पत्रिका 'सामायिक सरस्वती' में प्रकाशित कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी और कहानीकार भालचंद्र जोशी का विवाद प्रकाशित हुआ था। इस पर इधर उधर बतकही हुई, लेख लिखे गए। फेसबुक, ब्लॉग्स पर बातें हुईं। मेरे पढ़ने में दो महत्वपूर्ण लेखकों की टिप्पणियां आईं। अनंत विजय और अशोक वाजपेयी जी की।
लेखक भी हमारे समाज से ही आते हैं। हानि लाभ दोस्ती दुश्मनी से भी संचालित होते ही हैं। सबके लिए हर कोई दुखी नहीं होता। अशोक वाजपेयी जी की साहित्य वत्सलता जग जाहिर है। उनके कामों में साहित्य और कला को एक मुकाम तक भी पहुँचाने की असरदार कोशिश है। उनके चुनाव और असहमति अपनी जगह हैं। शरद जोशी की याद भी लोग करते ही हैं। लोगों को मालूम ही है प्रेमचंद के जनाजे में किसी मास्टर के मर जाने का ही मामूलीपन था।
साहित्य की दुनिया में भी सब लेखकों का भला हर कोई नहीं सोचता। सबके अपने अपने प्रिय हैं। इस प्रसंग को याद दिलाने के लिए , किंचित ही सही प्रसारित करने के लिए यदि मैं भी प्रभु जोशी की ओर झुका हुआ दीखता हूँ तो ठीक है। मैं जानता ही प्रभु जोशी को हूँ। भालचंद्र जी को केवल पढ़ा है। कभी मिला नहीं।
खैर , इस प्रसंग में ख्यात व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी की टिप्पणी भी उनकी फेसबुक वॉल पर आई। मैंने पढ़ी टिप्पणी। ज्ञान जी के लेखन में आमतौर पर हँसमुख, मार्मिक, तटस्थ, बारीक़ और वेध्य वक्तव्य होते हैं। उन्होंने व्यंग्य को पूरेपन में आत्म सात किया हुआ है। वे हंसकर कहते हैं। तिलमिलाता सामनेवाला है। उन्हें गंभीर मुंहवाला लिखते या किसी विवाद में पड़ते मैंने नहीं देखा। अब जब उन्होंने मेरे अनुभव में पहली बार किंचित क्रोध में कोई बयान दिया है तो उसे शेयर किए बिना नहीं रहा गया।
यह टिप्पणी उन्हें ज़रूर पढ़नी चाहिए जिन्होंने अशोक वाजपेयी या अनंत विजय जी को पढ़ा है। भालचंद्र जी और प्रभु जोशी एक दूसरे से मुखातिब हो सकते हैं। दोनों सक्षम भी हैं। लेकिन यह मसला अब उपर्युक्त तीनों लेखकों की उपस्थिति के साथ साहित्य का गौरतलब मसला बनता हैं। प्रस्तुत है फेसबुक वॉल से ज्ञान जी की टिप्पणी -ब्लॉगर
मैं लंबे समय से बाहर था। फिर और भी लंबे वकफ़े से सोशल मीडिया से दूर रह कर, अपने नए उपन्यास ‘पागलखाना’ पर काम कर रहा हूँ। तभी प्रभु जोशी को लेकर, भालचंद्र जोशी जी की लिखी वह अभद्र, अनर्गल और जूठे आरोपों से भरी, टिप्पणी देख नहीं पाया था। प्रभु ऐसी बातें मुझे बताते ही नहीं। किसी और मित्र ने बताया तो मैंने प्रभु से कहकर वह टिप्पणी मंगाई और पढ़ी। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि भालचन्द्र जोशी, उस प्रभु के बारे में ऐसा लिख सकते हैं, जिसने उनकी कहानियाँ ठीक करते, री-राइट करते, उम्र गुज़ारी है। प्रभु जोशी, उनके उस्ताद जैसे रहे हैं, और इमोशनली उन्हें एकदम छोटा भाई मानते रहे हैं। मैंने सब देखा-सुना है। फिर भी। ...कमाल है। दुनिया को यह क्या हो चला है।
प्रभु जोशी पर, भालचंद्र जोशी द्वारा जिस अभद्र तेवर में वह लिखी गई है ,मैं पढ़ कर अवाक रह गया। कोई व्यक्ति, किसी से विरोध दर्ज़ करते हुए , अपनी भाषा में, इस हद तक गिर कर, कैसे इतना सारा झूठ लिख सकता है....? सचमुच ही, मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा हूँ, अब तक।
भालचंद्र जी ने नाहक ही मेरे बेटे की ‘गुंडागर्दी’ की निहायत व्यक्तिगत संदर्भ तक बीच में ला दिया, तो स्पष्टीकरण में भी बोलना ज़रूरी था। और सत्य का साथ देना भी मेरा नैतिक फर्ज़ बनता है। तभी यह टिप्पणी लिख रहा हूँ।
हाँ, मेरा बेटे का कॉलेज में रैगिंग लेने वाले लड़कों मे नाम था तो वह पकड़ा गया था। जिसे भालचंद्र ‘गुंडागर्दी’ का नाम दे रहे हैं। तब प्रभु जोशी ने, मेरे साथ भागदौड़ करके जो सहायता की थी, वह मैं भूला नहीं हूँ। प्रभु मेरा पैंतालीस वर्षों का दोस्त है। वह दोस्तियाँ, यारियाँ और भावनात्मक संबंध निभाते हुए, किसी के लिए कुछ भी कर सकता है। और करता ही रहा है। दूसरों की कहानियां लिखना, उसके ऐसे ही कामों मेँ से एक काम है।
मेरे उपन्यासों का नाम लेकर भालचन्द्र जी ने, मेरे मन में यदि प्रभु के बारे में कोई गलतफहमी पैदा करने की चेष्टा की है तो वे निश्चय ही, स्वयं के इस प्रयास से निराश होंगे। मैं खुद को उतना ही जानता हूं, जितना प्रभु को। ‘नरकयात्रा’ और ‘बारामासी’ तो मैंने डायरी में, एक बार ही लिख कर भाई श्रीकांत आप्टे को देकर, अपनी डायरी से ही सीधे टाइप करा डाले थे। काश कि मैंने ही उनको दोबारा-तिबारा लिखा होता। प्रभु तो खैर बीच में, छपने के बाद ही आए। वैसे, प्रभु से मैंने कहानी लिखने की कला को, जितना सीखा है और आजतक सीखता जाता हूं, उसने मुझे व्यंग्य-कथाएं बुनने और उपन्यास रचने का कौशल सिखाया है-- यह स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म नहीं । यदि ‘नरकयात्रा’ में ऐसा कुछ होता तो उसे भी स्वीकार करने में, मुझे कोई हिचक न होती। मैं इतना नीच, एहसानफरामोश और कृतघ्न नहीं हूँ ।
दरअस्ल, प्रभु जोशी एक ‘जीनियस’ है। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि यहाँ लोग प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। वे प्रतिभाशाली के ‘जीनियस’ का, अपने लिए इस्तेमाल करने को तो लालायित रहते हैं, परन्तु काम निकलते ही, वे उसके विरुद्ध हो जाते हैं। ‘प्रभु जोशी प्राइमरी स्कूल की प्रतिभा वाला चित्रकार है’। यह बात कहने के लिए बड़ा दुस्साहस, मूढ़ता और ढीठ किस्म का आत्मविश्वास चाहिए, और साथ में बहुत गहरी हीन-भावना भी। प्रभु को ‘बूढ़ा’,‘सनकी’ और ‘चुका हुआ कहानीकार’ बताने के लिए आदमी में, बेहद नीच किस्म की महत्वाकांक्षा और ईर्ष्या चाहिए, जबकि उसने प्रभु जोशी से अपनी कहानियों को रि-राईट भी करवाया है। प्रभु जोशी का जीनियस, अपने समय की पत्रकारिता, कथा-कहानी, आलोचना, मीडिया, टीवी, रेडियो, मंच की दुनिया में एक ऐसी घटना रही है, जो दशकों में घटती है। प्रभु की कहानी-कला पर कोई टिप्पणी करने से पहले, हमें अपने बौनेपन से निकलना होगा, वरना इसी कद के साथ, जब हम ऐसा कुछ अनर्गल कहते हैं तो हाँ, प्रभु का तो कुछ नहीं बिगड़ता, पर हम ही ‘एक्सपोज’ हो जाते हैं। चांद पर थूँकने की कोशिश करने से पहले, अपने चेहरे की जरूर सोचना चाहिए, जिस पर लौटकर वह सब गिरेगा।
प्रभु जोशी ने, कितनों के लिए क्या क्या, कब कब लिखा है-- हम इस पर बात नही करें तो बेहतर है। मैंने दसों बार उनको ऐसा करते देखा है और समझाया, डाँटा भी है। इस पर फिर कभी। क्योंकि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी । भाई भालचंद्र जी के तो वे पत्र भी प्रभु के पास पड़े हैं, जिन्हें मैंने भी पढ़ा है, जहाँ वे उनसे अपनी कहानी को पूरा करने की बात कर रहे हैं। अंग्रेजी भाषा में तथा उर्दू शायरी में तो उस्तादों द्वारा अपनी रचना को दुरुस्त करवाने की परंपरा है। यदि भालचंद्र की कहानियों को प्रभु ने ठीक किया या कि ‘रि-राइट’ किया या उस्ताद ने आपके लिए कोई चीज़ लिख ही दी, तो कृतज्ञता ज्ञापन का ये तौर-तरीका तो कतई नहीं होना था, जो उनकी टिप्पणी से जाहिर हो रहा है।
ऐसी भाषा में प्रभु जोशी पर, भालचंद्र जोशी की यह टिप्पणी बेहद निंदनीय है। यह बात कोई भी पढ़ा-लिखा और समझदार भी कहेगा। जो सच है, वह तो हमेशा सामने रहा ही है। काश कि, भालचंद्र जोशी, अपनी वह टिप्पणी भी प्रभु जोशी के पास भेज कर, पहले दुरुस्त करा लेते तो भाषा में थोड़ा संयम, बड़प्पन तथा ‘ग्रेस’ आ जाता। मुझे उम्मीद है और आग्रह भी है कि प्रभु जोशी, इसका यथोचित उत्तर, ज़रूर दें।
ज्ञान चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें