दूरदर्शन और स्टार प्लस में एक साथ
प्रसारित होने वाले रियलिटी शो 'सत्यमेव जयते' के कन्या भ्रूण
हत्या पर केंद्रित पहले एपिसोड के संबंध में प्रसिद्ध पत्रकार और इंडिया टुडे के संपादक
दिलीप मंडल जी लिखते हैं
"भ्रूण हत्या और कन्या शिशु हत्या,
गंभीर
रूप में, शहरी-इलीट-हिंदू-सवर्ण समस्या है।...कोई मुझे समझाये कि बेटियों की
हत्या को आदिवासी और मुसलमान अपनी समस्या क्यों मान लें, जबकि वे अपनी
बेटियों की हत्या नहीं करते। जनगणना के आंकड़े लगातार साबित कर रहे हैं कि उनका
जेंडर रेशियो ठीकठाक है।...दलितों और किसान तथा कारीगर-कामगार जातियों में और
अल्पसंख्यकों में सती प्रथा कभी नहीं थी?"
इस तरह के विचार पढ़कर मुझे अक्सर
तक़लीफ़ होती है कि दिलीप मंडल जैसे प्रतिभाशाली पत्रकार और शिक्षक एकतरफ़ा और आँख
मूँद लेने वाले क्यों हो जाते हैं? यदि यह उनकी नीति है तो क्या कहें (मेरा
विवेक कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता है) लेकिन यदि यह दिलीप जी की अति आक्रामकता है
तो उन्हें इस
पर ध्यान देना चाहिए। विश्लेषण में विवेक की जगह ग़ुस्से का सहारा लेना सच लगने
वाले ग़लत छोर पर पहुँचाता है।
दिलीप जी की ही माने तो सवाल है कि आज
भी शिक्षा से लेकर मीडिया तक सवर्ण ही ज्यादा हैं। इतिहासकार-पत्रकार भी ज्यादा
सवर्ण ही थे तो वे दलितों की समस्याओं पर फोकस क्यों करेंगे? कोई
सच्चाई से कैसे जान सकता है कि दलितों में कौन सी समस्याएँ मुख्य नहीं हैं। अगर
कहीं दलित स्त्री सती हो रही है तो वह मीडिया में कैसे आयेगी? और
दलित स्त्री सती होने का अवसर कैसे पा सकेगी जबकि यह एक खर्चीली हत्या है। जिन
दलितों को चूल्हे में जलाने के लिए लकड़ी नसीब नहीं वे सती होने के लिए घी, ढोल और
मंत्रोच्चार की व्यवस्था कैसे कर पायेंगे? फिर दलित विधवा तो सवर्णों की बड़ी बँधुआ होगी वे उसे सती करने की
बुराई में क्यों ले जाना चाहेंगे?
कल को कोई कहे कि दलितों की शादी में आतिशबाजी, डीजे
आदि की फिजूलखर्ची नहीं होती तो क्या यह दलितों की कमखर्च भावना है? दलित
औरत के साथ बलात्कार होगा तो किन घरों में चूल्हे नहीं जलेंगे? कितने
पत्रकारों की लेखनी खून के आँसू रोयेगी? अगर कोई सचमुच पत्रकार होगा तो वह
लिखेगा लेकिन पत्रकारिता भी तो आज धंधा है।
मैं जब भी दलितों की बस्ती में गया तो
वहाँ उनके झोंपड़ों में मैंने उनके परिजनों के फोटो नहीं देखे। यद्यपि वहाँ सवर्ण
समाज में प्रचलित देवी- देवताओं के चित्र थे। जब दूर से मैंने उनकी शादियाँ देखीं
तो उनकी वीडियो रिकार्डिंग नहीं हो रही थी। अधिकांश दलित मुर्दा मांस खाते हैं
उसका जायका किसी भी टीवी पत्रिका में कौन स्वाद विशेषज्ञ बताता है? अगर
भारतवर्ष के किसी दूरस्थ गाँव में किसी दलित लड़की का गर्भ उसके उदर को मींज
मींजकर गिराया जा रहा हो और उसी समय कोई सवर्ण लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग रही
हो तो कौन सी खबर छपेगी और किसे बड़ी माना जायेगा? मेरे खयाल से इन दोनों से बड़ा समाचार होगा किसी
औरत के शरीर में देवी या भूत-प्रेत का प्रवेश। दरअसल जिसे
दिलीप मंडल दलितों की समस्या न होना कह रहे हैं वह वास्तव में समस्या की तरह
प्रकाश में न आना है। यह उसी तरह की कमज़ोरी है जैसे कभी अंग्रेज़ सरकार स्थानीय
अखबार न पढ़ने की वजह से एक बहुत बड़े हिंदुस्तानी जन उभार को भाँप नहीं पायी थी।
मुझे दिलीप जी के अध्ययन और नीयत पर कभी
शक नहीं रहा लेकिन वे अपने गुस्से को विश्लेषण में हावी हो जाने देते हैं यह साफ़
है। मैं मानता हूँ वो सब बुराइयाँ दलितों में है जो सवर्णों में हैं। सही यह है कि
बुराई बहती ही इधर से उधर है। ऊर्जा का यह नियम सब जगह लागू होता है कि वह अधिक से
कम की ओर बहती है। बुराई पानी की तरह ऊपर से नीचे जाती है। वह वहाँ सड़ती भी है और
मिट्टी को भी दलदल बनाती है। मैं दिलीप मंडल जी को कोई सलाह दूँ ऐसी योग्यता
मुझमें नहीं है लेकिन वे पत्रकार है और मैं मास्टर हूँ तो उन्हें सुझाव दे देने
में हर्ज़ नहीं कि वे यह ज़रूर करें कि बाकायदा आंकड़ों के साथ उजागर करें कितनी
सामाजिक समस्याएँ दलितों में सवर्णों से गयीं और अब वहाँ सवर्णों से विकराल हो
चुकी हैं क्योंकि वहाँ शिक्षा भी नहीं है, जीविका भी नहीं है, किसी कि़स्म की दवा
भी वहाँ तक नहीं पहुँचती।
मुझे लगता है कि मूल बात है समस्या को
समस्या की तरह देखना। सच लगने वाले उपलबब्ध तथ्यों के आधार पर किसी बड़े सामाजिक
बदलाव का रास्ता नहीं निकलता। इससे जो जनमत तैयार भी होता है उसके पास समस्या के
स्थायी समाधान नहीं होते। राजनीति न सही कम से कम बौद्धिकी तो इससे मुँह न फेरे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें