शनिवार, 10 दिसंबर 2016

बाबुषा कोहली



ओशो जिसके बारे में हरिशंकर परसाई ने लिखा 'टॉर्च बेचनेवाले' कांतिकुमार जैन ने लिखा 'रजनीश भगवान बनने से पहले' जिसके बारे में राजेंद्र यादव ने कहा 'वह बीसवीं शताब्दी का भारत का सबसे बड़ा तार्किक था'।

मेरी राय में बुनियादी बातों को सरलता से समझ सकने, बेहतर रहने, दूसरों को आज़ादी देंने के लिए एक बेमिशाल शिक्षक की तरह हैं ओशो।

मंटो और ओशो को जिसने न पढ़ा हो पढ़कर मुरीद न हुआ हो ऐसा शख्स खोजना मुश्किल है। ओशो को ज़रूर पढ़ना और छुपाकर पढ़ना हमारे देश में पढ़ने का एक और शगल है।

इसे गन्दा शगल कहने से पढ़ने पर ऊँगली उठ सकती है। इसलिए न कहा जाये तो ठीक। ओशो से जोड़कर एक शिक्षिका और युवा कवयित्री को औसत, ईर्ष्यालु और बुरा कहने का एक समर्थित छद्म के गर्भ से निकला गन्दा उद्यम हाल ही में देखा। मन बहुत खिन्न हुआ।

कवयित्री का नाम बाबुषा कोहली है। बाबुषा की कविताएं प्रकाशित, स्वीकृत, प्रशंसित और प्रचलित हैं। मैंने थोड़ी देर से पढ़ीं। पढ़कर लगा इस तरह की कविताएं भी हिंदी में लिखी जानी चाहिए थीं।

समकालीन युवा कविता के सर्वश्रेष्ठ हस्ताक्षर चाहे जितनी हाड़तोड़ लिखाई कर लें, मित्रों की तारीफ़ के झोले भर लें। वे दूसरों के भी कवि होने का अधिकार और सम्मान नहीं छीन सकते।

इंदौर मुंबई करना एक बात है। सर्वश्रेष्ठ होना असंभव बात है। इस तरह के किसी भी उद्यम से निकलना ज़रूरी बात है।

शशिभूषण

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