‘सत्यमेव जयते’ का
चौथा एपिसोड देखकर जोगिंदर पाल की एक कहानी याद आयी 'घात'। और
इस एपिसोड के बारे में अविनाश दास की प्रतिक्रिया “सत्यमेव
जयते देखते हुए आज आंसू नहीं, आंखों
में खून उतर आया है..” पढ़कर
इरफान खान और कोंकणा सेन शर्मा अभिनीत फिल्म (फिल्मों के नाम भूल जाने की मुझमें
अजीब कमजोरी है) आँखों के सामने घूम गयी। इसमें इरफान अपनी बच्ची जिसके दिल में
छेद है का पैसे की कमी के कारण ऑपरेशन नहीं करवा पाता और उसकी जान चली जाती है। वह
सबक देने के लिए कि कितनी तकलीफ़ होती है बेटी को खो देने की उसी अस्पताल के डॉक्टर
की बच्ची का अपहरण करता है।
जोगिंदर पाल की कहानी घात दो भाइयों की कहानी है।
इसमें दो भाई जगत और भगत रात को कार लेकर निकलते
हैं। रोज़। रास्ते में जो भी फुटपाथिया या
लावारिस मिल जाता है उसे बेहोश करके अपनी कार में डाल लेते हैं। बेहोश देह अस्पताल पहुँचाते हैं। वहाँ उनका अनुबंध है। उन्हें एक देह की
तयशुदा रकम मिलती है। बेहोश ब्यक्ति के होश
में आने से पहले ही अस्पताल प्रबंधन द्वारा उसके अंगों को अलग अलग सप्लाई कर दिया जाता है। एक रात जगत और भगत
खूब चक्कर काटते हैं मगर उन्हें कोई नसेड़ी या नींद में गाफिल देह नहीं मिलती।
उन्हें बड़ी बेचैनी होती है। वे एक दूसरे पर गुस्सा होते हैं। इस हद तक बातें होती हैं कि आज बॉडी मिलना
ज़रूरी है। वरना डाक्टर जान ले लेगा। धंधा चौपट समझो। चाहे हममें से किसी एक को बेहोश
होना पड़े पर यह होना है। दोनो भाई एक दूसरे से डर जाते हैं। मगर वे नशे में हैं उन्हें चिंता
है कि होश खोते ही दूसरा कुछ भी कर सकता है। अंत में छोटा भाई बड़े भाई के सामने गिड़गिड़ाता है
कि तुम मुझे मत मारना। मैं तुम्हारा छोटा भाई हूँ। बड़े को हँसी आती है और
छोटे को होश खोते देख उसकी आँखों में शैतान उतरने लगता है। यह कहानी
कथादेश के उर्दू कहानी विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। ज़ाहिर है यह वहाँ अनूदित
थी तो कम से कम 12-15 साल पुरानी होनी
चाहिए।
'सत्यमेव जयते' के चौथे एपिसोड में जो भी दिखाया
गया वह घोर था। मगर सच तो और भयानक है। मेजर की पत्नी के साथ हुई घटना ने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया कि नागरिक को भी गोली
मारने का हक मिलना चाहिए। बाद में खयाल आया कि आलोक धन्वा की कविता 'गोली
दागो पोस्टर' बहुत पहले कह चुकी है ऐसा। मैं साहित्य का मरीज़ हूँ। इसलिए
हर बात किसी न किसी रचना से मिलाने लगता हूँ। मेरा सवाल है कि कोई रचना
ऐसा हस्तक्षेप क्यों नहीं कर पाती जबकी उसमें कई गुना ताक़त और सदिच्छा होती
है। लोग एक लाइन की खबर सुनते हैं और बौखलाये घूमते हैं वहीं उनकी नाक
के नीचे कोई कहानी कोई फिल्म या गीत अपनी सुध लिये जाने का इंतज़ार करते रहते
हैं।
सचमुच आमिर खान का काम बड़ा है। मैं शो देखते देखते उनके प्रति
बड़ी श्रद्धा से भर जाता हूँ। उनके आलोचक भी एक एककर अपने मुँह के झाग पोंछ रहे
हैं। मेरे मन में यह भी सवाल उठता है जब बालीवुड का एक अभिनेता देश की आँखें खोलने
वाल शो कर रहा है तब हम कैसे साहित्य काल में जी रहे हैं कि हमारे बहुत सम्मानित
बुजुर्ग लेखक-संपादक-आलोचक-प्रकाशक रचनाकारों को सम्मानों की उतरन बाँट रहे हैं।
सच कहा आपने. आमिर खान वास्तव में बहुत अच्छा कार्यक्रम लेकर आये हैं और कितने दिनों बाद हम भी रविवार सुबह टीवी पर आनेवाले इस कार्यक्रम का इंतज़ार करके पुराने सुनहरे दिनों की याद (आदत) ताज़ा कर रहे हैं. कार्यक्रम को बुना भी खूब गया है, न कुछ कम न कुछ ज्यादा. सत्यमेव जयते के ख़त्म होने पर चैनल बदल कर कुछ और देखने का मन ही नहीं होता, बल्कि पूरा दिन बल्कि यूँ पूरा हफ्ता उसी कार्यक्रम के विभिन्न किरदारों में अटका रह जाता है.
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