शनिवार, 10 दिसंबर 2016

भोपाल में पहले शिक्षक यानी डॉक्टर साहब



जब किसी शहर में होता हूँ वहां के कवि लेखक याद आते हैं। भोपाल में रहूँ तो स्वयं प्रकाश जी की राजेश जोशी जी की ज्ञान चतुर्वेदी जी की और मंजूर एहतेशाम साहब की याद आती है।

लेकिन मुझे मालूम है मैं गीत चतुर्वेदी को भी बारहा याद करने के बावजूद मिलने नहीं जा पाऊंगा। अभी एक लेख भी पढ़ा गीत का तो लगा ऐसी कितनी लिखत है गीत के पास हम जैसों के प्रेम के लिए।

लेकिन नहीं किसी शहर में होकर मिलने चले जाना मुझे नहीं आता। इतने संकोच घेरते हैं कि क्या कहूँ।


मैं दिल्ली में कितने लोगों से बिना मिले दर्जनों बार चला गया। राजेंद्र यादव से मिलना चाहता था। रवींद्र कालिया से मिलना चाहता था। एक बार कुणाल सिंह से मिलने की इच्छा हुई तो जेएनयू जाकर फोन किया। कुणाल बोले ज्ञानपीठ आ जाओ। मैं न जा पाया।

मुम्बई गया तो विमल चंद्र, बोधिसत्व से मिलने का मन हुआ। फोन लगाया और निकल भी पड़ा। लेकिन जाम में फंस गया। मन की मन में रह गयी।

लेकिन मैं कल भोपाल में मिलने गया एक शख्स से। चन्द्रिका प्रसाद चंद्र। मेरे पहले शिक्षक।

6 बजे शाम ट्रेन जब भोपाल लगी तो पहले से तय किया था होटल वगैरह बाद में देखेंगे। पहले मिलेंगे। टैक्सी की और नियत चौराहे पर पहुंचा। बिलकुल ठीक समय पर डॉक्टर साहब आये। एक चाय की गुमटी के सामने बैठकी लगी और खूब बातें हुईं। दुनिया भर की।

मैंने डॉक्टर साहब से एक उपन्यास लिखने का वादा लिया। जितना जल्दी हो सके। उन्होंने हमेशा की तरह मुझसे कहा बेटा अब तुम्हारी चीजें भी आनी चाहिए। समय बीतता जा रहा।

चलते समय डॉक्टर साहब जिस तरह गले मिले उससे मन भर आया। उनके मिलने में इतने कम समय के लिये पराये शहर में मिलने का छोह था।

मैं खुश था। उदास था। जाने क्या क्या था। होटल लौट आया था। वे आज रीवा पहुंचे होंगे। मुझे अभी कुछ देर पहले फोन भी लगाया था। मैं नहीं सुन पाया। मैंने मोबाईल देखा तो इसमें हमारा कोई फ़ोटो नहीं है। मैं खींचना भूल गया था।

अब सब बातों की याद! धन्यवाद भोपाल!!!

शशिभूषण

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