए हैं। कोच अपनी इंट्री के साथ ही चीखकर साबित कर देता है कि उसे क्या बुरा लगा है और आगे उसका क्या स्टैंड रहनेवाला है नतीज़ा चाहे जो हो। यदि उसका हृदय परिवर्तन भी दिखाने की कोशिश होती तो कहानीकार रिंग मास्टर ही लगता। यदि संवादों को याद कर सकने लायक याददाश्त हो तो याद आएगा हर घटना का दूसरा पहलू फ़िल्म में है।
फ़िल्म में गीता और बबिता ही मिलकर भी बाप से लड़ती हैं और परस्पर भी। लगभग हर चरित्र अपनी निजता के साथ है। कोच शायद इसलिए इतना एकतरफ़ा है कि फिर अकादमियों का चरित्र आम आदमी के समझ से परे हो जाता। भ्रष्टाचार अपनी विडंबना के साथ सामने न आता। लोगो को अभी केवल इतना ही समझाया जाता है कि भ्रष्टाचार धन से जुड़ा मसला है। यह प्रशिक्षण की गहराई तक है, प्रतिभा की जड़ में मट्ठा डाल देने तक पैठा है कोच खूब प्रकट करता है। जिस देश में अकादमियों के प्रमुख से लेकर प्रोफेसर, कुलपति, न्यायाधीश, संपादक तक की नियुक्तियां सिफ़ारिश पर होती हों वहां कोच के लिए व्यथित होना एक अलग इशारा अपने आप है।
ध्यान से देखिये अब तक के सभी आरोप के हैं जवाब। मिलेंगे। ज़रूर मिल जायेंगे। बशर्ते थोड़ी एकाग्रता साध पाएं। और हां खुद को कहानी के चैंपियन समझनेवाले समीक्षक यह न भूलें कि कहानी के पात्र कहानी बड़ी हो या छोटी कहानीकार की कठपुतली नहीं होते।
फ़िल्म दुरुस्त है। याद करें महावीर फोगाट सोती बेटी के पांव दबाते हुए पत्नी से कहता है मैं एक समय में बाप या गुरु ही हो सकता हूँ।
रही बात इन दिनों देशभक्ति की तो कोई निंद्य या निषिद्ध काम नहीं यह। खिलाडी सोच सकता है मैं देश के लिए मेडल लाऊंगा। लेखक या आलोचक भी यह सोचता ही है मैं अलख जगाऊँगा, समाज में जागृति और परिवर्तन लाऊंगा। यह कितना हो पाता है सबको पता है।
मेरी तरफ़ से इतना ही। यदि किसी को लगता है कि अच्छी फ़िल्म के लिए लोगों को प्रेरित करने की कोशिश करना, अहं वादी समीक्षा का विरोधी होना व्यक्तिगत होना है तो वह हमेशा की तरह निरपेक्ष दिखते हुए मुझे हलवाई, मूर्ख या गधा कह सकता है। मैं ऐसे चालाक मित्रों को पब्लिकली दिल से प्यार करता हूँ।
जय हिंद
शुभ रात्रि
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