रविवार, 27 मार्च 2011

कहानियाँ गुमसुम,कविताएँ उदास


प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव,प्रगतिशील वसुधा के प्रधान संपादक और प्रसिद्ध आलोचक,संगठक स्वर्गीय कमला प्रसाद जी के प्रति ओम द्विवेदी का यह श्रद्धांजली स्मरण नयी दुनिया में 26 मार्च को प्रकाशित हुआ।यहाँ इसे हम उनके ब्लॉग मीठी मिर्ची से साभार ले रहे हैं ।


२५ मार्च को सुबह-सुबह युवा कवि और कहानीकार शशिभूषण का मोबाइल पर संदेश आया कि-'' हम सबके कमला प्रसादजी सुबह ६ बजे नहीं रहे।'' कुछ देर बाद यही संदेश युवा कवि हनुमंत के मोबाइल से आया। दोपहर में योगेन्द्र ने कमलाजी के बारे में पूछा। कुछ सूझ नहीं रहा था कि किसी को क्या उत्तर दूँ और उनके बारे में क्या बात करूँ । एकलव्य की ही तरह तकरीबन १८ वर्ष तक मैं उनका शिष्य रहा। तथाकथित अर्जुनों और युधिष्ठिरों ने नहीं चाहा, वरना मैं भी अंतिम समय में उनसे मिल सकता था। जब तक उनकी बीमारी के बारे में पता चलता तब तक वे कोमा में एम्स पहुँच चुके थे। खैर! उनके आशीर्वाद ने मुझे हमेशा प्रेरित किया है। करता रहेगा।


कविताओं की आँखों से आंसुओं का सोता फूट पड़ा हैं, कहानियाँ गुमसुम-सी हैं, उपन्यास उदास। शब्द थके-हारे से, जैसे किसी ने उनसे अर्थ निचोड़ लिया हो।...जैसे उनका रहनुमा चला गया हो। 'वसुधा' बेहाल है। कवियों और लेखकों की जमात स्तब्ध और हैरान। हरिशंकर परसाई का 'कमांडर', उन्हीं के पास पहुँच गया है। आलोचना का एक अध्याय ख़त्म हो गया है। ज़िंदगी के बेहद मज़बूत क़िले में मौत की काली बिल्ली कूद पड़ी है। व्यवस्था के कैंसर का इलाज करते-करते एक सुखेन वैद्य काया के कैंसर से हार गया है। कमला प्रसाद नाम के फ़ौलाद को मृत्यु ने तोड़ दिया है। अब किसी भी साहित्यिक आयोजन में उनकी ऊर्जावान उपस्थिति देखने को नहीं मिलेगी। अब नए लेखकों को कविताएँ और कहानियाँ लिखने का हुनर कौन बताएगा। रचना शिविर के लिए क़स्बों-क़स्बों और शहरों-शहरों कौन दौड़ा-दौड़ा जाएगा। अब दोस्त किसे इज्ज़त देंगे, दुश्मन किसे गालियाँ देंगे। अब कौन तपाक से फोन उठाएगा और पूछेगा कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो। कौन बार-बार समझाएगा कि अच्छा लेखक होने के लिए अच्छा इंसान होना ज़रूरी है। कौन कहेगा कि पार्टनर अपनी प्रतिबद्घता तय करो। प्रगतिशील लेखक संघ को संजीवनी देने के लिए कौन अपना रात-दिन एक करेगा। कमांडर! अभी तो तुम्हारे सिपाहियों ने युद्घ का ककहरा भी नहीं सीखा था और तुम मोर्चा छोड़कर चल दिए।


मेरे जैसे बहुतेरे लोगों ने उन्हें जब भी देखा चलते देखा, उनके बारे में जब भी सुना चलते सुना। कभी किसी आयोजन के लिए तो कभी किसी संघर्ष के लिए। न उनकी चाल में दिखावट और थकावट दिखी न उनके हाल में। विश्वविद्यालय और कला परिषद जैसी महत्वपूर्ण जगहों पर सरकारी फ़ाइलों के बीच रहे, लेकिन उनका व्यक्तित्व फ़ाइलों का ग़ुलाम नहीं हुआ, उनमें नत्थी नहीं हुआ। उनके पास से जो फ़ाइलें आईं वे रचनात्मकता की कोख बन गईं और उन्होंने किसी जनपक्षधर आयोजन को जन्म दिया। नब्बे के दशक में वे रीवा विश्वविद्यालय में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब वे केशव शोध अनुसंधान केंद्र को ओरछा जाने से रोकने के लिए एक-एक रुपए का चंदा कर रहे थे और अदालत की लड़ाई लड़ रहे थे। कालांतर में वे उस लड़ाई में आधा ही सही सफल हुए। उनकी उपस्थिति से रीवा विवि हिंदी प्रेमियों की चौपाल बन गया। हर हफ्ते किसी नामचीन साहित्यकार से मिलने और उन्हें सुनने का मौका मिलने लगा। रशियन विभाग में भीष्म साहनी का व्याख्यान चल रहा है तो हिंदी विभाग में काशीनाथ सिंह छात्रों से रूबरू हो रहे हैं। नागार्जुन और त्रिलोचन अपनी कविताई पर बोल रहे हैं, राजेन्द्र यादव कहानियों पर तो नामवर सिंह हिंदी आलोचना पर अपनी बात कह रहे हैं। खगेन्द्र ठाकुर, सत्यप्रकाश मिश्र, अजय तिवारी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रभाष जोशी जब चाहे तब चले आ रहे हैं। कभी राजेश जोशी, कुमार अंबुज और हरिओम राजोरिया कविताएँ सुना रहे हैं तो कभी देवास से नईम गीत सुनाने चले आ रहे हैं। कभी बद्रीनारायण की कविता का नया स्वाद मिल रहा है तो कभी सुदीप बनर्जी, चंद्रकांत देवताले और लीलाधर मंडलोई जैसे वरिष्ठ कवि युवाओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं। शिवमंगल सिंह सुमन को भी मैंने पहली बार विवि के शंभूनाथ सभागार में ही सुना।


उसी दौर में रीवा जैसी छोटी जगह में हबीब तनवीर ने नाटकों पर ४५ दिन की वर्कशाप की और 'देख रहे हैं नयन' जैसे बड़े नाटक को स्थानीय कलाकारों के साथ किया। अलखनंदन, आलोक चटर्जी ने भी वर्कशाप की। राष्ट्रीय नाट्‌य विद्यालय का शिविर लगा। भारतीय जन नाट्‌य संघ (इप्टा) के माध्यम से एक रंग आंदोलन रीवा में खड़ा हो गया। कमलाजी कभी खड़े होकर नुक्कड़ नाटक के लिए ताली बजाते मिल जाते तो कभी रिहर्सल देखते हुए। कवियों और कहानीकारों की तरह कई रंगकर्मी भी उस छोटी जगह से निकले। इसमें एक बड़ा योगदान कमलाजी का था। भोपाल के भारत भवन की तर्ज़ पर वे रीवा में एक सांस्कृतिक केंद्र विकसित करना चाहते थे। अर्जुनसिंह के मानव संसाधन विकास मंत्री रहते उन्होंने इस स्वप्न को तक़रीबन साकार कर लिया था, लेकिन बाद में राजनीतिक संकल्प शक्ति के अभाव में वह स्वप्न स्वप्न ही रह गया। विवि में रहते हुए ही उन्होंने 'विन्ध्य भारती' के संग्रहणीय अंकों का संपादन किया। उन्हीं के रहते 'वसुधा' रीवा से प्रकाशित होना शुरू हुई और बाद में उनके भोपाल आने के बाद भोपाल आ गई। कला परिषद भोपाल में उप सचिव रहते हुए 'कलावार्ता' को एक नई ऊह्णचाई उन्होंने दी और लोकोत्सवों की एक परंपरा शुरू की। यह उनकी राजनीतिक प्रतिबद्घता ही थी कि प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद उन्होंने उप सचिव की कुर्सी तत्काल छोड़ दी।


प्रगतिशील लेखक संघ को खड़ा करने और उसे लगातार सक्रिय बनाए रखने में कमलाजी के योगदान को उनके घोर निंदक भी नकार नहीं सकते। उनकी सांगठनिक क्षमता की मान्यता मैंने प्रलेस और इप्टा के कई राष्ट्रीय अधिवेशनों में देखी है। हालाँकि उनके ऊपर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे सेवकों का ही भला करते हैं, लेकिन मैंने उनको जितना देखा और समझा है तो वे सभी का भला करते ही दिखे हैं। जो चालाक चेले थे उन्होंने केवल उनका दोहन किया और उनके संबधों का अपने कॅरियर के लिए इस्तेमाल किया। कमाल यह था कि संगठन के लिए कमलाजी बिना किसी तर्क-वितर्क के अपना दोहन करवाते रहते थे। नए रचनाकारों को उन्होंने जितना अधिक रेखांकित किया और सतत मंच दिया, शायद ही किसी और ने किया हो। अपने अंतिम दिनों तक वे हम जैसे बिलकुल अनगढ़ रचनाकारों से लिखने के लिए कहते रहते थे। अर्जुनसिंह से उनकी मित्रता जग जाहिर थी, वे अपने समय के कद्दावर नेता थे, उस समय भी कमलाजी जब उनसे बात करते थे तो उतना ही झुकते थे, जितने में विनम्रता दिखे, चापलूसी नहीं।


व्यक्तिगत रूप से वे अपने मित्रों और दोस्त शिष्यों को कितना ख़्याल रखते थे, इसके लिए मेरे पास बेहद निजी उदाहरण हैं। १९९६ में जब मेरे पिताजी की मृत्यु हुई और मैं गाँव में था। उस समय तक गाँव में दूरभाष और मोबाइल की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। कमलाजी को पिताजी की मृत्यु के बारे में पता चला तो उन्होंने बहुत ही सांत्वनाभरा पोस्टकार्ड लिखा। यह भी लिखा कि टूटना मत मैं अभी ज़िंदा हूँ। तब से वे मुझे हमेशा पिता की तरह ही लगे। पिता की तरह ही उनसे प्रेम भी करता था और नाराज भी था।


नामवर सिंह की तरह वे बड़े आलोचक भले न रहे हों, लेकिन वक्ता उनकी टक्कर के थे। समझ उनसे उन्नीस नहीं थी। संगठन खड़ा करने और लोगों को जोड़ने में तो वे इक्कीस नहीं पचास थे। मुझे लगता है कि वे स्वर्गलोक जाकर यमराज को भी समझा रहे होंगे कि तू गरीबों को बहुत मारता है और अमीर भ्रष्टों को बख्श देता है। जरा समानता का व्यवहार कर। तू भी अच्छा इंसान बन। कमलाजी वहाँ पहुँचते ही परसाई और मुक्तिबोध से मिल आए होंगे। नागार्जुन, सुदीप बेनर्जी, हबीब तनवीर, भीष्म साहनी और नईम आदि के साथ कविता, कहानी और रंगमंच के नए अंदाज़ पर बात करने लग गए होंगे। हो न हो जाते ही वहाँ कोई रचना शिविर लगा बैठे हों। नर्क को स्वर्ग बनाने का कोई आंदोलन छेड़ दिया हो। वे वहाँ कुछ भी कर रहे हों, भी कर रहे हों, यहाँ तो सूनापन छोड़ गए हैं। विनम्र श्रद्घांजलि!

-ओम द्विवेदी

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