शनिवार, 24 दिसंबर 2016

नाम में क्या रखा है?

एक बार की बात है। मध्य प्रदेश के रीवा में संस्कृत के परम विद्वान माने जानेवाले भास्कराचार्य पधारा करते थे।

चूँकि वे रीवा विश्वविद्यालय अनेक कारणों से आते रहते थे, उनके भाषण, जिसे विद्वानों के बीच व्याख्यान कहा जाता है; होते रहते थे तो एक दिन वे चर्चित कवि और हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक दिनेश कुशवाह के घर आए।

उन दिनों यदि कोई दिनेश जी के घर आये तो उनसे मेरी भेंट ज़रूर होती थी। क्योंकि दिनेश जी के यहाँ दिन में मेरी उपस्थिति उनके बेटे-बेटी से थोड़ी अधिक और दिनेश जी से थोड़ी कम ही रहती थी।

दिनेश कुशवाह मेरे शिक्षक थे। उनसे मेंरे रिश्ते में दूसरे इंसानी रिश्तों का भी आत्मीय मेल था। ऐसा बिलकुल नहीं था जैसा उच्च शिक्षा में होता है कि बहुत सोच समझकर रिश्ते, श्रद्धा निर्मित होते हैं। सबकुछ लगभग स्वाभाविक था जिसमें शायद अपेक्षा ही थी जो सबसे कम रही होगी। मैं बीएससी मैथ्स कंप्लीट करके हिंदी विभाग आया था और प्रोफेसर हो सकने से थोड़ा थोड़ा उदासीन हो रहा था। अपेक्षा दोनों तरफ़ ही लगभग नहीं थी।

उस दिन भास्कराचार्य , परम विद्वान संस्कृत जब दिनेश जी के पीछे पीछे घर के अंदर आये तो सफ़ारी सूट में थे और देखने से ऐसा लगता था कि भांग का विधिवत सेवन करके आये हैं।

मैं समुचित अभिवादन के बाद फर्श पर बिछी दरी पर ही अपने काम में पूर्ववत लग गया। भास्काराचार्य जी ने कुछ भी नहीं ग्रहण करने का आदेश दिनेश जी को दे दिया था। वे सोफे पर बैठ गए थे कुछ इस अंदाज़ में कि अब और किया ही क्या जाये फिर।

भास्काराचार्य जी की नज़र सहसा मेरे बगल में बैठे उत्कल पर पड़ी। उन्होंने पूछा- दिनेश जी ये बालक आपका पुत्र है? दिनेश जी ने कहा- हां बेटा है एक बेटी भी है।

ममता(अंशुला कुशवाह) तब अंदर के कमरे में थी। भस्काराचार्य जी ने कहा -क्या नाम है बेटे का? उत्कल, दिनेश जी ने बताया। उत्कल? उत्कल का मतलब क्या? दिनेश जी ने बताया- उत्कल, उड़ीसा को कहते हैं और इसका एक अर्थ बेचैन होता है। ये जब पैदा हुए कुछ-कुछ बेचैन से रहते थे।

भास्काराचार्य जी उखड़ गए- नाम सही नहीं है। अर्थ भी ठीक नहीं। दिनेश जी, नाम अच्छा नहीं है। आप विद्वान हैं पुत्र का नाम सोच-विचार कर रखना चाहिए। आप अभी भी नाम परिवर्तन पर विचार कर सकते हैं।

मैं चकित था। उत्कल के नाम पर संकट था। उत्कल के चेहरे से भी स्पष्ट था कि वे इस वार्तालाप को कुछ-कुछ समझ रहे हैं। उत्कल पिताजी की ओर कुछ आश्चर्य और कुछ कातरता से देख रहे थे। मैंने मन ही मन कहा चिंता मत करो। पिताश्री, घर नशेड़ी ले आये हैं।

भास्काराचार्य बीच में रुक जानेवाले संस्कृत के विद्वान नहीं थे। लग रहा था नामकरण संस्कार की किसी समिति के संचालक हैं। उन्होंने एक किस्सा सुनाया-

एक विद्वान थे। जिनका नाम गलत था। एक बार विद्वत सभा में उनके नाम का बड़ा उपहास हो गया। सब हंसने लगे। उस विद्वान ने अंत में अपनी प्रतिभा से अपने नाम को सही साबित कर दिया। सभा सन्न रह गयी और कुछ विद्वान् रुआंसे भी हो गए।

अंत में सभा प्रमुख ने शास्त्रार्थ का निष्कर्ष सुनाया- विद्वान ने नाम को सही साबित किया। इससे उनकी विद्वत्ता जो कि प्रणम्य है; का पता चलता है। लेकिन उनका नाम गलत है, लोक विरुद्ध है इससे विद्वान के पिता यानी उनके कुल की शिक्षा का पता चलता है।

इस कथा श्रवण के बाद हम सबके चेहरे उतर गए। मुझे लगा दिनेश जी अब कहेंगे आचार्य जी आपको देर हो रही है चलिये आपको छोड़ देते हैं मगर उन्होंने कुछ नहीं कहा। आखिर मैंने हस्तक्षेप किया

सर, आपका नाम क्या है? भास्काराचार्य जी ने इस तरह देखा मानो कह रहे हों दिनेश अपने विद्यार्थियों को मेरा नाम नहीं बताया? 
ये कौन हैं? उनका जवाब आया
मेरे एम ए के विद्यार्थी हैं। शशिभूषण नाम है दिनेश जी ने बताया।
मैंने सवाल दोहराया -सर, आपका नाम?
भस्काराचार्य
सर, आपका यह नाम बचपन से है?
उन्होंने कहा -हाँ, मेरे भाइयो के भी ऐसे ही नाम हैं। दिवाकराचार्य, प्रभाकराचार्य।
सर, आप बचपन से आचार्य हैं?
क्या मतलब आपका?
मेरा अभिप्राय यह है कि बच्चा तो बच्चा होता है। वह आचार्य होगा या मूर्ख यह तो जनम से तय नहीं हो सकता। आपके पिताजी ने बचपन में ही आपका नाम भास्काराचार्य रख दिया! क्या यह ठीक हुआ?

इस बार दिनेश जी बोले- 
पिता जी ने आपका नाम रख दिया भास्काराचार्य बाद में सिद्ध करने का काम आचार्य जी ने स्वयं किया। जैसा कथा में हुआ।

भास्काराचार्य, परम विद्वान् संस्कृत तेजहीन हो गए। मुखमंडल लाल। उन्होंने मुझे अतिथि अपमान का मौन श्राप दिया। खड़े हो गए-दिनेश जी मुझे विलम्ब हो रहा। यदि आप छोड़ने नहीं चल रहे तो हम अकेले चले जायेंगे। दिनेश जी ने तत्काल अपने सौजन्य और समृद्ध औपचारिकता का परिचय दिया-चलते हैं सर, आइये। बच्चों से कहा आचार्य जी को प्रणाम करिए।

इसके बाद मेरी भास्काराचार्य जी से कोई बात न हुई। जब कभी सामने पड़े तो नमस्ते के जवाब में उनका अपरिचय ही प्रकट हुआ। इसे कहते हैं उनकी रौशनी मुझ पर पड़ती तो थी लेकिन वापस नहीं लौटती थी। प्रकाशिकी के नियमानुसार ऐसी स्थिति में प्रतिबिम्ब नहीं बनता।

बाद में मैं धीरे-धीरे दिनेश जी के चेले की तरह याद किया जाकर अवमूल्यन का शिकार भी होने लगा था। लेकिन मज़े की बात यह है कि मुझे इससे फ़र्क नहीं पड़ा। अब तो और भी नहीं पड़ता।

शशिभूषण

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