कुछ
भी लिखने से पहले साफ़ कर दूँ कि कुणाल सिंह और गौरव सोलंकी (दोनों ही समर्थ
कहानीकार) मेरे निकट मित्र नहीं हैं। गौरव
सोलंकी मुझे बाकायदा अपना मित्र ना मानने लायक समझते हुए फेसबुक में अनफ्रेंड कर
चुके हैं और कुणाल सिंह का कहना है कि किसी असावधानी में उनसे मेरा नाम डिलीट हो
गया था।
मैंने
पिछले कुछ दिनों में लंबी यात्राएँ करते हुए टुकड़ों में फेसबुक पर बटरोही, मोहन
श्रोत्रिय, अविनाश दास, रवीश कुमार, विनीत कुमार, हिमांशु वाजपेयी, अमरेंद्र नाथ
त्रिपाठी, रंगनाथ सिंह, चंदन पाण्डेय, प्रभात रंजन, सत्यानंद निरुपम, गिरिराज
किराडु आदि के स्टेटस अपडेट्स, कमेंट्स और जानकी पुल, जनपक्ष, और जनादेश आदि
ब्लॉग-वेबसाइटों से पूरे मसले को समझने की कोशिश की है। इसी कोशिश में गुवाहाटी और
इलाहाबाद के बीच तहलका के दो अंक खरीदे जिसमें एक फिल्म विशेषांक है। अनारकली
डिस्को चली। इसके संपादन में गौरव सोलंकी की भूमिका है। हालांकि इस अंक में अजय
ब्रह्मात्मज का योगदान ही मुख्य है। दूसरा वही अंक जिसमें गौरव सोलंकी का
बहुचर्चित क्षुब्ध पत्र है (इसे बाकायदा विद्रोही और प्रकाशन जगत की निरंकुशताओं
के विरुद्ध आंदोलनकारी युवा स्वर माना जा रहा है)
मैं
यहाँ विचारार्थ कुणाल सिंह और गौरव सोलंकी के अपेक्षाकृत कम पसंद या टिप्पणी पाये
दो फेसबुक अपडेट्स नीचे दे रहा हूँ
“तीन
दिनों से बुखार में हूँ, इसलिए बाहर नहीं निकल पाया। मनोज रूपड़ा और चंदन पाण्डेय से
ख़बर मिली कि मेरे बारे में तहलका में गौरव ने कुछ लिखा है। जब स्थिति में
होउँगा पढ़ूँगा। फिलहाल अपनी तरफ़ से यही
कहूँगा कि गौरव मेरा प्रिय कहानीकार रहा है और जब भी हो सका है कई बार अपने संपादक
से लड़कर उसे छापा है मैंने। यहाँ तक कि अन्यत्र पत्रिकाओं में स्वीकृत हो चुकी
कहानियों को भी साधिकार वहाँ रुकवा के अपने यहाँ प्रकाशित की है। मैंने नहीं पढ़ा
है उसने मेरे खिलाफ़ क्या लिखा है। बट अगर ऐसा है तो ये दुखद है।“
– कुणाल सिंह
“बहुत शुक्रिया प्रभात (प्रभात
रंजन) कहते रहने के लिए। ख़ासकर ऐसे बीमार समय
में, जब कितने ही लेखक साथी बुखार में पड़े
हैं।“-
गौरव सोलंकी
ये दोनों स्टेटस ग़ौर से पढ़िए। कुणाल सिंह सही
लिख रहे हैं। अगर आप उन्हें शातिर मान ही चुके हों तो भी केवल इस पर संदेह कर सकते
हैं कि उन्होंने सचमुच गौरव का पत्र नहीं पढ़ा होगा। गौरव सोलंकी इसी तरह की क्रूर टिप्पणी पिछले
दिनों कहानीकार जयश्री राय की वाल पर भी कर चुके हैं जब उन्होंने कथादेश में
प्रकाशित अपनी एक कहानी पर विवाद के बाद अपने स्टेटस में लिखा था कि मैं कैंसर से
जूझ रही हूँ। गौरव सोलंकी का स्वर था कि ऐसा बताकर आप सहानुभूति अर्जित करने की
कोशिश कर रही हैं। यह एक संवेदनशील कहानीकार और मित्रता के योग्य रचनाकार की किसी
की बीमारी के संबंध में तब की गयी टिप्पणी है जब वह संबंधित व्यक्ति से निकटता
नहीं महसूस करता। यदि आप माफ़ करें तो कहूँ कि यह एक हिंसक प्रवृत्ति है। केवल वही
एटीट्यूड नहीं होता जो बतौर संपादक सौ साल के सिनेमा पर आधारित विशेषांक को अनार
कली डिस्को चली का शीर्षक देता है, साहित्य के सामंत जैसी चर्चाकामी परियोजना को
अंजाम देता है या किसी कहानी में ब्लू फिल्म का तर्क गढ़ता है जिसे नमो अंधकारं के
कहानीकार दूधनाथ सिंह भी नहीं पचा पाते और अपने साक्षात्कार में ज्ञानपीठ की टीम
द्वारा लगाये गये आरोप से कड़वी बात कहते हैं।
गौरव सोलंकी के पत्र से उपजे मुद्दों तथा
अभियान को समझने के लिए थोड़ा अतीत में झाँकना उचित होगा। जिन दिनों रवींद्र
कालिया जी वागर्थ से नया ज्ञानोदय में संपादक बनकर आये थे उन दिनों आलोचक प्रभाकर
श्रोत्रिय संपादक और कहानीकार अभिषेक कश्यप नया ज्ञानोदय में सहायक संपादक हुआ
करते थे। कुणाल सिंह को कालिया जी मानते हैं यह जगजाहिर है लेकिन उन्होंने बड़ी
कुशलता से कुणाल की योग्यता को आधार बनाते हुए ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित कीं कि
अभिषेक कश्यप वहाँ टिक न सके। यह बकौल गौरव सोलंकी राजा-राजकुमार मसला नहीं है।
बल्कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का वह दौर है जिसमें विभिन्न संस्थानों में
संपादक बुजुर्ग होते हैं ताकि उनकी हैसियत का लाभ मिल सके और काम युवा सहायक
संपादक करते हैं क्योंकि उनके सामने रोज़ी-रोटी का संकट भी है और उन्हें आगे भी
बढ़ना है।
जवाब और दुख में अभिषेक कश्यप ने हमारा भारत के
संपादकीय में रवींद्र कालिया की भर्त्सना में खूब लिखा था। अगर गौरव सोलंकी उसे
कहीँ से खोज पायें तो उनका विद्रोही पक्ष और मज़बूत हो सकेगा। हालांकि पहले उन्हें
यह पता कर लेना होगा कि रवींद्र कालिया से मिली पीड़ा में शैलेश मटियानी का लिखा
हुआ अभिषेक कश्यप के कितना काम आया था। मेरी व्यक्तिगत राय है कि अभिषेक के साथ
ग़लत हुआ था और वे मेरे मित्र हैं इस कारण मुझे तक़लीफ़ भी बहुत हुई थी। उनकी
बेरोज़गारी और आर्थिक अनिश्चतता का जब मुझे खयाल आता था तो मुझे कुणाल सिंह पर
ग़ुस्सा आता था। मैं अभिषेक कश्यप के लिए आश्वस्त भी कम नहीं था क्योंकि
राजेंन्द्र यादव उनपर स्नेह रखते थे। इस प्रसंग का मुझ पर इतना असर रहा कि मैं कई
अच्छी कहानियाँ पढ़ने के बावजूद कुणाल को तब तक पसंद नहीं कर पाया जब तक उनसे
मिलने और उन्हें जानने का मौक़ा नहीं मिला। फिर धीरे धीरे जब मुझे सहायक संपादकों
के इस्तेमाल होने की असलियत पता चलने लगीं मुझमें किसी के प्रति नाराज़गी का
माद्दा ही नहीं रहा। मैं सिर्फ़ इस दुआ में गया कि काश हिंदी के प्रतिभाशाली
युवाओं को ठीक ठाक नौकरियाँ मिल पातीं। यही वजह थी कि जब मुझे कुणाल सिंह द्वारा
अपनी पीएचडी छोड़ देने की जानकारी मिली तो मुझे बहुत बुरा लगा। यदि मैं गौरव
सोलंकी जितना उनके निकट होता तो इसके लिए उन्हें बहुत रोकता। कुणाल सिंह ने अपने
लेखक की निर्भरता में अपने रोज़गार के अवसरों को सीमित कर लिया है। आज जैसी
परिस्थितियाँ हैं तो बहुत संभव है गौरव सोलंकी को यह स्टेटस लिखने का मौका भी मिल
जाये कि कुछ साथी बीमार और बेरोज़गार घूम रहे हैं। दरअसल जिस इंजीनियरिंग की पढ़ाई
से मिलने वाली किसी कंपनी की नौकरी छोड़कर कोई लेखन को अपना रास्ता चुनता है और
कमर्सियल लेखन के राजपथ पर दौड़ता है उसकी संवेदना में ऐसी तुच्छ चिंताओं का न
होना कोई नयी बात नहीं।
गौरव सोलंकी जब कुणाल सिंह से मिले होंगे तो
उन्हें वागर्थ से चलकर आयी कुणाल की वर्तमान स्थिति के बारे में अपनी जिज्ञासा के
संबंध में अवश्य कुछ कहना था। उन्हें यह भी सोचना ही था कि कोई कहानीकार जो जेएनयू
जैसे विश्वविद्यालय में शोधार्थी है उसका नाम पत्रिका से बतौर सहायक संपादक हटा
दिया गया है वह तब भी अगर सहायक नहीं तक़रीबन अल्प वेतन का पूरा संपादक ही है।
फिल्मों पर लिखने से लेकर पत्रिका के लिए उपन्यास का अनुवाद कर रहा है, यहाँ वहाँ
से नये लिखने वालों को ढूँढ़ रहा है, लेखकों के मज़ाकिया परिचय देने का विरोध झेल
रहा है तो उसकी दक्षता या सामर्थ्य क्या है? इसके पहले वह कलकत्ता में अपने
मध्यवर्गीय विद्यार्थी जीवन में क्या क्या कर चुका है जिसके अभ्यास में ये
ज़िम्मेदारियाँ भी कुछ नहीं।
लेकिन माफ़ कीजिए अगर गौरव सोलंकी ने इन बातों
पर ध्यान नहीं दिया तो यही कहा जायेगा कि उन्हें कुणाल की इसी स्थिति से फ़ायदा
उठाना था।
और हुआ भी वही। वे चंदन-कुणाल के रास्ते कालिया
जी तक पहुँचे। नया ज्ञानोदय के विशेषांकों में जगह बनायी। ज्ञानपीठ के युवा लेखक
कहलाये। यह इतनी सीधी बात है कि इसकी गवाही भाषासेतु और नयी बात जैसे ब्लॉग भी दे
देंगे। गौरव अगर इसे न मानें तो समझिए कल को कोई यह भी न मानेगा कि उसके निर्माण
में किसी का कोई योगदान है। कोई यह भी कहना ठुकरा देगा कि हिंदी का आज का समाज बुरी
तरह संबंधाश्रित हो चला है। नियुक्तियाँ और पुरस्कार उसके हैं ही नहीं जिसका कोई
माई-बाप नहीं।
मैं ज्ञानपीठ द्वारा अपने को अपमानित महसूस
करने के गौरव सोलंकी के लेखकीय अधिकार का सम्मान करता हूँ। ज्ञानपीठ ने यदि उन्हें
आश्वासन दिया था तो किताब भी छापनी थी। वहाँ बैठे जिन लोगों ने भी निर्णय लिया था
उन्हें अपने और पीठ के फैसले की मर्यादा रखनी थी। गौरव सोलंकी का निर्णय भले
आंदोलनकारी न हो एक व्यक्ति का शाम को घर लौट आना तो है ही। लेकिन है यह व्यक्तिगत
निर्णय ही। गौरव सोलंकी के तर्कों पर ग़ौर करेंगे तो यह बिल्कुल साफ़ हो जायेगा।
1-
गौरव सोलंकी का कहना है कि जिस ज्ञानपीठ ने नया ज्ञानोदय से छिनाल
शब्द हटाना उचित नहीं समझा वह कहानी ग्यारहवी ए के लड़के को पत्रिका में छापने के
बाद पुस्तक में छापते समय अश्लील कैसे कह सकता है। गौरव सोलंकी का यह तर्क सबसे
ज्यादा प्रभात रंजन और गिरिराज किराडु जैसे प्रतिभाशाली रचनाकारों को समझना चाहिए।
उन्हें याद होगा कि छिनाल विवाद पर एक असहमति पत्र भाषासेतु ब्लॉग पर भी प्रकाशित
हुआ था। जिसमें वीएन राय और नया ज्ञानोदय का विनम्र बचाव था। इसमें 133 हस्ताक्षर
थे और 40 से अधिक टिप्पणियाँ। उन हस्ताक्षरों में गौरव सोलंकी, विमल चंद्र पाण्डेय
और श्रीकांत दुबे के भी हस्ताक्षर थे।
2-
गौरव सोलंकी को ज्ञानपीठ का युवा पुरस्कार मिलेगा इसकी खबर मुझ तक भी
पहुँची थी। और गौरव सोलंकी को याद होगा कि भाषासेतु पर एक बेनामी कमेंट भी था कि
चूमते जाना और रोते जाना एक महान कविता है। गौरव को अब युवा लेखक सम्मान लेने से
कोई रोक नहीं सकता। बाद में वह टिप्पणी हटा दी गयी। भाषासेतु आज जिस रूप में है वह
मैत्री संबंधी टूट-फूट की कहानी आप कहता है।
3-
ऐसा प्रतीत होता है कि मंटो गौरव सोलंकी को बहुत प्रिय है। कभी मंटो
ने कहा होगा कि मैं दर्ज़ी नहीं हूँ। जो देखता हूँ लिखता हूँ। अधिकांश व्याकुल
भारत लेखकों के तर्कों की अधजल गगरी से यह छलकता रहता है कि वे वही लिखते हैं जो
समाज में है। इससे समाज और मंटो दोनो के बारे में इस सतही समझ का बड़ा प्रसार हुआ
है कि मंटो गंदे विषय उठाता था क्योंकि समाज ही गंदा है। यह दरअसल समाज की फिल्मी
समझ है कि हम वही दिखाते हैं जो लोग देखते हैं।
ये तीन तर्क हांडी के कुछ चावल हैं।
आपने तहलका में छपा गौरव सोलंकी का पूरा पत्र पढ़ा ही होगा। मैं उसे असफल
साहित्यिक महात्वाकांक्षा की सैद्धांतिक मुनादी मानता हूँ। साथ ही इस बात के लिए
गहरा दुख व्यक्त करता हूँ कि हमारे युवा लेखक आपस में मित्र रहते हुए भी एक दूसरे
का भरोसा खो रहे हैं।
-शशिभूषण
हमनें ये एक टिप्पणी गौरव के "India Against Corruption in Literature" Facebook community पर भेजी थी पर उन्होंने अप्रूव नहीं की। नीचे दिया लिंक उस टिप्पणी की PDF कॉपी है।
जवाब देंहटाएंpatra
आशा है प्रबुद्ध जन इसे पढ़्कर राय बनाएंगे।
शशी भूषण जी ...सत्य को कितना सहज और सरल कहा है आपने ......मगर सुर्ख़ियों और शुहरत की अथाह चाह रखने वाले इस सदी में तो नहीं सुधरेंगे .....इस पूरे प्रकरण को जहाँ तक मैंने समझा है ...गौरव सोलंकी जैसे लोगों का एक कु-साहित्यिक गैंग है ..ये लोग एक-दूसरे की पीठ खुजाते रहते है ......साहित्य की परिभाषा इनके लिए सिर्फ़ सनसनी है ...मेरा एक दोहा है :---
जवाब देंहटाएंअदब नहीं है सनसनी ,ना है ये अखबार !
सदियों की तहज़ीब है, इसका बड़ा मयार !!
जब गोरव सोलंकी को नवलेखन पुरस्कार की घोषणा की गई थी तब ज्ञानपीठ के लोग बहुत अच्छे थे ...और जब घटिया रचना छापने के लिए मना कर दिया तो बुरे हो गये !गोरव सोलंकी जैसे तथाकथित रचनाकार साहित्य की रिदा पे बेशर्मी का बदनुमा दाग़ है !
शशी जी इन लोगों की मुखालफ़त होनी चाहिए ! गौरव सोलंकी जैसे किरदार के लोग मानसिक रूप से बीमार है और इनका इलाज़ बहुत ज़रूरी है ..
अफ़सानों में गन्दगी ,ज़हन हुए बीमार !
ऐसे लोगों का हमे ,करना है उपचार !!
शशि जी अदब के हर मुहाफ़िज़ का फ़र्ज़ है कि साहित्य को दीमक की तरह चाट कर नष्ट करने वाले इन फोटो-स्टेट अदीबों की पुरज़ोर खिलाफत करे ....और इश्वर इन जानबूझ कर राह भटके लोगों को सद बुद्धि दे........आमीन
विजेंद्र शर्मा