सोमवार, 26 दिसंबर 2016

जहां का खाप वहीं से दंगल

आप उसी समाज से 'खाप' सामने लाये. बहस पैदा की. आपका सरोकार सिध्द हुआ. लोगों ने आपको सराहा. आप और गहराई में गए दूसरे तरह की हत्याएं भी सामने लाए. लोगों ने आपकी नीयत को सलाम किया. आपको मान मिला. राज्य ने भी आपका थोड़ा बहुत साथ दिया. अमानुषिकता पर बंदिशें लगीं.

अब उसी समाज से एक कलाकार 'दंगल' लेकर आया है. लोकप्रिय फ़िल्म. एक बहुत पुराने लुप्त हो रहे भारतीय खेल के लिए संवेदना लेकर आया है. गांव का अखाड़ा, कस्बे के दर्शक, बेटियों की कुश्ती, छोरियों का मंगल. लोग दीवाने हो रहे हैं. सब तरह की समीक्षाओं का औसत 4 स्टार बैठता है. ख़ूब है. कोई पसंद करे तो उसका सर नहीं मांगते.

फ़िल्म में पहलवान की बेटी इंटरनेशनल जीतती है, वह राष्ट्रगान पर खड़ा होता है तो पूरा हॉल खड़ा हो जाता है. कोई बुजुर्ग कहता है फ़िल्म देखी तो मन से नहीं उतरी. दो बजे रात तक सोचते रहे. घर में सबसे कहता है सब देख आओ फ़िल्म. साल की सबसे अच्छी फ़िल्म है. पांच साल की बच्ची पूरी फ़िल्म में हिलती नहीं और बताती है बहुत अच्छी है. सुल्तान से भी अच्छी. मुझे गीता की मां सबसे अच्छी लगी. मैंने सीखा अगर इंसान ने पहले कोई अच्छी बात सीख ली तो उसे बाद में छोड़ना नहीं चाहिए.

दंगल के कलाकार कोई तुक्का मारनेवाले भी नहीं है. बाप बननेवाला 'सत्यमेव जयते' जैसा दस्तावेज़ी काम दे चुका है. आलोचकों के बीच मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहलाता है. मां बनी अभिनेत्री टीवी की दुनिया की पुरखिन है. उसे शायद ही कोई न जानता हो. चारों लड़कियों ने अपने कलाकार होने का पक्का सबूत दिया है. कहानी सच्ची है. डायरेक्टर ने चांस भी नहीं मांगा. नैरेशन में कहानी कही है.

अब समस्या कहाँ है? जिसका जो काम था उसने किया. पब्लिक भी अपनी पसंद का इज़हार कर रही है. करने दीजिये. थोपा जाना बुरा हो सकता है. लेकिन राष्ट्रगान ही है. उस पर खड़े होने को दिल पर मत लीजिये. भारत के लाखों बच्चे रोज़ राष्ट्रगान का हिस्सा बनते हैं. वे सब कट्टर नहीं बनते.

याद कीजिए आप कहा करते थे वे रवींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रगान को किसी जॉर्ज की अभ्यर्थना मानते हैं, राष्ट्रगान को विकृत करना चाहते हैं. अपने यहाँ नहीं गाते. उन्होंने इसे इतना दिल पर लिया कि वे जहाँ आपकी पुलिस है उस राज्य में ही महज न खड़े होने को लेकर लोगों को गिरफ़्तार करवा रहे हैं. वे धीरे धीरे आपकी जेब में भी तिरंगा रखने को विवश कर सकते हैं यही हाल रहा तो. तब आपने नहीं सोचा था अब भी नहीं सोच रहे वह दिन आ सकता है. यही हाल रहा तो.

आपने दंगल देख ली होगी. कुश्ती के कोच और पहलवान का फ़र्क समझ लिया होगा. किसी को बदल देने से पहले सोचिये उसकी खूबी और ताक़त क्या है? यदि आप हारते ही जा रहे हैं, हारते ही जा रहे हैं तो कोच के डिफेन्स अटैक, डिफेन्स अटैक का काशन मानने की बजाय शिक्षा, अपनी खूबी और सामनेवाले की कमज़ोरी पर फोकस कर लीजिए. क्या पता गोल्ड मेडल आपका ही इंतज़ार कर रहा हो.

पब्लिक ही है. आपका भी साथ दे सकती है. देती रही है. भारत में कोई बाहरी नहीं है. हम भी कहीं बाहर के नहीं हैं. कहीं जानेवाले भी नहीं हैं. क्यों जाएँ? हम भी भाषा को चाहते हैं.

कला और कलाकार अपनी रक्षा खुद करते हैं. दंगल ने गौरक्षकों का, भारत माता छाप भक्तों का अच्छा काम लगाया है. उछल कूद करने लायक छोड़ा ही नहीं. राज्य को भी समझाया है. उदाहरण रखा है राष्ट्रगान गाने में बुराई नहीं. बशर्ते अवसर हो और वह दिल से गाया जाये. इस सन्देश पर ग़ौर किया जा सकता है.

शुक्रिया आमिर ख़ान! थैंक्यू दंगल!!

शशिभूषण

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