शनिवार, 10 दिसंबर 2016

शिक्षा ही एकमात्र उपाय है

हमेशा नहीं लेकिन कभी-कभी चेक करना चाहिए। हम जो बातें बोलते हैं, जो बातें लिखते हैं और हमारी जितनी बातें थोड़े पढ़े-लिखे लोगों को भी सबसे साधारण यानी औसत मानी जाने लायक लगती हैं; उन्हीं बातों का कितने प्रतिशत, भारत में जिसे जनता कहा जाता है वह समझ सकती है?

स्थिति सचमुच बहुत दयनीय है। हम बोल देते हैं लाख, बोल देते हैं करोड़। सिर्फ़ बोल देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अभी हमारे देश में करोड़ो लोगों को यह जानना बाक़ी है कि एक करोड़ में कितने लाख होते हैं। एक करोड़ में कितने हज़ार होते हैं यह अच्छा खासा करोड़पतिया सवाल है। जिसे पूछकर कोई भी अमिताभ बच्चन भारत का पॉकेट मार सकता है।

इनकम टैक्स, काला धन, 2जी, 3जी स्कैम, पेटीएम वगैरह भारत के लोगों के लिए बड़ी ऊँची या दूर की बात जैसी हैं। आप हायर सेकंडरी पास इंसान से पूछ कर देखिये वो इनकम टैक्स के बारे में कुछ बता पाये तो मुझे जितनी मर्ज़ी आये बोलिये। सच यह है कि भारत में राजपत्रित अधिकारी न अपना आयकर कैलकुलेट कर पाता है न किसी किस्म का कोई फॉर्म बिना क्लर्क से पूछे भर पाता है।

हम चाहे जितनी मामूली जागरूकता संबंधी बात करें भारत के लिहाज़ से वह जनता को अगले पचास साल में समझ में आनेवाली बात होगी। माफ़ कीजियेगा मैं अभी उस जनता की बात कर रहा हूँ जो मतदान केंद्र तक सचमुच जाती है।

हम अक्सर जिन चर्चाओं में मग्न होते हैं जिन परिसंवादों के लिए लाखों फूँक देते हैं उनके सन्देश जनता को समझने लायक होने में लंबे समय और करोडो और फूंकने की ज़रूरत होती है। यही कारण है कि भारत का रेलवे उसी ट्रेन का उसी सीट का टिकट 10 प्रतिशत अधिक में बेच लेता है जो कुल सीट के 10 प्रतिशत के बाद बुक होता है।

माफ़ कीजियेगा भारत की खोज व्यापारियों ने की थी। उन्होंने खोजा तो उनकी औलादें उसे भुना रही हैं। आप पहले अपना भारत इकठ्ठा कर लीजिए तो जितनी मर्ज़ी चाहे लोकतंत्र बनाइये। अभी जो लोग भारत के भाल पर शुभ लाभ लिख रहे हैं कायदे से वे अपने खोजे भारत पर ही लिख रहे हैं।

मेरी राय में हम अमेरिका का मन चाहे जितना समझते हों लेकिन जिसे भारत की जनता कहते हैं वह गंभीर रूप से अशिक्षित रखी जाती आ रही है। उसे अशिक्षित रखने में हमारे पढ़े लिखे लोग आगे आगे रहे हैं। सब्र रखिये उन्हें राष्ट्रवाद अवश्य सम्मानित करेगा। उनकी मूर्तियां न बनें तो कहिएगा।
जनता को हमारी बातें समझ में नहीं आतीं। हम किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों जैसी बात करते प्रतीत होते हैं। यह बिलकुल जायज़ है।

वरना ऐसा हो नहीं सकता था कि भयंकर उच्चारण दोषों और ग़लत सूचनाओं से बजबजाते भाषण सुनने लोग घंटों धक्के खाते। क्या लोगों को सचमुच याद नहीं सरकारों को कुल कितने साल हुए? किस सरकार के कितने साल बैठते हैं? हद है। लोग जानते होते तो टोकते। धोबी जितना जानता था उतना उससे पंडितों ने टोकवाया कि नहीं? मुझे नहीं मालुम आप कितना सहमत होंगे लेकिन भारतीय लोक में एक मान्यता यह भी है कि जो नाकियाकर बोलता है, वह सच्चा नहीं होता। फिर क्या हुआ कि झूठ नारे बन गए?

हमारी दिक़्क़त यह है कि सबसे साधारण बुद्धिजीवी भी जल्द ही भविष्य में समझ में आनेवाले की गति को प्राप्त हो जाता है। हमारे मन में जनता के लिए करुणा नहीं पायी जाती बल्कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों से हीन क़िस्म की प्रतिस्पर्धा पायी जाती है। हमारे लिए बौद्धिकता कर्तव्य नहीं प्रतिष्ठा युद्ध है। जनता नहीं जानती पानी कैसे बनता है उसे अभी पेट की आग का ही खूब अनुभव है। वह दिल में आग जलाने के बारे में कैसे सोच सकती है? मैं इस बात से बहुत दुखी रहता हूँ कि अति साधारण होने के बावजूद लोगों के लिए अबूझ क्यों और कैसे सोचने लगा? इतनी ऊँची ऊँची बातें!!! धिक्कार है!!!

वे लोग जो राज करना चाहते हैं हम लोगों को बखूबी जानते हैं क्योंकि वे उन्ही(जनता) के बीच के हैं। भारत के अधिकांश नेता कम पढ़े-लिखे और कदाचित अज्ञ हैं। यही उनके लिये वरदान है। उनके लिए धर्म का ज्ञान काफ़ी है। वे जनता से धर्म के तार से तुरंत कनेक्ट होते हैं। हो सकते हैं। धर्म के बारे में आप जानते हैं वह नासमझ लोगों के लिए पहले समर्पण फिर घृणा और उन्माद ही है। जहाँ धर्म होगा वहां मत का क्या काम? धर्मस्थल में लोकतंत्र किस चिड़िया को कहते हैं?

वे धर्म के रास्ते अतिचार और शासन में हैं आप उन्हें लोकतंत्र से हराना चाहते हैं। कैसी अहमक बात है! निरी असंभव कामना।

भारत को धर्म की नहीं शिक्षा की ज़रूरत है। शिक्षा के लिए काम होना चाहिए। शिक्षा के काम आइये। बाक़ी हवाई बातें हैं कि वामपंथ क्यों फ़ेल है? नेहरू में कहाँ कमी रह गयी?? किस बात का पंथ? कहाँ कि मंजिल? अँधेरी खाई में हैं लोग तो पहले बाहर निकालिये। फिर अपने माचिस का करतब कीजियेगा।

एक मोटी बात याद रखिए जिसे हनुमान चालीसा पढ़ने की लत है, जो गीता या क़ुरान पर मरने मारने को तैयार है, जो टीवी देखता है उसे कुछ भी समझा पाना नामुमकिन है। यदि ऐसे विज्ञापन बन रहे है कि शौच के बाद हाथ अवश्य धोएं तो दो ही बात हो सकती हैं। जनता मूर्ख है या विज्ञापन का धंधा चालू आहे। तीसरी बात केवल देवता सोच सकते हैं। क्योंकि भारत के लोग इतने गंदे नहीं हो सकते। जहाँ सोच वहां शौचालय धन्य है! धन्य धन्य अभिनेत्री!! यही कहने का मन होता है बेवजह माथा मत फोड़िये। जनता को धीरे धीरे इस लायक कीजिये कि वह दुनिया को समझने लगे।

उम्मीद है शिक्षा। उपाय है शिक्षा। जिसने भी कहा 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो' उसने बड़ी करुणा और सूझ-बूझ वाली बात कही है। याद रखिए धर्म नहीं शिक्षा।

यदि हम शिक्षा के साथ आगे बढ़ें तो संभव है अगले कुछ दशकों में भारत की जनता हमें समझने लगे। वह सही ग़लत जानती है अगर उसे पता चले कहा क्या जा रहा है।

शशिभूषण

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